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बहीखाता - 9

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

9

लड्डू घाटी

लड्डू घाटी पहाड़गंज का विशेष मुहल्ला हुआ करता था/है। यह रेलवे स्टेशन के करीब पड़ता था/है। अब तो सारा पहाड़गंज ही होटलों से भर गया है। तब साधारण से घर हुआ करते थे। पहले इकहरी मंज़िलें ही हुआ करती थीं, पर फिर ज़रूरत के अनुसार मंज़िलें ऊपर बढ़ने लगीं। वह वक्त ऐसा था कि पहाड़गंज में भैंसों की डेरियाँ भी होती थीं और दूधिये दूध बेचने हमारे घर आया करते थे। इस सारे इलाके का उस वक्त का जीवन ग्रामीण-सा ही होता था। लड्डू घाटी में हमारा एक रिश्तेदार परिवार रहा करता था जिनके घर में मेरा आना-जाना बहुत था।

बहुत वर्ष बाद जब मनजीत सिंह दिल्ली यूनिवर्सिटी का हैड बना तो उसने एक कवि दरबार करवाया। वहाँ मुझे एक बुजुर्ग मंचीय कवि मिला जिसका नाम निर्दोष था। निर्दोष ने बताया कि वह मुझे लड्डू घाटी से ही जानते थे। मेरे लिए ज़रा हैरानी वाली बात थी। इतना ही नहीं, उन्हें यह भी याद था कि मैं उस वक्त फ्राॅक पहना करती थी और दो चुटिया किया करती थी। यहीं पर बस नहीं हुई, उन्होंने यह भी बताया कि मुझे देखकर उन दिनों में उन्होंने एक कविता भी लिखी थी कि ‘सानूं (हमें) गुतों की छमकां न मार’। बाद में निर्दोष जी कई बार मुझे मिले। मैं हर साल जब भी दिल्ली जाती, वह बहुत मोह से मिलते और साथ ही लड्डू घाटी भी याद करवा देते। आजकल निर्दोष जी रहते तो शायद तिलक नगर में हैं, पर लड्डू घाटी उनकी चेतना का हिस्सा अभी भी बनी हुई है।

लड्डू घाटी अब कितनी भी बदल गई हो, पर मेरी स्मृतियों में तब वाली ही चस्पां हुई बैठी है, जब मैं वहाँ जाया करती थी। मेरी मामी की बहन संतो की बेटी का परिवार यहाँ रहता था। उसकी बेटी रानी इस परिवार में ब्याही हुई थी। यह बहुत बड़ा परिवार था। इन्होंने पाकिस्तान से आकर मुसलमानों का एक घर संभाल लिया था। यह पुराने ज़माने का बना घर था। बड़ी बड़ी चैगाठें, आले, अंगीठियाँ और रंगीन शीशे वाली खिड़कियाँ। मुझे यह घर बहुत अच्छा लगता और उससे भी अच्छे लगते इस घर के लोग। वे मुझसे बहुत मोह करते थे। पढ़ाई में तेज़ होने के कारण वे मुझे ख़ास समझते थे। इस घर में उन्होंने कोई तब्दीली नहीं की थी। यद्यपि बहुत देर पहले वे इस घर को बेचकर जनक पुरी की तरफ जा चुके हैं, पर मुझे अभी भी ऐसा लगता है कि उस घर में अभी भी संतो की बेटी और दामाद रहते हैं। इसी इलाके में ही मेरी बहन की ननद का रिश्ता भी हुआ था। मेरी बहन की ननद की आगे एक ननद थी जिसका नाम था - बावी। बहुत ही सुंदर लड़की थी वह। मैं तो जब उसकी ओर देखती तो देखती ही रह जाती। उसे कपड़े पहनने का बहुत सलीका था। बातचीत बहुत बढ़िया तरीके से करती। कई बार तो मैं उसको मिलने-देखने के लिए ही लड्डू घाटी चली जाया करती थी। वह भी कई बार हमारे पहाड़गंज वाले घर में मिलने आ जाया करती थी।

बावी का विवाह हो गया। कोई लड़का जर्मनी से आया था। सुंदर लड़का था। घरवालों ने विवाह भी बहुत बढ़िया किया था। महीनाभर रहकर लड़का वापस जर्मनी चला गया। उन्हीं दिनों बावी गर्भवती हो गई थी। वह मन ही मन जर्मनी जाने की तैयारी कर रही थी। लड़के ने वापस जाकर कुछ चिट्ठियाँ अवश्य लिखीं, पर फिर एकदम चुप्पी लगा गया। बावी हर रोज़ डाकिये की प्रतीक्षा करती, लेकिन न फिर कभी कोई चिट्ठी आई और न ही वह लड़का वापस आया। उसके बच्चा भी हो गया। बावी अपने घर ही बैठी रही। एक दिन अचानक बावी पागल हो गई। पागलपन में ही वह गलियों में मारी मारी फिरने लगी। मुँह में कुछ न कुछ बड़बड़ाती रहती। सड़कों पर चलती-फिरती कतरनें चुगती रहती। कई बार लगता, यह कौन से सपनों की कतरने चुगती घूमती है जिनकी कोई पोशाक नहीं बन सकी। आज बहुत बरसों बाद भी बावी मुझे वैसे ही घूमती दिख रही है। वह मेरी स्मृतियों में उकरी हुई है। निर्दोष जी के मिलने के साथ उसकी याद और भी अधिक गाढ़ी हो गई है। कई बार सोचती हूँ कि बावी तो बी.ए. पास थी, क्यों उसने अपनी ज़िन्दगी खराब कर ली ? जो शख्स सारी उम्र लौटकर नहीं आया, क्यों नहीं वह उसको भूलकर कोई दूसरा रिश्ता बना सकी ? वह तो पढ़ी-लिखी लड़की थी ? पर फिर सोचती हूँ कि पढ़ा-लिखा होने से क्या संवेदना मारी जा सकती है ? मन के अहसास की थाह कोई ज्ञान नहीं पा सकता। शायद बावी भी उस अहसास को अपनी शिक्षा-दीक्षा और ज्ञान से बदल न सकी और उसकी ज़िन्दगी दर्दनाक हादसे की भेंट चढ़ गई।

(जारी…)