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बड़ा स्कूल

चतुर्वेदी जी का बेटा साढ़े तीन वर्ष का हो गया था, उसका अच्छे स्कूल में एडमिशन कराना था। चतुर्वेदी जी अपने बेटे को सुसंस्कारित, बड़ों का सम्मान करने वाला, अनुशासित, विनम्र, शिक्षित, स्वस्थ (शरीर और मन से) और बुद्दिमान बनाना चाहते थे। इसके लिए कई विद्यालयों के अध्ययन के पश्चात् उन्होंने एक विद्यालय पसंद किया, जो हिन्दी माध्यम का था और उस विद्यालय में संस्कारों को तवज्जो देते थे। इसी कारण से उन्हें वह स्कूल बहुत पसंद आया। खुशी-खुशी उन्होंने अपने धर्मपत्नी को बताया। धर्मपत्नी ने अपना मातृ धर्म निभाते हुए एकदम से मना कर दिया और कहा कि, “मेरा बेटा अच्छे अंग्रेजी स्कूल में पढेगा, किसी ऐरे-गेरे हिन्दी स्कूल में नहीं”।

चतुर्वेदी जी हक्के-बक्के रह गए, हालाँकि वे जानते थे कि अगर पत्नी की बात नहीं मानी गयी तो गृहयुद्ध होने में अधिक समय नहीं लगेगा और अंत में पत्नी ही विजयी होगी। उनकी पत्नी का स्वभाव तीक्ष्ण था। तो उन्होंने सोच-समझ कर यही कहा कि, “चलो ठीक है, लेकिन अंग्रेजी स्कूल में संस्कार मिलेंगे?”

“क्यों नहीं मिलेंगे? इतने अच्छे स्कूल होते है, बड़े-बड़े लोगों के बच्चे वहां पढ़ते हैं। संस्कार क्यों नहीं होंगे और आप यह संस्कार का रोना बंद करो, मुझे मेरे बेटे को अच्छा इंसान बनाना है। हिन्दी स्कूल में, गरीब लोगों के बच्चों के साथ पढ़ कर क्या ख़ाक बनेगा? क्या विचार होंगे? मैं जो कह रही हूँ, घर में वही होगा। समझे!” पत्नी ने आख़िरी शब्द को जोर देकर बोला।

चतुर्वेदी जी के पास चुप रहने के अलावा कोई चारा नहीं था। लेकिन पत्नी के शब्द “संस्कार का रोना बंद करो, मुझे मेरे बेटे को अच्छा इंसान बनाना है..” याद करके उन्हें अपने बेचारेपन पर तरस आ रहा था, हंसने का कोई औचित्य नहीं था।

वे दोनों पत्नी के तय किए हुए एक बड़े अंग्रेजी स्कूल में गए, वहां उनसे पूछा गया, “सर, डू यु नो इंग्लिश? (श्रीमान जी, क्या आप अंग्रेजी जानते हैं?)”, चतुर्वेदी जी के इस प्रश्न के नकारात्मक उत्तर पर उन्हें स्कूल से भी नकारात्मक उत्तर मिल गया कि, “सॉरी! आपके बच्चे का एडमिशन नहीं हो सकता है। आपको इंग्लिश आना ज़रूरी है।”

उनकी पत्नी ने बाहर आते ही कहा कि, “देखा, आप संस्कारों की बात कर रहे थे, कितने नियमों के पक्के है। जो स्कूल का नियम है, उसके अनुसार ही एडमिशन होता है।” चतुर्वेदी जी ने प्रत्युतर दिया कि, “लेकिन अपने छोटू का तो एडमिशन नहीं हुआ। अब क्या करें?”

उनकी पत्नी पहले से ही इस प्रश्न के लिए तैयार थी उसने कहा कि, “मैनें आरती जी, जो अपने पड़ोस वाले शर्मा जी की पत्नी हैं, उनसे बात कर ली है और मुझे पता है कि क्या करना पडेगा?”

चतुर्वेदी जी ने पूछा, “क्या?”

“बस आप देखते रहो, आप जैसे दुनिया को देखते हैं, वैसी सीधी नहीं है – गोल है”, पत्नी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।

उनकी पत्नी प्रिंसिपल के निजी सचिव के पास गयी और उंससे बात करके 5 मिनट में पुनः चतुर्वेदी जी के पास लौटी और कहा कि, “बीस हजार रुपये दो, जो आप फीस के लाये थे।”

“तो क्या एडमिशन हो गया?” चतुर्वेदी जी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा। साथ ही उन्होंने रुपये निकालने के लिए जेब में हाथ भी डाल दिया।

“हो जाएगा, फीस तो कल भी जमा हो जायेगी, ये तो प्रिंसिपल साहब के लिए उपहारस्वरूप है।” उनकी पत्नी ने कहा।

चतुर्वेदी जी को जैसे 440 वाट का झटका लगा, वे सारी बात एक क्षण में ही समझ गए। उनके मन से आवाज़ आयी “संस्कारित, नियम प्रधान, बड़े अंग्रेजी स्कूल में बच्चे का प्रवेश करवाना है, तो उसके प्रधान को बीस हजार रुपये रिश्वत के देने होंगे...”

उन्होंने जेब से हाथ बाहर निकाला, लेकिन खाली और उसी हाथ से, अपने जीवन में पहली बार, कई एडमिशन कराने आये अभिभावकों के सामने अपनी पत्नी को कस के तमाचा जड़ दिया।

फिर चिल्ला कर कहा, “माफ़ करना, लेकिन मैं अपने बच्चे को इस तरह के स्कूल में नहीं पढ़ा सकता, जिसका प्रिंसिपल एडमिशन के समय ही रिश्वत लेता हो... मुझे मेरे बच्चे को मानव बनाना है, किसी राक्षस के हाथ में देकर उसे दानव नहीं बनाना।”

कुछ संयत होकर उन्होंने आगे कहा, “जीवन भर तुम ने जो सही-गलत कहा, केवल घर में शांति रहे, इसलिए मैनें चुपचाप मान लिया, लेकिन मैं अपने पिता-धर्म को केवल शांति की कीमत पर बेच नहीं सकता। कभी भी नहीं।”

कई अभिभावक उनके आस-पास खड़े थे, उनमें से कईयों के हाथ खुदकी जेब के अन्दर चले गये – अपने वाहनों की चाबी निकालने के लिए।