Bus ek kadam - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

बस एक कदम... - 1

बस एक कदम....

ज़किया ज़ुबैरी

(1)

“नहीं मैं नहीं आऊंगी।” शैली को अपनी आवाज़ में भरे आत्मविश्वास पर स्वयं ही यक़ीन नहीं हो पा रहा था।... और वह ख़ामोश हो गई।

टेलिफ़ोन के दूसरे छोर से आवाज़ छन छन कर बाहर आ रही थी, “हलो, हलो, फ़ोन बंद मत कीजिये... प्लीज़! ”

“नहीं, मैं फ़ोन बन्द नहीं कर रही... मगर... मैं आऊंगी नहीं – इस दफ़ा आवाज़ में उतनी सख़्ती नहीं थी।

“मगर आप तो... आपने तो वादा किया था... एक बार आने में कोई नुक़सान थोड़े ही हो जाएगा आपका।” ....

शैली की सोच उसे परेशान करने लगी है। आख़िर कब तक ऐसे ही ज़िन्दगी जीती रहेगी। यह जीवन बार बार तो मिलता नहीं। अगला जन्म कहां लेगी, कैसी होगी वो ज़िन्दगी।

अगर घनश्याम को कहीं मालूम हो जाए कि वह पुनर्जन्म के बारे में सोच रही है तो उसकी सोच पर भी पहरे बैठा देगा। दुनियां में आज पहरेदारों को सबसे अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। तमाम पहरेदारों को चकमा देकर आजके जवान बच्चे बच्चियां अपने आपको बमों से उड़ा रहे हैं। क्यों ऐसे पाप करते हैं ये युवा?

पाप से ही तो डरती है शैली। अगर ऐसा न होता तो वह जीवन में कितने फूल समेट चुकी होती। सुबह चिड़ियों की तरह चहचहाती; उड़ती फिरती; ऊंचे गगन में उड़ान भरती, थक कर उसकी गोद में आ गिरती; जी भर कर प्यार करती। शैली को तो उसके पसीने की महक भी ख़ुशबू लगती।

फ़ोन की घन्टी फिर बजी। उसने ऐसे लपक कर उठाया जैसे उसी फ़ोन की तरफ़ कान लगे थे। “शैली.. शैली... ! ” वह बस उसका नाम लिये जा रहा था। शैली ने मद्धम आवाज़ में कहा, “हां! ...” और फिर ख़ामोश हो गई। अपने जज़बात को क़ाबू में करती रही।

“शैली, प्लीज़ हां कह दो। मैं आकर ले जाऊंगा।”

“देखो... आने की कोई समस्या नहीं, पर... मैं ऐसा कर नहीं सकती।”

विधु की आवाज़ में प्रेम था, अक़ीदत थी, चाहत थी पर वह यह सब समझने की स्थिति में नहीं थी। डरती थी; घबराती थी। घनश्याम से, दुनियां वालों से और अपने आप से। आज उसने एक बार फिर विधु को मना कर दिया। मगर सोच भी रही है कि वह ऐसा क्यों कर रही है? आख़िर विधु की बात मान लेने में हर्ज़ ही क्या है! वह बेचारा कब तक इन्तज़ार करेगा?

इन्तज़ार तो घनश्याम का करना पड़ता है। सुबह से जो इन्तेज़ार शुरू होता है उसका कहीं कोई अन्त नहीं होता। उसका पूरा जीवन ही इन्तज़ार कि कड़ियों से जुड़ा है। पहले चाय बना कर फिर नाश्ता लगा कर मेज़ पर इन्तज़ार करती है कि घनश्याम जी नीचे उतरें तो वह भी अपना पहला चाय का घूंट पी ले।

सुबह होते ही उसे बाथरूम ख़ाली होने की भी प्रतीक्षा करनी होती है। यहां लंदन में हर कमरे के साथ अटैच-बाथरूम तो है नहीं। घर में एक ही बाथरूम है जिसमें घनश्याम घुस जाते हैं और बाकी सब को अपनी बारी का इन्तज़ार करना होता है। और फिर सिगरेट के धुएं भरे बाथरूम में जा कर धुआं पीना होता है।

सुबह के इस इन्तज़ार की तो आदत पड़ चुकी थी। काटने को दौड़ता था शाम का इन्तज़ार जो रात को ग्यारह बजे से पहले कभी ख़त्म नहीं हो पाता था। ...मगर आजकल कुछ नया महसूस करने लगी है। रात की दुल्हन तारों भरा काला घूंघट उठाती सुबह की रौशनी उसके चेहरे से अठखेलियां करती तो वह सिहर जाती। उसे विधु की उंगलियों का स्पर्श महसूस होता।

जब बच्चे छोटे थे घनश्याम ख़ुद तो रात को देर से आता था किन्तु आदेश यह था कि बच्चे जागते रहें और उससे मिलने के बाद ही सोएं। बच्चे भूखे बैठे रहते। उनको भी बचपन ही से इन्तज़ार की आदत डाली जा रही थी। इसीलिये बड़े होते ही चिड़िया के बच्चों की तरह पंख निकलते ही उड़ गये।

बेटा तो अंग्रेज़ लड़की से ब्याह रचा के आप ही विदा हो गया। अगर कभी मां बेचैन होकर मिलना चाहती तो गोरी सुनहरे बालों और हरी आंखों वाली पत्नी कहती, “उनसे कहो कि लंच लेकर वे लोग यहीं आ जाएं तो हम साथ ही खा लेंगे। शैली को यह भी स्वीकार था कि चलो इसी बहाने बहू बेटे दोनों से मुलाक़ात हो जाएगी। घनश्याम नाक भौं चढ़ाता कि छुट्टी के दिन वह घर में ही रहना चाहता है; आराम करना चाहता है, “तुम यह क्या फ़ुज़ूल का प्रोग्राम बना लेती हो?”

“बच्चों को मिलने जाना फ़ुज़ूल का काम होता है क्या? ”

“शैली, तुम बहस बहुत करती हो।... तुम ख़ुद तो सारे हफ़्ते घर में बैठी आराम करती हो, मैं सारे हफ़्ते मज़दूरी करता हूं। क्या एक दिन आराम करने का भी हक़ नहीं मुझे?”

शैली इस बात को बार बार सोचती है और अपने आप में ही मुस्कुरा लेती है। मरसिडीज़ में बैठ कर मज़दूरी करने वाले की मानसिकता समझने का प्रयास करती है।

अपने कोमल लम्बे लम्बे नाख़ूनों वाले हाथों को अक्सर हसरत से देखा करती थी शैली। एक बार एक संगतराश ने उसकी ख़ूबसूरत उंगलियों को देख कर कहा था, “अपने हाथों का बीमा करवा लीजिये आप। वैसे अगर कुछ समय के लिये अपने हाथ मुझे दे दें तो मैं इन हाथों को पत्थरों में तराश दूं।” ऐसी बातों पर झेंप जाया करती थी। आज वही हाथ पानी में धुल धुल कर खुरदरे और सख़्त हो गये थे।... वेसलीन हैण्ड क्रीम भी हारने लगी थी। ... भारत में तो वह सीधी सादी पॉमोलिव की हरे रंग की वैसलीन लगाया करती थी या फिर मलाई में ग्लिसरीन मिला कर।

यहां के दूध पर तो मलाई ही नहीं आती। दूध को उबाला ही नहीं जाता। उबाल आता ज़रूर है मगर उसकी तक़दीर में। फिर भी वह लक्ष्मण रेखा को तोड़ नहीं पाती। क्या सीता ने लक्ष्मण रेखा को जान बूझ कर तोड़ा होगा? क्या उसके हाथ की रेखाओं को भी राम ने घनश्याम की ही तरह मिटा दिया था?

रौशनी की एक हल्की सी लक़ीर ज़रूर दिखाई दी है.... विधु! मगर उसकी उपस्थिति ने भी ख़ौफ़ और दहश्त अधिक पैदा किये हैं। लंदन आने के बाद अभी शैली ने ड्राइविंग लायसेंस भी नहीं लिया था और घनश्याम ने आदेश सुना दिया था, “अब आपको ड्राइव करना होगा! बच्चों को स्कूल ले जाना होगा।”

“मगर मेरे पास तो लायसेंस ही नहीं है।” शैली की घबराहट माथे से बहने लगी थी।

“इंटरनेशनल लायसेंस का मतलब समझती हैं आप? एक हज़ार रुपये दिये थे एजेंट को। तब जा कर कहीं बना था।” घनश्याम की कड़कड़ाहट गरजी।

“मगर... कार कहां है? ”

“जाइये, नीचे जा कर देखिए।”

“आप यहीं बता दीजिये न।”

“अरे कहा न, नीचे जा कर देखिये।”

दिन भर की थकी शैली ख़ुश थी कि आज घनश्याम दफ़्तर से कुछ जल्दी वापिस आ गया था। किन्तु पति के पास प्यार के दो मीठे शब्द भला कहां थे। आदेश... बस आदेश! शैली नीचे चल पड़ी। .... घर के दरवाज़े के बाहर एक सेकण्ड हैण्ड फ़ोर्ड एस्कॉर्ट खड़ी थी – सुनहरी रंग की कार! शैली को घनश्याम का सरप्राइज़ बिल्कुल पसन्द नहीं आया। कार देख कर ख़ुशी तो क्या होनी थी बस दिल बैठने सा लगा। भारत में एक बड़ी सी कार थी मर्सिडीज़ और एक ड्राइवर भी था। यहां यह खचड़ा सी कार उसे ख़ुद चलानी होगी।

ठीक है कि यहां लंदन में सब लोग अपना काम स्वयं ही करते हैं। मगर ऐसी कार ! उधर घनश्याम लगभग भौंचक सा खड़ा था। उसे आशा थी कि शैली इस सरप्राइज़ को देख कर तारीफ़ करेगी ; ख़ुश होगी। शैली के सहज जवाब ने उसे हैरान ही कर दिया, “मैनें आपसे कार की फ़रमाइश कब की थी ? ”

“अरे हर चीज़ की फ़रमाइश नहीं की जाती, मिसेज़ मेहरा!... इस मुल्क़ में टीवी, फ़्रिज, कार, रेडियो वगैरह सब ज़रूरत की चीज़ें हैं। यहां इन्हें लग्ज़री नहीं मानते। कार के बिना क्या मेरे बच्चों को पैदल घसीटेंगी आप? घर का सौदा सुल्फ़ क्या पैदल जा कर लाएंगी ? और फिर मुझे सुबह शाम ट्यूब स्टेशन लाए ले जाएगा कौन? ” घनश्याम जब जब ग़ुस्सा होता तो शैली को मिसेज़ मेहरा कह कर बुलाता और तुम से आप पर उतर आता।

कौन का सवाल ख़ूब था। इस कार ने शैली के जीवन में गर्माहट लाने के स्थान पर सर्दी की कड़कड़ाहट उसकी हड्डियों में भर दी थी। हां वो जनवरी की एक रात थी। शैली ट्यूब-स्टेशन के बाहर खड़ी अपने घन की प्रतीक्षा कर रही थी। बर्फ़ीली रात के साढ़े ग्यारह बजे का सन्नाटा और सफ़ेदी मिल कर कुछ ऐसा माहौल बना रहे थे कि शैली को लग रहा था जैसे कि चारों ओर सफ़ेद भूत चल रहे हैं। बर्फ़ीली रुई के फाहे उसकी कार की विण्डस्क्रीन से टकराते। वह घबरा कर वाइपर चला देती। वाइपर फ़ौजी जवान की तरह लेफ़्ट राइट करने लगते; बस ऑर्डर मिलने की देर होती।

वाइपरों को देख कर शैली एक गहरी सोच में डूब जाती है। आदेश मिलते ही जो वाइपर लेफ़्ट-राइट करने लगते हैं और बिना सांस लिये अर्ध-चक्कर में फंस जाते हैं; जब उनका रबर घिस जाता है तो उन्हें निकाल कर फैंक दिया जाता है। शैली का जीवन भला इससे अलग कहां है। उसकी सुबह भी अधूरी सी होती और शाम के ऊपर से होती हुई रात – जैसे कि बिन बुलाया मेहमान। वाइपर सा अर्धचक्र !

******