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मृणालिनी

© आशका शुक्ल "टीनी"

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©આશકા શુકલ "ટીની"

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मृणालिनी

मृगनैनी....
उसका नाम मैं नहीं जानता था परंतु यह नाम मैंने उसको दिया है.... उसके नैन में एक गहराई थी,
जी चाहता था कि उसकी आंखों की गहराई में डूब जाऊं। उसके होंठ... जैसे खिली हुई गुलाब की कली, वह जब मुस्कुराती है तो ऐसा लगता है मानों सीप में से छुपे हुए मोती अपनी चमक दिखा रहे हो।

उसके गोरे चेहरे पर टपकती हुई पानी की वह बूंदें, और उस बूंदों पर पड़ती हुई सूरज की किरणें.... मानों धूप में सोना चमक रहा हो।

सोचता हूं वह पानी की बूंदे भी कितनी खुशकिस्मत होंगी!! जिसको उसके चेहरे को चूमने का अवसर मिला होगा। उसके लंबे, काले नितंब तक आते हुए गीले बाल... जैसे रेशम की डोरी, लंबी सुराही सी गर्दन, उस पर एक काला तिल और उसके सुडोल बदन से लिपटी हुई... आधी भीगी हुई सफेद साड़ी ।

अपनी सखियों के साथ तालाब के किनारे हंँसी, ठिठौली करते हुए पानी भरते कल उसको मैंने देखा था. क्या तारीफ करूं उसके रूप की मैं, शब्द भी निःशब्द हो गए हैं अब तो।

जब से उस पर नजर पड़ी है बस उसी के बारे में सोच रहा हूं कौन है वह कन्या!!!

मैं कोलकाता से अपने दोस्त के एक छोटे से गांव में थोड़े दिन छुट्टियां बिताने के लिए यहां आया हुआ था... वह अकेला रहता था.

उसके घर से तालाब थोड़ा दूर था, वनों की तरफ से होकर एक कच्चा रास्ता तालाब की ओर जाता था. मैं वनों और पेड़ों को निहारते निहारते आज फिर उस अद्भुत कन्या को देखने मैं तालाब की ओर निकल पड़ा। कच्चा रास्ता और जमीन पर पड़े हुए सूखे पत्तों को कुचलते हुए... और कोयल की कुहू कुहू सुनते हुए मैं चले जा रहा था।

जाने क्यों मुझे वह अपनी तरफ खींच रही थी, जाने क्यों उसकी एक झलक देखने के लिए मैं बेचैन हो गया था.... हवा भी मानों मुझे उसके उड़ते हुए साड़ी के पल्लू की और खींचे जा रही थी ।
आसमान पर बादल छाए हुए थे, शायद बारिश होने वाली थी.... लेकिन मैं नहीं रुका, मैं चलता रहा तालाब की और....

तभी बादल गरजने लगे और बारिश की बूंदे जमीन पर पड़ी और मिट्टी के साथ उसका मिलन हुआ. उसकी खुशबू से मैं और मुग्ध हो गया।

मिट्टी की सुगंध लेते लेते मैं तालाब के पास पहुंच गया, एक अशोक का पेड़ देख कर मैं उसके पीछे छुप गया ।

मेरी नजरें उसी को ढूंढ रही थी, उसको देखने के लिए मेरा मन बेताब था.... थोड़ी ही क्षण में वह अपनी सखियों के साथ पानी भरने आ पहुंची।

उसकी लचकती कमर, बलखाते हुए काले बाल और हिरनी जैसी आंखें... मैं उसकी आंखों को देखने लगा, आज उस आंखों की गहराई में मैंने कई सपने देखे... कई सवाल देखे.... लेकिन मैं बस उसको देखता रहा निरंतर, निःशब्द.... मैं एक मूर्ति की तरह वहीं खड़ा रहा।

आज भी वह सफेद साड़ी में लिपटी हुई थी, रंगों से ना जाने क्यों वह परहेज़ कर रही थी!!! ना कोई श्रृंगार!! ना कोई रंग!!! मैं सोचने लगा क्यों रंगो से परहेज़ कर रही है?

यह अब मेरा नित्यक्रम हो गया था... मैं रोज़ इसी समय तालाब के किनारे पहुंच जाता था, केवल उसको देखने के लिए लेकिन हर बार मैं उसको सफेद वस्त्रों में देखता हूं।

आज उसने मुझे देख लिया, मैं घबरा गया... मानों मेरी चोरी पकड़ी गई हो।
मैं वहां से निकल गया... वह मुझे जाते हुए देख रही थी।

मैंने अपने मित्र से पूछा उसके बारे में.... वह बोला... उसका नाम मृणालिनी है लेकिन वह लड़की तो श्रापित है!! अपने विवाह के दिन ही अपने पति को खा गई... उसी रात उसके पति की मृत्यु हो गई ।

यह सुनकर मैं चौक गया... मैं शहर में पला बढ़ा था लेकिन, मेरा मित्र गांव मैं ही पला बड़ा था.... पिछले साल ही उसके माता की बीमारी में मृत्यु हो गई थी, पिता बचपन में ही चल बसे थे... उसकी मां ने खेत मजदूरी करके उसको बड़ा किया था ।

वह ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था शायद इसीलिए उसकी सोच भी वैसे ही कुंठित थी... और गांव वाले भी शायद ऐसे ही बोलते थे उस लड़की के बारे में।

मैं बोला.... क्या बोल रहे हो तुम!!! अगर विवाह के दिन उसके पति की मृत्यु हो गई तो उसमें उसका क्या दोष??

उस पर मेरा दोस्त कहने लगा.... अरे तू नया है इस गांव में तुझे नहीं पता.... वह अपनी माँ को भी जन्म लेते ही खा गई और फिर उसके पिता ने उसको बड़ा किया लेकिन कुछ सालों में ही उसके पिता भी चल बसे... तब वह केवल 16 साल की थी चाचा - चाची ने उसको अपने पास बेटी की तरह रखा, लेकिन अगले ही साल उसके चाचा को भी सांप ने डँस लिया ।

चाची अकेली हो गई.... अब चाची को भी डर लगने लगा था कि कहीं यह मुझे भी ना खा जाए।

अब इस गांव में तो कोई उसको ब्याहने से रहा... चाची उसके लिए वर तलाशने लगी थी, ताकि जल्दी यह ब्याह कर अपने घर चली जाए.... दूसरे ही साल पास के गांव में एक शेठ के साथ चाची ने उसकी शादी तय कर दी... क्योंकि उस शेठ को मृणालिनी बहुत भा गई थी, और वह बहुत अमीर भी था... उसने चाची को बहुत धन देने का वचन भी दिया था। लेकिन वह उम्र में मृणालिनी से दुगना था ।

फिर भी चाची ने मृणालिनी के बारे में ना सोचते हुए उसकी शादी उस शेठ के साथ तय कर दी... लेकिन चाची भी क्या करें.... चाची ने तो ठान ली थी कि इसको अभी जल्दी विदा करना है बस।

और मृणालिनी को एक ही महीने में विवाह करके विदा कर दिया लेकिन पहली ही रात में वह कुल्टा अपने पति को भी खा गई.....उसका पति उसको हाथ लगाने से पहले ही चल बसा.... दिल का दौरा पड़ने से उसकी मौत हो गई ।
उसके ससुराल वालों ने उसको धक्के मार कर घर से निकाल दिया यह सोचकर यह लड़की शापित है जहां भी रहेगी कोई नहीं बचेगा।

अब तो उसकी चाची भी उसको घर में नहीं ले रही थी...
वह निर्लज्ज फिर भी देखो पास में झोंपडा बना कर रह रही है ।

उसकी सखियों को भी सब गांव वाले बोलने लगे हैं कि उसके साथ ना जाए।

मेरे मित्र की बातें सुनकर मैं हिल गया.... आज मुझे शर्म आ रही थी कि मेरा मित्र और उसके गांव वालों की सोच ऐसी है!!?
मैंने फैसला कर लिया कि मैं उसी से विवाह करुंगा और सबको बता दूंगा कि वह श्रापित और कुलटा नहीं है।

दूसरे दिन मैं फिर से तालाब की ओर चल पड़ा... वहीं रास्ता, वहीं पेड़ के पत्तों को कुचल ते हुए... मैं आज थोड़ा जल्दी में आगे बढ़ रहा था ।
जाने क्यों आज रास्ता लंबा लगने लगा था, लेकिन आज मुझे उससे बात करनी थी चाहे गांव वाले कुछ भी कहे लेकिन "मैं उसे अपनाऊंगा" ईस सोच के साथ में जल्दी जल्दी चलने लगा.....

वही पेड़ जिसके पीछे छुप कर मैं रोज उसको निहारता था.. वहीं पर मैं रुक गया, उस पेड़ के पीछे मैं उसका इंतजार करने लगा।

थोड़ी देर में वह वहां आ पहुंची... लेकिन आज वह अकेली थी, मुझे मेरे दोस्त की बात याद आ गई... गांव वालों ने उसकी सखियों को उसके साथ जाने के लिए मना किया था.... शायद इसलिए आज वह अकेली थी और बहुत उदास भी थी ।
वह पानी भरने के लिए आई तो थी लेकिन, आज ऐसा लग रहा था जैसे उसके आंसुओं से ही यह आधा तालाब फिर से पूरा भर जाएगा.... वह किनारे बैठ कर रो रही थी।

मैं आज हिम्मत करके उसके पास जा पहुंचा और उसको उसके नाम से पुकारा "मृणालिनी"...... उसने पीछे मुड़कर मुझे देखा और वापस मुंह फेर कर तालाब की ओर क्षितिज को देखने लगी, मानों अपने सवालों के जवाब ढूंढ रही हो!!!

मैं उसको भली-भांति समझने लगा था... बिना उसके कुछ कहे उसकी मनकी बातें और व्यथा मैं जान गया था।

मैं उसके और पास गया वह डर कर खड़ी हो गई, और वहां से जाने लगी.. मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा..... मृणालिनी मैं तुम्हारे बारे में सब जान चुका हूं लेकिन फिर भी मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूं, क्या तुम मुझसे विवाह करोगी!!???

वह मेरी आंखों में देखने लगी उसकी आंखों में बहोत से सवाल थे जिसके जवाब वह मुझसे चाहती थी, लेकिन वह कुछ बोल नहीं पा रही थी... फिर वह मेरा हाथ छुड़ा के वहां से चली गई, बिना कुछ बोले बिना मेरे सवाल का जवाब दिए।
मैं वहीं पर खड़ा उसको जाते हुए देख रहा था... अचानक से मुझे जाने क्या हुआ मैं उसके पीछे पीछे चल पड़ा. वह जाकर अपने झोपड़े में अंदर चली गई.... मैं भी उसके पीछे उसके झोपड़े तक चला गया मैंने बाहर से आवाज लगाई.... मृणालिनी मुझे तुमसे बात करनी है।

किंतु वह बाहर नहीं आई, शायद अभी भी वह रो रही थी । मुझे अंदर जाना उचित नहीं लगा क्योंकि, उसकी गरिमा को मैं चोट नहीं पहुंचाना चाहता था...
पहले से ही वह गांव में बदनाम हुई थी मैं अंदर जाकर उसको और बदनाम नहीं करना चाहता था ।
मैं थोड़ी देर प्रतीक्षा करके वहां से जाने लगा, लेकिन जाते जाते मैंने उसको बोला..... कि मैं कल तालाब के पास तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा इसी समय.... इतना कहकर मैं निकल गया।

उस रात मुझे नींद नहीं आ रही थी.... मैं घर से निकल कर बाहर बरामदे में खटिया डालकर सो गया लेकिन फिर भी मुझे नींद नहीं आ रही थी.... खुले आसमान में टिमटिमाते हुए तारों को देखते देखते मैं बस उसी के बारे में सोच रहा था... उसका उदास चेहरा, उसकी वह रोती हुई आंखें मुझे सोने नहीं दे रही थी... मैं उसे खुश देखना चाहता था, उसके अंग पर लाल रंग के वस्त्र देखना चाहता था.... उसके माथे पर कुमकुम देखना चाहता था....हाँ मैं उसको सुहागन देखना चाहता था।

अगले दिन सुबह उठते ही नित्यक्रम के अनुसार सभी काम जल्दी-जल्दी में निपटा कर मैं फिर से तालाब की ओर चल पड़ा.... मेरे मित्र ने मुझे पीछे से आवाज दी.... अरे गोविंद कहां जा रहे हो !!??
मैंने उसकी आवाज सुनी ना सुनी करके अपने पैरों को चलते रहने का मानों आदेश दे दिया.... जल्दी-जल्दी में चलते हुए मेरा पैर एक पत्थर से टकरा गया और मैं गिरते गिरते बच गया, पैर के अंगूठे में थोड़ी चोट लग गई थी और थोड़ा सा खून भी बहने लगा था... लेकिन उस दर्द को मैंने नजरअंदाज कर दिया और फिर से चलने लगा ।

फिर से वहीं कच्चा रास्ता, सूखे पत्ते, पेड और गाते हुए पंछी मानों आज मुझे चीख चीख कर पूछ रहे हों.... रोज तुम यहां से क्यों गुजरते हो!!???
क्यों तुम हमें गौर से देखते भी नहीं हो, सुनते भी नहीं हो!!?? इतने अधिर बन कर क्यों चले जाते हो यहाँ से!!! क्यों कभी हमारा सौंदर्य नहीं देखते हो!!??? क्यों हमारे साथ थोड़ा समय नहीं बिताते हो!??

किंतु मैं मूक बधिर बनके चला जाता हूं क्योंकि, मुझे केवल एक ही लक्ष्य दिख रहा है ... मृणालीनी
मैं उसको इन वनों के पक्षियों की तरह चहेकते हुए देखना चाहता हूंँ....
इन तितलियों की तरह खुले मन से उड़ते हुए देखना चाहता हूंँ,
इन फूलों को उसके काले घने बालों में सजाना चाहता हूंँ, अपने हाथों से उसका श्रृंगार करना चाहता हूंँ।

मैं तालाब के किनारे तक पहुंच गया लेकिन मृणालिनी नहीं आई थी थोड़ी देर प्रतीक्षा में मैं किनारे पर बैठ गया... पास में पड़ी पेड़ की एक टहनी हाथ में उठा कर पानी के साथ खेलने लगा, लेकिन आज यह तालाब और किनारा भी उदास लग रहा था..... मानों यह किनारा भी उसकी प्रतीक्षा कर रहा हो ऐसा लग रहा था।

अधिक समय बीतने के बाद मुझे लगा कि शायद अब वह नहीं आएगी... मैं उठकर वहां से जाने लगा तभी सामने से मुझे मृणालिनी आती हुई दिखाई दी... मैं खुश हो गया ।

वहीं खुले, काले बलखाते बाल और वहीं बदन से लिपटी हुई सफेद साड़ी में आज उसकी हिरनी जैसी चाल पर मेरी नजर पड़ी.... और उसकी वह हिरनी जैसी आंखें शायद इसीलिए मैंने इसको नाम दिया था मृगनैनी।

अब वह मेरे समीप आ चुकी थी... मैं बस उसको देखता रहा और वह मुझे देखती रही आंखों - आंखों में उसने मुझे बहुत कुछ कह दिया लेकिन मैं उसकी आवाज सुनने के लिए बेताब था... किंतु वह कुछ नहीं बोली ।
मैंने उस से बात करने का प्रयास किया मैंने कहा... जानती हो मृणालिनी जब मुझे तुम्हारा नाम नहीं पता था, तब मैंने तुम्हारा नाम मृगनयनी रखा था. क्योंकि तुम्हारी आंखें हिरनी जैसी है और तुम्हारी चाल भी हिरनी जैसी है।

यह सुनकर वह मुस्कुरा दी... फिर मैंने पूछा क्या तुम मुझसे विवाह करोगी!!!????

वह मुस्कुराई और नजरें झुका के मुझसे लिपट गई !!

मैंने उसको अपनी बाहों में भर लिया.... वह फुट - फुट कर रोने लगी, लेकिन मैंने उसे शांत नहीं किया मैं चाहता था वह अपने मन का सब बोझ हल्का कर दे मैंने उसे रोने दिया... और वचन दिया की कल ही देवी मां के मंदिर में माता को साक्षी मानकर मैं उससे विवाह कर लूंगा।

फिर वह जाने लगी वह कुछ नहीं बोली... मैं अभी भी उसकी आवाज सुनने के लिए बेताब था, मैंने उससे पीछे से आवाज दी मृणालिनी... कुछ तो कहो!!
मैं तुम्हारी आवाज सुनना चाहता हूंँ, तुम्हारी मर्जी तो जान चुका हूंँ लेकिन, तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूंँ...
कुछ तो बोलो!!?

वह फिर से मुस्कुराई और शरमाती हुई वहां से चलने लगी... मैंने फिर से आवाज दी.... कल इसी समय मैं यहां पर तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा... हम यहां से साथ साथ जाएंगे देवी मां के मंदिर, और विवाह करेंगे... तुम श्रृंगार करके आना।

यह दिन मुझसे कट नहीं रहा था.... रात को भी नींद नहीं आ रही थी, मैं बाहर बरामदे में सो रहा था.... चांद अपनी चांदनी बिखेर रहा था, उसकी रोशनी में यह मौसम और यह रात बहोत सुहानी लग रही थी।
मैं वहीं टिमटिमाते तारों को देखते देखते मृणालिनी के बारे में सोच रहा था.... मैं कल्पना में उसको सुहागन के रूप में देख रहा था, वह बहुत सुंदर लग रही थी... लाल साड़ी उस पर बहुत खिल रही थी, माथे पर लाल कुमकुम की बिंदी और सिंदूर.... उसके वहीं काले लंबे खुले बाल उसकी सुंदरता में चार चांद लगा रहे थे, हिरनी जैसी आंखें और उसमें लगाया हुआ काजल... उसकी आंखों में एक अलग ही चमक दिख रही थी ।
अब उसके चेहरे पर उदासी नहीं दिख रही थी, वह खुश थी मुस्कुरा रही थी... उसके बारे में कल्पना करते करते मेरी कब आंख लग गई पता ही नहीं चला।

अगले दिन सुबह उठते ही मैं तैयार होने लगा... आज खुद को आईने में देखकर बहुत खुशी हो रही थी कि मृणालिनी को उसका मनचाहा जीवनसाथी मिल जाएगा, और वह मैं ही हूं यह सोच कर मैं भी फूला नहीं समा रहा था... आज मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था।

मैं फिर से तालाब की और चल पड़ा.... वहीं कच्चा रास्ता और पेड़ और उनके वहीं सवालों को अनसुना करते हुए मैं चला जा रहा था. आज इन वनों के खिले खिले पुष्पों को देखकर मैं उन पर हंस रहा था, मानों उन से कह रहा था "क्यों घमंड करते हो अपनी खूबसूरती पर!!! क्या कभी मेरी मृणालिनी को देखा है ?? अगर मेरी मृणालिनी को देखते तो इतना घमंड ना होता तुम्हें" मैं इन फूलों पर हंसते हुए चलते चलते कब तालाब के पास पहुंच गया मुझे पता भी नहीं चला ।

यहां पर आकर देखा तो मुझे मेरी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.... वह बहुत सुंदर लग रही थी, लाल साड़ी में लिपटी हुई ठीक वैसी ही जैसी मैंने कल रात मेरी कल्पना में देखी थी...
उसकी आंखें मुझे ही देख रही थी... मानों मेरी प्रतीक्षा कर रही थी जाने कब से!!

मैं निशब्द हो कर वहीं पर बैठ गया तालाब के किनारे.... और तालाब में तैरती हुई उसकी लाश को मैंने अपने गोद में लिया, उसके चेहरे को अपने सीने से लगा कर मैं फूट-फूटकर रोने लगा...

क्यों ???

क्यों किया तुमने ऐसा???!

क्या डर था तुमको!!??

मैं साथ था तुम्हारे, फिर भी क्यों किया तुमने ऐसा!!??
आज भी वह कुछ नहीं बोली... बिल्कुल शांत.... चुप... निःशब्द वह बस मुझे देख रही थी ।

मैं घंटो तक वहां बैठकर रोता रहा.... वह मुझसे बहुत दूर जा चुकी थी... बहुत दूर...

अब मैं पागलों की तरह उसे इस तालाब के पास तो कभी उस वन में ढूंढता रहता हूं, उसकी आवाज सुनने के लिए बेताब मैं बस उसे ढूंढता रहता हूं..... मृणालिनी..... मृणालिनी..... मृणालिनी.....

लेखक - आशका शुकल "टीनी"