Choupade ki chedel - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

चौपड़े की चुड़ैलें - 3

चौपड़े की चुड़ैलें

(कहानी : पंकज सुबीर)

(3)

उस रात के बाद से सब कुछ बदल गया। सब कुछ बदल गया मतलब यह कि चौपड़े का सारा माहौल ही बदल गया। चौपड़ा अब सचमुच ही भूतिया हो गया। भूतिया हो गया से तात्पर्य यह कि अब वहाँ रात को चुड़ैलों की महफिल सजनी बंद हो गई। अब रात बिरात किसी को वहाँ पर चूड़ियों के खनकने और पायलों के छनकने की आवाज़ें नहीं सुनाई देती थीं। तो क्या उस दिन के बाद इन लड़कों ने कुछ हंगामा मचाया या कुछ ऐसा किया कि जिससे बवाल मचा। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। असल में तो यह हुआ कि लड़का पार्टी ने धीरे से सत्ता को अपने हाथों में ले लिया। अपने ही परिवार के बड़े पुरुषों द्वारा रात के अँधेरे में जो चौपाल, चौपड़े में लगाई जाती थी, उस चौपाल की सत्ता को लड़कों ने अपने हाथ में ले लिया। और चौपाल का स्थान भी बदल दिया था। चौपड़े की चुड़ैलों को उन्होंने हवेली पर ही वह सब कुछ देना शुरू कर दिया, जिससे उन चुड़ैलों का चौपड़े तक आना बंद हो गया। चुड़ैलों का एकमात्र मीडियेटर हम्मू ख़ाँ तो उनका पहले से ही सेट था। तो कुल मिलाकर हुआ यह कि पहले यह लड़का पार्टी जो दिन भर चौपड़े में धमाल मचाती रहती थी, अब वह हवेली में पड़ी रहती थी। आते पहले ही की तरह चौपड़े पर ही थे, लेकिन उसके बाद बीच के रास्ते से धीरे से हवेली के अंदर बिला जाते थे। ऐसे जैसे भादौ की अँधियारी रात में, बरसते पानी में धीरे से कोई करिया नाग आँख बचा कर घर में बिला जाता है। उसके बाद यह लड़का पार्टी वहीं रहती थी, हवेली के अंदर ही।

बात का स्वभाव है कि वह फैलती ही है। लड़का पार्टी की हवेलीबाज़ी भी सुगबुगाहट की तरह क़स्बे में फैली। फैली, तो परिवार वालों को आपत्ति हुई, स्वभाविक सी बात है। रोका-रोकी और टोका-टोकी शुरू हुई। मगर अब बात रोका-रोकी और टोका-टोकी की कहाँ थी। लड़का पार्टी ने अपनी आँखों से अपने परिवार के पुरुषों को, सम्मानित पुरुषों को चौपड़े की चुड़ैलों के साथ चौपड़े के अंदर उतरते देखा था। उनके पास तो तुरुप का इक्का था। चाचा, मामा, पिता, भाई जैसी उपाधियों के रिश्तों को इन लड़कों ने अपनी आँखों से चौपड़े के अंदर कपड़े उतारते देखा था। उन कपड़ों के साथ ही रिश्ते और उन भारी-भरकत रिश्तों से जुड़े ख़ौफ़ भी उतर गए थे। कपड़े परिवार के पुरुषों ने उतारे थे लेकिन, उस घटना ने लड़कों को नंगा कर दिया था। उसी प्रकार का नंगा जिसके बारे में कहा जाता है कि उससे तो ख़ुदा भी डरता है। हालाँकि अभी भी एक प्रकार की -तृण धरी ओट, या तिनके की मर्यादा को रख कर यह लड़के अपने परिवार के पुरुषों से डील कर रहे थे। इस प्रकार कि मान लीजिए सुरेश के चाचा ने उसे हवेली जाने से मना किया, डाँट-डपट की तो दिनेश ने जाकर उनसे डील कर ली। डील....? डील का मतलब यह कि उनको बता दिया कि उस दिन रात को जब वे चौपड़े की चुड़ैलों के साथ वस्त्रहीन अवस्था में किन्हीं प्राकृतिक कार्यों को संपन्न कर रहे थे, तब पूरी बच्चा पार्टी चौपड़े की मुँडेर से ग्लेडिएटर के दर्शकों की तरह उस प्राकृतिक क्रीड़ा का अवलोकन कर रही थी। यह एक सूचना चाचा, मामा, भाई टाइप के रिश्तों के कस-बल ढीले कर देती थी। धीरे-धीरे उन लड़कों को हवेली में खुल कर आने-जाने का परमिट मिल गया। चौपड़ा वीरान होता गया और हवेली की रौनक लौटने लगी।

हम्मू ख़ाँ का रिश्ता बड़ी चुड़ैल से था और बड़ी चुड़ैल में लड़का पार्टी की कोई दिलचस्पी नहीं थी। लड़का पार्टी तो मँझली और छोटी चुड़ैलों के साथ ही मस्त थी। इसलिए किसी को किसी से कोई परेशानी नहीं थी। हम्मू ख़ाँ अपनी जगह खुश था और लड़के अपनी जगह पर। हम्मू ख़ाँ को भी अब अपना कार्य संपन्न करने के लिए हवेली में ही आने-जाने का सुभीता हो गया था। कभी भी। पहले तो यह था कि रात ढलने का इंतज़ार करना होता था। अब शारीरिक इच्छाएँ भी कोई समय देख कर उठती हैं भला ? पता चला दोपहर में ही बादल घिर आए हैं, बरसात होने लगी है। बरसात को देख कर सच्ची वाला मोर तो नाचता ही है लेकिन, उसके साथ एक और मोर भी नाचता है। वह मोर होता है पुरुष के शरीर में बैठा इच्छाओं का मोर। कमबख़्त बादलों को देखकर ही पंख फैलाने लगता है। जब ये पंख हौले-हौले इधर-उधर अपनी छुअन देते हैं सारी देह सलबलाहट से भर जाती है। ऐसा लगता है कि बस अभी......। लेकिन हम्मू ख़ाँ को रात तक का इंतज़ार करना पड़ता, तब तक सारे बादल बरस-बुरस के जा चुके होते। कीचड़ हो रही होती। मच्छर हो चुके होते। कुल मिलकार बरसात का सारा बना-बनाया माहौल ही विदा ले चुका होता। तो अब तो हम्मू ख़ाँ के भी मज़े थे, जब बरसात हो रही हो तभी.......। जब मोर का नाचने का मन हो तब नाच ले। इसलिए हम्मू ख़ाँ ने भी अपना अघोषित वीटो लड़का पार्टी के पक्ष में ही रखा था। वैसे भी उसके अलावा कोई चारा भी नहीं था। हम्मू ख़ाँ जो अगर वीटो नहीं देते तो लड़का पार्टी तो हम्मू ख़ाँ को दो तरफा घेर लेती। पहला तो जो है वो है ही, दूसरा यह कि हम्मू ख़ाँ मुसलमान थे और चुड़ैलें हिन्दू थीं। हम्मू ख़ाँ को तो लड़कों के पक्ष में झुकना ही झुकना था।

हवेली को सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी पैसों की। जिसके लिए गहरी रात में चुड़ैलें चौपड़े तक जाती थीं। लड़के चूँकि अपने-अपने घरों में उस स्थिति में नहीं थे कि जेबों में हमेशा पैसे रहें, फिर भी उनके लिए इधर-उधर से थोड़ा बहुत गोल-गपाड़ा करना कोई मुश्किल काम भी नहीं था। खलिहान में भरी हुई फसल में से पसेरी-दो पसेरी अनाज अगर उड़ा दिया तो फर्क कहाँ पड़ता है। तो चुड़ैलों का ख़र्च लड़कों के माध्यम से भी चलने लगा था। वैसे भी चुड़ैलों को बहुत ज़्यादा तो चाहिए नहीं था। हवेली थी ही रहने को। लड़का पार्टी भी बड़ा दल था। एकाध का हाथ अगर किसी दिन खाली भी रहे तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। चुड़ैलों को जो भी भुगतान दिया जाता था वह सामुहिक दिया जाता था, चंदे की शक्ल में। इस चंदे के कई रूप होते थे। रुपयों के रूप में भी और दूसरे रूप में भी। जैसे अनूप के पिता की डेयरी थी और सुबह शाम दूध बाँटने का काम अनूप ही करता था। हवेली कांड के बाद से उस दूध में सुबह और शाम चार-चार लीटर पानी बढ़ जाता था। और बढ़ा हुआ चार-चार लीटर दूध हवेली की चुड़ैलों को भोग लगा दिया जाता। सब्ज़ियाँ थीं, फल थे, अनाज था, गन्ने, गुड़ और जाने क्या-क्या तो था लड़कों के पास देने के लिए। यहाँ पर समय इतिहास में लौट कर चला गया था, वस्तु विनिमय का सिद्धांत एक बार फिर अस्तित्त्व में आ गया था। लड़के वस्तुएँ देते थे और चुड़ेलों से वस्तुएँ प्राप्त कर लेते थे। तुम्हारी भी जय-जय हमारी भी जय-जय।

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उस लड़के का नाम सोनू था जो इस कहानी में एक ट्विस्ट के रूप में आता है। सोनू कहीं बाहर से नहीं आया था। असल में वह इस लड़का पार्टी का ही हिस्सा था। लेकिन चौपड़े की चुड़ैलों का राज़ खुलने से पहले ही वह क़स्बे छोड़ कर जा चुका था। तब तक वह इस लड़का पार्टी का हिस्सा रहा था, जब तक यह गैंग अपनी प्यासों को लेकर चौपड़े के पानी में कूदती थी। शरीर से उठते प्रश्नों को अपने ही हाथों से सहलाती थी। सोनू के अंदर भी यह प्रश्न उठते थे, लेकिन सोनू के अंदर यह प्रश्न कुछ ज़्यादा फनफनाकर सर उठाते थे। ऐसे कि वह चौपड़े के अंदर पड़े पत्थर पर ही अपना गुस्सा उतार देता था। उसकी आँखों में लाल डोरे उतर आते थे। उसे कुछ भी नहीं सूझता था। बाकी लड़कों के अंदर अगर भट्टियाँ थी, तो सोनू के अंदर एक पूरा ज्वाला मुखी था, जो अपना लावा निकाल देने के लिए उबाल मारता रहता था। यही सोनू अपने सुलगते हुए सवालों को लेकर क़स्बे से चला गया था। चला गया था या भेज दिया गया था आगे की पढ़ाई के लिए। शहर भेज दिया गया था उसे। जाते समय उसकी आँखों में उम्मीदें थीं, सपने थे। सपने, पढ़ाई या कैरियर के नहीं थे, ये सपने तो क़स्बा का कोई भी लड़का नहीं देखता था। बाप-दादाओं की ज़मीनें थीं, खेती-बाड़ी थी, वही कैरियर थी। तो सोनू भी जो सपने लेकर गया था वह सपने, पढ़ाई कैरियर जैसी फालतू चीज़ों के नहीं थे। सपने थे देह में उठते हुए सवालों के हल होने के सपने। अपने अंदर के ज्वालामुखी को किसी अँधेरी ख़ला में उड़ेल कर ख़ाली कर देने के सपने। शहर तो वैसे भी सपनों की मंज़िल होता है। क़स्बा अपने हर सपने को पूरा करने के लिए शहर की ओर देखता है। सोनू भी सपनों की लाल-सुनहरी चिंदियाँ आँखों में लिए शहर की ओर गया था। मगर कुछ ही दिनों में अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर वापस क़स्बे में लौट आया था।

सोनू पहले हवेली की मंडली में कुछ झिझकते हुए आया, क्योंकि वह चौपड़े की उस चुड़ैलों वाली रात का दर्शक नहीं था। उस रात के जो दर्शक थे वह सब तो झिझक-विझक जैसी चीज़ों को छोड़-छाड़ कर हवेली का हिस्सा बन चुके थे। हवेली अब उनका अड्डा थी। सोनू भी उस अड्डे में आया तो हवेली ने उसे वह सब दिया जो उसे चाहिए था। जिस ज्वालामुखी को वह अपने अंदर दबाए फिरता था, वह हवेली में आकर फूट गया। फूटा तो सोनू भी फूटा। उसने वह सब कुछ बताया जो उसके साथ शहर में हुआ था। लड़का पार्टी और चुड़ैलों ने बैठकर उसकी पूरी कहानी को सुना। सुना तो सब सन्न रह गए।

जो कहानी सोनू ने इन लोगों को सुनाई वह किसी और को नहीं सुनाई थी। और यह कहानी ही सोनू के शहर से क़स्बे वापस आने की असली कहानी थी। कहानी कुछ इस प्रकार थी । असल में सोनू जब शहर गया तो कॉलेज, पढ़ाई, जैसी बातों से ज़्यादा चिंता उसे थी उस बात की जो सवाल बनकर उसके शरीर में लहराती थी। वह बुझना चाहता था। और आते ही उसने सबसे पहले तलाश शुरू की उस ठिकाने की जहाँ पर वह अपने आप को बुझा सके। जो जुनून, जो दीवानापन उसके दिमाग़ पर चौबीसों घण्टे सवार रहता है, उसका कुछ उपचार हो सके। लेकिन यह कोई आसान काम तो था नहीं। पुराने समय में हर शहर में इस प्रकार के कुछ ठिकाने होते थे, लेकिन समय के साथ वह ठिकाने भी समाप्त हो गए। अब क्या किया जाए ? सोनू की तलाश समाप्त हुई एक समाचार पत्र में छपे विज्ञापन पर। विज्ञापन में लिखा था आइये मीठी बातें करिए। मीठी बातें ? सोनू का दिमाग़ कुछ ठनका। मगर उस विज्ञापन में एक कुछ कम कपड़े पहने हुई लड़की का चित्र भी लगा हुआ था। विज्ञापन उसी समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था, जिसके मालिक ने कुछ दिनों पहले किसी संस्था में भाषण देते हुए कहा था कि महिलाओं को ठीक कपड़े पहनने चाहिए, उनके द्वारा पहने जा रहे ग़लत कपड़ों के कारण ही बलात्कार की घटनाएँ बढ़ रही हैं। बाद में उन मालिक के ख़िलाफ़ कुछ महिलाओं ने मोमबत्ती लेकर एक प्रदर्शन भी किया था। मालिक को भी बुरा नहीं लगा था, समाचार पत्र के मालिक थे जानते थे कि पब्लिसिटी के टोटके क्या होते हैं। उसको पता था कि मोमबत्तियाँ पब्लिसिटी के लिए जलाई जाती हैं और मशालें क्रांति के लिए, इसलिए जब तक मोमबत्तियाँ जलाईं जा रही हैं तब तक घबराने की कोई बात नहीं है। ख़ैर तो बात यह चल रही थी कि उन आदर्शवादी मालिक के समाचार पत्र में ही वह विज्ञापन प्रकाशित हुआ था। उसके साथ कुछ नंबर भी दिए गए थे। सोनू ने कुछ झिझकते हुए उस नंबर पर कॉल किया। मीठी बातें हुईं और बहुत सी मीठी बातें हुईं। जब कॉल काटा तो पता चला कि अंतर्राष्ट्रीय कॉल के हिसाब से पैसे कट गए हैं। लेकिन वह कोई बड़ी बात नहीं थी। सोनू अभी क़स्बे से आया था और जेब में ख़ूब माल था। असली बात यह थी कि बातें बहुत ज़्यादा ही मीठी हुईं थीं। बातें, हालाँकि केवल बातें ही थीं, उनसे कुछ भौतिक कार्य तो संपन्न नहीं होना था। लेकिन दिमाग़ में जो रसायन उत्पन्न होते हैं वह तो बातों से भी हो जाते हैं। और दिमाग़ में इस बातचीत के दौरान भरपूर मात्रा में रसायनों की उत्पत्ति हुई थी।

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