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बस एक कदम... - 2

बस एक कदम....

ज़किया ज़ुबैरी

(2)

साढ़े ग्यारह बजे वाली सफ़ेद रात में डर ज़रा अधिक ही समाया होता है। ऐसे में आहिस्ता आहिस्ता गाड़ी स्टेशन में दाख़िल हुई। गाड़ी की खिड़कियों में से रौशनी बाहर झांकती दिखाई देती और हर रौशनी के बीच से एक गोला सा नज़र आता क्योंकि यात्रियों के कंधे ट्रेन की दीवार की ओट में होते। हां ! कुछ लम्बे तड़ंगे इन्सानों के गोल सिर ऊपर को होते तो वे बेसर के भूत से बन जाते। शैली सड़क पर कार के भीतर से ही उन रौशनी के गोलों में से घनश्याम का सिर ढूंढने की चेष्ठा करती रही। प्रतीक्षा बस प्रतीक्षा ही बनी रही।

वक्त की सुइयां आगे बढ़ती जा रही थीं। सफ़ेद रात के साये और भयानक बनते जा रहे थे। एक चिंता यह कि घनश्याम आए क्यों नहीं। और दूसरी चिंता कि बच्चे अकेले डर रहे होंगे। घनश्याम ने अपनी मर्सीडीज़ में तो टेलिफ़ोन भी लगवाया हुआ है। भला इस सेकण्ड हैण्ड कार में कौन फ़ोन फ़िट करवाएगा। ... आज तो शैली ने सर्दी और बर्फ़ के मारे कार बन्द भी नहीं की। बस पेट्रोल फुंकता रहा।

चिन्ता में भी शैली की सोच रुक नहीं पा रही है। कार में बैठे हुए भी उसे लगता है कि वह डरी-डरी दीवार का सहारा लिये खड़ी है। उसके भाग्य में यही बदा था। घनश्याम स्वयं भी तो एक मोटी ताज़ी दीवार ही है। रात को घर आकर बच्चों को जागते देख एक विजयी सी मुस्कान बिखेरता है। चुप बैठा खाना खा लेता है। किसी बच्चे से कोई बात नहीं। बस टीवी के सामने बैठा बैठा अपने गले से बेसुरे राग निकालने लगता है। उन बेसुरी तानों से घबरा कर बच्चे एक एक करके अपने कमरों की तरफ़ खिसक लेते हैं।

अब शैली करे तो क्या ? वैसे उसे विश्वास है कि उसकी नौ साल वाली बड़ी बिटिया बच्चों का ख्याल रख रही होगी। हालात को देखते हुए वह बच्चों की मां नम्बर दो बन गई है। अपने छोटे भाई व बहन को समझाती और अम्मां को परेशान करने और शरारत करने से रोकती। ... लगता जैसे बच्चे भी बचपन ही में बड़े हो गये थे। शैली तय नहीं कर पाती थी कि इस अप्रकृतिक प्रक्रिया पर हंसे या रोये।... मगर उसका अपना रोना या हंसना भी कहां उसके अपने वश में थे – उनका नियन्त्रण भी तो घनश्याम के हाथ में था।

शैली बेजान दीवार का सहारा लेते हुए संभल संभल कर फिसलती हुई, मज़बूती से ज़मीन पर पैर जमाती हुई दरवाज़े तक पहुंची और बर्फ़ से ठण्डे हाथों से चाबी को की-होल तल ले जाने का प्रयास करने लगी। निशाना चूक चूक जाता। चाबी दरवाज़े से बार बार टकराई तो कौन ? कौन ? करते घनश्याम ने दरवाज़ा खोला।... घनश्याम के ठण्डे व्यवहार के मुक़ाबले चारों ओर फैली बर्फ़ की ठण्डक में गर्माहट महसूस होने लगी, “अरे आप घर पहुंच गये !.. कैसे ? ”

“यह क्या बेहूदा सवाल है ?... क्या घर नहीं आता ? ”

“मगर आपने तो मुझे आख़री स्टेशन पर आने को कहा था। ”

“अरे भई, तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट पड़ा अगर मैं जल्दी घर पहुंच गया ? ”

“... मैं तो वहां डेढ़ घण्टा खड़ी रही। आपकी प्रतीक्षा करती रही ! ”

“ऐसी क्या मुसीबत आ गई। गरम कार में ही तो बैठी थीं न ? ”

बरफ़ानी रात में भी शैली के कान जलने लगे। उसके ग़ुस्से की गरमी भी उसके भीतर की बर्फ़ को पिघला न सकी।... बदन के कांपने में सर्दी, डर और ग़ुस्सा.. तीनों शामिल थे। जल्दी से गैस के चारों बर्नर जला दिये। खाने की तैयारी में जुट गई। रात के साढ़े बारह बजे गरम खाना डाइनिंग टेबल पर लगाया। लगभग दौड़ते हुए बच्चों को बुलाने गई। तीनों एक ही पलंग पर आड़े तिरछे एक दूसरे पर हाथ रखे हुए गहरी नींद में सो रहे थे। एक दूसरे के ऊपर हाथ रख कर तसल्ली देते हुए बच्चे कि “डरो नहीं हम जो हैं।” शैली खड़ी उन्हें देखती रही और धीरे धीरे उन पर रज़ाई ओढ़ाने लगी।

“अरे भाई क्या अब मेज़ भी मुझी को साफ़ करनी पड़ेगी? बच्चों को लेकर आओ और किचन क्लीयर करो! ” नीचे से घनश्याम की ऊंची आवाज़ ने उसे दहला दिया।

शैली केवल सोच सकती थी बोलने की अनुमति उसे बिल्कुल नहीं थी। घनश्याम की महफ़िल में होंठ सिले रखने का आदेश था। शैली ने डरते डरते ही सोचने का दुःसाहस कर लिया – क्या बात कही है घनश्याम जी ने! क्या मेज़ भी मैं ही साफ़ करूं? यानि खाना खाने की तक़लीफ़ तो मैनें उठा ली अब क्या मेज़ भी .. !

“मेरे बच्चे भूखे ही सो गये। ... बस इसीलिये.... ” शैली की रुंआसी आवाज़ वाक्य पूरा नहीं कर पाईं।

“क्या बच्चे अपने मायके से लाईं थीं आप? ... ये मेरे कुछ नहीं लगते?... कम से कम बेटियां तो पक्के तौर पर मेरी हैं।... बेटे के बारे में... अब क्या कहूं? ”

“क्या कह रहे हैं?.... इतनी गिरी बात.. ! ”

“एक बात आप अच्छी तरह समझ लीजिये.... तुम्हारा बेटा...बदतमीज़... मुझे फूटी आंख नहीं भाता। उसमें मुझे अपने जैसी कोई बात नहीं दिखाई देती।... एकदम... ‘ईविल’ लगता है।

“‘ईविल’! अपनी ही औलाद को आप ऐसा कैसे कह सकते हैं।”

“यार अब तुम हर वक़्त बहस मत किया करो। सारे दिन का थका हारा वापिस आता हूं... और यहां भी चैन नहीं। .. सुनो... चाय ला देना टी.वी. वाले कमरे में।“

जबतक शैली चाय बना कर ले जा पाती, घनश्याम ऊंची आवाज़ में टीवी देखता उसके साथ अपने ख़र्राटों का मुक़ाबला शुरू कर देता। शैली बस इसी उहापोह में रह जाती कि क्या उसे चाय लाने में देरी हो गई। एक निगाह उस मांस के खड़खड़ाते लोथड़े पर डालती है... रहम आ जाता है... कितना थक गया है.. चलो जूते उतार देती हूं....

“ऊं..हूं..क्या करती हो, भई! सोने दो।”

वापिस किचन। सफ़ाई शुरू कर देती है। जब बिजली बंद करके निकलने लगती है तो याद आता है कि उसने स्वयं तो खाना खाया ही नहीं। घनश्याम के साथ खाने के चक्कर में वह स्वयं तो भूखी ही रह गई।

भूखी तो वह अधिकतर रह जाती है। ... उसकी तो कोई भूख शांत नहीं हो पाती। ... सोचती है... आख़िर घनश्याम इतना तृप्त और संतुष्ट कैसे रह लेता है?... दोनों की उमर में अंतर भी तो कितना है। अगर कुछ एक साल और बड़ा होता तो उसका पिता हो सकता था।...सोचते ही कांप सी गई ... ऐसा ख़्याल भी उसके दिल में कैसे आया?... अपने ही पति को अपना पिता.... !

किचन का दरवाज़ा आहिस्ता से बन्द किया, कहीं घनश्याम जाग न जाए... अकेली हर सीढ़ी पर दबा दबा कर पैर रखती हुई ऊपर पहुंच कर हसरत भरी निगाह से उस कमरे की तरफ़ देखती है जिसे घनश्याम और शैली का बेडरूम कहा जाता है। बच्चों के कमरे में पहुंच जाती है। ख़ाली पलंग उसका इंतज़ार कर रहा है... मुंह चिढ़ा रहा है... आख़िर वह है क्या? कुछ ऐसे ही सवाल उसे परेशान किये रहते हैं.. और उसकी थकान उसकी आंखों को अंततः बन्द होने को मजबूर कर देती है।

बच्चे भी बहुत बार यह सवाल कर बैठते हैं, “अम्मा, आप अपने कमरे में क्यों नहीं सोती हैं? ”

“मुझे अकेला कमरा अच्छा नहीं लगता बेटा।”

“तो पापा से कहिये न कि वे ऊपर आ कर सोया करें।”

“वो.. नहीं आते बेटा।”

“क्यों? ” बेटा पूछ लेता है।

“मुझे नहीं मालूम बेटा... ! ” झूठ बोले या सच? तय नहीं कर सकती।

आज तक समझ नहीं पाई है कि आख़िर उसमें कमी क्या है।... चौबीस घन्टे बान्दी की तरह काम करती है... और यह इन्सान कहता है कि बेटा न जाने कहां से ले आई हो!... उसे ‘ईविल’ कहता है! शैतान तो ख़ुद है। काश!.. वह ऐसा कुछ कर पाती... अभी भी क्या कमी है उसमें? अभी भी लोग मुड़ कर देखते हैं... आंखों ही आंखों में अपनी बात कह जाते हैं... उनके आसपास के लोग इस बात से परिचित हैं कि उसकी रातें सिसकती, बिलखती अकेली हैं।

घनश्याम को घमण्ड है कि वह पैसा कमाता है। ठीक है कि दफ़्तर जाता है काम करता है। मगर दफ़्तर में उसके नीचे काम करने वाली दो दो सेक्रेटेरी हैं – एक काली है और दूसरी गोरी स्कॉटिश। दफ़्तर का सारा काम वह अकेला तो नहीं ही करता। फिर इतना थकने का नाटक क्यों करता है। उसके लिये तो घर पर कोई नौकरानी नहीं है। वह तो अकेली ही बच्चों को बड़ा कर रही है। सारा महत्व घनश्याम ख़ुद क्यों ले लेता है। कौन अधिक महत्वपूर्ण है? वह जो पैसा कमा कर लाता है या वह जो उसकी दूसरी पीढ़ी को संस्कार दे रही है; उसके घर को संभाल संवार रही है? आज शैली ने सोचने के लिये पूरी तरह से कमर कस ली है। क्या वह घर की नौकरानी भर है, बस?.... अचानक घबरा जाती है। नहीं... उसे ऐसा नहीं सोचना चाहिये। अगर उसकी सोच की भनक घनश्याम को मिल गई तो?... उसके शरीर ने झुरझुरी ली.. !

बस सिर को एक हल्का सा झटका उसके सभी विचारों को बाहर फेंकने में सक्षम हो जाता है। एक बार फिर घर की दौड़ भाग में लग गई। किन्तु आज उसके विचार उसे चैन नहीं लेने दे रहे – बस आन्दोलित किये जा रहे हैं। उसे एक कटघरे में खड़ा कर रहे थे – जवाब मांग रहे थे। .. “तुम घनश्याम से इतनी डरती क्यों हो? ” इस सवाल का जवाब नहीं खोज पा रही थी।

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