Bus ek kadam - 3 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

बस एक कदम... - 3 - अंतिम भाग

बस एक कदम....

ज़किया ज़ुबैरी

(3)

फिर सोचती है, “शायद मैं आलसी हूं।... हां मैं हूं आलसी! ऐशो आराम की आदी हो गई हूं। मां बाप ने जैसे एक मखमल के डिब्बे में संभाल कर रखा। यहां भी कालीनों पर चलने की आदत पड़ गई है। यहां इस देश में तो बाथरूम में भी कालीन बिछा रहता है। ... क्या सच में घनश्याम ने उसके लिये कुछ ऐसा किया है जिसके लिये वह उसकी जीवन भर अहसानमन्द रहे? यह सब तो ब्रिटेन में सभी के घरों में है। फिर भी इसे लेकर घनश्याम ताने मारता रहता है। पहले तो बंदिनी बना कर ले आया... अब तीर और ताने... !

मर्दों के बारे में सोच कर ही वितृष्णा सी होने लगती। उसे हर मर्द स्वार्थी, आत्म-केन्द्रित, तंग नज़र और बेग़ैरत लगने लगा है। बेचारी इससे आगे गालियां सोच ही नहीं पाती।

लगता है कि शायद स्वयं ही कमज़ोर है वो। वर्ना क्यों पागलों की तरह लगी हुई है काम करने में?.. किन्तु काम तो बच्चों का करती है... तो फिर.... ?

उसने तो सारा जीवन ही घनश्याम की इच्छाओं पर होम कर दिया। बिना बाहों का ब्लाउज़ नहीं पहना; पूरे शरीर को इस तरह ढक कर रखा जैसे कि बुर्का पहन रखा हो। घुटनों तक लम्बे उसके बाल.. लोग दूर से देख कर भी निहारा करते थे। किन्तु घनश्याम का कहना था कि देहाती लगते हैं। बस कन्धे तक कटवा दिये। .... उस दिन मां की बहुत याद आई थी। बचपन में उसके बालों में नारियल का तेल लगाया करती थी। और रात को एक चोटी कस कर बांध कर सोने देती थीं कि बाल रात को ही बढ़ते हैं। सुबह उठ कर दो चोटियां बंध जाती थीं। दोनों कन्धों से लटकतीं, रंग बिरंगे रिबन वाली चोटियां लिये इतराती घूमती शैली।

उसके बालों की तारीफ़ घनश्याम के सभी दोस्त करते थे। शायद इसीलिये घनश्याम को लम्बे बाल गंवारपन की निशानी लगते थे। आज जब पीछे मुड़ कर सोचती है तो समझ आता है कि घनश्याम के दोस्त उससे सीधे सीधे फ़्लर्ट भी करते थे। सभी को मालूम था कि घनश्याम रात को देर देर तक अपने दफ़्तर में अपनी सेक्रेटरी के साथ रहता है और घर में जवान बीवी आंसू बहाती रहती है।

आज शैली को बार बार मायका याद आ रहा है। बालों के बाद याद आया वो दर्ज़ी – जो घर में ही नाप लेकर कपड़े सिला करता था। मासूम शैली उस दर्ज़ी को बहुत ध्यान से कपड़ा काटते और पैरों से चलने वाली सिलाई मशीन से सिलते देखती थी। सवाल पूछती। उतने ही ध्यान से मास्टर जी के जवाब सुनती। बस इसी तरह देखते देखते ही वह कपड़े सीने भी सीख गई। मगर यहां लंदन शहर में भला कौन कपड़े सिलता है? हर कोई सिले सिलाए कपड़े डिपार्टमेण्ट स्टोर से ख़रीद लेता है। बच्चे, घनश्याम, शैली स्वयं सभी सिले सिलाए कपड़े ख़रीद लेते हैं। भारत वापिस जाती है तो ब्लाउज़ वहीं से सिलवा लाती है।

शैली को खाना बनाने, परोसने और खिलाने में विशेष आनंद की अनुभूति होती है। शायद इसीलिये उसे शनिवार और रविवार का इन्तज़ार भी रहता था। मेज़ पर उसका छोटा सा परिवार जब भोजन के लिये बैठता वह सबके लिये गरमा गरम फूले हुए फुलके बना कर परोसती। भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी लड़की... संस्कारों को समझती.. मगर घनश्याम को घर की लक्ष्मी के अर्थ नहीं मालूम थे। उसकी लक्ष्मी हमेशा उसके पर्स में और जेब में दबी रहती। शैली को आज तक नहीं मालूम कि उसके पति की पगार कितनी थी; बोनस कितना मिलता था; और किन किन बैंकों में किस किस करंसी में उसके अकाउण्ट हैं।

दरअसल आज उसे महसूस हो रहा है कि वह घर की मालकिन नहीं बल्कि एक ख़रीदी हुई बान्दी की ज़िन्दगी जीती रही है। बच्चों को घुड़सवारी, प्यानो, कराटे, होमवर्क सब करवाती रही है। घनश्याम के कपड़े निकाल कर मैचिंग टाई, मोज़े, कफ़-लिंक, रुमाल निकालना। और फिर जूते पॉलिश करना।

बचपन में उसके अपने जूते, भाइयों के जूते रामलाल बाबा पॉलिश किया करते थे। वे फ़ौज से रिटायर हवलदार थे। चौकीदारी करते थे। घरके सभी लोगों के जूते फ़ौजी स्तर पर चमकते थे। रामलाल बाबा द्वारा पॉलिश किये चमकते जूतों में शैली अपना मुंह देख देख कर हंसा करती। और बाबा को गर्व होता कि फ़ौज छोड़ने के बाद भी वे जूते फ़ौजी ढंग से ही पॉलिश करते थे। शैली घनश्याम के जूते पॉलिश करने के बाद उनमें अपना चेहरा देखने का यत्न करती। मगर आज चेहरा धुंधला दिखाई देता है!

फ़ौज में तो विधु भी था। क्या वह भी अपने जूते ऐसे ही पॉलिश करता होगा। विधु का ख़्याल भर ही जूते पॉलिश करने जैसी नौकराना गतिविध में भी रोमांस का पुट भर देता है। ऐसा क्यों हो रहा है? ... वह तो विधु को बहुत बार कह भी चुकी है कि उसके मन में वैसा कुछ भी नहीं है जो विधु सोच रहा है। क्या वह झूठ कहती है कि वह एक पतिव्रता पत्नी और ज़िम्मेदार मां है? विधु के बारे में सोचने भर से वह क्यों खिल उठती है। घनश्याम तक पूछने से बाज़ नहीं आते, “आप आजकल मंद मंद मुस्कुराती क्यों रहती हैं? ” ... क्या उसकी सोच में परिवर्तन आ रहा है? ... क्या वह झूठ बोलने लगी है?... सोचती कुछ है और करती कुछ है!”

दो दिन से विधु ने फ़ोन भी नहीं किया। कहीं घनश्याम ने कुछ कह तो नहीं दिया?... फ़ोन पर बदतमीज़ी करना जैसे घनश्याम का जन्मसिद्ध अधिकार है।... टेलिफ़ोन घनश्याम के नाम में है... घर का मालिक भी वही है... यह उसके मूड पर निर्भर है कि शैली की बात उसके किसी जानने वाले से करवाए या नहीं।

विधु कितना अलग किस्म का इन्सान है? कितनी तारीफ़ करता है इस मुल्क़ की, “शैली जी मुझे किसी ने इस देश में आने के लिये ज़बरदस्ती तो की नहीं। अपनी मर्ज़ी से आया, कमाया खाया, और अपने घर वालों को पैसे भेजे। हमारे लोग यहां की सोशल सिक्योरिटी का पूरा फ़ायदा उठाते हैं; अपने बच्चों को मुफ़्त की पढ़ाई करवाते हैं; एन.एच.एस. में मुफ़्त का इलाज करवाते हैं मगर अपना मुल्क़ उसे बताते हैं जिसे छोड़ आए हैं।” घनश्याम भी तो यही करता है। बस हिन्दुस्तानी या फिर पाकिस्तानी चैनल देखता रहता है। क्रिकेट से लेकर मौसम तक ब्रिटेन की बुराइयां करता रहता है। एक तरफ़ घनश्याम - नकारात्मकता की पराकाष्ठा और दूसरी ओर विधु – सकारात्मकता की ठण्डी ब्यार।

किसी का किसी से मुक़ाबला करना बुरी आदत है। फिर विधु और घनश्याम में तो किसी भी प्रकार का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता।... घबरा गई है शैली... आज यह बार बार विधु क्यों चला आ रहा है उसकी सोच के दायरे में।

फ़ोन की घन्टी बजी है। शैली दौड़ कर फ़ोन उठा लेती है। “हलो... हलो.. हलो... ! ” सुनाई देते हुए भी उसे आवाज़ सुनाई नहीं दे रही। वह घबरा रही है... । विधु का नाम सोचा और फ़ोन की घन्टी बज उठी। भला ऐसा कैसे हो गया। उसकी उधेड़बुन से बेख़बर फ़ोन टूं ऊं..ऊं..करने लगा। और अंततः बन्द हो गया। .... क्या उसे फ़ोन कर लेना चाहिये?....

अगर अब फ़ोन आया तो वह सयंम से बात करेगी... आराम से हेलो करेगी... हालचाल पूछेगी.. फिर हर उस बात का जवाब देगी जो वह पूछेगा... विधु तो शैली की हर बात बहुत ध्यान से सुनता है। क्ई बार तो वह इतनी ख़ामोशी से बातें सुनता है कि शैली को लगता है जैसे वह सुन ही नहीं रहा... किन्तु महीनों बाद वह शैली की बात शब्दशः दोहरा देता है।

“अरे तुमने मेरी पूरी बात सुन ली थी।” शैली आश्चर्य से पूछती।

“आपकी बात मेरे लिये देव वाणी से कम नहीं होती... यह भला कैसे हो सकता है कि कोई देववाणी को न सुने? ” शैली सोचने लगती है कि क्या वह कभी भी ऐसी बातें कर सकती है? उसने तो जीवन में जब भी मुंह खोला, यही सुनाई दिया, “तुम चुप रहो जी, तुम्हें क्या मालूम! ” और वह घबरा कर चुप हो जाती और जल्दी जल्दी अपने चारों ओर देखती कि जब उसे मूढ़ घोषित किया जा रहा था तो किसी ने सुन तो नहीं लिया!

शैली के मोबाइल फ़ोन की घन्टी फिर से चहचहाने लगी... उसने अपने मोबाइल की टोन चिड़ियों की चहचहाट और झरने के शीतल और पुर-सुकून संगीत के साथ बना रखी थी। उस संगीत को सुनते हुए उसे महसूस होने लगा कि यह आवाज़ उसे उस झरने के पास ले जा रही है जो पहाड़ी से निकल कर धर्ती की ओर बढ़ रहा है... प्रेम उसके अंग अंग में है। ऊपर से शोर मचाता हुआ चलता है नीचे आते आते ज़्यादा उज्जवल और सुरीला हो जाता है। फिर धरती की गोद में समा जाता है। दोनों एक हो जाते हैं... पास पड़े पत्थर इस मिलन पर मुस्कुराते हैं क्योंकि जाते जाते झरना उन पत्थरों को भी छूता, सहलाता, नहलाता पवित्र करता हुआ प्रेमिका की आग़ोश में खो जाता है।... खो जाने को जी तो चाहता है उसका भी ... मगर कैसे?

फ़ोन शायद अपनी चुप्पी से परेशान हो कर एक बार फिर चहचहाने लगा... उसने लपक कर उठा लिया... फ़ोन को कान से चिपका लिया ताकि आवाज़ किसी और तक पहुंच न पाएं... फ़ोन को पकड़े पकड़े टहलने लगी... सांस रुकी सी जा रही थी... ध्यान से सुन रही थी शायद जो कुछ भी कहा जा रहा था... बिल्कुल खो गई केवल इतना बोल पाई.. “मगर विधु... ! ”

फ़िर ख़ामोश टहलने लगी...चेहरे पर एक ख़ास चमक थी... आंखों में ज़िन्दगी जी रही थी... शैली बस हूं.. हां... अच्छा... अच्छा... कहे जा रही थी, “नहीं, विधु...ज़िद न करो... ! ” फ़ोन रख दिया।

सोफ़े पर बैठ गई शैली। मन में हलचल... जाए या नहीं...जाए.. नहीं नहीं... क्या यह ठीक होगा? उसे बस एक कदम ही तो आगे बढ़ाना है, और एक नई दुनियां उसकी प्रतीक्षा कर रही है।

एक झटके से उसने अपना हैण्ड-बैग उठाया... दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी और बाहर निकल गई। दरवाज़ा बन्द होने की आवाज़ आई और गुम हो गई।

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