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मुख़बिर - 19

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(19)

चिट्ठी

मैंने सुनाना आरंभ किया ।

हम लोग दोपहर को एक पेड़ के नीचे बैठे थे कि दूर से धोती कुर्ता पहने बड़े से पग्गड़ वाला एक आदमी आता दिखा । बागी सतर्क हो गये । वह आदमी थोड़ा और पास आया तो कृपाराम ने पहचाना -‘‘अरे ये तो मजबूतसिह है, अपना आदमी !‘‘

अपना आदमी, यानि कि बागियों का मुखबिर !

कृपाराम उठा और मजबूतसिंह से अलग से बतियाने के लिए आगे वढ़ गया ।

वे लोग देर तक बातें करते रहे । फिर मजबूतसिंह चुपचाप वापस चला गया । लौट कर कृपाराम ने उदास भाव से बताया कि गिरोह को जल्दी से जल्दी यह एरिया छोड़ देना है, क्योंकि इधर का एस पी का तबादला हो गया है, और नया कप्तान हमारी तलाश में अपने अफिस के बजाय ज्यादातर समय बीहड़ में ही घूमता रहता है। मजबूतसिंह कह रहा है कि हो सकता है कि एसपी किसी दिन हम सबको इधर बेहड़ में आकर अचानक ही घेर ले ।..........उधर इस थाने के इलाके में तोमर नाम का एक नया दरोगा आया है । उन दोनों ने अखबार वालों के सामने कृपाराम के गिरोह को उल्टी सीधी गालियां दी हैं । तोमर ने तो सौगंध खाई है कि वह कृपाराम और श्यामबाबू का नामोनिशान मिटा देगा, तब दम लेगा। यह खबर सुनकर अचानक ही सब बागियों के मुंह उतर गये ।

श्यामबाबू बड़ा दिलेर आदमी था, यह खबर सुनकर षायद उसे किसी प्रकार की चिंता नहीं हुयी, क्योंकि वह तुरंत बोला था- ऐरिया तो छोड़ चलो, लेकिन उसके पहले एक ऐसी वारदात कर चलो कि एस पी अपनी हेकड़ी भूल जाये ।

‘‘ तो फिर चलो आज रात ही एक जगह पकड़ कर लें, अपयें पास मुखबिर की खबर है !‘‘ कृपाराम अचानक बोला।

चारों बागी हम अपहृतों से दूर एक कोने में जाकर योजना बनाने लगे ।

उस दिन रात का खाना खूब जल्दी यानी कि सई- संझा के बखत हो गया था ।

रात का गहरा अंधेरा था । छहों पकड़ के हाथ बंधे थे, अजय राम हमे डोरियाये हुये चल रहा था । हम लोग खेतों में चलते हुये उस उजाले की ओर बढ़ेे जा रहे थे, जो यहीं से काफी दूर दिख रहा था ।

कुछ निेकट पहुंचे तो नजारा स्पष्ट दिखा । खेत के बीचों-बीच कुये पर जलते हुये बल्ब का प्रकाश था वह । कुंये के पास की कोठरी में से बिजली की मोटर चलने की आवाज आ रही थी । खेत में दो लोग पानी देते दीख रहे थे । खेत के चारों ओर दस-दस फिट की दूरी पर लकड़ी की थूमी गाड़ कर एक पतले तार का घेरा बना दिया गया था, जिस पर हर चार-पांच फिट की दूरी पर प्लास्टिक की खाली पन्नीयां बांाध कर लटका दी गई थीं, जो तनिक सी हवा के चलते ही ‘फर फर‘ की आवाज के साथ पक्षियों को

अजयराम की निगरानी में हम सबको एक पेड़ के पास खड़ा छोड़ कर श्यामबाबू कृपाराम और कालीचरण बिल्ली की तरह बिना आवाज पांव रखते हुये खेत में पानी देते उन लोगो तक जा पहुंचे । लेकिन सतर्कता की इतनी जरूरत नहीं थी वहां । वे दोनों तो सपने में भी आशा नहंी करते थे कि उन्हे कोई बागी इस तरह पकड़ सकते है । उन लोगों के पास न हथियार था, न किसी तरह का कोई दूसरा बंदोबस्त ।

जमीन में पटककर दस मिनट तक पहले तो उन्हे खूब मारा-पीटा फिर कृपाराम ने उन लोगों से पूछताछ शुरू की ‘‘ अपयीं जात और नाम बताओ सारे !‘‘

उनमें से एक युवक रोते हुए बोला-‘‘ मै किसन और ये विसन रावत है । हम रावत विरादरी के है। ‘‘

यह सुन कर कृपाराम बोला था ‘‘ यह तो हमको भी पता है कि तुम दोऊ रावत हो। सारे रावत डाकू के भाई बंद हो न ! तुमने हमारी जाति वारों को बहुत रूलाया है, वाही को नतीजा है कै तुम आज हमारे कब्जे में बंधे खड़े हो तुम ।‘‘

वे गिड़गिड़ाये कि हमारा रावत डाकू से कोई संबंध नहीं है । पर कृपाराम ऐसे बखत ज्यादा जल्लाद हो जाता था । उसने मां की गाली देते हुये उन्हे डांटा और अपने साथियों से बोला ‘‘ बांधि लेउ इन सारेन्ह को ।‘‘

किसन और विसन के बताने पर मोटर वाली कोठरी से एक आदमी पकड़ में आया तो पता लगा कि वह बूढ़ा व्यक्ति इन दोनेां का पिता है ।

कृपाराम सदैव ही क्षणभर में अपनी नयी रणनीति तय कर लेता था उसने तत्काल ही मुझसे कहा- दो चिट्ठी लिखो, एक तोमर दरोगा के नाम और एक एसपी के नाम ।

मैंने डायरी में से एक पेज फाड़ा और चिट्ठी लिखने बैठ गया। कृपाराम ने बोलना शुरू किया -

एसपी मुन्नालाल को बागी सम्राट कृपाराम की जैराम जी की ।

तुम्हे इतना समझाया, पर तुम माने नहीं । तुम्हे अपने छोटेबबच्चों

और प्यारी सी लुगाई से कोई मोह ममता नहीं दिखती । इसका

फल तुम जल्दी ही भोगोगे ।

सुन ले रे हरामी तु अगर अपने बाप की असल औलाद है तो हम

चैलेज दे रहे हैं कि इस किसन और विसन को हमारी पकड़ से

छुड़ा ले ।

अब भी भाग सकता है तो इस इलाकेसे तबादला कराके भाग जा

नामर्द । हम आठ दिन के भीतर तेरे इलाके से दस आदमी और

पकड़ेंगे, मर्द होये तो रोक लिये ।

कृपाराम ने एस पी के बाद दरोगा के नाम भी अश्लील गालियों से भरी ऐसी ही एक और चिट्ठी लिखाईं । मुझे लिखते वक्त मन ही मन डर लगता रहा, कि खामखां मेरी हैंड राइटिंग होने से कल को मैं न फंस जाऊ ! पर इस वक्त न मना करने की स्थिति थी, न मना करने की मेरी हिम्मत थी ।

एस पी को देने के लिए वे दोनों चिट्ठी किसन-विसन रावत के पिताको सोंप दी गयी ।

बूढ़े ने चिट्ठी संभाल ली तो कृपाराम बोला ‘‘ अगर तैं अपने इन बेटन को जियत वापस चाहतु है, तो पांच लाख रूपया लै के अमाउस की रात को माता वारी पहाड़ी पै आ जइये हां पुलस को मत बतइये नही तो लाशइ मिलेगी इनकी ।‘‘

‘‘ सिरकार हम गरीब आदमी हैं, इतनो पैसा कहां ते आयेगो । ले दे के पांच बीघा जमीन है । इतनी गुंजाइसउ नहीं है कि बटियारे लगा सकें, नही तो आज का फसल में हम पानी देवे हम आते का, वे ही बटियारे आते, और जो दिन सामने आतो का सिरकार !‘‘ कहते हुये बूढ़ा कृपाराम के पांव पकड़ने लगा, तो कृपाराम ने अपनी पंचफैरा बन्दूक उस पर तान दी थी और उसे डांटा-‘‘ अब तैं चुप्प रह डोकरे, जो कहो है सो मानलै, नहीं तो तेये बेटन की लाश चील कउआ खावेंगे ।‘‘

बूढ़ा हिलकी ले कर रो उठा, बोला-‘‘ मुखिया, तिहाये पांव पकड़ रहो । मेरे बच्चन को कछु मत बिगारियों, मैं अपनी बोटी-बोटी बेच के तुम्हाओ हुकम पूरो करिेंगो । इन्हे हाथ मति लगाइयो !‘‘

वह पूरी रात चलते ही बीती । सुबह होते-होते हम लोग वहां से बीस किलोमीटर से भी ज्यादा दूर पहुंच गये थे ।

हमेशा की तरह एक पहाड़ी के ऊपर ही ठहरना पंसद किया बागियों ने।

अजय राम को ऐसी थकान में प्रायः बुखार हो जाता था । उसने लेेटे लेटे ही मुझे आवाज दे कर कोई गोली-वोली देनेका हुकुम दिया, तो थका होने पर भी मैं चट से उठ कर बैठ गया ।

मैंने उसे पानी से दर्द की एक गोली खिलायी और खुद उसके हाथ -पांव दबाने लगा ।

सुबह अजयराम की हालत और ज्यादा खराब थी, दर्द तो बंद हुआ ही नहीं, शरीर में भारी ताप सा और दिखने लगा, उसने मुझे बताया कि ठंड के साथ जुर चढ़ आया है, वह मुझसे बोला-‘‘लाला, बुखार की दवा दे रे सारे ।‘‘

मुझे बात बेबात गाली देने वाले इस डाकू से सख्त नफरत हो चली थी, एकाएक मेरे मनमें एक शरारती विचार आया कि क्यों न इसे बुखार की जगह दस्त लगने की दवा दे दूं ! जब पोंक छूटेगी तो साला हंग-हंग के मर जायेगा ।

और मैंने अजयराम को कब्ज दूर करके दस्त खुल जाने की गोली दे दी । वही हुआ जो मैं चाहता था । अजय राम का बुखार जाना तो दूर रहा, दिन भर वह बार-बार पाखाने को दौड़ता रहा सो भीतर ही भीतर उसका शरीर कमजोर होता चला गया । गिरोह को बिना इच्छा के मजबूरन वहां दिन भर रूकना पड़ा ।

दूसरे दिन अजय राम सुबह सुबह बोला-‘‘काहे रे मोटा लाला, तैं सारे कौनसी दवा रे रहो है? दसत और चालू है गये मेरे लाने । सुन ले कि आज संझा तक ठीक न हुआ तो तेरी खैर नहीं !‘‘

कुछ देर बाद सचमुच ही अजयराम ने काली चरण से एक मोटी सी लकड़ी काटने को कहा तो मैं कंप गया । मुझे लगा कि अब मेरी जान की खैर नहीं !

उसकी खुशामद करते हुये मैं बोला-‘‘ हारी बीमारी होइ तो दाउ गोली दवाई से ठीक है सकतु है, और कोई देई-देवता को कोप होय तो कौन कहा कर सकतु है ! आपही सोचो हम जंगल-खेरे नाघत यहां से वहां आत-जातु रहतु है, कहा पता कहां से कौन भूत पिशाच संग लग बैठो होय ! ‘‘

कृपाराम को भूत विद्या में बड़ा विश्वास था । यह सुना तो वह घबरा गया और मेरे बजाय अजयराम से बोला-‘‘ तू भी सारे, कोउ देइ-देवता को नहीं मानतु है, लाला सही कै रहो है।‘‘

फिर वह लल्ला पंडित से बोला-‘‘ तू कछू जानत है का रे पंडत ?‘‘

लल्ला ने विवश होकर मुझे देखा । संकेत मिला तो वह बोला

-‘‘ ज्यादा तो जान्तु नाने, पे कोशिश तो कर सकतु हैं मुखिया । बाके लाने नहायवो-धोइबो परेगो ।‘‘

‘‘जा नहाय ले ।‘‘ कृपारामने सहर्ष अनुमति दी तो लल्लापंडित मन ही मन प्रसन्न होता हुआ, पहाड़ी से नीचे उतरता चला गया । जहां चमकीली धार वाली एक छोटी सी नदी ऊपर से ही दिख रही थी ।

लल्ला पंडत ने झूठी सच्ची पूजा की और हनुमान चालीसा से लेकर जितने पाठ जानता था, सब सुना डाले, फिर अंत में अजय राम को मुठठी भर राख खवा दी ।

मैंने बुखार की गोली निकाली और अजयराम को खाने को दे दी ।

मन ही मन मुझे विचार आया कि जब से बाजार से अंग्रेजी दवाई आयी है, कृपाराम ने जड़ी-बूटी से किसी का इलाज नही किया, लगता है वह सब कुछ भूल गया । शायद विकल्प मिल जाने पर हरेक साधन की ऐसी ही उपेक्षा होेती होगी ।

उस दिन सचमुच ही शाम तक अजयराम का बुखार ठीक हो गया तो मुझे बड़ी राहत मिली ।

उसी दिन की बात है, हम लोग वहां से दस किलोमीटर दूर एक पहाड़ी गुफा में आश्रय लेकर पड़ें थे कि मजबूतसिंह आता दिखा ।

मजबूतसिंह जब भी आता दीखता हम सबको अपनी रिहाई नजदीक आती लगती । हालांकि ऐसा कभी नहीं हुआ । लेकिन यही एक मात्र ऐसा मुखबिर था जिसे हम नाम और शकल से जानते थे, अन्यथा तो तीन महीने में कृपाराम के किसी खबरिये को और किसी इमदाद करने वाले आदमी को हमने करीब से नहीं देखा। लेकिन बिस्मय यह था कि उसके पास सारी सूचनाये रहती थीं पुलिस की । एक दो बार खबरियों को रूपये भेजते तो देखा हमने कृपाराम को, पर मजबूत सिंह के अलावा हमारे सामने कोई आया कभी नहीं । बस उस दिन दूर से वो बूढ़ा मुखबिर जरूर पिटते देखा था हमने जिसने किसन-विसन रावत की हैसियत पांच लाख की बताई थी, और इस मजबूतसिंह ने असलियत बतादी थी कि ये लोग तो पचास हजार रूपये से ज्यादा के देनदार नही हैं ।

.....हमे तो वे गांव वाले भी कभी नहीं दिखे थे जो कभी-कभार गिरोह को खाना बनबा कर पहुंचा जाते थे । जानने को तो........ हम न दरजियों को भी नही जानते, जो हर महीने बागियों के लिये पुलिस जेसी वरदी सिल कर पहना जाता था और जिसके जिलये वह मुंहमांगा ईनाम पाता था ।.......हम उन लोगों को भी नहीं जान पाये थे जो बोरा भर-भर के कारतूस दे जाते थे ऐन बीहड़ में आकर ।......बहुत कोषिष करके भी हम तो उस नेता को भी नहीं जान पाये थे जिसने अपने आदमी के हाथ एक मोबाइल भेजा था जिस पर वह प्रायः कृपाराम से बाते भी किया करता था, और कृपाराम उससे मिलने ष्कस्बे तक जाया करता था ।

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