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बहीखाता - 21

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

21

रिसेप्शन

मुझे उनकी दो बातें चुभने लगी थीं। एक तो सिगरेट पीना और दूसरे शराब पीकर बड़बोला हो जाना। ये दोनों बातें ही मेरे बचपन से लेकर मेरे इंग्लैंड आने तक मेरे से दूर रही थीं। मैं तो यह किसी न किसी प्रकार सहन कर रही थी, पत्नी धर्म निभाना था या कुछ और, पर मेरी माँ, भाभी और भाई इनकी इन आदतों को कैसे लेंगे, इसे लेकर मैं चिंतित थी। अब हमारा वापस इंडिया जाने का कार्यक्रम बन रहा था। इंडिया जाकर हमने कोर्ट मैरिज रजिस्टर करवानी थी, धार्मिक रीति-रिवाज़ से अभी विवाह होना बाकी था। विवाह की रिसेप्शन भी देनी थी। मुझे मेरे फ्लैट का कब्ज़ा भी मिलना था। फ्लैट की पिछले दस साल से किस्तें चुका रही थी। यह देशबंधु कालेज की सोसाइटी का फ्लैट था जिसके सभी सदस्य भिन्न-भिन्न कालेजों के लेक्चरर ही थे। पर फ्लैट अभी तैयार हो रहा था। अप्रैल माह में ही उसका कब्ज़ा मिलना था। अब जाकर इसकी चाबी लेनी थी। अभी तो इंग्लैंड में मैं एक विजिटर के तौर पर आई थी, पर मुझे लौटकर स्थायी तौर पर रहने का वीज़ा लेकर आना था। चंदन साहब की कानूनी पत्नी बनकर लौटना था। मैं अपने कालेज से छुट्टियाँ लेकर आई थी, दुबारा कालेज ज्वाइन भी करना था। सो, इंडिया में बहुत कुछ था जो करने वाला था, इसलिए वापसी की तैयारी कर ली।

हम मार्च के अंतिम दिनों में दिल्ली पहुँचे। उन्हीं दिनों गुरू नानक देव यूनिवर्सिटी में एक कान्फ्रेंस करवाई जा रही थी। चंदन साहब एक दिन दिल्ली रुक कर अमृतसर चले गए और मैंने मैत्रेयी कालेज जाकर अपनी हाज़िरी लगवा ली। आगे सप्ताहांत आ रहा था। साथ में एक छुट्टी और ले ली और मैं भी चंदन साहब के पीछे पीछे अमृतसर जा पहुँची। किसी समारोह में हम पति-पत्नी के रूप में पहली बार सम्मिलित हुए थे। हमारा खूब स्वागत हुआ। सभी दोस्तों ने बधाइयाँ दीं। यहाँ तक कि सेखों साहब ने हम दोनों को बधाई दी और साथ ही मुझे अपनी बहू के तौर पर स्वीकार कर लिया। सेखों साहब के मुँह से निकले ये शब्द मेरे लिए किसी वरदान की भाँति ही थे। हम दोनों कई परचों पर बोले भी। चंदन साहब सदैव की तरह बहुत प्रभावशाली बात कर रहे थे। यहीं हमें दर्शन धीर और संतोख सिंह संतोख भी मिले। दर्शन धीर उस समय बहुत जवान दिख रहे थे। उनके कुंडल वाले बाल किसी फिल्म एक्टर का भ्रम पैदा कर रहे थे, पर साहित्यिक तौर पर उस समय दर्शन धीर का क़द इतना बड़ा नहीं था। यूँ भी समारोह में वह खोये हुए से घूम रहे थे, पर उनसे इंग्लैंड आकर मिलना अच्छा लगा।

समारोह के बाद चार अप्रैल को हमारा धार्मिक रीति-रिवाज से विवाह हुआ था। सादा-सा विवाह, पर खुशियो से भरा हुआ। इस विवाह पर हमने अधिक लोगों को आमंत्रित नहीं किया था। विवाह के बाद रिसेप्शन पर सभी को बुलाया था। विवाह के रिसेप्शन की सारी जिम्मेदारी मेरे धर्म भाई गगनजोत ने उठाई थी। विवाह की सारी कार्रवाई सही ढंग से संपन्न हो गई थी, पर शाम को जाकर मालूम हुआ कि आज तो मेरे पिता की बरसी थी। उनका देहांत चार अप्रैल को ही हुआ था। जल्दबाजी में हमें यह बात याद ही न रही थी। सबका मन बहुत दुखी हुआ, पर अब क्या किया जा सकता था।

पहाड़गंज वाले घर में हमें ऊपर वाला कमरा दे दिया गया था। यह वैसे भी हमेशा मेरे ही कमरा रहा था। इस कमरे में मेरा हमेशा छोटा-सा संसार बसता रहा था। मेरी किताबें, कपड़े, मेरा बिस्तर और ज़िन्दगी के अरमान और अरमानों के साथ जुड़े कई सपने। गली की तरफ एक छोटी-सी बालकॉनी बनी हुई थी जहाँ से सारी गली का नज़ारा दिखता था। चंदन साहब को इस बालकॉनी में खड़ा होना बहुत अच्छा लगता था। यहाँ खड़े होकर ही वह सिगरेट पिया करते थे। उनकी कोशिश होती कि परिवार के किसी सदस्य के सामने वह स्मोक न करें। फिर कुछ ऐसा होने लगा कि ज़रा-से नशे में आकर उन्हें याद ही न रहता कि आसपास कोई और भी है। धीरे धीरे घर वाले भी अभ्यस्त होने लग पड़े। और कर भी क्या सकते थे। मेरे पति थे वह, घर के दामाद। दामाद के विरुद्ध जाना कठिन होता है।

एक दिन इन्हें इनके बेटे अमनदीप का फोन आया। यह अमनदीप को कोई चैक बैंक में जमा करवाने के लिए देकर आए थे और अमनदीप भूल गया था। जब इन्हें पता चला कि चैक अभी तक जमा नहीं हुआ तो यह फोन पर ही ज़ोर ज़ोर से गालियाँ देने लगे। इतनी ऊँची आवाज़ में कि पड़ोसियों ने भी सुनी होंगी। हम सभी हैरान-से उन्हें देख रहे थे। हमारे लिए यह नई बात थी। हमारे घर में इतनी ऊँची आवाज़ में बात करने का रिवाज़ नहीं था। जसविंदर को तो बहुत ही हैरानी हुई और साथ ही गुस्सा भी आया। वह एकदम सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आई और पूछने लगी -

“चंदन साहब, आप ऐसी गंदी गालियाँ किसे निकाल रहे हो ?”

“मैं अपने बेटे अमनदीप के साथ बात कर रहा था, तुम्हें इससे क्या मतलब ?”

“हमारा मतलब यह है कि आज आप बेटे को गालियाँ निकाल रहे हो, कल आप हमारी दीदी को भी इसी तरह गालियाँ निकालोगे ?”

“तुम हमारी मैरिड लाइफ मे क्यों दख़ल दे रही हो ?”

वह गुस्से में बोले और उठकर दूसरे कमरे में चले गए। उसके बाद इन्होंने जसविंदर से बात करना ही बंद कर दिया। जसविंदर ने भी इनको बहुत समय तक नहीं बुलाया। कुछ समय के बाद उनकी सुलह भी हो गई थी। बल्कि हमारे परिवार में से जसविंदर अब इनकी चहेती बन गई थी।

शीघ्र ही कोर्ट मैरिज भी हो गई। विवाह की रिसेप्शन भी रख ली गई। रिसेप्शन में दिल्ली के सभी पंजाबी लेखकों को निमंत्रण दिया गया। चंदन साहब हरेक को बुलाना चाहते थे। अब वह अपने आप को दिल्ली का वासी समझने लग पड़े थे। दिल्ली उनका घर बन गया था। अमृता-इमरोज़ को छोड़कर सभी छोटे-बड़े लेखक आए। अजीत कौर भी आई थी, पर उसको सही जगह की ठीक से जानकारी न होने के कारण मुख्य द्वार से ही वापस लौट गई थी। सबने बहुत खुशी मनाई। अभी भी कभी-कभी उस रिसेप्शन की वीडियो देखने बैठ जाया करती हूँ। सभी कह रहे थे कि यह विशुद्ध साहित्यिक रिसेप्शन था जिसमें दिल्ली के बड़े बड़े लेखक खुशी में भंगड़ा डांस कर रहे थे।

चंदन साहब का एक प्लाट चंडीगढ़ में था। वह चाहते थे कि वह प्लाट बेचकर यहाँ दिल्ली में ही प्लाट ले लें। हम चंडीगढ़ जाकर प्लाट बेच आए और दिल्ली में प्लाट तलाशने लगे। इन्हीं दिनों मुझे मेरे फ्लैट की चाबी भी मिल गई। चंदन साहब इस पर बहुत खुश हुए। मैं तो खुश थी ही। यह मेरा अपना फ्लैट था। यह मुझे बना बनाया नहीं मिल गया था, इसमें मेरी वर्षों की मेहनत की जमापूंजी लगी थी। हम फ्लैट में गए तो चंदन साहब इसके एक एक कमरे को घूम घूमकर देख रहे थे। मेरा दिल करता था कि कहूँ - चंदन साहब, आपको भी घर बैठे बिठाये मिल गया। पर मेरे में इतना साहस नहीं था। मैं ऐसी हिम्मत करना भी नहीं चाहती थी जिससे हमारे रिश्ते में फर्क़ पड़ सकता था। चंदन साहब बोले -

“रानी, हम यही मूव न हो जाएँ।”

“चंदन जी, यहाँ तो कुछ भी नहीं है। न बेड और न कोई कुर्सी, न परदे।”

“कोई न कोई इंतज़ाम करते हैं।”

मैं समझती थी कि हमारे पहाड़गंज वाले घर में उन्हें उतनी छूट नहीं थी जितनी वह चाहते थे। किसी परिवार के बीच रहना उनकी आदत में नहीं था। घर का धार्मिक-सा माहौल शायद उन्हें तंग करता हो। सिगरेट भी वह छिपकर ही पीते, जबकि शराब के नशे में किसी की परवाह नहीं करते थे। फिर उनके मित्र भी मिलने आते रहते थे। शायद सोचते होंगे कि अपने फ्लैट में जाएँगे तो मेहमान नवाज़ी खुलकर कर सकेंगे। हम अपना छोटा-मोटा सामान उठाकर फ्लैट में आ गए। दो बेंत की कुर्सियाँ ले आए और एक बेड का प्रबंध भी कर लिया। परदों की जगह रात में तौलिये टांग लेते। रसोई अभी चालू नहीं हुई थी इसलिए खाना बाहर से खा लेते।

फ्लैट में आकर चंदन साहब बहुत खुश थे। उनके कहने पर मैंने बैंक से अपने पैसे निकलवाये और फ्लैट में ज़रूरत का सामान डलवाना प्रारंभ कर दिया। अभी सिटिंग हॉल में बेड और बेंत की कुर्सियाँ ही थी कि उन्होंने फ्लैट में पार्टी रख ली। उन्होंने बहुत सारे दोस्तों को आमंत्रित किया। नूर, एस. बलवंत, दर्शन हरविंदर सहित बहुत सारे लेखक शामिल हुए। खूब शराब और सिगरेट उड़ी। चंदन साहब को ऐसे वातावरण की ही आवश्यकता थी।

गरमी पड़नी शुरू हो गई थी। चंदन साहब को गरमी बहुत लगती। वह कपड़े उतारकर बाहर टहलते रहते। ये फ्लैट सोसाइटी के थे। जमना पार, पटपड़गंज के इलाके में। यहाँ मच्छर बहुत था। रात में सोने न देता। फ्लैटों के इर्दगिर्द कारों के आने-जाने के लिए सड़क बनी हुई थी जिस पर दूर तक पैदल चला जा सकता था। चंदन साहब उस सड़क पर टहलते रहते। सिगरेट लगा रखी होती और कुछ गुनगुनाते रहते। उन्होंने गरमी पर और मच्छर पर एक गीत भी लिखा। उसकी पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार थीं -

असां रात गवाई भटकदियाँ, बिन बिजली दे, बिन पाणी दे

हस हस के तसीहे जरदे रहे, इस दिल्ली खसमां खाणी दे।

कई बार दोस्तों को हँसाने के लिए सुनाने लगते। पटपड़गंज यद्यपि मुझे अपने कालेज के हिसाब से दूर पड़ता था, पर फिर भी मैं खुश थी। चंदन साहब के वापस जाने का समय आ गया। उस दिन दोस्तों के संग फिर पार्टी रखी गई। पार्टी समाप्त होने पर जब सभी जाने लगे, तो सुतिंदर सिंह नूर ने कहा, “देख चंदन, तू दिल्ली की बहुत बढ़िया लड़की ले चला है। अगर कोई गड़बड़ की तो देख लेना।” मुझे ऐसा लगा कि नूर साहब मेरे बड़े भाई हैं और मेरी प्रोटेक्शन के लिए मेरे साथ खड़े हैं। मुझे अभी इधर ही रहना था क्योंकि वीज़ा मिलने पर ही इंग्लैंड जा सकती थी। चंदन साहब ने मेरे लिए वीज़ा अप्लाई कर दिया था। ब्रिटिश हाई कमिश्नर ने अभी इंटरव्यू के लिए तारीख देनी थी। चंदन साहब वापस इंग्लैंड चले गए और मैं अकेली रह गई। मैंने फ्लैट का शेष बचा काम पूरा करवाया और फ्लैट को ताला लगाकर अपनी माँ के घर आ गई।

हमारा अगला कार्यक्रम यह था कि मुझे कालेज से दो वर्ष की स्टडी-लीव लेनी थी। मैंने ब्रितानवी पंजाबी साहित्य पर शोध के काम का प्रोजेक्ट बनाया तो मुझे यूनिवर्सिटी की ओर से अनुमति मिल गई। अनुमति देने वाले सभी परिचित थे। चंदन साहब को भी जानते थे और मुझे भी। अब मैं इंग्लैंड जाने के लिए उतावली होने लग पड़ी थी। यह गरमी मुझे भी बहुत तंग कर रही थी। इंग्लैंड की ठंड मुझे अच्छी लगने लग पड़ी थी। इन्हीं दिनों मेरा भाई सुरजीत सिंह अपने कारोबार के सिलसिले में इंग्लैंड चला गया। उसने नाइजीरिया के किसी व्यक्ति के साथ मिलकर कोई कारोबार शुरू करना था या ऐसा ही कुछ और। वह इंग्लैंड जाकर चंदन साहब के पास रहने लगा। यह बात मुझे बहुत बुरी लगी। रिश्ता इतना पुराना नहीं हुआ था कि उसने मेहमानबाजी का आनंद भी लेना शुरू कर दिया।

मेरा भाई पढ़ने में हालांकि बहुत अच्छा नहीं था, पर उसने अपना कारोबार शुरू कर लिया था जिसमें वह सफल हो रहा था। घर का खर्च उठाने योग्य हो गया था। वह बिजली की छोटी छोटी मोटरें बनाता था। इलैक्ट्रोनिक वस्तुओं की उसको काफ़ी समझ थी। जर्मनी में रहते किसी खास मित्र के साथ मिलकर वह आयात-निर्यात का काम भी शुरू करना चाहता था। ऐसी योजनाएँ लेकर वह इंग्लैंड गया था, पर मुझे उसका चंदन साहब के घर में रहना बहुत खल रहा था। इससे अगली दुख वाली बात यह थी कि उसने चंदन साहब की गवाही पर बैंक से तीन हज़ार पौंड उधारे भी ले लिए थे। यह जानकर तो मेरी रातों की नींद ही खराब होने लगी। बाद में पता चला कि किसी नाइजीरियन ठग ने सुरजीत सिंह को कोई सपना दिखाकर तीन हज़ार पौंड में फंसा लिया था। उसके पास तो इतने पैसे थे नहीं। सो, उसने चंदन साहब से उधारे मांग लिए। यह तीन हज़ार पौंड मेरी ज़िन्दगी का जंजाल बने हुए थे। इतने समय में मैं यह जान चुकी थी कि चंदन साहब का स्वभाव ज़रा हल्का है। किसी पर किया अहसान वह झट सुना भी देते थे।

ब्रिटिश हाई कमीशन में मेरी इंटरव्यू की तारीख आ गई। उन्होंने ही मुझे विवाह पर आधारित वीज़ा देना था। इंटरव्यू से कुछ दिन पहले चंदन साहब आ गए। मुझे एक साल का वीज़ा मिल गया। सभी खुश थे। मैं इंग्लैंड जाने की तैयारी करने लगी। वहाँ इंग्लैंड में सुरजीत सिंह अमनदीप के साथ रह रहा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि वह अभी तक वहाँ क्या कर रहा था। चंदन साहब ने तीन हज़ार वाली कहानी सुना दी कि उन्होंने बैंक से उधारे लेकर ये पैसे दिए थे। मेरी इंग्लैंड जाने की उमंग ठंडी पड़ने लगी। एक दिन अमनदीप का फोन आया। उसने पता नहीं क्या कहा होगा, चंदन साहब गाली देते हुए बोले-

“जाने मत देना उसको। तीन हज़ार पौंड लेना है इससे।”

(जारी…)