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जहां लौट नहीं सकते

जहां लौट नहीं सकते

पारे की चमकीली बूंदों की तरह सुबह की धूप छत की मुंडेर पर बिखरी है। सर्दी की एक खूब उजली, धुली सुबह! देखते हुये वह सुख की अनुभूति से भर उठी थी- ये उसकी दुनिया है! उसके अपनों की दुनिया... संबंध और अपनत्व की आत्मीय गंध से भरी! देख कर लगता नहीं, बीच में इतने सालों का व्यवधान है। सब कुछ जस का तस धरा है। नई-कोरी, जैसे कल ही की बात हो।

प्राची कल देर रात यहाँ पहुंची थी। ट्रेन कई घंटे लेट थी। अम्मा इंतज़ार करते बैठी थी, बाकी सब सो गए थे। किसी तरह कपड़े बदल अम्मा के बगल में रजाई ओढ़ कर दुबकी तो जाने कब नींद आ गई। थकान से अधिक यह निश्चिंतता थी। अम्मा के पास होने की, अपने घर में होने की बचपन जैसी निश्चिंतता!

सुबह नींद खुली तो अम्मा पास बैठी उसे ही देख रही थी। एकटक! उसे जगते देख झेंपी-सी बोली थी- लगता है तेरा खाना-पीना ठीक नहीं हो रहा, ऐसे चेहरा निकल आया है... वो जानती है, अम्मा बच्चों को कभी नजर भर कर नहीं देखती। कहती है, बच्चों को अपनी माँ की नजर सबसे ज्यादा लगती है। वो कुनमुनाई थी- हाँ! वो तुम्हारा दिया कांसे का जम्बो गिलास भर कर दूध जो नहीं पीती! चेहरा निकल आया है...! अम्मा पूरे डेढ़ मन की हूँ...! सब मुझे मोटी कह कर चिढ़ाते हैं! अम्मा ने उसकी बात पर मुंह बनाया था- हूंह मोटी! रहने दे, मेरी कब सुनती थी जो अब सुनेगी! फिर दुलार से उसे थपकी थी- थोड़ा और सो ले, थकी होगी...। उसका मन किया था, अम्मा से लिपट जाय मगर ऐसा नहीं कर पाई थी। जाने क्यों! जो वक्त गुजर गया है वह अदृश्य बाड़े-सा बीच में खड़ा है कहीं। रोक लेता है उछाह से भरे कदम! एक रुलाई पसलियों में आकर अटक जाती है- अम्मा! तुम्हारी टुक्कु इतनी बड़ी क्यों हो गई?

अम्मा मुड़ कर बिस्तर तहाने लगती है- गुसल हो आ... उसे पता है, अम्मा अपनी आँखें छिपा रही हैं। उन्हें झूठ बोलना आज भी नहीं आता... वह पहली बार उन्हें ठीक से देखती है- पीछे से कितनी छोटी लग रही है! उम्र के साथ जैसे अपने आप में सिमटती-सिकुड़ती जा रही है। दुबले कंधों पर उतरता ढीला ब्लाउज, नस चढ़ी उँगलियाँ... झड़े हुये पीपल के सूखे पत्ते-सी दिख रही, जर्द और मोटी-पतली शिराओं के संजाल से भरी!

आँखों के आगे उनकी पुरानी छवि कौंधती है- भरी-पुरी देह, मांग भर सिंदूर, माथे पर बड़ी-सी टिकुली- जगर-मगर रूप! वक्त की खुरपी किस तेजी से चल रही है हर एक चीज पर...! बाथरूम में मुंह धोते हुये उसने बार-बार चेहरे पर पानी छ्पका था, अम्मा की नजर इतनी भी कमजोर नहीं हुई है कि उसकी गीली आँखें ना देख पाये।

वह इस बार कई सालों के बाद मायके आई है। बेटे को पंचगनी बोर्डिंग स्कूल में डालने के बाद कुछ फ्री हुई तो आने का प्रोग्राम बनाया। प्रोमोशन के बाद अरुण एक महीने के लिए लंदन गया हुआ था।

भाभी अपनी तरफ से बहुत अच्छा व्यवहार कर रही है। मगर भैया क्यों! ऐसा व्यवहार पराया होने का एहसास कराता है। यह बात और चुभ रही कि भाभी के इशारे पर भैया उसके लिए सब कुछ बढ़-चढ़ कर कर रहे। जैसा भी था, यह रिश्ता तो उन दोनों के बीच का था ना! इस घर में जैसे अब कुछ भी उसका नीजि नहीं रह गया है। रिश्ता भी! मन बचपन वाले झगड़े, गुस्सा, अबोला के लिए ललक रहा। काश उन्हें लौटाया जा सकता! जिस आँगन की मिट्टी से उसकी देह बनी है कम से कम उस घर में उसे मेहमान नहीं बनना था! यहाँ तो नाल के साथ उसका मन भी रोपा हुआ है! भीतर कोई नस है जो हर सुख में दुख में इधर ही खिंचती है!

वह देख रही, अम्मा का साम्राज्य सिमटते-सिमटते अब एक कमरे में आ टिका है। बाकी सब कुछ भाभी का। अभी जिस कमरे में अम्मा रहती है पहले वह घर का भंडार हुआ करता था जिसकी चाभी अम्मा के आँचल से बंधी होती थी। उसे चुराने के चक्कर में कितनी बार पिटी थी! कभी हाथ पंखें की डन्टी से तो कभी सरौते से। उसे याद है, दीवार की ऊपरी ताकें अचार के मर्तबानों से भरी रहती थीं। नानी गाँव से साल भर के लिए गुड, घी, अरबा चावल भिजवाती थी, साथ हिंग की बड़ी, अचार, आलू चिप्स।

अजब है कि सुखद स्मृतियाँ एक समय के बाद दुख देती है। यह दुख होता है उस सुख के खो जाने का जो दुबारा लौट नहीं सकता। बस दिखता और लुभाता है, मरु में जल के भ्रम की तरह हाथ हिला-हिला कर पास बुलाता है, इस एहसास को गहराते हुये कि जीवन में जो बहुत प्रिय, बहुत अपना था वह छुट गया, हमेशा के लिए! गोया मिलने और खो जाने का एक निरंतर सिलसिला है जीवन जिसमें हर खुशी के साथ जुड़ा एक दुख भी चला आता है, एक के साथ दूसरा फ्री की तरह... वह बचे-खुचे सामान, असबाबों को छू-छू कर देखती है। इन सब में थोड़ा-थोड़ा वह है- अम्मा की टुक्कु, भैया की मोटी, पापा की... अनायास पलकों पर कुहरा घना हो आता है, दृश्य पनीला जाते हैं... याद में होना संत्रास में होना है! इस चेहरे और आवाजों के जंगल में धंस कर अक्सर वह रास्ता भूल जाती है।

ससुराल आई बेटी के सामने अम्मा अपनी गरिमा बनाए रखने का भरसक प्रयास कर रही। प्राची देख रही, सब होने के बीच के मौन अभाव को। एक प्रच्छन्न अवज्ञा जो ना हो कर भी बना हुआ है। अम्मा का हर चीज के लिए भाभी का मुंह देखना, भैया के लिए भाभी की आँखों की मूक हिदायतें, छोटी-छोटी बातों में बरजना। कोई कह नहीं रहा, मगर अदृश्य तख्तियों पर लिखा हुआ है, यह अब किसका घर है, कौन है यहाँ की मालकिन। प्राची असहज महसूस कर रही, जाने उसकी किस हरकत को किसी के अधिकारों का अतिक्रमण समझा जाय!

अम्मा के खान-पान को ले कर उसकी एक-दो निर्दोष टिप्पणियों पर भाभी का चेहरा भारी हो उठा था। एकांत में अम्मा ने उसके सर पर तेल डालते हुये कहा था, मैं ठीक हूँ टुक्कु, तू मेरे लिए चिंता मत कर। दो दिन के लिए आई है, हंसी-खुशी जा... उसने समझा था अम्मा का इंगित। मेहमानों को दूसरे के घर के मामलों में दखल नहीं देना चाहिए। बुरा नहीं लगा था उसे, अम्मा के लिए दुख हुआ था। हर कदम पर समझौता उनके अहम को सालता होगा। जानती है, समय का यह पड़ाव उनके हाथों से सब कुछ एक-एक कर छुटते जाने का है। अब मोह, मान-अभिमान बस दुख ही देगा।

बात बदल कर उसने उनको पास खींच लिया था- लाओ अम्मा, तुम्हारे पके बाल बीन दूँ! वह मुस्कराई थी- पके बाल बीनने लगी तो सर पर एक भी बाल नहीं बचेंगे! उनकी उदास, बनावटी मुस्कराहट में सच और उभर कर आया था। वे समझ नहीं रही, यह छिपाने की अनाड़ी कोशिश उनको बस उजागर ही कर रहा। वह आँख फेर लेना चाहती है मगर किधर...

वह समझ रही, उसका यूं घूम-घूम कर घर भर में सब देखते फिरना भाभी को शंकित कर रहा। जाने वह क्या खोज रही! छोटे को उसके साथ लगा रखा है। वह कैसे बताए, जो उनके लिए सामान भर है वह उसके लिए जीवित स्मृतियों का पिटारा है। आवाज, गंध, स्वाद से भरा! इस घर का हर कोना उसकी उम्र का कोई क्षण अपने में समेटे हुये मौन खड़ा है। आँगन के बीजोबीच जो नया कमरा बना है, उसी के नीचे कहीं दबा हुआ है उसके सिक्कों का खनखनाता पेड़ जिसे उगाने के लिए उसने भैया के साथ चबन्नी का बीज बोया था और सालों उसे पानी से सींचा था।

वह रसोई से लगे इदारा में झाँकती है। दोपहर की धूप में उसके मन्नत के सिक्के अब भी चमक उठते होंगे! परीक्षा में पास होने के लिए, पापा से कही झूठ ना पकड़ी जाने के लिए की गई भोली मन्नतें... खिड़की के पीछे ब्लेड से खुरच कर उसका और बिन्नी का नाम लिखा है- गर्मी की लंबी, उबाऊ दोपहरों की खुराफातें... सीढ़ियाँ चढ़ कर देखती है, छतों पर रखे अचार के मर्तबान उसे आज भी लुभा रहे। अचार चुराने के लिए एक छज्जे से दूसरे छज्जे वे किस तरह बंदरों की तरह फांद जाते थे! फिर आँगन में सूखती ईमली, अमावट, शादी की बची पुरियाँ... सकालो चाची का दालान हिंग की बड़ियों से मह-मह कर रहा, गली में तिलकुट, सोन पापड़ी, चीनी का लट्ठा बेचने आए फेरी वाले के आसपास बच्चों की भीड़ है...

वह खुद को देख सकती है उन बच्चों के बीच, नाक सुड़कती हुई नंगे पैर दौड़ रही गर्मी की दोपहर में। कभी पतंग लूटने, कभी सर्कस की पर्चियाँ... पीछे से अम्मा की पुकार... ये आवाजें आज भी उसका पीछा करती हैं। एकदम स्तब्ध किसी क्षण में अचानक अम्मा की आवाज गूँजती है- टुक्कु... या कोई बरफ की गाड़ी ठेलता हुआ गुजरता है- मलाई बरफ... इन गलियों में बारिश की कीचड़ है, गर्मी की भर दोपहरी झिमाता-सीझता सन्नाटा या सर्दी की ठिठुरती साँझ में ओर-छोर पसरा कोहरा... वह जाने कब तक खड़ी-खड़ी देखती रहती है- धुंध में धब्बे की तरह फैली स्ट्रीट लैम्प की रोशनी, दीवाली के समय के उड़ते कीट-पतंग, सर पर मँडराता मच्छड़ों का फनल… गुजर जाना ही बीत जाना नहीं होता!

अम्मा खाने के बाद एकांत मिलने पर अपनी सन्दूक से उसके बचपन की गुड़िया निकाल कर लाई थी। कहा था, तू चली गई तो अब ये रहती है संग! काश ये गूंगी बोलती भी तेरी तरह। कहते हुये उनकी हंसी झुर्रियों में उलझ कर काँपने लगी थी। कभी उन्होने ही बना कर दी थी यह गुड़िया। ब्याह रचाने के लिए। सुनहरे गोटों वाली लाल छींट की साड़ी और काजल की मोटी रेख, बिंदी में। देख कर वह रुलाई से भर आई थी। लत्ते की वह रंग उड़ी गुड़ियों फटी-फटी आँखों से उसे ऐसे देख रही जैसे पहचानने की कोशिश में हो। उसे घबराहट-सी हुई थी, अपनों की स्मृति से विस्थापित हो जाना सही अर्थों में बेघर हो जाना होता है। यही कहीं होने में तो उसकी वास्तविक आश्वस्ति थी, आश्रय था!

समय के साथ अंजान बहते और दूर निकलते हुये एक सांत्वना थी कि कहीं एक खूंट है जो उसे मजबूती से बांध रखी है अपनी जगह से। जमीन में गहरी है उसकी जड़ें। उखड़ नहीं सकती आसानी से। मगर अब देख कर लग रहा, जाने कहाँ-कहाँ से बेदखल हो गए! गुड़िया की मुट्ठी में वह अपनी ओढनी का कोना ढूंढती है। सालों पहले यही छुट गया था। मगर अब उस में कुछ भी नहीं। नग गिरी अंगूठी की तरह पंजे फैलाये खाली पड़ी है। तूने भी मुझे इस तरह से चले जाने दिया... अनकहे बोल उसकी आँखों में देर तक छलछलाते रहते हैं। आज रूठ जाने का दिन है मगर मनाने के लिए कोई नहीं। अम्मा अकेली क्या-क्या सम्हाले...

औरत हमेशा से अपना एक घर चाहती है। गुड्डे-गुड़ियों के दिन से इसके सपने सजाती है। मगर अब समझ आने लगा है उसे, औरत का कहीं कोई घर नहीं होता। बस आश्रय होता है, स्थायी या अस्थायी! जहां वह दूसरों की मर्जी और खुशी पर रहती है। एक जगह रोपी जाती है फिर धान के पौधे की तरह उखाड़ कर कहीं और जमाई जाती है। इस बार-बार बसने, विस्थापित होने में उसे किस यंत्रणा, असुरक्षा और भय से गुजरना पड़ता है, कोई समझ नहीं सकता! खूली हुई जड़ों से खून रिसता रहता है। सांझे के चूल्हे की तरह यह हर औरत के हिस्से के गोपन दुख होते हैं जिसकी आंच पर वह आजन्म सिंकती रहती है।

उसे याद आता है, बचपन में डर के क्षणों में अम्मा का आँचल और लत्ते की गुड़िया रानू उसका संबल हुआ करती थी और अब आंसुओं के सूखे दागों से भरा उसका तकिया! एक लंबे अर्से से अरुण की पीठ उनकी रातों बीच अभेद्य दीवार-सी तनी हुई है! इस तरफ वह है, उसकी पलकों पर ढलते अनगिन रातों के पहर हैं, दूसरी तरफ के पथरीले मौन में जाने क्या है... जिसके मकान में वह सालों से रहती है, उसके घर में उसे कभी जगह नहीं मिल सकी...

अम्मा ने बताया था, पड़ोसी की सबसे छोटी बेटी यानी बिन्नी की भतीजी की शादी तय हुई है। शाम उनके घर की खिड़कियाँ रोशनी से भरी हैं। रंगीन पर्दे के पीछे से रह-रह कर हंसी की आवाज सुनाई दे रही। कई लोग एक साथ बतिया रहे हैं। रसोई पकवानों की गंध में डूबी है। हर तरफ चहल-पहल है। बस घर के कोने वाले कमरे की खिड़की पर अंधेरा छाया है। सालों से वह कमरा बंद है। उस कमरे में बिन्नी ने आत्महत्या की थी। दहेज उत्पीड़न से बचने के लिए। उस पगली को मृत्यु जीवन से बेहतर विकल्प लगी थी... अगर ऐसे नहीं मरती तो भी क्या जी पाती! प्राची उस खिड़की की तरफ देखने से बचती है। उसे पता है, अधिकांश खिड़की के एक तरफ आकाश होता है और दूसरी तरफ किसी पंछी की कैद!

समय कितनी जल्दी बीतता है। अच्छा समय तो कुछ ज्यादा ही जल्दी। आते ना आते जाने का समय भी हो गया। सात दिन कैसे बीते पता ही नहीं चला। सुबह की ट्रेन पकड़नी है और प्राची को अब तक नींद नहीं आ रही। इस बीच मौसेरी बहन मिलने आई, वे मंदिर गए, दो फिल्में भी देखी। उसे देख कर हैरानी हुई, इन थोड़े से सालों में शहर कितना बदल गया है! मॉल, मल्टीप्लेक्स और ना जाने क्या-क्या!

भाभी ने नई साड़ी दी है। अरुण और बेटे के लिए भी कपड़े। अम्मा सुबह से जाने क्या-क्या बांधने में लगी है साथ देने के लिए। रसोई में उनकी भाभी के साथ खुसर-फुसर दिन भर चलती रही है। उससे पूछा भी है कई बार, टुक्कु, तूझे साड़ी पसंद आई ना? आर्ट सिल्क की है... इन सबके बीच उसकी अपनी मनःस्थिति अजीब हो रही थी। यहाँ और रुकना नहीं चाहती मगर जाने का भी मन नहीं। एक सराय से दूसरे सराय का सफर... मगर जानती है, मेहमान हमेशा के लिए कहीं नहीं ठहर सकते। और जहां जाना है वहाँ उसके इंतजार में कोई नहीं खड़ा।

सुबह भैया ने जायदाद के कुछ कागजादों पर दस्तखत करवाए थे। भाभी सर पर खड़ी थी। अम्मा देख कर भी ना देखने का भान करती उठ कर दूसरे कमरे में चली गई थी। बिना कुछ पूछे उसने दस्तखत कर दिये थे। सही-गलत की सोच को परे रख कर। क्या होना है इन बातों से! ये बातें बहस, विमर्श के लिए भली। एक तरफ तमाम रिश्तों की दुनिया है, दूसरी तरफ ईंट-पत्थर के घर, मिट्टी, असबाब। चुनना उसे अपने अपनों को ही है। महाभारत कभी एक ही हुआ होगा, मगर औरतें तो जीवन के हर दिन कुरुक्षेत्र में उतरती है, रिश्ते और शांति की कीमत चुकाती है।

अम्मा के बक्से में उसे आज अपनी पुरानी डायरी मिली है। तब से वही ले कर बैठी है। इन्हीं आँखों से देखी वह तब की दुनिया कितनी अल्हदा थी। महापुरुषों के कोट, कवितायें, चित्रकारी... साथ सीने तारिकाओं की तस्वीरें, एक कवि का ऑटोग्राफ! किस दुनिया की बाशिंदा थी वह! उन अच्छे दिनों की एक तस्वीर भी है उसकी बिन्नी के साथ- दो चोटी और गले तक ढंके दुपट्टे में। बिन्नी कैसे मुस्करा रही है! अच्छा है भविष्य से लोग अंजान रहते हैं, वरना जाने कोई कभी मुस्करा भी पाता या नहीं!

उसके डायरी बंद करते ही एक सूखा फूल पन्नों से फिसल कर नीचे गिरता है। इस फूल को देखते ही वह पहचान जाती है। यह फूल उसके भीतर कभी सूखा ही नहीं। आज भी वैसा ही लाल और ताजा है! ठंड के एक ऐसे ही दिन में शरद ने उसे यह फूल दिया था। वर्षों पहले। इस मौसम में उनके गार्डन में खूब फूल खिलते थे। एक बार वह फूल तोड़ते हुये पकड़ा गई थी। शरद की दादी ने उसे खूब डांटा था। वह रुआंसी हो कर घर भाग आई थी। उस दिन उसे अपनी खिड़की पर यह फूल मिला था। शरद ने रखा था।

उस दिन शरद को उसकी खिड़की पर फूल रखते हुये किसी ने देख लिया था और उसके घर वालों को बता दिया था। फिर वही हुआ था जो अक्सर ऐसे मामलों में छोटे-छोटे शहरों, कस्बों में होता है। झगड़ा, धमकी... बात हाथापाई तक आ गई थी। भैया हॉकी स्टीक ले कर दहाड़ रहे थे। बड़ी मुश्किल से मुहल्ले के बड़े-बुजुर्गों ने सबको शांत किया था। दूसरे दिन उनके कॉमपाउंड वाल को फुट भर ऊंचा कर दिया गया था और उसके कमरे की खिड़की पर फली लगा कर पचास कीलें ठोंक दी गई थी।

सोचते हुये उसे हंसी आई थी। लोग दिलों के बीच दीवार उठाते हैं, खिड़की बंद करते हैं! वैसे और किया भी क्या जा सकता है! ऐसी हरकतें करने वाले लोग निहायत बिचारे किस्म के होते हैं। जर्द फूल के दाग वाले पन्ने पर मोती जैसे अक्षरों में लिखा है- जुर्म-ए-उलफत की हमें लोग सजा देते हैं, कैसे नादां हैं, शोलों को हवा देते हैं.... पढ़ते हुये उसकी नजर धुंधला आती है- उस आग का क्या हुआ...

आज शाम शरद दिखा था। आगे से गंजा होता हुआ, खूब गोल-मटोल। अपने तीन बच्चों और उसी की तरह स्वस्थ बीवी के साथ स्कूटर पर लदा-फदा। उसे देख कर एक क्षण के लिए स्कूटर में ब्रेक लगा कर आगे बढ़ गया था। इसके बाद देर तक वह गुमसुम बैठी रह गई थी। शरद के स्थूल डील-डौल ने उसे उतना निराश नहीं किया था जितनी उसकी निर्लिप्तता ने। उसे देख कर उसकी आँखों में कुछ भी पहचाना-सा नहीं कौंधा था। आत्मीयता की ऊष्मा से खाली, परिचय का एक क्षणांश स्मित मात्र! बेहद औपचारिक! वह अब यहाँ भी नहीं! हर कहीं से विस्थापित हो गई है! उसे अचानक घबराहट-सी होती है, जिस फूल के जिंदा रहने के भ्रम में वह अब तक कहीं से हरियाई थी, वह तो जाने कब का मर चुका था!

सुबह हो गई है। अम्मा चाय बना लाई है। उसकी लाल आँखें देख कर भी कुछ पूछ नहीं रही। वह चुपचाप तैयार होती है। अब उसे चलना होगा। अपने घर, जमीन, आश्रय की सनातन खोज में... भैया-भाभी ने उसे नेग की साड़ी दी है, टोकरी में फल-मिठाई बँधवा दी है, अम्मा ने सगुन के रुपये थमाए हैं... मिल गया उसे उसका पावना, बेटियों का प्राप्य! वह खुश होने की कोशिश में और-और उदास होती जाती है। रोने के रस्म में सचमुच रोती है। भाभी अधैर्य हो कर कहती है, फिर आना लाडो...

चलती टैक्सी से वह दरवाजे का सहारा लिए खड़ी अम्मा को देखती है। भैया घड़ी देखते हुये जल्दी-जल्दी अंदर जाते हैं। उनके दफ्तर का वक्त हो रहा। भाभी गोलू को स्कूल के लिए तैयार करने के लिए खींच कर ले जाती है। शरद के बागान में खूब फूल खिले हैं। वही मौसमी फूल! बिन्नी के बंद कमरे की खिड़की का काँच सुबह के पिघलते कुहासे से तर है... प्राची अपनी आँखें फेर कर सामने धुंध में डूबी सड़क देखने की कोशिश करती है। सब कुछ धुंधला, असपष्ट है। होंठों में नमक का स्वाद बना हुआ है। जहां लौट नहीं सकते, वहाँ से लौट कर जाना भी आसान कहाँ!

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