Ek Jindagi - Do chahte - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

एक जिंदगी - दो चाहतें - 1

एक जिंदगी - दो चाहतें

विनीता राहुरीकर

मन की बात

बचपन से ही भारतीय सेना के जवानों के लिए मेरे मन में बहुत आदर था। मेरे परिवार में कोई भी सेना में नहीं है। मैंने सिर्फ सिनेमा में सैनिकों के बहादुरी भरे कामों को देखा और हमेशा ही उन्हें देखना मुझे बहुत अच्छा लगा। आज से पाँच वर्ष पूर्व एक सैनिक अधिकारी से मेरी पहचान हुई। कुछ ही दिनों में हम बहुत अच्छे दोस्त बन गए। वह सेना अधिकारी अपनी छुट्टियाँ खत्म होने पर अपनी ड्यूटी पर वापस चले गए। हम फोन पर बात करके अपनी दोस्ती को बनाए रखे हुए थे। वे अकसर अपने सेना जीवन के अनुभवों को मेरे साथ बाँटते। उनकी कहानियाँ बहुत रोमांचक होती थीं। मैं हमेशा उनके अनुभव सुनने के लिए उत्सुक रहती। फोन पर उनके अनुभव सुनते हुए मैं हमेशा सेना के जवानों के प्रति नतमस्तक हो जाती उनकी बहादुरी तथा मातृभूमि के लिए उनका भक्ति और प्रेम देखकर। जब मैंने भारतीय सेना के जवानों के काफी सारे बहादुरी पूर्ण कार्यों के बारे में सुना, उनके चुनौती भरे जीवन के बारे में जाना जो कभी-कभी काफी दिलचस्पी भी होता था तभी मुझे भारतीय सेना के जवानों पर एक उपन्यास लिख कर अपने पाठकों तक उनके जीवन के इन अनछुए पहलुओं को पहुँचाने की इच्छा हुई ताकि मैं सेना के जवानों की कर्तव्यनिष्ठा और देश भक्ति के प्रति इस तरह से अपना आदर तथा भावनाएँ अभिव्यक्त कर सकूँ।

इसीलिए मैंने भारतीय सेना के एक बहुत ही काबिल, कर्तव्यनिष्ठ तथा बहादुर सेना अधिकारी मेजर परम गोस्वामी की कहानी को उपन्यास रूप में लिखने की ठानी। यह उपन्यास भारतीय सेना के सैनिकों को किस तरह से सीमा पर होने वाली घुसपैठ को रोकने के लिए अपनी जान की बाजी लगाकर लडऩा पड़ता है देश की सुरक्षा के लिए तथा साथ ही प्राकृतिक आपदाओं के समय भी हमारे सैनिकों को अपने प्राणों की परवाह न कर के अपनी सेवाएँ देनी पड़ती हैं, के बारे में है। किस तरह से प्राकृतिक आपदाओं के समय वे रेस्क्यू ऑपरेशन के दौरान संघर्ष करके कितने सारे लोगों की जान बचाते हैं अपनी खुद की जान को खतरे में डाल कर।

मेजर परम गोस्वामी, जिन्हें बहुत तेज बुखार था, उस बुखार के बावजूद उन्होंने उत्तराखंड आपदा के समय अपनी जान की परवाह न करते हुए जितना हो सकता था उतने लोगों को बचाया। वहाँ पर वह रात दिन बचाव कार्य में लगे रहे। अपनी ड्यूटी के प्रति उनकी यह निष्ठा और कर्तव्यपरायणता देखकर मुझे लगा कि वह सब हमारे आदर तथा प्रशंसा के पात्र हैं। उन सभी को हमारा नमन। यह उपन्यास लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य यही है की सामान्य जनता को सेना के जवानों के संघर्ष, उनके चुनौतीपूर्ण जीवन तथा उनकी कर्तव्यनिष्ठा के बारे में पता चले। इसी के साथ मैं चाहती हूँ कि मेरे पाठकों को भारतीय सेना के जवानों के देश प्रेम तथा देश के प्रति उनकी निष्ठा के बारे में भी पता चले और बहादुरी के बारे में भी। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरा यह उपन्यास भारतीय युवाओं को निश्चित ही भारतीय सेना को अपनी करियर चुनने की दिशा में प्रोत्साहित करेगा।

- विनीता राहुरिकर

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अध्याय-1

श्री कृष्णा

''ये गणपति बप्पा कहाँ रखने हैं? इसी शोकेस में रख दूँ"परम ने गणेश जी की मूर्ति को शोकेस के एक कॉर्नर में रखते हुए पूछा।

''नहीं जी वहाँ नहीं। उनके लिए ड्राईंगरूम में एक अलग टेबल रखा है, बप्पा उस पर विराजेंगे। बस उनके लिए बिजली से जलने वाले दीये और प्लास्टिक के फूलों की माला ले आएंगे" तनु ने सोफे पर कवर बिछाते हुए कहा।

''उफ्...। मतलब अभी भी मेडम की कुछ शॉपिंग रह ही गयी है" परम ने निढ़ाल होते हुए कहा।

''हाँ जी ये गृहस्थी है मेजर साहब! यहाँ तो रोज ही कुछ ना कुछ जरूरत पड़ती रहेगी। अभी तो शुरुआत है जी, दिन में चार बार बाजार के चक्कर लगेंगे कई दिनों तक। आप क्या अभी से थक गये?" तनु परम की कमर में अपनी बाहों का घेरा कसती हुई बोली।

''और नहीं तो क्या। छ: दिन तो हो गये मेडम की ड्रायवरी करते हुए, अब तो जेब भी खाली होने को आ गयी।" परम अपनी जींस की जेब थपथपाते हुए बोला।

''कोई बात नहीं। बैंक की जेब अभी भी काफी भारी है।" तनु हँसते हुए बोली।

''मगर मेरी एनर्जी तो बहुत डाउन हो गयी है यार थोड़ा चार्ज तो कर दो।" परम ने तनु के चेहरे पर झुकते हुए कहा।

''नहीं! अभी नहीं, बहुत काम पड़ा है। चलो काम पर लग जाओ फटाफट। हर कभी शुरू हो जाते हो।" तनू ने परम को अलग करते हुए कहा।

''अरे यार फुल टॉकटाईम नहीं तो थोड़ा सा नेट बेलेंस तो रिचार्ज करा दो।" परम ने फिर चुहल की।

''चलो छोड़ो, बहुत भूख लगी है। बस ड्राइंगरूम सेट कर दो और चलो खाना खाने।" तनू ने उसे दूर धकेल दिया।

''आपकी रसोई कब शुरू होगी श्रीमति जी। कब तक बाहर भोजनालयों में खाना खाते रहेंगे।" परम ने एक फ्लॉवर पॉट में फूल सजाते हुए पूछा।

''जब तक पूरा घर अच्छे से सेट ना हो जाये।" तनु ने मुस्कुराकर जवाब दिया और ऊपर के कमरे में चली गयी। परम हँस दिया। समझता था खाना खाने के बहाने तनु रोज बाजार का चक्कर लगाना चाहती है ताकि नयी-नयी चीजें खरीद सके घर के लिये।

थोड़ी ही देर बाद ऊपर से तनु के पुकारने की आवाज सुनकर परम ऊपर चला गया। तनु एक सूटकेस खोलने की कोशिश कर रही थी।

''क्या हुआ?"

''देखो ना ये सूटकेस खुल नहीं रहा। चाभी भी फँस गयी है। इसे खोल दो ना प्लीज तो मैं इसे खाली करके कपड़े अलमारी में जमा दूँ।" तनु ने सूटकेस परम के सामने सरका दिया। इसमें तनु के माँ के घर से लाए हुए कपड़े थे। दस मिनट की जद्दोजहद के बाद परम ने फंसी हुई चाभी निकाली और सूटकेस खोल दिया।

''लिजीये मेडम जी खुल गया सूटकेस।" परम ने सूटकेस तनु के सामने रखा।

''थैंक्यू मेजर साहब।" तनु ने एक क्षण में झुककर परम के होंठो पर एक चुंबन ले लिया।

''ओय मेरी जान!" परम उसे पकडऩे के लिये आगे झुका लेकिन तब तक तनु हँसते हुए खड़ी होकर अलमारी की ओर बढ़ गयी थी।

''रात में जी....।"

दोपहर के ढाई बज गये थे। पेट में चूहें कुलबुलाने लगे थे। ''चलिये अब पहले खाना खाकर आते हैं फिर काम करेगे। काम तो खत्म होने में ही नहीं आ रहा है।" तनु ने बाथरूम में जाकर हाथ धोए और ड्रेसिंग टेबल के आईने के सामने खड़े होकर बाल संवारे।

''कपड़े तो ठीक है ना? अब मैं चेंज नहीं कर रही। " तनु ने अपना दुपट्टा ठीक करते हुए पूछा।

''बिल्कुल ठीक है मैडम जी, बहुत अच्छी लग रही हो अब चलो। कहते हुए परम सीढिय़ाँ उतरने लगा। पीछे-पीछे तनु भी उतर गयी। परम ने ताला लगाया और पोर्च से कार बाहर निकाली। तनु अगली सीट पर बैठ गयी। परम तनु को खाना खिलाने होटल प्रेसिडेंट ले गया ये होटल उनके घर से बस आधा एक किलामीटर दूर ही था। होटल की पार्किंग में कार पार्क करके दोनों डायनिंग हॉल में आ गये।

''क्या खाओगी आज बोलो?" परम ने बेयरे को मेन्यू कार्ड लाने का ईशारा किया।

''भूख तो अच्छी तेज लगी है कुछ भी मंगवा लो जो जल्दी मिल जाये।"

बेयरा जब मेन्यू कार्ड देने आया तो परम ने दो मिनट उसे रोककर लगे हाथ खाने का ऑर्डर दे डाला। बेयरे के जाने के बाद परम ने दोनों हाथों की ऊंगलियों को आपस में फंसाया और हाथ सिर के पीछे तानकर एक लम्बी अंगडाई ली।

''थक गये हो ना बहुत?" तनु ने प्यार से पूछा।

''ना रे! तुझे तो पता है मुझे कितनी मेहनत करने की आदत है। परम इतने से काम से थकने वालों में से नहीं है। हाँ मगर तुम जरूर थक गयी होंगी।" परम ने कोहनी टेबल पर रखते हुए कहा।

''नहीं जी, जब मन में किसी काम को लेकर बहुत खुशी और उत्साह हो तो उसमें शरीर को कभी थकान नहीं लगती।"

''तो श्रीमति जी खुश है ना नये घर में।" परम ने तनु की हथेली पर हाथ रखते हुए पूछा।

''क्यूँ नहीं जी, खुश क्यों नहीं होऊंगी, ये हमारा घर है, आपका और मेरा अपना घर।" तनु ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

परम की आँखों में एक गहरे संतोष की छाया लहरा गयी। वेटर खाना टेबल पर लगा गया। दोनों ने खाना खाया और बिल चुकाकर बाहर आ गये। परम को मालूम था तनु बाजार का एक चक्कर जरूर लगाना चाहेगी। वह होटल से निकलकर कार को सीधे मार्केट की ओर ले गया।

तनु खुश होकर मुस्कुरा दी। परम भी मुस्कुरा दिया। मार्केट की पार्किंग स्पेस में कार पार्क करके दोनों मार्केट के अंदर घूमने लगे। हर दुकान पर रूक कर तनु दिलचस्पी से देखती एक-एक चीज पर गौर करती। आज भी एक दुकान पर उसे चादरें पसंद आ गयी तो वह लेने की जिद करने लगी।

''कितनी तो चादरें खरीद रखी हैं तुमने पहले से ही और कितनी इक_ा करोगी।" परम हँसते हुए बोला।

''कितनी सुंदर चादर है। मेरा फेवरेट कलर है, ले लो ना प्लीज।" तनु बच्चों की तरह मचलकर बोली।

''ठीक है बाबा ले लो।"

चादर लेकर निकली तो तनु क्रॉकरी की दुकान में घुस गयी। किचन और डायनिंग रूम के लिये छोटी-मोटी दो चार चीजें खरीदने के साथ ही उसे एक टी-सेट पसंद आ गया। पसंद तो परम को भी आ रहा था लेकिन घर में पहले ही एक नया टी-सेट वे खरीद चुके थे।

''क्या करेगी दो-दो टी सेट का? एक कुछ महीनों बाद ले लेना।"

''वो शाम की चाय के लिये है। इसमें सुबह-सुबह चाय पीयेंगे देखो कितने ताजगी भरे पीले फूल बने हैं इस पर।"

परम को मालूम था तनु मानने वाली नहीं थी, उसने दुकानदार से टी सेट पैक कर देने को कहा।

''अब कहेगी कि रात की चाय के लिये भी एक टी-सेट ले-ले जी।" परम ने उसे चिढ़ाया।

तनु हँस पड़ी ''नहीं जी रात में तो कॉफी से ही काम चल जाता है।" सामान उठाकर दोनों कार में आ बैठे। परम कार को घर की ओर जाने वाले रास्ते पर ले आया। वह कनखियों से तनु का चेहरा देख रहा था। घर के लिये कोई भी नयी चीज खरीदने पर तनु का चेहरा खिल जाता था। उसे अपना घर संवारने का बहुत उत्साह है। परम के मन को अपार संतोष मिलता था तनु का खिला हुआ चेहरा देखकर।

दोनों घर पहुँचे तब तक शाम के साढ़े पाँच बज गये थे। परम ने कार पोर्च में पार्क की और सामान उठाकर अंदर आ गया। तनु ने चाय रख दी।

''अरे यार मेरी सिगरेट खत्म हो गयी है। मैं अभी लेकर आता हूँ।" परम ड्रावर में ढूंढते हुए बोला।

''तो आते समय क्यों नहीं ले आये।" तनु ने किचन से ही कहा।

''एक पैकेट यहाँ रखा था मुझे लगा उसमें होंगी। कॉलोनी के गेट के पास ही तो है अभी लेकर आता हूँ ओ.के. डार्लिंग।" कहता हुआ तेजी से बाहर चला गया।

जब तक परम सिगरेट का पैकेट लेकर आया तनु चाय बनाकर कप में छान चुकी थी। परम ने आते ही एक सिगरेट सुलगाई और एक लम्बा कश लिया।

''कितनी सिगरेट पीने लगे हो तुम आजकल।" तनु ने ट्रे ड्राइंग रूम के सेन्ट्रल टेबल पर रखी और सोफे पर बैठ गयी।

''पता नहीं क्यूँ यार जब तक तेरे पास रहता हूँ, बस तभी तक सिगरेट पीने की इच्छा होती है। वहाँ जाकर मैं कभी सिगरेट नहीं पीता।" परम ने सिगरेट को ऐश ट्रे में झटकते हुए कहा।

''मैं क्या इतना टेन्शन देती हूँ जी आपको कि जिसे कम करने के लिये इतनी सारी सिगरेट पीनी पड़ती है।" तनु मुस्कुराते हुए बोली।

''ऐ पागल! मेन्टलों वाली बात मत कर। तेरे साथ तो मैं इतना खुश रहता हूँ कि खुशी के मारे पीता हूँ।"

''अच्छा जी।"

''और क्या जी। ज्यादा खुशी की आदत नहीं है ना तो दिल संभाल नहीं पाता है, उसे नार्मल बनाए रखने के लिये माइंड डायवर्ट करने के लिये पीता हूँ। चल अब बहुत टाईम खराब हो गया है। फटाफट चाय पी और काम पर लग जा। पता नहीं कब जाकर पूरा सेट हो पायेगा।" परम ने सिगरेट बुझा दी और चाय पीने लगा।

''बस दो दिनों में मेरे हिसाब से सारा काम हो जायेगा।"

''हाँ पर तुम्हारा किचन और तुम्हारी किताबों के वो बड़े-बड़े बक्से, और फिर गार्डन के लिये पौधे भी तो लाने हैं।"

''हाँ कल किताबें पूरी अरेंज कर लूँगी और परसों जाकर किचन के लिये डिब्बे खरीद लाएंगे और शाम को आते हुए किराने का सामान और पौधे लेते हुए आएंगे।" तनु ने हिसाब लगाया ''तीन से चार दिनों में घर पूरा सेट हो जायेगा।"

चाय पीने के बाद दोनों ऊपर चले गये। दोपहर में जो कपड़े अलमारी में रखने के रह गये थे तनु वो रखने लगी। सूटकेस में कितनी भी सावधानी से कपड़े रखो पर उनकी तहें बिगड़ ही जाती है इसलिये तनु को सारे कपड़ों की तहें दुबारा करनी पड़ रही थीं और कपड़े थे कि खत्म ही नहीं हो रहे थे। रात के नौ बज गये थे जब उसका काम खत्म हुआ। तब तक परम नूडल्स और गरमागरम सूप बनाकर ले आया।

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