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सुरमा

सुरमा

फ़हमीदा की जब शादी हुई तो उस की उम्र उन्नीस बरस से ज़्यादा नहीं थी। उस का जहेज़ तैय्यार था। इस लिए उस के वालदैन को कोई दिक़्क़त महसूस न हुई। पच्चीस के क़रीब जोड़े थे और ज़ेवरात भी, लेकिन फ़हमीदा ने अपनी माँ से कहा कि वो सुर्मा जो खासतौर पर उन के यहां आता है, चांदी की सुर्मे-दानी में डाल कर उसे ज़रूर दें। साथ ही चांदी का सुर्मचो भी।

फ़हमीदा की ये ख़ाहिश फ़ौरन पूरी होगई। आज़म अली की दुकान से सुर्मा मंगवाया। बरकत की दुकान से सुर्मे-दानी और सुर्मचो लिया और इस के जहेज़ में रख दिया।

फ़हमीदा को सुर्मा बहुत पसंद था। वो उस को मालूम नहीं, क्यों इतना पसंद था। शायद इस लिए कि उस का रंग बहुत ज़्यादा गोरा था। वो चाहती थी कि थोड़ी सी स्याही भी उस में शामिल हो जाये। होश सँभालते ही उस ने सुर्मे का इस्तिमाल शुरू कर दिया था।

उस की माँ उस से अक्सर कहती। “फ़हमी ये तुम्हें क्या ख़बत होगया है जब न तब आँखों में सुर्मा लगाती रहती हो ”

फ़हमीदा मुस्कुराती। “अम्मी जान इस से नज़र कमज़ोर नहीं होती आप ने ऐनक कब लगवाई थी?”

“बारह बरस की उम्र में ”

फ़हमीदा हंसी। “अगर आप ने सुर्मे का इस्तिमाल क्या होता, तो आप को कभी ऐनक की ज़रूरत महसूस न होती अस्ल में हम लोग कुछ ज़्यादा ही रोशन ख़याल होगए हैं लेकिन रोशनी के बदले हमें अंधेरा ही अंधेरा मिलता है।”

उस की माँ कहती। “जाने क्या बक रही हो।”

“मैं जो कुछ बक रही हूँ सही है आजकल लड़कियां नक़ली भवें लगाती हैं काली पैंसिल से ख़ुदा मालूम अपने चेहरे पर क्या कुछ करती हैं लेकिन नतीजा क्या निकलता है चुड़ैल बन जाती हैं।”

उस की माँ की समझ में कुछ भी न आया। “जाने क्या कह रही हो। मेरी समझ में तो ख़ाक भी नहीं आया।”

फ़हमीदा कहती। “अम्मी जान! आप को इतना समझना चाहिए कि दुनिया में सिर्फ़ ख़ाक ही ख़ाक नहीं कुछ और भी है।”

उस की माँ उस से पूछती। “और क्या है?”

फ़हमीदा जवाब देती। “बहुत कुछ है ख़ाक में भी सोने के ज़र्रे हो सकते हैं।”

ख़ैर फ़हमीदा की शादी होगई पहली मुलाक़ात मियां बीवी की बड़ी दिलचस्प थी। जब फ़हमीदा का ख़ाविंद उस से हम-कलाम हुआ, तो उस ने देखा कि उस की आँखों में सियाहियाँ तैर रही हैं।

उस के ख़ाविंद ने पूछा। “ये तुम इतना सुर्मा क्यों लगाती हो?”

फ़हमीदा झेंप गई और जवाब में कुछ न कह सकी।

उस के ख़ावंद को ये अदा पसंद आई और वो उस से लिपट गया लेकिन फ़हमीदा की सुर्मा भरी आँखों से टप टप काले काले आँसू बहने लगे।

उस का ख़ाविंद बहुत परेशान होगया, “तुम रो क्यों रही हो?”

फ़हमीदा ख़ामोश रही।

उस के ख़ाविंद ने एक बार फिर पूछा “क्या बात है आख़िर रोने की वजह क्या है मैंने तुम्हें कोई दुख पहुंचाया?”

“जी नहीं।”

“तो फिर रोने की वजह क्या हो सकती है?”

“कोई भी नहीं।”

उस के ख़ाविंद ने उस के गाल पर हौले हौले थपकी दी और कहा “जान-ए-मन जो बात है मुझे बता दो अगर मैंने कोई ज़्यादती की है तो उस की माफ़ी चाहता हूँ देखो तुम इस घर की मल्का हो मैं तुम्हारा ग़ुलाम हूँ लेकिन मुझे ये रोना धोना अच्छा नहीं लगता मैं चाहता हूँ कि तुम सदा हंसती रहो।”

फ़हमीदा रोती रही।

उस के ख़ाविंद ने उस से एक बार फिर पूछा “आख़िर इस रोने की वजह क्या है?”

फ़हमीदा ने जवाब दिया। “कोई वजह नहीं है, आप पानी का एक गिलास दीजिए मुझे”

उस का ख़ाविंद फ़ौरन पानी का एक गिलास ले आया फ़हमीदा ने अपनी आँखों में लगा हुआ सुर्मा धोया तोलीए से अच्छी तरह साफ़ किया आँसू ख़ुद-बख़ुद ख़ुश्क होगए इस के बाद वो अपने ख़ाविंद से हम-कलाम हुई।

“मैं माज़रत चाहती हूँ कि आप को मैंने इतना परेशान क्या अब देखिए मेरी आँखों में सुर्मे की एक लकीर भी बाक़ी नहीं रही।”

उस के ख़ाविंद ने कहा “मुझे सुर्मे पर कोई एतराज़ नहीं तुम शौक़ से उस को इस्तिमाल करो मगर इतना ज़्यादा नहीं कि आँखें उबलती नज़र आएं।”

फ़हमीदा ने आँखें झुका कर कहा। “मुझे आप का हर हुक्म बजा लाना है आइन्दा में कभी सुर्मा नहीं लगाऊंगी।”

“नहीं नहीं मैं तुम्हें इस के इस्तिमाल से मना नहीं करता मैं सिर्फ़ ये कहना चाहता था कि मेरा मतलब है कि उस चीज़ को बक़दर किफ़ायत इस्तिमाल किया जाये ज़रूरत से ज़्यादा जो भी चीज़ इस्तिमाल में आएगी, अपनी क़दर खो देगी।”

फ़हमीदा ने सुर्मा लगाना छोड़ दिया लेकिन फिर भी वो अपनी चांदी की सुर्मे-दानी और चांदी के सुर्मचो को हर रोज़ निकाल कर देखती थी और सोचती थी कि ये दोनों चीज़ें उस की ज़िंदगी से क्यों ख़ारिज होगई हैं, वो क्यों उन को अपनी आँखों में जगह नहीं दे सकती।

सिर्फ़ इस लिए कि उस की शादी होगई है ?

सिर्फ़ इस लिए कि वो अब किसी की मिल्कियत होगई है?

या हो सकता है कि उस की क़ुव्वत-ए-इरादी सल्ब होगई हो।

वो कोई फ़ैसला नहीं कर सकती थी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी थी।

एक बरस के बाद उस के हाँ चांद सा बच्चा आगया।

फ़हमीदा निढाल थी लेकिन उसे अपनी कमज़ोरी का कोई एहसास नहीं था इस लिए कि वो अपने लड़के की पैदाइश पर नाज़ां थी। उसे यूं महसूस होता था जैसे उस ने कोई बहुत बड़ी तख़लीक़ की है।

चालीस दिनों के बाद इस ने सुर्मा मंगवाया और अपने नोमोलूद लड़के की आँखों में लगाया लड़के की आँखें बड़ी बड़ी थीं उन में जब सुर्मा की तहरीर हुई तो वो और भी ज़्यादा बड़ी होगईं।

इस के ख़ाविंद ने कोई एतराज़ न किया कि वो बच्चे की आँखों में सुर्मा क्यों लगाती है इस लिए कि उसे बड़ी और ख़ूबसूरत आँखें पसंद थीं।

दिन अच्छी तरह गुज़र रहे थे। फ़हमीदा के ख़ाविंद शुजाअत अली को तरक़्क़ी मिल गई थी। अब उस की तनख़्वाह डेढ़ हज़ार रुपय के क़रीब थी। एक दिन उस ने अपने लड़के, जिस का नाम उस की बीवी ने आसिम रखा था, सुर्मा लगी आँखों के साथ देखा वो उस को बहुत प्यारा लगा, इस ने बे-इख़्तियार उस को उठाया चूमा चाटा और पलंगड़ी पर डाल दिया वो हंस रहा था, और अपने नन्हे मुन्ने हाथ पांव इधर उधर मार रहा था।

उस की सालगिरा की तैय्यारियां हो रही थीं। फ़हमीदा ने एक बहुत बड़े केक का आर्डर दे दिया था मुहल्ले के सब बच्चों को दावत दी गई थी। वो चाहती थी कि इस के लड़के की पहली सालगिरा बड़ी शान से मनाई जाये।

सालगिरा यक़ीनन शान से मनाई जाती, मगर दो दिन पहले आसिम की तबीयत ना-साज़ होगई और ऐसी हुई कि उसे तशन्नुज के दौरे पड़ने लगे !

उसे हस्पताल ले गए, वहां डाक्टरों ने उस का मुआइना किया। तशख़ीस के बाद मालूम हुआ कि इसे डबल निमोनिया होगया है।

फ़हमीदा रोने लगी बल्कि सर पीटने लगी “हाय मेरे लाल को ये क्या होगया है हम ने तो उसे फूलों की तरह पाला है।”

एक डाक्टर ने उस से कहा “मैडम ये बीमारियां इंसान के अहात-ए-इख़्तियार में नहीं। वैसे बहैसीयत डाक्टर मैं आप से ये कहता हूँ कि बच्चे के जीने की कोई उम्मीद नहीं।”

फ़हमीदा ने रोना शुरू कर दिया। “मैं तो ख़ुद मर जाऊंगी ख़ुदा के लिए, डाक्टर साहब ! उसे बचा लीजिए, आप ईलाज करना जानते हैं मुझे अल्लाह के घर से उमीद है कि मेरा बच्चा ठीक हो जाएगा।”

“आप इतने ना-उम्मीद क्यों हैं?”

“मैं ना-उम्मीद नहीं। लेकिन मैं आप को झूटी तसल्ली नहीं देना चाहता।”

“झूटी तसल्लियां, आप मुझ को क्यों देंगे मुझे यक़ीन है कि मेरा बच्चा ज़िंदा रहेगा।”

“ख़ुदा करे कि ऐसा ही हो”

मगर ख़ुदा ने ऐसा न किया और वो तीन रोज़ के बाद हस्पताल में मर गया।

फ़हमीदा पर देर तक पागलपन की कैफ़ियत तारी रही उस के होश-ओ-हवास गुम थे कोइले उठाती उन्हें पीसती और अपने चेहरे पर मलना शुरू कर देती।

उस का ख़ाविंद सख़्त परेशान था। उस ने कई डाक्टरों से मश्वरा किया। दवाएं भी दीं लेकिन ख़ातिर-ख़्वाह नतीजा बरामद न हुआ। फ़हमीदा के दिल-ओ-दिमाग़ में सुर्मा ही सुर्मा था। वो हर बात कालिक के साथ सोचती थी।

उस का ख़ाविंद उस से कहता “क्या बात है तुम इतनी अफ़्सुर्दा क्यों रहती हो”

वो जवाब देती “जी, कोई ख़ास बात नहीं मुझे आप सुर्मा ला दीजिए”

उस का ख़ाविंद उस के लिए सुर्मा ले आया, मगर फ़हमीदा को पसंद न आया। चुनांचे वो ख़ुद बाज़ार गई और अपनी पसंद का सुर्मा ख़रीद कर लाई।

अपनी आँखों में लगाया और सौ गई जिस तरह वो अपने बेटे आसिम के साथ सोया करती थी।

सुबह जब इस का ख़ाविंद उठा और और इस ने अपनी बीवी को जगाने की कोशिश की तो वो मुर्दा पड़ी थी उस के पहलू में एक गुड़िया थी जिस की आँखें सुर्मे से लबरेज़ थीं।

सआदत हसन मंटो

११। सितमबर १९५४ - ई -