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योगिनी - 2

योगिनी

2

भुवन पुनः मीता की स्वीकृति मानते हुए नीचे स्थित भवन की ओर चल दिया और मीता उसके पीछे हो ली। मुख्य द्वार पर भुवनचंद्र ने जूते उतारे और उसे देखकर मीता ने भी चप्पल उतार दी।

‘ओउम् मित्राय नमः’- द्वार से अंदर जाने पर मीता ने देखा कि एक बडे़ से हाल में एक वयोवृद्व स्वामी जी सूर्य नमस्कार कर रहे थे एवं उनके सामने दस-ग्यारह साधक/साधिकायें उनका अनुसरण कर रहे थे। उन्हीं का समवेत स्वर मीता को सुनाई दिया था। पूरे हाल में दरी बिछी हुई थी और भुवनचंद्र एवं उसके निकट मीता भी दरी पर खडे़ हो गये। सूर्य नमस्कार की विभिन्न मुद्राओं में आने हेतु स्वामी जी बड़े मनोयोग से निर्देश दे रहे थे। उनका स्वर अत्यंत धीर गम्भीर था एवं मीता के अंतस्तल को स्पर्श कर रहा था। यद्यपि उसने पहले कभी योगाभ्यास नहीं किया था तथापि उनके मुख से निकले प्रत्येक शब्द के साथ उसे लगता कि जैसे उसे ही वैसा करने को निर्देशित किया जा रहा है और उसके बदन में तदनुसार क्रिया करने को कम्पन हो जाता था। सूर्य नमस्कार की समाप्ति पर सूर्य भगवान को धन्यवाद देने हेतु प्रणाम की मुद्रा में आने का जब स्वामी जी ने निर्देश दिया, तब मीता अपने को न रोक पाई एवं स्वयं भी प्रणाम मुद्रा में आ गई। फिर वह साधकों के समूह के साथ शवासन में लेट गई। उस मुद्रा में आने पर स्वामी जी निर्देश देने लगे,

‘शवासन में पीठ के बल लेट जायें, आंखें कोमलता से बंद करें, दोनों टांगों एवं दोनों हाथों को सुविधानुसार फैला लें, एक दो गहरी सांसें लें एवं मन को विचार-शून्य करें। अब पैर के अंगूठे से सिर की चोटी तक प्रत्येक अंग का अपने मन की आंखों से अवलोकन करें एवं शरीर के प्रत्येक अंग के निरोग होने का घ्यान करें।’

मन की आंखों से शरीर के अंगों के निरोग होने का घ्यान करने की बात पर मीता कोे घ्यान आया कि इस समय उसके इन अंगों की क्या दशा होती, यदि भुवन चंद्र ने समय पर प्रकट होकर उसे बचा न लिया होता। यह घ्यान आते ही उसने एक आंख थोड़ी सी खोलकर भुवनचंद्र को देखा और पाया कि अपने स्थान पर खडा़ रहकर वह मीता के अंगों का इस प्रकार अवलोकन कर रहा था जैसे स्वामी जी ने उसको खुली आंखों से मीता के अंगों का निरीक्षण करने का निर्देश दिया हो। मीता पुनः उसी प्रकार लजा गई जैसे अर्धमूर्छा जैसी अवस्था में भुवनचंद्र के कंधे का सहारा लेने के पश्चात स्थितिप्रज्ञ होने पर लजा गई थी। भुवन चंद्र ने अपने मन की आंखों से उस लाज को देख लिया था और उसके हृदय में एक अनोखी सी गुदगुदी होने लगी थी। शवासन के उपरांत जब पद्मासन, अर्धपद्मासन अथवा सुखासन लगाकर ओउम् घ्वनि करने और फिर भतर््िसका प्राणायाम करने हेतु कहा गया, तो मीता के अतिरिक्त भुवनचंद्र भी सुखासन में बैठकर स्वामी जी के निर्देशों का अनुसरण करने का प्रयत्न करने लगा।

स्वामी जी नई आयी साधिका मीता की क्रियाओं पर विशेष ध्यान दे रहे थे एवं किसी प्रकार की त्रुटि होने पर उस क्रिया को पुनः समझाते थे। उन्होने यह तो समझ लिया था कि इस साधिका ने पूर्व में योगाभ्यास नहीं किया है तथापि वह इस साधिका की योगासनों को समझने की क्षमता एवं बच्चेंा जैसे लोचदार अपने अंगों से उन्हें उत्कृष्टता से करने की पटुता को देखकर अत्यंत प्रभावित थे। आज भुवन चंद्र द्वारा योग-साधना प्रारम्भ कर देने से भी स्वामी जी प्रसन्न थे।

मीता को भी ऐसा लग रहा था कि जैसे यौगिक क्रियायें उसके शरीर एवं स्वभाव की अनुकूलता को घ्यान में रखते हुए ही निर्धारित हुईं हैं। अंत में जब शांति मंत्र का सामूहिक पाठ प्रारम्भ हुआ, तो भुवनचंद्र सहित सबने पाया कि मीता के मंत्रोच्चारण में संगीत गायिका के स्वर सा उतार-चढ़ाव एवं गाम्भीर्य है। उसके मुख से निकले प्रत्येक शब्द के नाद एवं उनकेे अर्थ में शत-प्र्रतिशत सामंजस्य है। मीता द्वारा उच्चारित शांति-मंत्र के अंत के शब्द ‘शांति रे...वः, शांति सा....मः, शांति रे…..धि; ओउम् शां.....तिः, शां.......तिः, शां......तिः’ स्वामी जी सहित सबके कर्णां में अमृतवर्षा कर रहे थे। भुवनचंद्र के मन में मीता को वहां लाने का निमित्त बनने हेतु गर्वानुभूति हो रही थी और मीता के प्रति अप्रयास ही आत्मभाव उत्पन्न हो रहा था।

योग साधना के उपरांत स्वामी जी ने मीता से उसका नाम-ग्राम पूछा, उसकी यौगिक क्रियायें करने की पटुता की प्रशंसा की एवं यह जानकर कि वह अभी लगभग डेढ़ माह मानिला में रुकेगी उसे प्रतिदिन योगसाधना हेतु आने का आमंत्रण दिया। उन्होने भुवनचंद्र द्वारा साधना प्रारम्भ करने पर भी प्रसन्नता जतायी एवं उसको भी प्रतिदिन साधना हेतु आने को कहा।

तत्पश्चात मीता ओर भुवनचंद्र मंदिर से वापस ग्राम की ओर चल दिये। आकाश में बादल छंट चुका था और वह पूर्णतः निर्मल हो गया था। हवा में ठंडक थी परंतु सूर्य भगवान तपने लगे थे। दोनों चुपचाप चल रहे थे। भुवनचंद्र का अंतस्तल एक अनोखी अभिलाषा के अंकुरण की तपन अनुभव कर रहा था एवं मीता अपनी छठी इंद्रिय सेे उस तपन का कुछ कुछ आभास पा रही थी। मीता आश्चर्यचकित थी कि तपन का वह आभास उसके मन में भुवनचंद्र के प्रति कोई दुर्भाव उत्पन्न करने के बजाय गुदगुदी उत्पन्न कर रहा था- उसने सोचा कि सम्भवतः अनजान परिवेश में द्रुतगति से घटित अनोखी घटनाओं ने उसके मन को विचलित कर रखा है।

रास्ते का अंत निकट आने पर भुवन चंद्र ने बताया कि मानिला में माँ अनिला के दो मंदिर हैं एक नीचाई पर स्थित है जिसे मानिला तल्ला मंदिर कहते हैं और दूसरा यह मंदिर उूंचाई पर स्थित होने के कारण मानिला मल्ला मंदिर कहलाता है। यहां आने वाले दर्शनार्थियों को दोनों मंदिरों के दर्शन करना अनिवार्य समझा जाता है। फिर उसने प्रस्तावित किया कि मीता चाहे तो वह उसे किसी दिन मानिला तल्ला मंदिर दिखाने ले चलेगा। मीता तो घूमने ही आई थी और उसने मानिला पहंुचने पर पहले दिन जब दीदी के सामने घर से बाहर चलकर घूमने का प्रस्ताव रखा था तब दीदी ने स्पष्ट कह दिया था कि घूमने उसे अकेले ही जाना पडे़गा क्योंकि उन्हें पहाड़ चढ़ने में कमर में दर्द हो जाता है और जीजा जी परीक्षाएं कराने में व्यस्त हैं। अतः उसने भुवनचंद्र के प्रस्ताव पर हल्का सा सिर हिलाते हुए हामी भर दी थी।

‘सबेरे सबेरे बिना बताये कहां चली गईं थी मुन्नी?’ मीता की बहिन उससे आयु में बडी़ थीं और उसे बचपन के नाम से ही पुकारतीं थीं।

जब वह घर लौटी थी, तब तक घर के सब लोग जागकर नाश्ते के लिये तैयार हो चुके थे एवं उसकी बहिन व उसके पति इतनी देर हो जाने के कारण कुछ कुछ चिंतित भी होने लगे थे। मीता बोली,

‘क्या करती दीदी? तुम तो जानती हो कि प्रातः जल्दी जागने की अपनी पुरानी आदत है। घर में सबको गहरी नींद में सोते पाकर टहलने हेतु निकल गई थी। पर आज अनजान के आकर्षण ने मेरी जान ही ले ली होती।’

दीदी एवं जीजा जी चिंतित मुद्रा में उसकी ओर घ्यान से देखने लगे। फिर मीता ने मानिला मल्ला पर चढने से प्रारम्भ कर आगे की घटना का वर्णन किया एवं भुवनचंद्र के अकस्मात प्रकट हो जाने एवं उसकेा बचा लेने पर आश्चर्य व्यक्त किया। उसकी बात समाप्त होते होते दीदी की आंखों में अश्रु भर आये और वह बोलीं,

‘माँ अनिला ने ही कृपा कर भुवनचंद्र को भेज दिया होगा। भुवन चंद्र है ही ऐसा। वह तो जैसे इस गांव में हर समय हर स्थान पर उपस्थित रहता है- जहां किसी को कोई आवश्यकता हुई, वहीं नारद के समान मुस्कराता हुआ प्रकट हो जाता है। यद्यपि वह अधिक पढ़ा लिखा नहीं है पर है माँ अनिला का बड़ा भक्त। घर की आर्थिक दशा भी अत्यंत साधरण है और सम्भवतः इसी कारण उसका विवाह भी नहीं हुआ है। वैसे कुछ लोगों का यह भी कहना है कि नवयुवा होने पर वह अपने गांव की दूसरी जाति की एक लड़की से प्रेम कर बैठा था। एक तो अपने गॅाव की एवं दूसरे विजातीय- ऐसे विवाह की सामाजिक स्वीकार्यता की यहां कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। उस लड़की के धरवालों ने उसे डरा धमका कर उसका विवाह कहीं दूर कर दिया था। तब से भुवनचं्रद्र ने विवाह नहीं किया है, परंतु उसकी मस्ती एवं जीवंतता में केाई कमी नहीं पाई गई है।’

भुवनचंद्र द्वारा स्वयं को जोखिम मंे डालकर मीता को बचाने, उसके आत्मविश्वास पूरित आचारण एवं मीता के प्रति आत्मीय भाव होने के तथ्यों से मीता पहले ही प्रभावित हो चुकी थी; जीजी से उसके व्यक्तित्व के विषय में यह सब सुनकर मीता की दिलचस्पी उसके प्रति और बढ़ गई।

दूसरी प्रातः जब मीता टहलने निकली तो उसके मन में अनायास यह लालसा उठ रही थी कि भुवनचंद्र का साथ मंदिर जाते हुए पुनः हो जाये और वह उससे उसके बारे में बातें करे। भुवनचंद्र ने उसे बताया था कि माँ अनिला की विशेषता यह है कि वह उनके दर्शन हेतु आने वाले की मनोकामना बिना मुंह से मांगे ही पूरी कर देतीं हैं- और सचमुच पीछे से तेजी़ से चलता हुआ भुवनवचंद्र आ पहुंचा और बोला, ‘जय माँ अनिला’। मीता का मन प्रसन्नता से खिल उठा और उसने उस प्रसन्नता को अपनी मुस्कराहट में प्रकट करते हुए उत्तर दिया, ‘जय माँ अनिला’।

फिर भुवनचंद्र आज के मिलन का स्पष्टीकरण सा देता हुआ बोला,

‘मैं रोज़ सबेरे इसी समय माँ अनिला के दर्शन के लिये आता हूं। लगता है कि आप को भी इसी समय घूमने की आदत है।’

और मीता के सिर हिलाकर हामी भरने पर वह आगे के दिनों में बिना किसी संकोच एवं बिना आकस्मिकता के मीता का साथ सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बोला,

‘तब तो जब तक आप यहां है, सुबह का मेरा अकेलापन दूर रहेगा।‘

मीता पिछले दिन ही भुवनचंद्र को बता चुकी थी कि वह लगभग डेढ़ माह के लिये वहां आई है, और उसने पुनः मंद स्मित के साथ सिर हिलाकर हामी भर दी। फिर दोनों संकोचरहित होकर साथ साथ मंदिर की ओर बढ़ते रहे। यद्यपि भुवनचंद्र मौन था, परंतु उसका हृदय मीता के साहचर्य से उद्वेलित था और मीता उस उद्वेलन से प्रवाहित होने वाली तरंगों का आभास पा रही थी। दर्शन के उपरांत दोनो आश्रम में चले गये, जहां योग-प्राणायाम प्रारम्भ होने जा रहा था। उन्होने स्वामी जी को अभिवादन किया और स्वामी जी ने उनके आगमन पर प्रसन्नता का भाव प्रकट किया। आज मीता ने समस्त आसनों को न केवल बड़े मनोयोग से किया वरन् स्वामी जी द्वारा उच्चारित एक एक शब्द को आत्मसात भी किया। स्वामी जी मीता की इस तन्मयता को घ्यान से अवलोकित करते रहे। भुवनचंद्र योगासनों को तो बहुत अच्छी भांति नहीं कर पाया, परंतु उसका मन आनंदातिरेक में डूबा रहा। सिंहासन के पश्चात जब सब साधकों को दिल खोलकर हंसने को कहा गया, तब भुवनचंद्र की हंसी उसके अंतर्तम से फूट रही थी।

मंदिर से घर वापस आते समय भुवनचंद्र ने मीता से धीरे से कहा,

‘मानिला तल्ला मंदिर की भी बड़ी महत्ता है, वहां की माँ की मूर्ति अत्यंत प्राचीन है। आज सायंकाल मानिला तल्ला मंदिर में दर्शन हेतु चलना चाहें, तो सायं छः बजे बस स्टेंड पर आ जायें, मैं वहीं आस पास मिल जाउूंगा।’

भुवनचंद्र अपनी बात पूरी कर मीता की ओर उसकी प्रतिक्रिया जानने हेतु देखने लगा था। मीता को पहले लगा कि भुवनचंद्र के प्रस्ताव में उसे घर आकर ले जाने के बजाय बस स्टेशन पर मिलने की बात में कुछ छिपाने की बात अंतर्निहित है परंतु तब स्वयं पर आश्चर्य हुआ जब उसके मुख से स्वतः ‘हां’ निकल गई। अब उसे लग रहा था कि उसके स्वयं के द्वारा भुवनचंद्र का प्रस्ताव स्वीकार कर लेने में उस छुपाव को मान्यता देने की बात अंतर्निहित है।

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