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योगिनी - 3

योगिनी

3

मीता दिन में अपनी दीदी के साथ घर के काम में हाथ बंटाती रही, परंतु दोपहर के भोजन के उपरांत विश्राम के दौरान मीता को भुवनचंद्र के साथ मंदिर जाने की बात याद आने लगी। उसने दीदी से इस विषय में कुछ भी नही कहा- पता नहीं कौन सा चोर उसके मन में प्रवेश कर गया था? बस छः बजने से दस मिनट पूर्व बोली,

‘दीदी! मै घूमने जा रही हूं।’

दीदी उसके इस घूमने के स्वभाव से परिचित थीं। उन्होने बस इतना कहा,

‘ठीक है, परंतु अंधेरा होने से पहले ही लौट आना।‘

मीता जब धर से उूपर जाती पगडंडी पर चढ़ते हुए बस-स्टेंड पहुंची, तब भुवनचंद्र बस स्टेंड के शेड में खडा़ होकर पगडंडी की ओर ही देख रहा था। रामनगर एवं भिकियासेंण दोनों ओर से आने वाली अंतिम बसें आधा घंटा पहले ही आ चुकीं थीं और हेमंत चायवाला भी अपनी दूकान बंद कर जा चुका था। एक-दो मटरगश्ती करने वाले कुत्तों के अतिरिक्त वहां सुनसान था। सूर्य अभी अस्ताचल में नहीं गया था परंतु पहाड़ के काफी़ नीचे घाटी में पहुंच चुका था। बस स्टेंड के उूपर बने प्राथमिक चिकित्सा केंद्र के भवन पर अभी भी पीली होती हुई सूर्य की किरणें पड़ रहीं थीं, परंतु नीचे घाटी में सूर्यास्त होने जैसा दृश्य था- भूरे, ललछौंहें शनैः शनैः रंग बदलते बादल के टुकड़े, पर्वतीय ढलान पर खड़े वृक्षों के मघ्य बढ़ती हुई कालिमा एवं दिन भर के श्रम से थकित मंद मंद बहती बयार। मीता को देखकर भुवनचंद्र के मुख पर सशंक प्रतीक्षा का तनाव विलीन होकर स्मित बिखर गई और वह मंदिर की ओर चल दिया। मीता भी उसके कदम से कदम मिलाकर तेजी़ से चलने लगी। पूरा रास्ता ढलान का था और सड़क पक्की बनी हुई थी, अतः जल्दी जल्दी चलने में मीता को आनंद आ रहा था। सड़क के दोनों ओर चीड़ के गगनचुम्बी वृक्ष सतर खड़े हुए थे। आस पास कोई घर नहीं था, दूर ढलान पर कोई घर दिख जाने पर भुवनचंद्र बताता था कि वह किस जोशी, पांडे, या रावत का घर है और झोपड़ियां दिख जाने पर वह बताता था कि इनमें गांव के डूम रहते हैं। लगभग आधा किलोमीटर चलने के पश्चात सड़क के बायीं ओर चीड़ का घना वन था और दांयीं ओर देवदार का घना वन था। चीड़ के वन के नीचे उसकी कांटे सी लम्बी पत्तियां छितराई हूई सी पडी़ं थीं, उन पत्तियों के अतिरिक्त घास तक नहीं उगी थी, जब कि देवदार के वन में उसके द्वारा सहअस्तित्व को अंगीकार करने के कारण न केवल अनेक प्रकार की झाड़ियां थीं वरन् कहीं कहीं बांझ, बुरुंष आदि के वृक्ष भी थे। इस अंतर के विशय में मीता की जिज्ञासा को समझकर भुवनचंद्र ने उसे बताया,

‘चीड़ का गुण है अपने के अतिरिक्त अन्य सभी वृक्षों की जड़ों में अपने शरीर से निष्कासित विष घोल देना, जबकि देवदार अपनी छत्रछाया में अन्य वृक्षों को पोषित कर प्रसन्न होता है। शायद इसीलिये चीड़ की लकड़ी का उपयोग सस्ती वस्तुएं भरने के बक्से अथवा कुर्सी मेज़ बनाने के लिये होता है, जबकि देवदार का उपयोग घर की चैखट बनाने एवं हवन की समिधा हेतु होता है। आपने सम्भवतः पढ़ा होगा कि एक पर्यावरणविद ने तो अपनी पुस्तक में यहां तक लिख दिया है कि चीड़-वन की प्रचुरता के कारण कुमायूं का अधिकांश भाग आग के ज्चालामुखी पर बैठा है। आप जानतीं होंगी कि आग लगने पर चीड़ की लकड़ी धू धू कर जल उठती है।’

मीता भुवनचंद्र की बातों को घ्यान से सुन रही थी कि तभी ढलान पर एक जगह बडे़ गुड़हल जैसे आकार के एक वृ़क्ष मंे अनेक बडे़ बडे़ लाल गुलाब जैसे पुष्प लगे दिखाई दिये। मीता उनकी सुंदरता का भलीभांति आनंद लेने हेतु खडी़ हो गई तो भुवनचंद्र कहने लगा,

‘ये बुरांश के फूल हैं- अत्यंत सुंदर एवं स्वास्थ्यवधर््ाक। इनका शर्बत बनाया जाता है और बाजा़र में भी मिलता है।’

आगे बांये थोड़ी ऊंचाई पर मानिला तल्ला मंदिर दिखाई दिया। अब भुवनचंद्र चुप हो गया और श्रद्वावनत होकर मीता के आगे आगे मंदिर की ओर चल दिया। मंदिर के प्रवेश द्वार पर वह रुक गया और मीता के अंदर पुजारी के निकट जाने पर वह द्वार पर हीं खड़ा हो गया। मीता भी समझ गई कि भुवनचंद्र के रुकने का कारण यह मान्यता थी कि देवी के मंदिर में केवल पति-पत्नी ही साथ साथ खड़े हो सकते हैं। यह घ्यान आने पर मीता के मन में जो अनोखा भाव उभरा, उसको न तो वह तब समझ पाई और न बाद में।

दर्शन के उपरांत वे दोनों शीघ्रता से वापस हो लिये और रास्ते में दोनों ही मौन रहे- केवल बस स्टेंड पर पहुंचने पर भुवनचंद्र ने इतना कहा,

‘मेरा घर इस मंदिर के निकट ही नीचे है। आज तो देर हो गई थी, पर कल आप पांच बजे बस स्टेंड पर आ जायें और मेरी कुटिया को पवित्र करें तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगीं’।

मीता ने आंखों से हां कर दी और अपनी दीदी के घर की ओर जल्दी से चल दी।

प्रतिदिन योगासनों के मघ्य में सिंहासन के उपरांत सब साधकों को जी खोलकर हंसने को कहा जाता था एवं उसके उपरांत कोई साधक एक हंसी का किस्सा कहता था। स्वामी जी भुवनचंद्र की हंसोड़ प्रवृत्ति से परिचित थे अतः अगली प्रातः जब सभी साधक सिंहासन कर चुके थे, अैार उसकी समाप्ति के पश्चात खुलकर हास्य भी हो चुका था तो स्वामी जी ने भुवनचंद्र से कोई किस्सा सुनाने को कहा, तो उसने सुनाया,

‘जब मैं नवयुवक था तब एक विदेशी गोरी युवती अपनी पर्वतीय यात्रा के दौरान मानिला आइ्र्र थी और दिन भर यहां रुकी थी। मैने देखा कि उसकी गोद में एक छोटा सा कुत्ता था जो थोड़ी थोड़ी देर में उसका मुंह चाट लेता था और उसके ऐसा करने पर वह उसे दुतकारने के बजाय स्वयं उसका चुम्बन लेकर उसे शांत कर देतीं थीं। यह दृश्य देखकर पहले तो मुुझे बड़ा अजीब सा लगा था और वितृष्णा भी हुई थी, परंतु आप जानते है ंकि दूसरी प्रातः माँ अनिला के दर्शन करने हेतु यहां आने पर मैने उनसे क्या मांगा था?....... माँ! अगले जन्म में तू मुझे किसी गोरी मेम का कुत्ता बनाना।’

भुवनचंद्र के किस्से पर सभी साधक खूब हंसे थे और मीता तो आगे कराये जाने वाले आसनों के दौरान भी बड़ी कठिनाई से अपनी हंसी रोक पा रही थी। फिर उस दिन के पश्चात आने वाले दिनों में भी स्वामी जी प्रायः भुवनचंद्र से किस्सा सुनाने को कह देते थे और वह कोई न कोई रुचिकर प्रहसन सुना देता था। मीता के मन में वे प्रहसन रच-बस जाते थे और कभी कभी वह उनमें से कोई प्रहसन अपनी दीदी को भी सुना देती थी।

उस सायं को पांच बजे ही मीता अपनी दीदी से बोली,

‘मुझे कल मानिला तल्ला जाने पर बहुत अच्छा लगा था और मैं आज फिर जा रही हूं। कल की तरह अधिक देर न होने लगे, अतः अभी से चली जाती हूं।’

यह कहकर वह पैरों में चप्पल डालकर चल दी थी। आज भुवनचंद्र बस स्टेंड से कुछ आगे चलकर आड़ में सड़क के किनारे पर खड़ा था और मीता उसे देखकर उसकी ओर चल दी। तब भुवनचंद्र आगे मंदिर की दिशा में चल दिया। कुछ दूर चलने पर ही सड़क सुनसान हो गई थी और भुवनचंद्र मानिला के निवासियों के विश्वासों, मान्यताओं, समस्याओं एवं राजनैतिक व्यक्तियों तथा पटवारियों के द्वारा किये जाने वाले शोषण के विषय में अनेक बातें बताने लगा। मीता को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वहां पुलिस-व्यवस्था नहीं है और वहां के पटवारी में राजस्व एवं पुलिस दोनों के अधिकार निहित हैं और वह न केवल ज़मीन जा़यदाद के रिकार्ड में हेर फेर करता रहता था वरन् किसी के द्वारा चूं-चपड़ करने पर उसे किसी अपराध मे फंसाकर बंद भी कर देता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत वहां के लोगों मंें शैक्षिक एवं राजनैतिक जागृ्रति अवश्य आई है और वे पटवारी के अत्याचारों का विरोध भी पहले से अधिक करने लगे हैं, परंतु अब पलड़ा उसी का भारी रहता है जिसके पक्ष में राजनैतिक हस्तियां खड़ी होतीं हैं।

मंदिर के निकट पहुंचने पर भुवनचंद्र ने दूर से माँ को प्रणाम किया और मीता से उसके घर चलने को कहा। मीता भी वहीं से माँ को प्रणाम कर भुवनचंद्र के साथ चल दी। अब सड़क के बांयी ओर नीचे उतरना था एवं कच्चा पहाडी़ मार्ग था। यद्यपि मीता को उतरने में कुछ कठिनाई हो रही थी परंतु पहाडी़ ग्रामीण मार्ग पर चलने का रोमांच उसे उत्साहित कर रहा था। एक स्थान पर उसकी चप्पल पत्थरों के टुकड़ों पर फिसलने लगी तो भुवनचंद्र ने पीछे मुड़कर उसका हाथ थाम लिया। मीता के मुख पर लज्जा की एक लालिमा क्षण भर को दौड़ गई, पंरतु वह शीघ्र ही प्रकृतिस्थ हो गई और भुवनचंद्र ने यह कहते हुए उसका हाथ छोड़ दिया कि आगे मार्ग मे फिसलन नहीं है। आगे वन-वृक्षों के बजाय सेब, आड़ू, अंजीर, नाशपाती आदि के बाग लगे हुए थे जिन्हें प्रथम बार देखकर मीता का मन प्रफुल्लित हो रहा था। कुछ दूर चलने पर उपवन और घना हो गया था और मीता को लगने लगा था कि भुवनचंद्र ने पहले क्यों नहीे बताया कि उसका घर इतनी दूर है। तभी वृक्षों से पूर्णतः छिपा हुआ एकांत में एक छोटा सा घर दिखाई दिया और भुवनचंद्र बोला,

‘यही है मेरी कुटिया जो आज आप की चरणरज पाकर धन्य होगी।’

मीता खड़े होकर भुवनचंद्र के घर को निहारने लगी- ढलान पर एक छोटे से समतल किये गये स्थान पर पत्थर व मिट्टी की छोटी छोटी दीवालों पर खड़ा हुआ एक कमरा, एक बरामदा एवं उसके सामने लिपा पुता चबूतरा जिसमें लगे पौधों मे गुलदाउदी जैसे फूल खिल रहे थे। कमरे से सटा हुआ छः फुट से भी कम उूंचाई का एक शेड जैसा कमरा और था जिसका दरवाजा़ बाहर से बंद था। मीता को उस शेड की ओर देखते हुए पाकर भुवनचंद्र ने उसका दरवाजा़ खोल दिया और मीता को अंदर देखने को बुलाया। मीता के अंदर घुसते ही वहां बंधी एक छोटे कद की भैंस एकदम चैकन्नी हो गई और उसने उस अंधेरे कमरे में अपने कान सतरकर अपनी आंखें ऐसे फैलाईं जैसे भूत देख लिया हो। भुवनचंद्र द्वारा पुचकारे जाने पर ही वह आश्वस्त हुई। अपनी जिज्ञासा शांत करने को मीता ने भुवनचंद्र से पूछा,

‘भैंस के कमरे को बंद क्यों रखते हैं?’

‘यहां जंगली जानवरों का खतरा रहता है। उनके हमले से बचाने के लिये कमरा बंद रखना पड़ता है।’

कमरे से निकलकर मीता चबूतरे के चारों ओर दूर दूर तक फैले फलोें के वृक्षों को अभिभूत होकर देखती रही। वह दृश्य उसके मन में रच-बस रहा था और भुवनचंद्र उसकी इस तन्मयता पर अभिभूत था।

फिर भुवनचंद्र मीता को अंदर बरामदे में ले गया और उसमें पडी़ एकमात्र कुर्सी पर बैठने का आग्रह किया। उससे सटे कमरे का दरवाजा़ खुला हुआ था और आधे से अधिक कमरा वहां से दिखाई पड़ रहा था। मीता ने देखा कि कमरा व बरामदा दोनों लिपे पुते स्वच्छ हैं और कमरे में पड़ी एकमात्र चारपाई पर बिस्तर करीने से समेटा हुआ रखा है। अभी तक मीता सोच रही थी कि कोई शर्मीली स्त्री अंदर होगी परंतु वहां किसी केा न पाकर मीता ने पूछा,

‘इस निर्जन स्थान में क्या तुम अकेले रहते हो?’

भुवनचंद्र ने हृदय में एक बोझ सा छिपाते हुए उत्तर दिया,

‘हां। मैं अपने माता पिता की इकलौती संतान हूं और वे तभी चल बसे थे जब मैं 11 साल का था। मेरा विवाह हुआ नहीं। मैं बचपन से अेकला ही निर्जन के भूत के समान यहां रहता हूं। गांव के अन्य घर दूरी पर हैं और यहां से दिखाई नहीं देते हैं।’

मीता उसकी ओर एकटक देखते हुए उसकी बात सुन रही थी। यद्यपि उसने कोई उत्तर नहीं दिया तथापि उसके चेहरे से स्पष्ट था कि वह भुवनचंद्र के प्रति सम्वेदनाग्रस्त हो रही थी। भुवनचंद्र मीता के हृदय में उमड़ने वाली सम्वेदना को समझ रहा था और वह द्वैअर्थी चतुराई के भाव से आगे बोला,

‘मेरी कुटिया में अब आप का पदार्पण हो गया है तो मुझे लगता है कि अब मेरा अकेलापन दूर हो जायेगा।’

यह सुनकर मीता सामने दीवाल की ओर देखने लगी, कुछ बोली नहीं। माहौल कुछ भारी होने लगा था अतः भुवनचंद्र फिक्क से हंसकर कहने लगा,

‘अरे मैं भी कैसा लापरवाह हूं- चाय को तो पूछा ही नहीं?’ और यह कहकर वह चूल्हे पर चाय का भगौना चढ़ाने लगा। इतना चलकर आने पर मीता को सचमुच चयास लग रही थी और वह भुवनचंद्र को चाय बनाते हुए देखती रही एवं उसकी सहजता पर मुग्ध होती रही।

भुवनचंद्र ने एक प्याला चाय और एक प्लेट मंे कुछ दालमोठ मीता के सामने स्टूल पर रख दी एवं एक प्याला चाय अपने हाथ में लेकर खडे़ खडे़ ही पीने लगा। चाय स्वादिष्ट बनी थी- बस चीनी कुछ अधिक थी परंतु आज मीता को चाय की वह अतिरिक्त मिठास भी आनंदित कर रही थी। तभी मीता का घ्यान गया कि भुवनचंद्र ने दालमोठ तो ली ही नहीं है और उसने प्लेट उठाकर भुवनचंद्र की ओर बढ़ाई। भुवनचंद्र जब उस प्लेट से दालमोठ उठाने लगा तो उसकी उंगलियों का स्पर्श मीता की उंगलियों से हो गया। अपने को नियंत्रित करते हुए भी मीता के बदन में मछलियां सी तैरने लगीं और मीता को लगा कि भुवनचंद्र की उंगलियां आवश्यकता से अधिक पलों के लिये मीता की उंगलियों पर थम गईं हैं। मीता ने तुरंत प्लेट को वापस स्टूल पर रख दिया और जल्दी से चाय पीकर वापस जाने को उठ खड़ी हुई। भुवनचंद्र उसके पीछे पीछे चुपचाप चल दिया- रास्ते में कोई कुछ नहीं बोला।

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