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टांगें

टांगें

कनिका ने कांपते हुए अपने घुटने ढके और वेटर का बेसब्री से इंतजार करने लगी. इस वक़्त वह साउथ दिल्ली के एक पॉश रेस्तरां में अपने कुछ मित्रों के साथ शाम के खाने का आनंद ले रही थी.

अक्टूबर का पहला हफ्ता और दिल्ली की जाती हुयी गर्मी, उस पर कनिका की खुली टांगें.

कनिका तीन महीने पहले ही उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली में रहने आयी है. राजस्थान के एक छोटे से, मगर सांकृतिक तौर पर बेहद समृद्ध शहर बीकानेर में पैदा हुयी कनिका ने अब तक अपना लगभग सारा जीवन राजस्थान में ही जिया है. उसका भी एक बड़ा हिस्सा बीकानेर और पास के एक गाँव भीनासर में, जहाँ उसकी ननिहाल है.

रेगिस्तान के मटमैले रंगों और राजस्थानी पोशाकों के चटकीले रंगों में रचा बसा कनिका का जीवन किसी रोमांचक कहानी से कम नहीं. माता-पिता की इकलौती संतान कनिका चार बरस की भी नहीं हुयी थी कि पिता एक सड़क हादसे में चल बसे.

माँ सुजाता शर्मा ने एक साल तो शोक में काटा लेकिन जल्दी ही समझ गयी कि इस तरह हाथ पर हाथ रख कर बैठने से काम नहीं चलेगा. सो एक सुबह उठ कर घर की देहरी लांघी और एक प्राइवेट स्कूल में टीचरी शुरू कर दी. इस नौकरी में पैसे तो बहुत कम थे लेकिन आत्म सम्मान था और बेटी को पूरे समय साथ रखने की सुविधा भी. बेटी तो माँ की छत्र-छाया में बड़ी होने लगी लेकिन खुद सुजाता को अपने सपनों में जिस तरह कांट-छांट करनी पड़ रही थी उससे वह बेहद निराश हो चली थी. इसके अलावा जवान खूबसूरत विधवा, प्राइवेट स्कूल के अधेड़ प्रबंधक की नज़रों से बच नहीं पाई.

एक दिन सुजाता का बुलावा आया प्रबंधक के घर से, रविवार के दिन. वह गयी और पाया कि प्रबंधक का परिवार छुट्टी मनाने विदेश गया हुआ था. इससे पहले कि अपने घर की विलासिता दिखाते प्रबंधक महोदय अपने मन और तन की विलासिता का भी खुलासा करते, सुजाता की छटी इन्द्रीय ने उसे इशारा किया और वह तबीयत खराब होने की बात कह कर फ़ौरन निकल ली. इतनी तेज़ी से कि उसे बाजू पकड़ कर रोकने को आया प्रबंधक का हाथ फिसल गया और अगले दिन ही सुबह सुबह सुजाता के हाथ से फिसल गयी उसकी यह कमज़ोर डाल सरीखी नौकरी भी.

सुजाता एक बार फिर जीवन के समंदर में समाज के थपेड़े खाने को तैयार हो ही रही थी कि उन्हीं दिनों राजस्थान यूनिवर्सिटी में कई पद खाली हुए. कई नए कॉलेज बने और नए विभाग खुले थे. सुजाता जैसे कई भाग्यशाली लोगों के जीवन को एक नया आयाम मिला. सुजाता को एक स्थायी और अच्छी कमाई वाली सम्मानजनक नौकरी मिली तो कनिका के जीवन में भी कई सुखद बदलाव आये.

अब तक पिता को खो चुकी कनिका को अक्सर छोटी छोटी बातों पर मन मारना पड़ता था. माँ की सोहबत कम मिलती थी. माँ अक्सर परेशान भी रहती थी. पैसे की कमी को लेकर, बच्ची को कम समय और अच्छी देख-भाल न दे पाने को लेकर. लेकिन अब अचानक सब कुछ बदल गया था.

यूनिवर्सिटी के कॉलेज में सहायक प्रवक्ता की नौकरी मिलते ही सब से पहला काम जो सुजाता ने किया था वो था लक्ष्मी बाई को भीनासर से बुला कर अपने साथ रखने का. लक्ष्मीबाई भी सुजाता की ही तरह वक़्त की मारी मगर खुद्दार औरत थी जिसे सुजाता अपने बचपन से जानती थी. गरीब परिवार की लक्ष्मी पन्द्रह साल की होते ही ब्याह दी गयी थी, जबकि सुजाता उस वक़्त गाँव के स्कूल में दसवीं की परीक्षा की तैयारी कर रही थी.

संपन्न मध्यमवर्गीय परिवार की बेटी सुजाता ने फर्स्ट क्लास में दसवीं पास की और आगे की पढ़ाई के लिए पिलानी के हॉस्टल में भेज दी गई जहाँ से कई साल वह भीनासर आती जाती रही.

फर्स्ट क्लास में ही राजनीती शास्त्र में एम्. ए. कर के सुजाता जब भीनासर लौटी तब तक अविनाश शुक्ल के साथ उसका रिश्ता तय हो चूका था. देखा जाये तो सुजाता दसवीं के बाद कभी भीनासर टिक कर रही ही नहीं. जल्दी ही उसकी शादी हो गयी और वह अविनाश के घर बीकानेर में रहने आ गयी. यही कनिका का जन्म हुआ और फिर सुजाता के सर पर वैधव्य का पहाड़ टूट पड़ा.

लक्ष्मी के जीवन में इस दौरान कई उतार चढ़ाव आये. जब जब भी सुजाता भीनासर आती किसी न किसी तरह वह लक्ष्मी से मिलने उसके घर ज़रूर जाती. उस ग़रीब कच्चे घर में जिस तरह रानी से लक्ष्मी नौकरानी बनी यह सब सुजाता ने अपनी आँखों से देखा था.

पन्द्रह साल की कच्ची उमर में सुजाता ने प्यार और सेक्स के दबे ढके किस्से शरमाते, लज्जाते और उत्सुकता के मिले जुले भावों के साथ लक्ष्मी से सुने थे. फिर कई साल के लिए वह लक्ष्मी से कट सी गयी थी. लेकिन जब एक बार भीनासर जाने पर उसने सुना कि लक्ष्मी का पति दूसरी शादी कर के उसकी सौत को घर ले आया है तो सुजाता खुद को रोक नहीं पाई. उसने लक्ष्मी को बुला भेजा था.

लक्ष्मी की हालत देख कर सुजाता दहल गयी थी. गोरे रूप रंग और भरे पूरे बदन की मालकिन लक्ष्मी को मानों कालिया सांप ने डस लिया था. देह सूख गयी थी, रंग मलिन पड़ गया था. बाल रूखे हो कर आँचल के नीचे से उड़े पड़ रहे थे. देह पर के गहने गायब थे. सिर्फ लाख की एक-एक चूड़ी दोनों हाथों में और एक काला डोरा गले में, जिसमें स्टील के फ्रेम में हनुमान की एक तस्वीर लटकी हुयी थी.

देखते ही बचपन की सखियाँ गले लग कर रोई थीं. लक्ष्मी दहाड़े मार मार कर और सुजाता सुबक सुबक कर.

एक दूसरी से दिल की बातें की थी. लक्ष्मी ने बताया था कि किस तरह एक साल होते न होते उस पर बच्चा देने का दबाव बढ़ गया था और जब दो साल तक कुछ नहीं हुआ तो उसे बाँझ करार दे कर उसकी सास ने बेटे का दूसरा ब्याह रचा दिया था. अब उसकी सौत किनारी बाई उसी के घर में ठाट से रहती थी. किनारी बाई अब लक्ष्मी के पति की पत्नी थी और उसके बच्चे की माँ होने वाली थी.

सुन कर सुजाता सन्न रह गयी थी. उसने अपनी समझ और पढ़ाई के हिसाब से कानून और तलाक की बात की तो लक्ष्मी ने उसका मुंह बंद कर दिया था.

लक्ष्मी का कहना था, “हूँ बाँझ हूँ. अबे ये तो म्हारी किस्मत में लिख्या ही है. म्हाने भुगतना ही होसी.” ( मैं चूँकि बाँझ हूँ तो यह सब तो भुगतना ही होगा).

थोड़ी देर चुप रह कर फर्श को पैर के नाखून से कुरेदती वह आगे बोली थी, “ भगवान् म्हारे पापां री सजा म्हणे ही तो देसा.” ( भगवान मेरे पापों की सज़ा मुझे ही तो देंगें)

हालाँकि उसने कौन से ऐसे पाप किये थे जिनकी सजा इतनी कड़ी हो सकती है, ये सुजाता नहीं समझ पाई थी. लक्ष्मी के अपने माँ बापू ने उसे वापिस घर में लेने से मना कर दिया था तो अब पति का घर ही उसका आखिरी ठिकाना बचा था जहाँ वह किसी तरह दिन काट रही थी, पूरे परिवार की सेवा कर के. इस परिवार में उसे सम्मान तो क्या मिलना था, गरीब घर में कई बार भूखे भी रह जाना पड़ता था. उसकी कमज़ोर देह इस बात की गवाही चीख-चीख कर दे रही थी.

बाद में जब सुजाता ने लक्ष्मी के जाने के बाद अपने वकील चाचा से उसके बारे में बात की तो उनका जवाब भी किसी तरह का हौसला नहीं दे पाया. कानून भी लक्ष्मी के पति के हक में था.

लक्ष्मी का बांझपन उसके पति को हक देता था कि वह उसे तलाक दे कर दूसरी शादी कर ले. अब तलाक उसने नहीं दिया तो इसमें भी उसकी दयानतदारी ही थी. कारण कि लक्ष्मी के पास कोई और ठौर ठिकाना था ही नहीं, सिवाय उस घर के, जहाँ वह रोज़ अपमानित तो होती थी. साथ ही हर रोज़ यह उम्मीद भी रहती थी कि वह खुद ही घर छोड़ कर चली जाये तो अच्छा.

खैर सुजाता कुछ कर तो नहीं पाई. लेकिन इसके बाद जब भी भीनासर आती लक्ष्मी के साथ जितना हो सकता वक़्त बिताती और उसे उसकी ज़रूरत की चीज़ें दिलवा देती. अपनी माँ से भी उसने लक्ष्मी की मदद करने को कहा था और वे भी कभी कभार उसको बुलवा कर प्यार से खाना खिला देतीं, कभी कोई कपड़ा दिलवा देती.

अब जब सुजाता के हालात बेहतर हुए तो उसे लगा कि वह लक्ष्मी को अपने साथ रख सकती है तो उसने फ़ौरन फ़ोन कर के भीनासर में रह रहे अपने भाई से कह कर लक्ष्मी को अपने पास बीकानेर बुलवा लिया था.

और यूँ इस तरह से लक्ष्मी बीकानेर आकर सुजाता और कनिका के परिवार का एक अटूट हिस्सा बन गयी थी. कनिका तो लक्ष्मी को देख कर ही फूल की तरह खिल उठी थी. नन्ही छेह साल की बच्ची को भीनासर की मिट्टी में लक्ष्मी की गंध मिली हुयी ही लगती थी. उसने भीनासर और लक्ष्मी को साथ-साथ ही देखा था. उसके लिए दोनों एक ही थे.

और लक्ष्मी की तो जैसे जान ही कनिका में थी. जो बच्चे वह अपनी कोख से नहीं पैदा कर पाई, जो बच्चे उसकी सौत को हुए और जिन्हें उसने प्रेम से सींचा मगर वे उसे प्रेम नहीं दे सके. वही सारा उसके भीतर रखा हुआ प्रेम उमड़ घुमड़ कर लक्ष्मी और कनिका के संबंधों की नींव में जाने कब घुल गया था. अब जो लक्ष्मी ने आ कर सुजाता का घर संभाला तो पूरा घर इसमें सराबोर हो गया.

सुजाता सुबह छह बजे उठ कर अपना लेसन तैयार करती. उधर लक्ष्मी कनिका को उठा कर स्कूल के लिए तैयार करती. दोनों माँ बेटी को नाश्ता करवाना, लंच पैक करना, कनिका को नहलाना धुलाना, तैयार करना, सुजाता के पहनने के लिए साड़ी निकाल कर रखना. ये सब काम किस मुस्तैदी से लक्ष्मी ने अपने जिम्मे ले लिए, सुजाता जान ही नहीं पाई.

लक्ष्मी कब किस तरह गम में डूबी हुए सखी से सुजाता की दक्ष गृह प्रबंधक बन गयी, ये भी कोई नहीं जान पाया. जानकारों के लिए सुजाता और लक्ष्मी कजिन थी, जिनमें से लक्ष्मी जल्दी शादी होने की वजह से पढ़ नहीं पाई. कनिका के लिए सुजाता मम्मी थी और लक्ष्मी अम्मा. माँ का रोल दोनों निभा रही थी. कनिका को पिता की कमी महसूस नहीं होने दी गयी.

लेकिन दो माओं का असर कुछ यूँ हुआ कि दोनों के अलग अलग संस्कार कनिका के बड़े होते होते उसके किरदार में सहज ही शामिल हो गए.

स्कूल से लौटती तो अम्मा घर पर होती और फ़ौरन नहाने, साफ़ कपडे पहन कर खाना खा कर सो जाने का आदेश मिलता. जिसे बच्ची को मुस्तैदी के साथ मानना ही होता. प्यार अम्मा भर भर के करती लेकिन अनुशासन के मामले में लक्ष्मी बेहद पक्की थी. खाना वही जो अम्मा बनायें. नाज़ उठाएंगी लेकिन नखरे नहीं चलेंगे.

लाड मनुहार से रोज़ सुबह स्कूल बस पर चढ़ने से पहले पूछेंगी, “ म्हारी लाडो, आज क्या खायेगी लंच में?”

कनिका जोर से हंसती. लंच कहना उसी ने सिखाया था अम्मा को. वे शरमाते हुए लंच कहती और वो कुछ 'लनच' जैसा सुनायी पड़ता.

फिर कनिका ठुडी पर अंगुली रख कर सोचती और कहती, “ आज म्हणे थे गट्टा री सब्जी खिलाओ.”

अम्मा कनिका की बगलों में हाथ फसा कर उसे उचकाती और इत्मीनान से बस में चढ़ाती, फिर देर तक खडी हुयी बस को आँखों से ओझल होते देखती रहती. जब बस बिलकुल ही नज़र नहीं आती तब हटती और कोने की दूकान से सब्जी वगैरह खरीदने बढ़ जाती. यह उसका रोज़ का नियम था. गाँव की लक्ष्मी को फ्रिज में रखी सब्जी बिलकुल पसंद नहीं थी. सुजाता के लाख समझाने के बावजूद रोज़ की सब्जी रोज़ खरीदती, ताज़ा, ज़रुरत के मुताबिक. एक भी रुपये की बर्बादी अम्मा को नामंज़ूर थी.

जब तक घर पहुँचती सुजाता कॉलेज के लिए तैयार हो रही होती. आधे घंटे में ताज़ा सब्जी रोटी बना कर लक्ष्मी सुजाता का लंच पैक कर देती. कभी कभी सुजाता को लगता कि शायद लक्ष्मी को उसने ज्यादा ही काम दे दिया है. उसने बात करनी चाही कि मदद के लिए किसी को रख ले लेकिन लक्ष्मी ने उसका मुंह बंद कर दिया.

“अब हूँ थारी तरियां पढ़ी लिखी तो हूँ कोनी. नौकरी कर कोनी सकूँ. तो घर संभालूं हूँ. म्हारो घर मैं नहीं देखूंसूं तो कुण देख्सी?”

“पण लक्ष्मी, तू सारा काम करते थक जाती होसी.”

“तू जो सारा दिन कॉलेज में छोरा छोरी नै पढ़ावा करे, तूं कोनी थाके ?"

और सुजाता खामोश रह जाती.

शाम को जब घर पहुँचती तो कनिका और लक्ष्मी को आपस में उलझा पाती. कभी खेलने को लेकर बहस हो रही होती, कभी होम वर्क को लेकर. लक्ष्मी चाहती कि कनिका होम वर्क कर के खेलने जाए तो कनिका पहले खेलना चाहती. और उसके पास तर्क होता कि उसे किसी की मदद चाहिए होम वर्क के लिए. अब चूँकि ये काम अम्मा नहीं कर सकती तो उसका खेलना जायज़ है.

ऐसे में सुजाता ने अपने रूटीन में बदलाव किया और शाम होते ही वह घर पहुँच जाती ताकि कनिका को एक घंटा दे सके. उसके बाद लक्ष्मी कनिका को बाहर जाने देती लेकिन आठ बजते न बजते कनिका को घर के अन्दर होना होता, साढ़े आठ खाना और नौ बजे सोना. इसमें कही कोई रियायत नहीं.

सुजाता ये सब देखती तो उसका मन लक्ष्मी के प्रति कृतज्ञता से भर जाता. कई बार वह कुछ कहने को होती लेकिन चुप रह जाती . जानती थी इस तरह की बातें लक्ष्मी को अपनी परिस्थितियों की याद दिला देती हैं. उसे अपने अतीत याद आता है. पति और घर याद आता है. जो वह पूरी तरह पीछे छोड़ आयी है.

कनिका की देख भाल एक बेहद मनोरंजक और सम्पन्न माहौल में हो रही थी. मम्मी से वह पढ़ना लिखना और जीने के आधुनिक तौर तरीके सीख रही थी वहीं अम्मा उसे गाँव की ठोस धरती पर बनाये रखती.

अम्मा से कनिका ने कपडे धोना सीखा, बर्तन साफ़ करना सीखा, जिद्द कर के लहंगा ओढ़नी बनवाई. करीने से सर ढक कर पहनना सीखी. यानी वे सारे काम जो कभी सुजाता ने भी नहीं सीखे थे वे सब कनिका ने सहज ही सीख लिए. और तो और अम्मा की तरह लाल मिर्च की चटख चटनी के साथ 'सी सी' करते हुए रोटी भी खानी सीखी.

कभी कभी सुजाता चुहल करती, “ ए लक्ष्मी, म्हारी छोरी ने म्हणे मेम साब बुलाणा न सिखा दीजो.”

और दोनों जोर से हंस पड़ती.

लक्ष्मी आँखों में प्यार भरा उलाहना भर के कहती, “हाँ हाँ. तू म्हारी मेम साब ही तो लागे है. आज बाद थाणे मेम साब ही बोल्सुं. ठीक है मेम साब.”

और दोनों गले लग कर हंस पडतीं. एक दिन इसी तरह हँसते हँसते रो पडी थीं तभी तय किया था कि अब रोना नहीं है. सिर्फ हँसना है और दुःख दिल में हो तो उसको कह के हल्का हो लेना है.

इसी तरह के बंदोबस्त के बीच कनिका बड़ी हो रही थी. इस बीच घर की जिम्मेदारियों से आज़ाद सुजाता ने पी.एच. डी. कर डाली. अब वह विभागीय परीक्षा पास कर के डीन फैकल्टी हो गयी थी.

तेज़ी से बड़ी हो रही कनिका को बीकानेर की गर्मी बहुत पसंद थी. कड़क गर्मी आसमान से गिरती. कपडे पसीने से तर बतर होते. दिन भर ठंडा पानी, शरबत और फलों के रस पिए जाते. शाम को घर के पास के पार्क में दोनों औरतें बच्ची के साथ घूमने जाती. कनिका को आइस क्रीम मिलती. लक्ष्मी को कुल्फी. सुजाता अक्सर कुछ भी न लेती. वह गाती अच्छा थी सो अपने गले का खयाल रखती थी.

बीकानेर की गर्मी की एक ख़ास चीज़ थी आंधियां. धूल भरी आंधियां. जब चलती हैं तो आसमान काला-पीला हो जाता है. सब जगह धूल ही धूल. आँखों में, बालों में, हाथों में, गालों पर, कपड़ों पर, सड़क पर, हवा में, घर में, बाहर, पौधों पर, पत्तों पर, पेड़ों पर, घर के अन्दर; हर चीज़ पर रेत की महीन सी एक परत.

कनिका को ये सब बहुत अपना सा लगता. ख़ास कर जब आंधी रुक जाने पर घर की सफाई होती. तब जो धूल उड़ कर उसकी नाक में जाती तो उसी गंध से कनिका को लगता जैसे वह किसी और ही दुनिया में पहुँच गयी हो. जैसे मानो उसके पिता जिनकी उसे हल्की सी ही याद थी किसी ऐसे ही दिन में इसी धूल की महक के बीच एक दिन वापिस चले आयेंगे.

वो नहीं जानती कि क्यूँ उसे आंधी में ऐसा लगता था. लेकिन बाद में बड़े होने पर पता चला कि ऐसे ही एक आंधी भरे दिन में उसके पिता की कार का एक्सीडेंट हुआ था और दो दिन बाद आई.सी. यू. में वे चल बसे थे.

गरमी पसंद होने की एक और वजह थी कपडे. कनिका को ज्यादा कपडे लादने से बहुत उलझन होती थी. गर्मी भर वह सिर्फ फ्रॉक या फिर शॉट्स पहनती. लक्ष्मी इस बारे में उसे अपनी बात मनवाने में बिलकुल नाकाम रही.

गाँव की पली बढ़ी लक्ष्मी बड़ी होती कनिका को टोकने लगी थी. उसे लगता था कि अब चूँकि कनिका बड़ी हो रही है तो उसे समय रहते स्कर्ट और फ्रॉक वगैरह पहनने बंद कर देने चाहिए ताकि लोग उसकी सुडोल टांगें न देख सकें. और इसी बात से कनिका चिढ़ जाती. उसे टांगों के सुडोल होने या ना होने से कोई मतलब नहीं था. उसे खुद को देखे जाने या न देखे जाने से भी कोई मतलब नहीं था. उसे तो बस अपनी आज़ादी से मतलब था जो टांगों के ढक जाने से खलल में पड़ जाती थी.

जितना अम्मा उसे टांगें ढकने को कहती उतना ही कनिका विद्रोह करती और पूरी गर्मी टांगें ढकने वाले कपडे नहीं पहनती, इस बहाने से कि गर्मी लगती है.

अम्मा ने मम्मी से बात की तो मम्मी ने भी अम्मा को ही समझाना चाहा. इस पर लक्ष्मी अकेली पड़ गयी तो उसने चुप्पी साध ली लेकिन अम्मा की कोशिश बदस्तूर जारी रही कि लडकी टांगें कम से कम दिखाए.

कनिका थोड़ी बड़ी हुयी तो कनिका ने महसूस किया कि अम्मा जो ब्लाउज पहनती हैं उसमें उनकी सारी पीठ और पेट दिखाई देता है. अब तो उसे मुद्दा मिल गया. जब भी अम्मा टाँगे ढकने की बात करती तो कनिका कहती, “अम्मा थारी तो सारी पेट और पीठ और थारी अंगियां भी नज़र आवे. थे म्हणे क्यूँ कहो टांगा के थाई. थे भी म्हारी तरह पेंट पहरा करो इब.” और ठहाका लगा देती. अम्मा खिसिया कर रह जाती. पर हार नहीं मानती.

लेकिन जब सर्दी आती अम्मा की पौ बारह हो जाती. जिस दिन सर्दी की पहली दस्तक होती अम्मा फौरन कनिका की चिंता में मशगूल हो जाती. दिन भर उनकी रट जारी रहती, “इब तो ठण्ड आ गयी लाडो. थाणे ठण्ड लाग जासी. अब म्हारी बात मानो और टांगा में कुछ पहन लो.”

बकौल अम्मा के ठण्ड सबसे पहले टांगों में ही लगती है और सबसे बाद तक टांगों में लगती ही रहती है. उनका ये विश्वास इतना मज़बूत था कि इसे कनिका तो छोड सुजाता भी नहीं डिगा पाई. नतीजा ये हुआ कि सर्दी की पहली दस्तक अक्टूबर में होते ही और मार्च के अंत तक कनिका की टांगें खुद कनिका को भी देखने को तरस जाती थी.

अम्मा ढकी टांगों वाली कनिका को देख कर मंद मंद मुस्काती और कनिका अपनी खुली टांगों के सपने देखती किसी तरह सर्दी के दिन काटती. इस बीच उसके जिन दोस्तों को सर्दी में स्कर्ट वगैरह पहनने की आज़ादी थी उनसे उसे जलन होती सो अलग.

एक दो बार उसने अम्मा की गैर मौजूद्गी में स्कर्ट पहनी भी तो दस मिनट के भीतर ही उसे टांगों में इतनी ठण्ड लगी कि कंपकंपी छूट गयी. हार कर स्कर्ट उतार कर पेंट और स्वेटर पहने और चैन की सांस ली.

स्कूल के पढ़ायी पूरी कर के कनिका को दिल्ली इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिल गया तो वह आगे की पढ़ाई के लिए देश की राजधानी में एक पी.जी. हॉस्टल में रह रही है. यहाँ पहनने ओढ़ने की पूरी आज़ादी है, कोई रोक टोक नहीं. लेकिन यहाँ जब भी वह खुली टांगें लेकर बाहर निकलती है तो एक बार ज़रूर अम्मा की बात याद आती है. लेकिन फिर सर को हल्का सा झटका दे कर वह अपनी राह चल देती है.

मम्मी और अम्मा दोनों रात में बहुत याद आते हैं. लेकिन जानती है पढ़ायी के बीच ये यादें सहारा दें तो ठीक, वर्ना बाधक बन गयीं तो भविष्य पर असर डालेंगी. सो मन मार कर कड़ा कर लेती है. दो दो माओं की मज़बूत बेटी है. यही कह कर दोनों माओं ने यहाँ भेजा है अपने कलेजे के टुकड़े को.

अभी पिछले महीने शाम को जामा मस्जिद चली गयी दोस्तों के साथ. उसे बता दिया गया था सो जीन्स और कुर्ती तो पहनी ही थी. स्कार्फ भी ले लिया था सर ढकने के लिए. लेकिन वहां जो नज़ारा देखा तो कुछ अजीब सा लगा था.

दो ब्रिटिश मूल की महिलाएं भी मस्जिद में आयी थी और वे स्कर्ट में थी. दोनों को मस्जिद के कारकून ने एक-एक कपड़ा थमा दिया था लूंगी नुमा, ताकि वे अपनी टांगें ढक लें.

और फिर वही सवाल उसके मन में उठ खड़ा हुआ था कि हिंदुस्तान के मर्द औरतों की टांगों से इतने परेशान क्यूँ रहते हैं? उसने ये सवाल अपने दोस्तों से भी पूछ ही लिया था.

इस पर साजिद ने जो कहा उससे वे सभी सोच में पड़ गए थे. साजिद के पिता पेरिस में रहते हैं. वह साल में एक बार उनसे मिलने जाता है और यूरोप लगभग पूरा देख चुका है.

उसका कहना था, “ यूरोप का बच्चा अपनी माँ की टांगें देखते हुआ बड़ा होता है. सो उसे इनसे कोई उलझन नहीं होती. ये हमारे यहाँ के दबे ढके लोगों की समस्या है. हम चीज़ों को दबाते हैं. सेक्स के बारे में बच्चों से बात नहीं करते. करते भी हैं तो ग़लत सलत जानकारी देते हैं. बच्चे ग़लत जगह से भी जानकारी हासिल करते हैं. ख़ास तौर पर छोटे शहरों और कस्बों में औरतें पारंपरिक लिबास पहनती हैं. ऐसे में जब मर्दों को औरतों की खुली टांगें कहीं भी नज़र आती हैं तो वे पागल हो उठते हैं.”

सब ठहाका मार कर हंस पड़े थे लेकिन कनिका सोच में पड़ गयी थी. यानी टांगों का महत्त्व और अम्मा की सोच कि किसी तरह उसकी टाँगें लोगों को दिखाई न दें. उसे कुछ कुछ समझ में आने लगी थी. अचानक अम्मा पर बहुत सारा प्यार उमड़ आया था. जी किया जल्दी से जा कर अम्मा और मम्मी से मिल आये. लेकिन टर्म पेपर चल रहे हैं. ये ख़त्म होते ही जायेगी एक हफ्ते के लिए बीकानेर.

परसों आखिरी पेपर है इस टर्म का. पढ़ पढ़ कर थके हुए पूरे ग्रुप ने तय किया शाम का खाना बाहर खाने का, तो हौज़ ख़ास के इस रेस्तरां में आये हैं. ए. सी. का तापमान काफी कम किया हुआ है. शॉर्ट्स पहने कनिका की टाँगें अचानक ठंडी हो गयी हैं. रेहाना ने भी स्कर्ट पहनी है. उसने रेहाना से पूछा, “यार तुझे भी ठण्ड लग रही है क्या टांगों में?”

“नही यार, टांगों में अलग से ठण्ड थोड़े लगती है? पागल है तू. इतनी तो ठंड नहीं है अभी. सर्दियों में क्या करेगी? अभी सी इतनी ठण्ड लग रही है तो?" एक और सम्मिलित ठहाका पूरे रेस्तरां में गूँज गया था. आस पास के लोगों ने नज़र बचा कर इन लोगों की तरफ देखा था और फिर

अपने-आप में मगन हो गए.

कनिका टांगों को सहलाती सोच रही थी टांगों की सामाजिक स्थिति के बारे में. अचानक उसे अपनी टांगें कुछ ज्यादा ही सुडोल और गोरी लगने लगी हैं. हलके हलके रोयें उसने हाथ से छू कर महसूस किये तो लगा कि वे रोंगटें बन गए हैं. फिर उसने वहीं से एक नजर रेहाना की खुली टांगों पर डाली जो स्कर्ट के नीचे से नज़र आ रही थीं. उसे उसकी टाँगें कुछ मांसल लगीं. कुछ गहरे रंग की भी. लेकिन बेहद सेक्सी. उसे लगा कि रेहाना की टांगें पुरुषों को ज्यादा आकर्षित कर सकने लायक हैं.

खाना खाने के बाद वे लोग बाहर निकले तो तेज़ हवा से उनका सामना हुआ. रात के नौ बज चुके थे. सभी को अपने अपने ठिकाने जा कर पढ़ने या सोने की फ़िक्र थी. परसों आख़िरी पेपर और उसे पहले अच्छी तरह आराम करना बेहद ज़रूरी. कम से कम कनिका तो ऐसा ही मानती है. वे राघव की कार में आये थे ज़ाहिर है राघव की ही ड्यूटी थी सब को छोड़ने की, ख़ास तौर पर लड़कियों को उनके घर तक.

साजिद ने वहीं से ही ऑटो ले लिया था उसका घर बिलकुल विपरीत दिशा में था. वहां तक छोड़ने की राघव ने पेशकश की थी लेकिन साजिद नहीं माना. साजिद ख़ास दिल्ली वाला बेहद संवेदनशील तहज़ीब वाला लड़का है. जाते जाते उसने राघव के कान में कुछ कहा तो राघव ने हामी भरी और कहा, "डोंट वोर्री साजिद. आय विल, मोस्ट सर्टनली. "

राघव ने गाडी स्टार्ट की तो रेहाना आगे की सीट पर राघव की बगल में बैठ गयी. कनिका उसके पीछे और मनोज दूसरी तरफ से राघव के पीछे बैठ गया. गाडी दिल्ली की रंगीन रात की रंगीन सड़कों पर धडल्ले से भाग रही थी. उसी के साथ भाग रहा था कनिका का मन भी.

कब परसों आये और वो परीक्षा दे कर बीकानेर भाग जाए. तैयारी तो हो ही चुकी थी. अब बेचैनी थी जब तक परीक्षा हो न जाए इसी बेचैनी को करार देने के लिए पढ़ना था. कनिका यही कह रही थी जब रेहाना को अचानक याद आया.

"हे राघव. साजिद ने तुम्हारे कान में क्या कहा था?"

"कुछ नहीं यार. ऐसे ही पागल है वो थोडा. दुनिया भर में घूमता है लेकिन सभी तरह की बातें सोचता रहता है. " राघव ने बात को टालना चाहां.

"व्हाटेवर यार. बता दो कहा क्या था उसने?"

"छोडो न. तुम पीछे क्यूँ पड़ गयी हो. हम लड़के आपस में मज़ाक करते रहते हैं." यानी राघव बात को टाल रहा था. रेहाना समझ गयी और चुप हो गयी.

रेडियो पर ऍफ़ एम् बज रहा था, पुराने गीतों का कार्यक्रम. रेहाना ने आवाज़ ऊंची कर दी. लता का गाना 'नैनों वाली ने हया मेरा दिल लूटा....' आ रहा था.

ये गाना कनिका को बहुत पसंद है. वह लता के साथ साथ गाने लगी. उसकी आवाज़ मधुर है और उसके सुर सही लगते हैं. कार में समां बध गया. ये गाना खत्म हुआ तो कुछ देर के लिए चुप्पी छा गयी लेकिन रेहाना को चुप्पी पसंद नहीं आयी. उसने अपने बैग में से अपनी पेन ड्राइव निकाल कर उसे लगा दिया.

"भाई हम तो अपना म्यूजिक साथ ले कर चलते हैं. जाने कब ज़रुरत पड़ जाए." एक भरपूर ठहाका लगा और मुकेश का भीगा भीगा स्वर गाडी में गूँज उठा.

"डम डम डिगा डिगा मौसम भीगा भीगा....... " और इसके साथ ही चार स्वर और मिल गए. समवेत स्वरों में ऊंचे ऊंचे गाते और बैठे-बैठे जितना नाच सकते थे, रेहाना, कनिका और मनोज नाच रहे थे, गा रहे थे. गा तो राघव भी रहा था लेकिन ड्राइव करते हुए उसके नाचने की सम्भावना बहुत कम थी. सो वह सिर्फ अपने सर और मुंह जोर जोर से नचा रहा था.

चरों अपनी धुन में मस्त ज़िन्दगी को भरपूर जी रहे थे कि अचानक गाडी को ज़ोरदार कई झटके लगे. राघव ने फ़ौरन ब्रेक लगाये और स्ट्रेस इंडिकेटर ऑन कर के गाडी को सड़क के किनारे लगाने की कोशिश करने लगा.

गाडी को झटके लगातार्र लग रहे थे, उसके कण्ट्रोल में नहीं आ रही थी, ज़ाहिर है राघव कुछ घबरा गया था और चाहता था तेज़ रफ्तार से चल रही रिंग रोड पर किसी तरह किनारे लग जाए, वर्ना अगर गाडी बीच में रुक जाती तो पीछे से आने वाली किसी तेज़ रफ़्तार गाडी के टकरा जाने से भयंकर दुर्घटना होने का अंदेश उसे नज़र आ रहा था.

वैसे भी वह एकदम दायीं तरफ फ़ास्ट लेन में चला रहा था. इधर से ठीक बाएं जाने में उसे तीन लेन्स को क्रॉस कर के जाना था. उसके बायीं तरफ रेहाना बैठी थी, वो भी घबरा गयी थी और उसे इशारे से और बोल कर भी बता रही थी पीछे वाली गाडिओं की स्थिति के बारे में.

रेहाना ने खतरे का एहसास होते ही फुर्ती और प्रेसेंस ऑफ़ माइंड का प्रदर्शन करते हुए फ़ौरन म्यूजिक बंद कर दिया था. पीछे से गाड़ियाँ नाराज़गी के लम्बे हॉर्न बजाती हुयी तेज़ी से निकले जा रही थी.

झटके खाते खाते ही राघव ने अब तक दो लेन्स तो पार कर ली थीं बाईं तरफ. एक लेन और बची थी लेकिन गाड़ियाँ एक के बाद एक तेज़ी से निकलती जा रही थी. राघव के स्ट्रेस सिग्नल इंडिकेटर के चलते रहने के बावजूद कोई साइड नहीं दे रहा था.

आखिर वही हुआ जिसका डर राघव को था. गाडी हिचकोले खा ही रही थी कि उसका इंजन बंद हो गया. अब थोड़ी से जो गति गाडी में थी उसी के बल पर राघव को उसे एकदम किनारे ले जाना था.

यही करने की कोशिश वह कर रहा था कि तेज़ी से बाएं से आती हुई एक मोटर साइकिल ने उसे ऊपर से लूप बना कर ओवरटेक करने की कोशिश की और बुरी तरह टकरा गयी. उस पर सवार दोनों आदमी सड़क के किनारे गिर गए. मोर्टर साइकिल भी उनके पास ही गिरी और घिसटती हुयी दूर तक चली गयी.

पीछा से आ रहे वहां अब तक एक्सीडेंट होते देख कर किनारा कर के दायें से निकल कर जा रहे थे. राघव ने अहिस्ता अहिस्ता चल रही गाडी को एक तेज़ घुमाव दे कर किनारे लगाया और चारों लोग आनन् फानन में गाडी से निकल कर बाहर आये.

दोनों मोटर साइकिल सवार होश में ही थे. हेलमेट पहने थे. उठने की कोशिश कर रहे थे. राघव और मनोज ने दोनों को सहारा दे कर उठाया और ले जाकर गाडी में बिठाया.

रेहाना और कनिका घबराई हुयी मोटर साइकिल के पास जा कर उसका मुआयना करने लगीं. अचानक कनिका को याद आया मदद की ज़रुरत होगी. गाड़ियां तो लगातार तेज़ी से वहां से गुज़र रही थीं, कुछ ने थोडा अहिस्ता कर के देखा भी लेकिन फ़ौरन गति पकड़ कर निकल लिए.

कनिका ने सौ नंबर डायल किया और हादसे के बारे में बतया. दस मिनट बाद पीसीआर वहां मौजूद थी और पुलिस के तीन आदमी मोटर साइकिल और कार दोनों का मुआयना कर रहे थे. राघव ने पूरी बात बताई. तब तक दोनों मोटर सवार लड़के भी संभल चुके थे और उन्होंने स्वीकार किया कि गलती उनकी भी थी वे लापरवाही से डिस्ट्रेस सिग्नल को देखने के बावजूद कार को ओवरटेक कर रहे थे. गाडी का मुआयना करने पर राघव की बात सही पायी गयी कि गाडी खराब थी.

कुल मिल कर आधे घंटे के इस व्यवधान के बाद दोनों गाड़ियों को सड़क के किनारे लगा दिया गया. मोटर साइकिल भी अब स्टार्ट नहीं हो रही थी. लड़कों को ज्यादा चोट नहीं लगी थी. वे दोनों बाहरवीं के विद्यार्थी थे. चलाने वाले लड़के के पास ड्राइविंग लाइसेंस भी था.

पुलिस वाले ने पूछा, "बेटा, ऐसा है गलती तुम्हारी ज्यादा है. फिर भी तुम्हारी छोटी गाडी है. केस करना चाहते हो क्या? सोच लो. फायदा कोई नहीं. अदालत के चक्कर ही पड़ेंगे. "

लड़के वैसे ही घबराए हुए थे. उनमें से एक बोला, "नहीं सर, हमें जाने दो. कल टेस्ट भी है हमारा. वैसे भी घर जा के डांट पड़ने वाली है आज. ग्राउंड हो जायेंगे वो अलग. अब और पंगा नहीं चाहिए. "

दूसरा लड़का बोला, '"मम्मी ने तो पहले ही कहा था इतनी रात को मत जाओ. नहीं मानी मम्मी की बात तो भुगत लिया. अब कान पकडे मम्मी की बात हमेशा मानेंगे."

हंसी से माहौल कुछ हल्का हुआ तो राघव ने कहा, "सर, हमें भी टैक्सी तक छोड़ दीजिये, गाडी तो अब टो हो कर ही जायेगी. सुबह देखूंगा. "

पुलिस वाले न कहा, "ज़रूर जी चलो. हमारा तो काम ही पब्लिक की सेवा करना है जी. चलो छोरो तुम भी चलो तुम्हारे घर छोड़ दें. कह दूंगा तुम्हारी मम्मी से डाटो मत कल टेस्ट है छोरों का. तुम्हारी मोटर साइकिल अब नहीं स्टार्ट होने का. सुबह आके मिस्त्री के साथ ले जाना इसको. यहाँ हमारी पूरी रात गश्त रहती है. चिंता के एकोई बात नहीं. "

सब लोग पुलिस की काली इनोवा में बैठ गए. लड़के पीछे वाली सीटों पर. पुलिस वाले दोनों आगे की सीटों पर. सीट पर फस कर.

जब वे बैठ रहे थे तो कनिका और रेहाना दोनों ही अपनी अपनी स्कर्ट्स को संभाल कर जिस तरह बैठने की कोशिश में परेशान हो रही थी वह पुलिस वाला बड़े गौर से उनको देख रहा था. कनिका को अटपटा लग रहा था लेकिन क्या करती. दोनों ही पुलिस वाले सभ्य और मदद गार साबित हुए थे.

जब सब लोग फस- फसा कर बैठ गए और गाडी चल पडी तो पुलिस वाले ने अपना मुंह खोला, "बेटा, तुम लोग स्टूडेंट लगते हो. तुम दोनों लड़कियां भी. साथ ही पढ़ते हो?"

"जी, हम डेल्ही कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग में हैं, चारों. " रेहान की जुबां आखिरकार खुली. डर थोडा कम हुआ था. कनिका अब भी सहमी सी बैठी थी.

"देखो बेटा बुरा मत मानना. मैं बहुत बड़ा हूँ तुम लोगों से उम्र में. तुम दोनों लड़कियां अच्छे पढ़े लिखे घरों से हो. पढ़ने के लिए दिल्ली में रहती हो. दिल्ली जो है न बहुत बड़ा शहर है. राजधानी है देश की. और यहाँ सब जगह से लोग आते हैं. छोटे छोटे गांवो से भी. उनकी सोच उसी तरह की होया करे. आप के इन कपड़ों में बेटा आप जब तक अपनी गाडी में हो तो ठीक है. अपने घर क्लब में हो तो भी किसी को क्या लेना देना. लकिन अगर ऐसा कोई हादसा हो जाता है न तो तरह तरह के लोग हैं. बेटा हमारा काम है आपकी रक्षा करना. लेकिन हम हर जगह तो नहीं हो सकते न. आपने फ़ोन किया हम दस मिनट में पहुँच गये. पर ये दस मिनट तक आप लोग यहाँ सड़क पर थे. ये एक जंगल है. हर शहर जंगल सरीखा ही होता है. हम लोग उसको घर जैसा बनाते हैं. लेकिन फिर भी जानवर तो रहते ही हैं न जंगल में. सो बेटा जैसे जंगल में हम देख भाल कर ख़ास तरह की एहतियात बरत के हथियार ले कर के जाते हैं न वैसे ही शहर के जंगल में भी करना चाहिए. देखो. मेरी बात का बुरा लगे तो बाप बराबर समझ कर माफ़ कर देना. पर सोचना ज़रूर. गौर करना मेरी बात पे. अभी हम साफ़ सफाई कर रहे हैं अपने जंगलों की. अभी साफ हुए नहीं है."

कनिका को मानो सांप सूंघ गया था. रेहाना ने उसका हाथ कस कर पकड़ लिया था. वे दोनों एक दुसरे के थामे हुए एक दुसरे से चिपक कर बैठी थीं. इस वक़्त कनिका को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. सिर्फ पुलिस वाले की बात बार बार गूँज रही थी कानों में और अम्मा की आवाज उसी में घुल मिल कर सीने में उतर गयी थी. "छोरी टांगा नहीं दिखनी चाहिये. लोगन की नजर लग जावे. देख बेटा ठण्ड लाग जासी. चल बेटा आ ठाणे पेंट पहरा दूं. "

बंद गाडी में मनिका को टांगों में तेज़ ठण्ड लगने लगी, उसके रौंगटे खड़े हो गए टांगों के और हाथों के दोनों जगह के. उसने अपनी टांगों पर हाथ फेरा और खींच कर स्कर्ट को और नीचे कर लिया. नज़र घुमा कर गाडी में बैठे बाकी लोगों को देखा, रेहाना के आलावा सभी पुरुष थे. कोई भी उन दोनों की तरफ नहीं देख रहा था.

तभी अम्मा की आवाज़ उसके कानों में गूँज गयी, "म्हारी बिट्टो, हमार आपना लोग तो हमारा ध्यान रखे हमें बचना तो परायों से पड़े है जी."

कनिका सोच रही थी कि जब सभी एक ही देश के लोग हैं तो ऐसा क्यूँ कि कुछ लोग आप का खयाल रखते हैं इज्ज़त करते हैं और कुछ लोगों से डर कर रहना होता है. और ये बात हमें वही क्यूँ कहते हैं जो हमसे प्यार करते है और हमारा ख्याल रखते हैं?ये दुनिया ऐसी जंगल सरीखी क्यों है? क्यों लोग एक दुसरे की इज्जत नहीं कर सकते?

ऐसे पुरुष क्यूँ हैं समाज में जिनसे बच कर रहना औरतों की ज़िन्दगी का एक अहम् हिस्सा बन गया है? क्यूँ हर वक़्त हर कोई यही बात समझाने पर तुला रहता है? क्यों उन मर्दों को ये बात नहीं समझाई जाती जिनकी वजह से ये बात हम लड़कियों को घुट्टी में पिलाई जाती है? क्यों इतना मुश्किल है उन मर्दों को समझाना जिन्हें अपराध करते हुए दोबारा सोचने की ज़रुरत ही मह्सूस नहीं होती?

दोष किस का है? कमी कहाँ है? न्याय सिस्टम में जो दोषी को सजा देने में इतनी देर लगाता है कि सजा बेमानी हो जाती है. या फिर शक की बिना पर सजा देता ही नहीं. या फिर हमारी सामाजिक वयवस्था पर जहाँ अपराध करने वाले करने से पहले दूसरी बार नहीं सोचते क्यूंकि उनके मन में ये विशवास होता है कि अपराध की शिकायत करने औरत जायेगी ही नहीं.

अगर करेगी भी शिकायत तो उसको बदनामी का डर दिखा कर पीछे हटा देंगे उसके घर के ही लोग. वे भी अगर साथ दे देंगे तो पुलिस तरह-तरह के सवाल पूछेगी. लडकी वही घबरा जायेगी.

फिर भी अगर वो मज़बूत बनी रही तो अदालत में दूसरे पक्ष का वकील इस कदर उसके चरित्र की छीछालेदारी करेगा कि उसे और उसके परिवार को बार बार शर्मिंदा होना पडेगा. यही सब सोचते हुए कनिका उदास हो आयी थी.

उसके पूरे जिस्म में आग सी उठने लगी थी. टाँगे ख़ास तौर पर गर्म हो आयी थीं. जी कर रहा था जल्दी से बीकानेर पहुँच जाए. मम्मी और अम्मा की गोद में लेट जाए. एक की गोद में सर और दूसरी की गोद में पैर रख कर सो जाए.

कनिका अब बड़ी हो गयी है तो पूरी तो एक ही माँ की गोद में नहीं समा पाती. और जिसे छुटपन से ही दो दो माँ मिल गयी हों वो भला एक माँ से कैसे संतुष्ट हो जाए?

आज उसे एकाएक अपने दिवंगत पापा की याद भी आने लगी. शायद कुछ और तरह की हिम्मत उसके अन्दर होती अगर अज वे भी दुनिया में होते. फिर ख्याल आया दो-दो माँ किस की किस्मत में होती हैं?

कनिका तय नहीं कर पा रही थे एकी उसे कितने अभिभावक और चाहिए. शायद हर लडकी यही चाहती है कि उसके सर पर कई-कई अभिभावकों का साया रहे और वह ज़िन्दगी भर मन चाहे

स्कर्ट, शॉर्ट्स, गरारे, पेंट्स और पलाज़ो पहन-पहन कर दुनिया के कारोबार में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले. कोई भी रूकावट उसे इस वजह से न झेलनी पड़े कि उसने अपनी टांगों को पूरी तरह ढका है कि आंशिक तौर पर?

पीसीआर कंक्रीट के जंगल से गुज़र रही थी. ठसाठस भरी हुयी गाडी में कनिका बहुत अकेली हो गयी थी. अम्मा और मम्मी की बहुत बहुत याद आने लगी थी.

प्रितपाल कौर.