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अन्दर का आदमी

अन्दर का आदमी

वह नमस्कार के बाद चुपचाप जाकर कुर्सी पर बैठ गया । उसने देखा कि निर्मला उसे देखकर बिल्कुल सामान्य रही । ना खुश हुई, ना ही चेहरे पर कोई असामान्य भाव आया । बस रसोई से जाकर एक पानी का गिलास भरकर उसके सामने रख दिया और पुनः रसोई में जाकर सब्ज़ी काटने लगी । उसने चारों कमरों में झांका, किसी भी कमरे में कोई नहीं था । एक बार तो उसे यूं अकेले मंे आना बुरा लगा, मगर यह सोचकर खुद को आश्वस्त करने लगा कि उसे क्या पता था कि निर्मला घर में अकेली होगी ।

बहुत देर तक खामोश बैठे रहने के बाद उसी ने बात का सिलसिला शुरू किया, “क्या बना रही हो ?”

“लौकी की सब्ज़ी ।” संक्षिप्त उत्तर देकर वह खामोशी से सब्ज़ी धोने लगी ।

“बच्चे कहां गये ? कोई दिखाई नहीं दे रहा ?” उसने फिर बात का सिलसिला जारी रखते हुए पूछा।

“सब अपने-अपने काम से गये हैं ।” फिर वही संक्षिप्त उत्तर मिला । वह सोचने लगा शायद उसका आना निर्मला को अच्छा नहीं लगा । एक वह भी समय था जब वह खुद भी उन्हीं के साथ, उन्हीं के घर में रहा करता था । उसी के हाथ का पकाया खाता था और अपने घर से दूर रहकर दोस्त की खातिर प्राईवेट स्कूल की नौकरी किया करता था । और आज ....आज सब कुछ कितना बदल गया है ।

उसने फिर निर्मला से कहा, “भाभी चाय मत बनाना, अभी-अभी पीकर आया हूं । ” कहकर वहउस कमरे में झांकने लगा जिसमें कभी उसका मित्र बैठकर शराब पिया करता था । उसके पहुंचते ही कह उठता, “आ राजा ! एक-एक पैग हो जाये।” और वह मन ही मन पैग पीने की चाहत के बावजूद उसे भाषण झाड़ने लगता, “यार ! रोज़-रोज़ मत पिया कर । तुझे कितनी बार कहा लीवर खराब हो जायेगा । ब्लड प्रेशर तो तुझे रहने ही लगा है ।”

तब वह हाथ में पैग थमाते हुए कहता, “जानी ! अब तो जनाजे की तैयारी करो, इन्हीं कांधों पे जनाजा उठेगा ।” और तब वह उसे झिड़क देता, “यार फालतू की बातें मत किया कर । कितनी बार कहा सुधर जा । जो भाभी को पसंद नहीं वो काम मत कर । आखिर इतने बड़े-बड़े तीन बेटों का बाप बन गया है क्या तुझे जरा भी शर्म नहीं आती ? आखिर कोई आंखों देखी मक्खी कैसे खा सकता है ? जो कुछ तू करता है अगर वही मैं भाभी के साथ करूं तो.....?”

“हां-हां कर.....। तेरी यही इच्छा है तो वो भी कर ले, आखिर यारी तो निभायेगा ही ना ।”

“अबे पागल हो गया है क्या ? मैं तुझे अहसास कराने के लिये यह सब कहता हूं । देखा, लगा ना तुझे भी बुरा ? इसी लिए कहता हूं सुधर जा ।”

“अब तो ऊपर जाकर ही सुधरेंगे । ये तेरी भाभी, ना तो जीने देती है ना मरने । इसकी तो इच्छा पूरी करता ही हूं, फिर भी साली ने तीन दिन से खाना नहीं खाया । कहती है उसी से शादी कर लो जिसके ग़म में पीते हो । जिसके साथ दिन भर घूमते हो और जिसके लिए नये-नये गिफ्ट लाते हो ।” वह नशे में लड़खड़ाती ज़ुबान से हाथ नचा-नचाकर बोलता ।

और तब उसकी कहानियों में एक और रंगीन कहानी जोड़ते हुए दो-चार पैग और पिला देता । उसका कोटा पूरा होते ही वह निर्मला भाभी से नज़र चुराकर निकल जाता घर से । मन में ख्याल आता उस अधिकार से वंचित निर्मला का जो उसका मित्र किसी और को निरन्तर दे रहाथा । शायद वह पगला गया था । उसे घर,, पत्नी, अपने जवान होते बच्चों का भी कोई ख्याल नहीं रह गया था ।

अचानक उसके अतीत को झकझोरती निर्मला की आवाज़ ने उसे चौंका दिया, “लो चाय पी लो ।”

“अरे ! मैंने तो मना किया था ।” उसने तकल्लुफ दिखाते हुए कहा और चाय का प्याला निर्मला के हाथों से थाम लिया । निर्मला अब उसके सामने बैठ गई थी । वह भी पुनः बात करने का सिरा पकड़ने की कोशिश करता उसको आंखों ही ओखों में तौलते हुए बोला, “दिन भर अकेली हो जाती हो, बोर होती होओगी ।”

“तो क्या करूं ? उनके जाने के बाद तो अकेला ही रहना है । अब सोचती हूं जैसे भी थे कम से कम थे तो । कुछ भी करते थे, उस पर कितना भी मरते थे मगर कभी-कभी तो दुःख-दर्द पूछतेो । पश्चात्ताप भी करते थे । अब ....अब सोचती हूं जो भी करते थे करने देती तो कम से कम आज वो इस दुनिया में तो होते ....। कभी-कभी ही सही जो प्यार मिलता था उसी के सहारे जी लेती....।” कहते हुए कप उठाकर रसोई में ले जाने लगी ।

निर्मला के झुकते ही उसके सुडौल वक्षों पर उसकी नज़र पड़ गई । वह उसे रसोई में जाते हुए देखने लगा । मन में एक सवाल अनायास ही कौंध, “अब रो ही है, तो पहले इतने नाटक क्यों करती थी ? क्यों धरती काट रखी थी सौत-सौत करके । बड़ी सती-सावित्री बनती थी ...अपने आदमी को खा गई । अभी तो कुछ नहीं हुआ । आदमी की यादें ताज़ा हैं, मगर अभी एक-दो साल बीतने दो फिर देखता हूं तुम्हारा भी सतीत्व कब तक ठहर पाता है ......। फिर वह अपने दोस्त की मौत का हिसाब लगाने लगा । मन ही मन गिनकर बुदबदाया -अभी तो नौ माह ही हुए हैं....। उसके मन में बैठा शैतान जाग उठा । उसे उसके मित्र द्वारा उन दोनों के बताये अन्तरंग किस्से याद आने लगे । किस तरह निर्मला शराब के दो-तीन पैग पीकर उसके ऊपर चढ़ बैठती थी, “लो ! आज आपको हरा कर बताती हूं । देखती हूं कितना दम है आपमें ।” तब वह उसके खुले बालों और मदहोश आंखों में उतरती प्यास से घबरा उठता और लाख कोशिशों के बाद अपने आपको हारा-सा महसूस करता ।

उसके मन का शैतान अन्दर से बोल पड़ा, “आखिर अभी जवान है, आज नहीं तो कल इतनी सैक्सी औरत केैसे रह पायेगी बिना मर्द के.........? अगर मुझसे .....। वह आंखों ही आंखों में निर्मला के बदन को तौलने लगा । आखिर दोस्त हूं, अगर मैं काम आ सकंू तो क्या हर्ज़ है...? तभी उसकी नज़र दरवाज़े पर उसके दोस्त की मुस्कराती हुई तस्वीर पर पड़ी । एक बार तो वह तस्वीर देखकर सहम गया । उसे लगा उसके दोस्त की आत्मा उसके मन की सारी बातें सुन रही है । उसने डरकर झट से मित्र की तस्वीर से नज़रें हटा लीं और निर्मला को देखने लगा । उसके वैधव्य में भी उसे उसका सतीत्व खरा लगा । सूनी आंखें...सूनी मांग.......बिना चूड़ी के खाली हाथ..... बिना बिछुओं के नंगे पैर.....। तभी ना जाने उसकी अन्तर्रात्मा में कहां से एक सवाल उठ खड़ा हुआ, “अगर तेरे मित्र की जगह तेरे घर में तेरी तस्वीर लगी होती तो.....। और निर्मला की जगह तेरी पत्नी, और तेरी जगह तेरा दोस्त होता और अगर तेरी तरह ही वह भी कमीनापन दिखता तो.....?”

वह अपनी सुन्दर पत्नी के वैधव्य रूप की कल्पना करके ही घबरा उठा । अपने बच्चों को अनाथ हुआ देख पाना उसके लिए नरक के समान महसूस हुआ । यह सब कल्पना मात्र से ही उसका शरीर ठण्डा पड़ गया । उसे लगा निर्मला की जगह उसकी पत्नी वैधव्य रूप में सूनी आंखें और सीने में पति की मृत्यु का बोझ लिए सफेद साड़ी में लिपटी खड़ी है । वह घबरा कर बिना सोचे-समझे उठा, अपने अन्दर के कमीनेपन पर शर्मिन्दगी महसूसता रसोई की ओर बढ़कर उसने निर्मला के पैर छूते हुये कहा, “भाभी मेरा यार नहीं तो क्या, मैं जो हूं आपका भाई । कोई भी काम हो, आवश्यकता हो तो आधी रात को भी खबर कर देना मैं दौड़ता चला आऊंगा । और हां अपना ख्याल रखो काफी कमज़ोर हो गई हो ।” कहता हुआ कमरे से बाहर निकल गया ।

( राजेश कुमार भटनागर )

सहायक सचिव

¬राजस्थान लोक सेवा आयोग,

अजमेर