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बिराज बहू - 12

बिराज बहू

शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

(12)

पन्द्रह माह बीत गए...

शारदीय-पूजा के आनन्द का अभाव चारों ओर दिख रहा है। जल-थल-पवन और आकाश सब उदास-उदास।

दिन का तीसरा पहर। नीलाम्बर एक कम्बल ओढ़े आसन पर बैठा था। शरीर दुबला, चेहरा पीला-पीला। सिर पर छोटी-छोटी जटाएं तथा आँखों में विश्वव्यापी करुणा और वैराग्य! महाभारत का ग्रन्थ बन्द करके भाई की विधवा बहू को पुकारा- “बेटी, मालूम होता है कि पूंटी आदि आज नहीं आएंगे।”

छोटी बहू ने बिना किनारी की धोती पहन रखी थी। वह थोड़ी दूर बैठी। महाभारत सुन रही थी। समय का ध्यान करके वह बोली- “पिताजी! अभी समय है, वे आ सकते है।”

ससुर की मृत्यु के उपरान्त पूंटी स्वतंत्र हो गई थी। पति और नौकर-चाकरों के साथ आज वह पिता के घर आने वाली थी। यह समाचार उसने पहले ही भिजवा दिया था कि पूजा के दिनों में वह वहीं रहेगी। उसे यह भी नहीं मालूम था कि उसकी भाभी चली गई हैं और उसके छोटे भाई पीताम्बर को छ: माह पूर्व सांप ने काट लिया था और अब वह इस संसार में नहीं रहा है।

नीलाम्बर ने कहा- “अगर वह नहीं आती तो ही अच्छा। एक-साथ वह इतने दु:ख बर्दाश्त नहीं कर पाएगी।”

लम्बे समय के बाद आज उसकी आँखों में अपनी लाड़ली व स्नेहमयी बहन के लिए आँसू दिखलाई पड़े। सांप के काटने के बाद पीताम्बर ने कोई झाड़-फूंक नहीं करने दी। कोई दवा-दारु नहीं की। वह सिर्फ उपने भाई के चरणों को पकड़कर बार-बार यही कहता रहा- “दादा! मुझे कोई दवा नहीं चाहिए। मुझे अपने चरणों की धूलि माथे पर लगाने दो तथा मुंह में लेने दो। इससे अगर नहीं बचा तो मैं बचना भी नहीं चाहता।” आखिरी सांस तक वह उसके पांवों में सिर रगड़ता रहा। उसी दिन नीलाम्बर आखिरी बार रोया था। आज उसकी वही आँखें फिर भर आई। पतिव्रता साध्वी छोटी बहू भी चुपके से अपने आँसू पोंछने लगी।

नीलाम्बर ने कहा- “बेटी, पीताम्बर की तरह भगवान यदि बिराज को भी अपने पास बुला लेता तो आज मेरे लिए सुख का दिन होता। मगर यह सब हुआ नहीं। पूंटी अब समझदार हो गई है। अपनी भाभी के कलंक की बात सुनकर उसे घोर पीड़ा होगी। तब वह सिर ऊंचा करके देख भी नहीं सकेगी।”

***

सुन्दरी अपनी ही आत्मग्लानि में पागल-सी हो गई। कुछ दिनों बाद जब उसकी सहन-शक्ति खत्म हो गई, तब उसने दो माह बाद यह बता दिया था कि बिराज मरी नहीं, बल्कि वह राजेन्द्र बाबू के साथ भाग गई है। तब नीलाम्बर की आन्तरिक पीड़ा उससे देखी नहीं गई। उसने सोचा था कि ऐसी घिनौनी बात सुनकर वे गुस्से से उबल जाएंगे और बिराज की याद को अपने दिल से निकाल देंगे। यह बात घर आकर उसने छोटी बहू को बताई थी।

यही बात छोटी बहू को याद हो आई। थोड़ी देर चुप रहकर उसने कहा- “यह बात ननद जी को नहीं बताई जाएगी।”

“कैसे छुपाऊंगा बेटी?”

“जी सभी जानते हैं, उसे ही पूंटी को बता दिया जाएगा कि बिराज नदी में डूब मरी है।

“यह नहीं होगा बेटी! सुना है, पाप छुपाने से और बढ़ता है। हम उसके अपने हैं। अब हम उसके लिए पाप का बोझ नहीं बढ़ाएंगे।”

थोड़ी देर बाद मोहिनी बोली- “पिताजी! शायद यह बात झूठी हो।”

“क्या तुम्हारी दीदी की बातें?”

छोटी बहू सिर झुकाए खड़ी रही।

नीलाम्बर ने कहा- “बेटी! तुम्हें मालूम है कि गुस्से में वह पागल हो जाती थी। उसका स्वभाव बचपन से ही ऐसा था। फिर उस पर मैंने जितना अत्याचार और अनादर किया, उसे तो भगवान भी सहन नहीं कर सकता था।”

दो क्षण बाद नीलाम्बर ने हाथ से आँसू पोंछकर कहा- “बेटी! सभी बातों की याद आती है तो छाती फटने लगती है। उस अभागिन बिराज ने तीन दिनों से खाया-पीया नहीं था। बुखार में कांपते-कांपते, वर्षा में भीगते-भीगते मेरे लिए चावल मांगने गई थी। और इसी अपराध पर मैंने उसे...।” नीलाम्बर का कलेजा दर्द से भर आया। धोती का पल्लू मुंह में डालकर उसने अपने उच्छवास को रोकना चाहा।

छोटी बहू भी उसी तरह रो रही थी। वह भी एक शब्द नहीं बोली। थोड़ी देर संयत होकर अपने आँसू पोंछकर नीलाम्बर ने फिर कहा- “बेटी! बहुत-कुछ तुम्हें मालूम है, फिर भी सुनो, उसी रात वह उन्मत्त होकर सुन्दरी के घर पहुंच गई थी और उसी रात पैसों के लोभ में पड़कर सुन्दरी ने उसे राजेन्द्र के बजरे में पहुंचा दिया था।”

वात पूरी होने से पहले ही लज्जा और पीड़ा से तिलमिलाकर छोटी बहू चिल्ला पड़ी- “ना-ना... यह सच नहीं हो सकता, कदापि नहीं। पिताजी! मेरी दीदी जीते-जी ऐसा काम नहीं कर सकती। वह तो सुन्दरी को देखना भी पसन्द नहीं करती थी।”

नीलाम्बर बोला- “बेटी! शायद तुम्हारी बात ही सच हो। उसके शरीर में प्राण नहीं था। जब उसकी बात और बुद्धि ठीक थी, तभी उसने मुझे अपने प्राण अर्पण कर दिए थे।” नीलाम्बर ने अपनी आँखें बन्द कर ली, मानो वह अन्तर्मन से सबकुछ देखने की चेष्टा कर रहा हो।

सान्ध्य-दीप जलाते-जलाते छोटी बहू सोच रही थी-दीदी इन्हें पहचानती थी, इसलिए तो एक दिन भी इन्हें छोड़कर जीवित रहना नहीं चाहती थी।

***

चार साल के बाद पूंटी पीहर आई थी- एक बड़े आदमी की तरह। उसके साथ था उसका पति, पाँच-छ: माह का बेटा, चार दास-दासियां और ढेर सारा सामान!

नौकर यदु ने सबकुछ स्टेशन और घर के बीच ही बता दिया था। वह दादा की गोद में आकर फूट-फूटकर रो पड़ी। उस रात तो उसने पानी तक नहीं पीया। पहले वह भाभी का संकोच करती थी, उससे डरती थी। ससुराल जाने के एक दिन पूर्व उसे भाभी ने डांटा था तो वह भैया के गले में झूलकर खूब रोई थी। वह दादा को केवल पुरुष ही नहीं, बल्कि अपनी माँ भी मानती थी। उसी स्नेहमय दादा को उसने इतने दु:ख दिए। उसने दादा को जर्जर व पागल-सा बना दिया। उस पर उसके क्रोध व दु:ख की कोई सीमा नहीं थी। अपने दादा के दु:खों के सामने उसे अपने दु:ख बहुत छोटे लगे। उसे अपने ससुराल वालों से घृणा-सी हुई। छोटे भाई की सर्पदंश से हुई मृत्यु ने उसे अधिक व्यथित नहीं किया, बल्कि वह छोटी भाभी के प्रति उदासीन हो गई।

दो दिनों के बाद उसने अपने पति को बुलाकर कहा- “तुम सब कुछ लेकर चले जाओ। मैं दादा को लेकर पश्चिम की यात्रा करुंगी। अच्छा तो यह होगा कि आप भी मेरे साथ चलें।”

बहुत वाद-विवाद के बाद पूंटी के पति यतीन्द्र ने यह ठीक समझा कि वह अपना माल-असबाब लेकर वापस चला जाएगा। वह चला भी गया।

यात्रा की तैयारियां होने लगी। पूंटी ने गुप्त रुप से सुन्दरी को बुलाया था, पर वह नहीं आई। उसने कहलवा दिया था उसे जो कुछ कहना है, वह पहले ही कह चुकी है! अब मैं अपना मुंह और नहीं दिखा पाऊंगी।

पूंटी क्रोध में होंठ काटकर रह गई? पूंटी की उपेक्षा और निर्मम व्यवहार से छोटी बहू को भी कितनी ठेस लगी, वह भगवान ही जानते थे। वह मन-ही-मन कह उठी, दीदी! तुम्हारे सिवाय मुझे इस धरती पर कौन समझेगा? तुम जहाँ कहीं भी हो, सुखी रहो। यदि तुमने वहाँ से ही मुझे क्षमा कर दिया है तो वही मेरे लिए सर्वस्व है।

छोटी बहू सदा शान्त भाव से रहती थी और कभी भी उसने किसी से कोई शिकायत नहीं की। सबकी सेवा वह शान्त भाव से करती रही। जेठ को खिलाने का जिम्मा पूंटी ने ले लिया, अत: अब नीलाम्बर के पास भी नहीं बैठती थी।

रवानगी का दिन आ गया। नीलाम्बर ने आश्चर्य से कहा- “बहू! तुम नहीं चलोगी?”

छोटी बहू ने ‘न’ के लहजे में गर्दन हिला दी।

पूंटी भी बच्चे को गोद में लिए आ गई। नीलाम्बर ने कहा- “बेटी! यह नहीं हो सकता। तुम यहाँ अकेली कैसे रहोगी और रहकर भी तुम क्या करोगी? चलो।”

“नहीं पिताजी!” छोटी बहू ने गर्दन झुकाए हुए कहा- “मैं कहीं भी नहीं जा सकूंगी।”

छोटी बहू के पीहरवाले सम्पन्न थे। उन्होंने कई बार बुलाने की चेष्टा भी की थी, पर वह किसी भी कीमत पर जाने को तैयार नहीं हुई।

तब नीलाम्बर यही सोचता था कि वह मेरी वजह से पीहर जाना नहीं चाहती, पर अब वह सुनसान घर में अकेली क्यों रहना चाहती है? बोला- “क्यों बेटी, ऐसी क्या बात है कि तुम कहीं नहीं जा सकोगी?”

वह निरुत्तर रही।

“बेटी! यदि तुमने नहीं बताया तो मेरा भी जाना नहीं होगा।”

छोटी बहू ने कहा- “आप जाइए... मैं रहूंगी।”

“लेकिन क्यों?”

छोटी बहू खामोश रही। उसके भीतर एक द्वन्द्व चल रहा था। वह थूंक निगलकर बोली- “पिताजी! शायद दीदी आ जाएं, इसलिए मैं कहीं भी जाना नहीं चाहती।”

नीलाम्बर की आँखों के आगे अंधेरा छा गया। पलभर के लिए वह विमूढ़ रहा। तुरन्त ही अपने-आपको संभालकर होंठों पर क्षीण मुस्कान लाकर बोला- “बेटी! यदि तुम पागल हो गई तो मेरा क्या होगा?”

छोटी बहू ने क्षणभर आँखें मूंदकर सोचा। फिर बोली- “पिताजी! मैं पागल नहीं होऊंगी। आप कुछ भी सोचें, मगर जब तक चन्द्र-सूर्य है तब तक मैं ऊटपटांग बातों पर विश्वास नहीं कर सकती।”

पूंटी और नीलाम्बर अवाक उसे देख रहे थे। छोटी बहू ने फिर कहा- “पिताजी! आपके चरणों में मर जाने का जो वरदान दीदी ने मांगा था, वह झूठा नहीं हो सकता। सती-लक्ष्मी जैसी मेरी दीदी अवश्य आएंगी। जब तक जिऊंगी, इसी आशा में उनकी प्रतिक्षा करती रहूँगी। पिताजी! मुझे कहीं भी जाने के लिए मत कहिएगा।” वह निरन्तर बोल रही थी, इसलिए, हांफने लगी।

नीलाम्बर से नहीं रगा गया तो वह रो पड़ा। फिर वह एक ओर भाग गया।

पूंटी ने एक बार चारों ओर देखा, फिर छोटी बहू के समीप आई। बच्चे को उसके पांवों के पास बिठाकर भाभी के गले से लिपटकर फूट-फूट कर रोने लगी। वह अस्पष्ट स्वर में बुदबुदाई- “भाभी⌡! मुझे क्षमा कर दो, क्षमा... मैं तुम्हें पहचान नहीं सकी।”

छोटी बहू ने झुककर उसके बेटे को उठा लिया। फिर उसके मुंह से अपना मुंह सटाकर आँसूओं को छुपाने के लिए रसोईघर में भाग गई।

***