Biraj Bahu - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

बिराज बहू - 5

बिराज बहू

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

(5)

दो दिन बाद नीलाम्बर ने पूछा- “बिराज! सुन्दरी दिखाई नहीं पड़ रही है।”

बिराज ने कहा- “मैंने उसे निकाल दिया।”

नीलाम्बर ने उसे मजाक समझा, कहा- “अच्छा किया, मगर उसे हुआ क्या?”

“सचमुच मैंने उसे निकाल दिया।”

“मगर उसे हुआ क्या?” नीलाम्बर को अब भी यकीन नहीं आ रहा था। उसने समझा कि बिराज चिढ़ गई है, इसलिए चुपचाप चला गया। घण्टे-भर बाद आकर बोला- “उसे निकाल दिया, कोई बात नहीं, पर उसका काम कौन करेगा?”

बिराज ने मुंह फेरकर कहा- “तुम।”

“फिर लाओ, मैं जूठे बर्तन साफ कर दूं।”

बिराज का चेहरा बदल गया। उसने पति की चरणधूलि लेकर कहा- “तुम यहाँ से चले जाओ, ऐसी बातें सुनना भी महापाप है।”

नीलाम्बर ने हंसकर कहा- “पता नहीं, तुम्हें किस बात से पाप नहीं लगता है।”

फिर भी नीलाम्बर की चिन्ता कम नहीं हुई। उसने शान्त होकर पूछा- “तुमने खर्च कम करने के लिए सुन्दरी को निकाल दिया?”

“ना, उसने सचमुच अपराध का है।”

“क्या?”

“नहीं बताती।” वह चली गई। थोड़ी देर बाद फिर आकर बोली- “ऐसे ही बैठे रहोगे?”

नीलाम्बर ने लम्बा सांस लेकर कहा- “सुनो, मैं तुम्हें दासी का काम नहीं करने दूंगा।”

बिराज ने जोर देकर कहा- “तुम सदा अपनी मर्जी का करते आए हो, मेरी तुमने कभी भी नहीं सुनी। मैं कुछ भी कहती हूँ तो तुम कोई-न-कोई बहाना करके टाल देते हो। बड़े दुःख से आज मुझे कहना पड़ रहा है कि तुम केवल अपनी ही सोचते हो। आज तुम्हें मुझे दासी का काम करते देख लज्जा आ रही है, अगर कल तुम्हें कुछ हो जाए तो परसों मुझे पराये घरों में दासी का काम ही तो करना पड़ेगा।”

इस विचित्र अभियोग से नीलाम्बर मौन हो गया। कुछ देर बाद बोला- “यह सब तुम शायद नाराज होकर कह रही हो, वरना तुम खूब जानती हो कि स्वर्ग में बैठकर भी मैं तुम्हारे दुःख नहीं देख पाऊंगा।”

बिराज ने कहा- “मैं भी पहले ऐसा ही समझती थी, पर पुरुषों की माया-ममता का पता भी समय के बिना अच्छी तरह नहीं जाना जा सकता। अब शायद तुम्हें याद न हो-छुटपन में मेरे सिर में दर्द था, मैं सो गई थी। तुम्हें विश्वास नहीं हुआ कि मैं बीमार हूँ। उसी दिन मैंने कसम खाई थी कि मैं तुम्हें कुछ भी नहीं कहूँगी। आज तक मैं अपनी कसम पर अडिग हूँ।”

नीलाम्बर कुछ क्षण चुप रहा, फिर चल पड़ा।

***

रात के समय दीया जलाकर बिराज पत्र लिख रही थ। नीलाम्बर लेटे-लेटे सब कुछ देख रहा था। अचानक वह बोला- “इस युग में तो तुम्हारा शत्रु भी तुम पर दोष नहीं लगा सकता, पर पूर्वजन्म में पाप किए बिना ऐसा नहीं होता।”

बिराज ने सिर उठाकर कहा- “क्या नहीं होता?”

नीलाम्बर ने कहा- “ईश्वर ने तुम्हें राजरानी की तरह बनाया है, परंतु...!”

“परंतु क्या?”

नीलाम्बर चुप रहा।

एक पल के लिए चुप रहकर बिराज रुखे स्वर में बोली- “यह समाचार तुम्हें ईश्वर कब दे गए?”

नीलाम्बर ने कहा- “आँख-कान हो तो भगवान सबको समाचार देते रहते है।”

बिराज ‘हूँ’ कहकर चुप हो गई।

नीलाम्बर ने कहा- “तुम्हारे जैसी कितनी ही स्त्रियां मुझ जैसे मूर्ख के पल्ले पड़ी हुई है।”

बिराज से सहा नहीं गया। पूछा- “तुम समझते हो कि ऐसी बातों से मुझे खुशी होती है?”

नीलाम्बर ने समझ लिया कि बिराज क्रोधित हो गई है। वह सोचता रहा कि कैसे प्रसन्न करे।

बिराज बिफर पड़ी- “रुप-रुप-रुप...। सुनते-सुनते मेरे कान पक गए। दूसरे लोग भी कहते हैं। शायद वे विशेषतः यही देखते हैं, किंतु तुम तो मेरे पति हो! बचपन से ही तुम्हारे आश्रय में रहकर मैं बड़ी हुई हूँ। तुम भी इससे अधिक कुछ नहीं देख पाते? सब यह सुन्दरता ही मुझमें सर्वस्व है? क्या सोचकर यह बात तुम अपनी जबान पर लाते हो? मैं क्या रुप का व्यापार करती हूँ या इसी रुप में फंसाकर तुम्हें रखना चाहती हूँ?”

नीलाम्बर ने आकुल स्वर में कहा- “ना... ना, ऐसा नहीं है।”

“मैं घरेलू बेटी और बहू हूँ। इस तरह की बातें करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती?” कहते-कहते क्रोध और अभिमान में उसकी आँखो में अश्रु झिलमिला आए जो दीये के उजाले में स्पष्ट चमक रहे थे।

स्वयं बिराज ने एक बार कहा था कि हाथ पकड़ लेने से गुस्सा ठंडा हो जाता है। नीलाम्बर को वह बात याद आ गई। उसने बिराज का दाहना हाथ अपने हाथ में ले लिया। बाएं हाथ से बिराज की आँखें पोंछ डालीं।

उस रात दोनों बड़ी देर तक सो नहीं पाए। नीलाम्बर ने बिराज की ओर देखकर कहा- “आज तुम्हें इतना गुस्सा क्यों आ गया?”

“तुम बात ही ऐसी करते हो।”

“मैंने कोई बुरी...।”

“बुरी बात के लिए ही तो मैंने सुन्दरी को...।”

“बस... इतनी-सी बात...?”

बिराज अपने-आपसे कहने लगी- “सुनो, हठ नहीं करो। मैं दूध पीती बच्ची नहीं हूँ। भला-बुरा समझती हूँ। उसने ऐसा काम किया कि मैंने उसे निकाल दिया। उसकी सारी कथा मर्द न सुने, यही बेहतर है।”

“मैं सुनना भी नहीं चाहता” नीलाम्बर इतना कहकर करवट बदलकर सो गया।

***

बंटवारे के साथे ही पीताम्बर ने बांस और चटाई की दीवार बना ली थी, आगे एक बैठक थी। घर को सजाकर आरामदायक बना लिया। वैसे ही वह नीलाम्बर से कम बोलता था और अब तो उससे लगभग कोई संबंध भी नहीं रहा। सुन्दरी के जाने के बाद कई कार्य ऐसे थे जिन्हें लोक-लाज के डर से बिराज रात को देर से करती थी इसलिए उसे कभी-कभी रात को देर तक जागना भी पड़ता था।

एक बार रात को इसी तरह काम कर रही थी कि उसकी देवरानी मोहिनी ने आकर कहा- “दीदी! रात बहुत हो गई है।”

बिराज चौंक पड़ी।

“दीदी, मैं हूँ मोहिनी।”

बिराज ने आश्चर्य से पूछा- “छोटी बहू, इतनी रात को....।”

“दीदी, तनिक मेरे पास आओ।”

बिराज समीप गई।

मोहिनी ने पूछा- “जेठजी सो गए?”

“हाँ।”

मोहिनी ने कहा- “कुछ कहना चाहती हूँ, पर कहने का साहस नहीं पड़ता।” जैसे छोटी बहू हो रही हो।

बिराज बोली- “क्या बात है?”

“जेठजी पर नालिश हुई है! कल सम्मन आएगा। अब क्या होगा दीदी?”

बिराज भीतर-ही-भीतर डर गई, पर अपने मन के भावों को छुपाती हुई बोली- “तो इसमें डरने की क्या बात है बहू?”

मोहिनी ने पूछा- “कोई डर नीं है दीदी”?

“मगर नालिश किसने की है।”

“भोला मुखर्जी ने।”

“अब समझी।” बिराज ने कहा- “मुखर्जी मोशाय का पावना है, इसलिए नालिश की है।”

मोहिनी ने कुछ पल मौन रहने के बाद कहा- “दीदी! मैंने तुमसे कभी भी अधिक बातचीत नहीं की, मगर आपको मेरी एक बात माननी पड़ेगी।”

“मानूंगी बहन!”

“तो अपना हाथ इस टिकटी की ओर बढ़ा दो।”

बिराज के हाथ बढ़ाते ही मोहिनी ने उसके मुलायम और छोटे-से हाथ पर एक सुनहला हार रख दिया।

बिराज चकित रह गई- “छोटी बहू! यह क्यों दे रही हो?”

“इसे बेचकर या गिरवी रखकर आप अपना कर्ज उतार दीजिए।”

“नहीं, ऐसा नहीं हो सकेगा। कल छोटे बाबू को मालूम होगा तो...?”

“उन्हें कभी भी मालूम नहीं होगा, दीदी! यह मेरी माँ ने मरते समय मुझे दिया था और मैंने उनसे छुपाकर रखा था।”

बिराज आँखे भर आई। वह आश्चर्य में डूब गई। इस स्त्री से उसका कोई संबंध नहीं है और ये सगे भाई... वह तुलना करने लगी। वह भरे गले से बोली- “अन्त समय तक यह बात याद रहेगी। मगर पति के चोरी-छुपे काम करने से हम दोनों को पाप लगेगा।” उसने फिर कहा- “सबको मैंने जाना, पर तुम्हें नहीं जान सकी। बहुत रात हो गई बहन, भीतर जाकर सो जाओ।” और बिराज कुछ सुने ही भीतर आकर बरामदे में आंचल बिछाकर सो गई। जब नीलाम्बर ने आवाज लगाई तो भीतर चली गई।

***

एक साल बीत गया। अकाल की काली छायाएं गई नहीं। दो आने भी फसल नहीं हुई। जिस जमीन से पूरे बरस का काम चलता था, उसे भोला मुखर्जी ने खरीद लिया। लोगों का दबी जबान से यह कहना था कि जमीन पीताम्बर ने चुपचाप खरीद ली है।

बिराज काफी गंभीर और बहुत ही चिड़चिड़े स्वभाव की हो गई थी। इधर हरिमती के ससुर ने उसे पीहर भेजना बन्द कर दिया था। नीलाम्बर के पत्र का उत्तर तक देना भी उन्होंने ठीक नहीं समझा।

***

उस दिन दोपहर को नीलाम्बर ने थोड़ा चिढ़ते हुए कहा- “पूंटी ने कौन-सा अपराध किया है कि तुम उसके नाम से चिढ़ने लगी हो?”

“यह किसने कहा?” बिराज ने झट से पूछा।

नीलाम्बर बोला- “मैं खुद समझता हूँ।”

उसके तीन दिन बाद चण्डी-मण्डप में बैठा नीलाम्बर कुछ गुनगुना रहा था कि बिराज आई। आकर भड़ककर बोली- “दम लगाना फिर शुरु कर दिया?”

नीलाम्बर आँखे झुकाए काठ के पुतले-सा बैठा रहा।

थोड़ी देर तक शान्त रहने के बाद उसने कहा- “दम लगाकर बम भोला बनने का यही समय है?” कहकर वह भीतर चली गई।

उसके तीसरे दिन अपने छोटे भाई पीताम्बर को नीलाम्बर ने बुलाकर कहा- “पूंटी के ससुर ने मेरे खत का जवाब तक नहीं दिया। तुम्हीं एक बार कोशिश करके देखते।”

“तुम्हारे रहते भला मैं क्या कोशिश करुं?”

“तुम समझ लो कि मैं मर गया।”

“सत्य को असत्य कैसे मान लूं?” पीताम्बर ने कहा- “फिर उसक शादी के पहले मुझसे राय ली थी? लेते तो मैं कोई राय दे देता।

नीलाम्बर उसकी धूर्तता से चिढ़ गया और उसकी इच्छा उसे पीटने की हुई। यदि वहाँ से चला न जाता तो वह उसे पीट ही डालता।

गोलमाल देखर बिराज आई तो उसने नीलाम्बर से कहा- “छिः-छि! क्या भाई से झगड़ा किया जाता है? सभी सुनकर हंसेंगे।”

नीलाम्बर ने कहा- “मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ, पर धूर्तता नहीं।”

बिराज नाराज होकर चली गई। इसके पूर्व भी वह कई बार झगड़ चुकी थी, पर आज कुछ और ही बात थी। थोड़ी देर बाद आकर बिराज ने कहा- “नहा-धोकर और पाठ पूजा करके खा लो। जब तक मिलता है तभी तक सही।” बिराज ने कलेजे पर एक कांटा और चुभो दिया।

नीलाम्बर राधाकृष्ण की मूर्ति के सामने रो पड़ा। मगर तुरतं ही उसने आँखें पोंछ लीं ताकि कोई देख न सके।

बिराज भी बिना खाए-पीए दिनभर रोती रही। ईश्वर से प्रार्थन करती रही- कष्ट निवारण हेतु।

रात को नीलाम्बर बिना खाए बिस्तर पर लेट गया। नौ बजे बिराज ने आकर अपने पति के पांवो पर हाथ रखा- “चलो, खाना खा लो।”

नीलाम्बर चुप रहा। बिराज ने फिर कहा- “आज दिनभर से भूखे हो। किस पर नाराज हो, यह मैं भी तो जानूं... बताओ न!”

“क्या होगा सुनकर?”

इस बार नीलाम्बर उठ बैठा। बिराज के चेहरे पर अपनी आँखें गड़ाकर उसने कहा- “मैं तुमसे बड़ा हूँ, कोई मजाक नहीं।”

ऐसी गम्भीर आवाज बिराज ने पहले कभी नहीं सुनी थी। स्तब्ध रह गई।

***