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बहीखाता - 24

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

24

डिप्रैशन

नवंबर 1990 । चंदन साहब ने इंडिया जाने के लिए सीटें बुक करवा लीं। अबॉर्शन से दो दिन बाद की ही फ्लाइट थी। मैं तो अभी चलने योग्य भी नहीं थी, पर चंदन साहब मुझे उड़ान भरने के लिए कह रहे थे। मेरे पास उनका कहना मानने के सिवाय दूसरा कोई चारा भी नहीं था। चंदन साहब ने तो पूरी तैयारी की हुई थी। यह घर काउंसिल को किराये पर दे दिया था। घर का कुछ सामान बेच दिया था और कुछ भारत में कंटेनर बुक करवाकर भेज दिया था। उन्होंने एक मर्सडीज़ कार भी भारत भेज दी थी।

मैं बहुत ही कठिनाई और कष्ट में दिल्ली पहुँची। मेरा अंतर्मन सिकुड़ सा रहा था। जैसे-तैसे करके मैं फ्लैट पर पहुँची। वहाँ कुछ आराम करने को मिला। सेहत मेरी ऐसी थी कि मेरे से कोई काम नहीं हो पा रहा था। रसोई का सारा काम तो चंदन साहब खुद ही कर लेते थे। फिर हमने जल्दी ही एक मोहन नाम का ड्राइवर-कम- नौकर भी रख लिया। मैं धीरे धीरे ठीक होने लगी। चंदन साहब बहुत खुश थे। वह चारों तरफ दौड़े फिरते थे। बैंक में मेरे 68 हज़ार रुपये जमा थे। फ्लैट में सामान डलवाने के लिए उन्होंने मेरे सारे पैसे निकलवा लिए। इंग्लैंड से आने वाले सामान को छह सप्ताह लग गए थे। मैंने स्वास्थ्य ठीक होते ही कालेज जाना प्रारंभ कर दिया था। वैसे मेरी छुट्टियाँ तो अभी शेष थीं, पर मैंने घर में अकेली बैठना उचित नहीं समझा। जो प्रोजेक्ट मुझे मिला था, उसे मैंने इंग्लैंड में रहते ही पूरा कर लिया था। ‘ब्रितानवी पंजाबी साहित्य के मसले’ शीर्षक से किताब भी लिख ली थी।

चंदन साहब की मर्सडीज़ कार इंग्लैंड से कुछ देर से ही पहुँची। कस्टम वालों से छुड़वाने में भी बहुत कठिनाइयाँ सामने आईं। सब मिलाकर सात लाख रुपये कस्टम के पड़ गए और इतनी ही कार की कीमत थी। उन्होंने किसी तरह कर-कराकर कार बेचकर कस्टम की रकम भरी। उनकी कार यूँ ही व्यर्थ गई। इस बात ने चंदन साहब को बहुत उदास कर दिया। उनके स्वभाव में थोड़ी अति थी भी। वह खुश भी अधिक होते थे और उदास भी हद से ज्यादा। इतने पैसे बर्बाद हो जाने के कारण उनके दुखी मन को सहलाते हुए एक दिन मैंने कहा -

“चंदन जी, बहुत बुरी बात हुई। इतनी बढ़िया और महंगी कार थी, पर अब क्या किया जा सकता है। आप अब सहज होने की कोशिश करो।”

“कैसे हो जाऊँ सहज ? मेरी रिटायरमेंट में मिली रकम कुएँ में जा गिरी है, कैसे हो जाऊँ सहज ? जब तुझे पेंशन मिलेगी तो तुम्हारी सारी रकम को चौराहे में रखकर आग लगाऊँगा, तब सहज होकर दिखाना।”

वह ऐसा शुरू हुए कि कितनी ही देर तक गलत-सलत बोलते रहे। असल में, उनकी गलती यह थी कि कार इंडिया में भेजने से पहले कस्टम के बारे में उन्होंने कुछ भी जानकारी नहीं ली थी। एक तो कस्टम लगना था और जितने दिन कार को कस्टम वालों के पास रहना था, उसका किराया भी भरना था। कुछ दिन खप कर वह इस नुकसान में से बाहर निकल आए।

दिल्ली आकर उन्होंने सबसे पहले पत्रिका निकालने की योजना बनाई। यह उनकी बहुत पुरानी तमन्ना थी। कभी इंग्लैंड में भी ‘सूरज’ नाम का मैगज़ीन शुरू किया था जो किसी कारण बंद करना पड़ा था। डॉ. सुतिंदर सिंह नूर को साथ लेकर वह पत्रिका के नाम को रजिस्टर करवाने गए तो पता चला कि इस नाम की तो पहले ही हिंदी में कोई मैगजीन निकल रही थी। उन्होंने फिर ‘साहित्यिक सूरज’ नाम से पत्रिका का रजिस्ट्रेशन करवा लिया। पत्रिका रजिस्टर होने के बाद बलवंत रामूवालिये के घर पर पार्टी की गई जिसमें सभी लेखक मित्र सम्मिलित हुए। पत्रिका के कारण हमारे घर में लोगों का आना-जाना और भी बढ़ गया। पत्रिका का स्तर काफ़ी बढ़िया होने के कारण लोग शीघ्र ही इससे जुड़ने लग पड़े थे। पंजाब से चले लेखक भी हमारे घर आकर ठहरते। छोटे बड़े सब लेखकों की चंदन साहब खूब सेवा करते। व्हिस्की, वाइन, बियर का सेवन पानी की तरह होता। बहसें होतीं, लड़ाई-झगड़े भी होते। चंदन साहब नए नए दोस्त बनाते। कई दोस्तियों से ऊब जाते तो तोड़ भी देते। किसी बात को छिपाकर रखना तो उन्हें आता ही नहीं था, इसलिए दूसरे को सहज ही अपने खिलाफ़ कर लेते। दरअसल, उनके स्वभाव में टिकाऊपन तो था ही नहीं। वह किसी भी काम से, किसी भी व्यक्ति से सहज ही ऊब जाते। ऐसा ही पत्रिका के साथ हुआ। ‘साहित्यिक सूरज’ बहुत लगन से निकाला था, पर दसेक अंक निकालकर बंद कर दिया था। हर काम को बहुत ही लगन से करते, पर ऊबते भी उतनी ही जल्दी।

दिल्ली यूनिवर्सिटी में डॉ. हरिभजन सिंह का बोलबाला था और हरिभजन सिंह के साथ चंदन साहब पहले ही दुश्मनी डाल बैठे थे। सो, उनके सभी चेले चपाटे चंदन साहब के खिलाफ़ थे। मेरे साथ डाॅक्टर साहब ठीक थे। सदैव प्रेम से मिलते। मेरी स्थिति अजीब-सी थी। एक तरफ पति और दूसरी तरफ अध्यापक। अध्यापक भी वह जिसने मेरी ज़िन्दगी बदल कर रख दी थी। अब चंदन साहब के कारण उनसे मेरी दूरी बनी पड़ी थी।

हम अमृता और इमरोज़ से अक्सर मिलने जाते रहते थे। अमृता का हमें फोन भी आता रहता था। दिल्ली पहुँचते ही अमृता ने हमें गैस और टेलीफोन का कनेक्शन ले दिया था। उन दिनों में ये दोनों चीज़ें लेना बहुत कठिन होता था। अमृता उस समय राज्य सभा की सदस्य थीं और उनके पास इतनी शक्ति थी। कई लोग कहते थे कि अमृता ऐसे काम करवाने के पैसे लेती है, पर हमारा ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ। हमें तो उन्होंने स्वयं ही ये कनेक्शन यह कहकर ले दिया था कि देविंदर, तुझे इसकी ज़रूरत है और हम तुझे जल्दी ले देंगे। मुझे याद है कि दिल्ली आकर जब हम दोनों अमृता के घर गए तो इमरोज़ तुरंत टेलीफोन और गैसे के कनेक्शन के लिए फॉर्म ले आए थे। अमृता सदैव दुख-सुख में मुझे फोन कर लिया करती थीं। मेरे लिए यह बहुत बड़ा आत्मिक सहारा था।

पंजाबी अकादेमी का कोई कार्यक्रम था। मैं वहाँ गई तो बहुत सारे मित्र मिल गए। सभी मेरा चेहरा देखकर पूछने लगते कि क्या हुआ। अबॉर्शन वाली बात यद्यपि हमने परदे में रखी

थी, पर दोस्तों को ख़बर लग गई। चंदन नेगी कहने लगी -

“देविंदर, तुझे पता नहीं कि तूने कितनी बड़ी गलती कर दी है। इसकी सज़ा अब तू सारी उम्र भुगतेगी।”

उसकी बात ने मुझे डरा दिया। भावुक तौर पर तो मैं पहले ही टूटी हुई थी। चंदन साहब से कोई सहारा नहीं मिल रहा था। दिल्ली आकर तो वह यूँ दौड़े फिरते थे मानो चाबी देकर छोड़ दिए गए हों। यदि उनके पास कोई मेरी कमजोरी के बारे में या मेरी सेहत के बारे में बात करता तो कहते कि यह नाटक करती है। मैं अंदर ही अंदर सबकुछ पीती जा रही थी।

अचानक मेरी सेहत बिगड़ने लग पड़ी। मेरा शरीर कमज़ोर-सा रहने लगा। मैं चंदन साहब से शिकायत करती तो वे ऐसा व्यवहार करते जैसे मेरी बात सुनी ही न हो। विवाह के पहले दिन से ही उनका व्यवहार ऐसा रहा था। मैं अपनी सेहत को लेकर कोई शिकायत करती तो वह उस तरफ ध्यान न देते। शायद सोचते हों कि मैं झूठ बोल रही हूँ। मेरा स्वास्थ्य दिनोंदिन बिगड़ रहा था। डॉक्टरों को बीमारी समझ में नहीं आ रही थी। चंदन साहब को मेरे स्वास्थ्य की कोई परवाह नहीं थी। इन्हीं दिनों उनको वापस इंग्लैंड जाना पड़ा। पेंशन से संबंधित कोई काम था। उनके जाने के बाद मेरी सेहत और अधिक बिड़गने लगी। मेरा कालेज जाना बंद हो गया। चंदन साहब वापस आए तो मैं उनको एअरपोर्ट पर लेने भी गई, पर मेरी सेहत बिल्कुल ठीक नहीं थी। मैं घर पहुँचते ही बिस्तर मंे जा पड़ी। चंदन साहब ज़रा-से नशे में आकर किसी दूसरे ही मूड में बोले -

“मैं इतने दिनों बाद आया और तू मरी पड़ी है। बता, अब मैं क्या करूँ ?”

“चंदन साहब, मेरी सेहत तुम्हारे सामने ही है।”

“क्यों ? यहाँ तेरा किसी ने इलाज नहीं करवाया ?”

मैं निढाल हुई पड़ी थी। चंदन साहब मेरे करीब नहीं आए। सोच रही थी कि कब मेरे पास आकर मेरा सिर सहलाएँगे। वह बोले, “मैं तीन महीने बाद आया और तू यहाँ मरी पड़ी है।”

“इसमें मेरा क्या कसूर है ?”

“पर मैं क्या करूँ ?”

“मैं क्या बता सकती हूँ ?”

“मैं वेश्या के पास चला जाता हूँ।”

“यह तुम सोचो।”

मैंने गुस्से में आकर कहा। सहवास के समय चंदन साहब में नरमी तो थी ही नहीं। उस समय भी उनके स्वभाव वाली अति ही होती। मुझे अपनी सेहत की चिंता थी। चंदन साहब ने बाहर वेश्याओं के पास जाना प्रारंभ कर दिया। यहीं पर इति नहीं हुई। वेश्याओं के पास जो कुछ हुआ होता, वह सब घर आकर मुझे सुनाने लगते। मेरे ऊपर इसका और अधिक बुरा प्रभाव पड़ने लगता। वह वेश्याओं पर काफ़ी पैसे लुटाते थे। कई बार वे उन्हें लूट भी लेतीं। अपनी वस्तुएँ वह वहाँ गुम भी कर आते। जब भी मेरी सेहत कुछ ठीक होती तो मेरी तरफ भी बढ़ते। मुझे यह भी भय रहता कि गंदी जगहों पर से कोई बीमारी ही न ले आएँ हों और मुझे लगा न दें। एकबार उन्हें बीमारी लगने का वहम भी हो गया था और काफ़ी देर तक अपना चैकअप भी करवाते रहे थे।

यदि मैं मुँहफट होती या अपना गुस्सा किसी तरह निकाल सकती तो शायद यह सब झेलना मेरे लिए आसान हो जाता, पर यह सब कुछ मेरे अंदर ही बैठा रहता और मुझे भीतर ही भीतर गलाता रहता। चंदन साहब के वेश्यागमन को लेकर मैं उनसे तो क्या किसी दूसरे के पास भी शिकायत न कर सकी।

इन्हीं दिनों उन्होंने अपना उपन्यास ‘कंजकां’ लिखना शुरू कर दिया। उपन्यास शुरू करते ही उन्होंने मेरा बिस्तर दूसरे कमरे में लगा दिया और बोले -

“मैं अपना सारा ध्यान अपने नावल पर केन्द्रित करना चाहता हूँ।”

“चंदन जी, तुम मेरी सेहत के बारे में भी...।”

“तू अपनी माँ को अपने पास बुला ले। मुझे किसी प्रकार की डिस्टरबेंस नहीं होनी चाहिए।”

उन्होंने हुक्म सुना दिया। मेरी सेहत अब ऐसी हो गई थी कि मुझसे अधिक हिलाजुला भी नहीं जाता था। मेरे पेट के अंदर दर्द होता रहता था। शरीर ऐसे जैसे जान ही नहीं होती। मेरे अधिक ज़ोर डालने पर वह एक दिन मुझे डॉक्टर के पास लेकर गए। डॉक्टर रवि चौधरी की बहन का क्लीनिक था। उसकी बहन और बहनोई भी प्रैक्टिस करते थे। मैं उनके क्लीनिक में दाखि़ल हुई। मुझे ड्रिप लगा दिया गया। थोड़ा सा आराम मिला, पर अधिक नहीं। वे मेरी बीमारी का कोई कारण न खोज सके। सभी डिप्रैशन बता रहे थे, पर चंदन साहब कहते थे कि ड्रिपै्रशन नाम की कोई बीमारी नहीं होती। अमृता प्रीतम ने भी डिपै्रशन का एक डॉक्टर बताया, पर उससे भी बात पकड़ी न गई। चंदन साहब कहने लगते कि यह वहमी हो गई है। यह क्या कहते थे या नहीं कहते थे, पर सच यह था कि मेरी हालत और अधिक बिगड़ गई। कभी कभी मुझे स्वयं को लगता कि मैं शायद वहमी ही हो गई हूँ। परंतु कुछ भी ठीक नहीं था हो रहा। एक दिन मुझे लगा कि मैं बस, अब गई कि गई। मेरी माँ बहुत कुछ कर रही थी, पर मैं अक्यूट डिप्रैशन में थी। मेरा नर्वस ब्रेकडाउन हो जाने का खतरा बना हुआ था। मैंने अपनी भाभी जसविंदर को फोन किया। उसने ऑटो किया और मुझे लेने आ गई। उसने इनसे कहा -

“चंदन साहब, मैं दीदी को ले जा रही हूँ।”

“ओ के जी, ले जाओ।” वह इससे अधिक एक भी शब्द न बोले और अपने कमरे में चले गए। जसविंदर ने मुझे सहारा देकर बड़ी कठिनाई से ऑटो में बिठाया। इनके द्वारा मेरी ऐसी उपेक्षा मुझे और भी अधिक तंग कर रही थी। वह मुझे पहले ही कह चुके थे कि तेरी सेहत से अधिक मेरे लिए उपन्यास लिखना ज्यादा ज़रूरी है।

इन्हीं दिनों एस. बलवंत का एक्सीडेंट हो गया। चंदन साहब उसकी ख़बर लेने गए तो पता चला कि उनके ऊपर वाला फ्लैट बिकाऊ है। इन्होंने तुरंत फैसला कर लिया कि पटपड़ गंज वाला फ्लैट बेचकर आउट्रम लेन पर फ्लैट ले लिया जाए। यह फ्लैट यूनिवर्सिटी के नज़दीक पड़ता था। ग्यारह लाख का मिल रहा था। यह सौदा कर आए और पटपड़ गंज वाला फ्लैट सेल पर लगा दिया जो साढ़े सात लाख का बिका। क्योंकि फ्लैट मेरे नाम पर था इसलिए कुछ दिनों के लिए इनका स्वभाव नरम हो गया। नया जो फ्लैट लिया था, उसे इन्होंने अपने नाम पर करवा लिया। मुझे शांत करवाने के लिए आम-मुख्तयारनामा मेरे नाम का बना दिया, पर मैं इतनी बीमार थी कि मुझे इन सब बातों के लायक होश ही नहीं थी। उन्हें लग रहा था कि अब मैं नहीं बचूँगी इसलिए वह शीघ्रता दिखा रहे थे। वह मेरी मौत की बातें भी करने लगते थे। मेरी मौत के बाद वाली स्थिति के बारे में भी हिसाब-किताब करने लगते थे। इन दिनों मैं पहाड़गंज में अपनी माँ के पास ही रही और चंदन साहब नये फ्लैट में चले गए थे। मेरी अनुपस्थिति में ही उन्होंने पुराने फ्लैट में से सारा सामान नये फ्लैट में रखवा लिया था।

मेरा खाना-पीना भी छूट गया था। मुझे भी लगता था कि शायद मैं न ही बच सकूँ। अजीब-सी एंग्जाइटी पैदा हो रही थी। अंदर एक बेचैनी और अलगाव ऐसा घर कर गया कि मेरा वजन बहुत कम हो गया। सिर्फ़ 57 किलो रह गया था। सभी चिंतित थे, पर चंदन साहब बिल्कुल नहीं थे। कभी-कभी वह हमारे घर आते। आँधी की तरह आते और तूफान की तरह लौट जाते। बल्कि एक दिन तो उन्होंने जसविंदर को कह ही दिया कि, “पता नहीं यह अब बचेगी भी कि नहीं, अब मुझे अपनी फिक्र करनी चाहिए।”

एक दिन जसविंदर की माँ हमारे घर आई। वह ज़रा वहमी किस्म की औरत थी। उसने कहा -

“तुम तो लड़की को डॉक्टरों के पास लिए घूमते हो, पर मुझे तो लगता है कि इसके ऊपर किसी की छाया पड़ी हुई है। इसे किसी साधू को दिखाओ।”

वह मेरे सामने ही यह बात कर रही थी। मुझे तो ऐसी बातों पर विश्वास ही नहीं था। मैं अजीब-से दर्द से तड़पती निढाल पड़ी उनकी बातें सुन रही थी। अपनी माँ के ज्यादा ज़ोर डालने पर जसविंदर मुझे पहाड़गंज के मेन बाज़ार में किसी पंडित के पास ले गई। उसने कुछ मंत्र पढ़े और बोला -

“इस लड़की को एक कंजर साये ने जकड़ रखा है। एक तो आप किसी काले कुत्ते को रोज़ रोटी खिलाओ और मुझे जमना किनारे बैठकर इसके लिए पूजा पाठ करना पड़ेगा, मगर इस सबके लिए पैसे लगेंगे।”

मेरी भाभी तो मेरे ठीक होने के लिए कुछ भी कर सकती थी। पंडित ने आठ हज़ार छह सौ रुपये मांगे। जसविंदर ने पर्स में से निकालकर दे दिए। इस सबका विरोध करने की मेरी अंदर शक्ति नहीं थी। पैसे लेकर पंडित ने कुछ अन्य मंत्र पढ़े और फिर बोला -

“इस लड़की को इसके पति के पास भेजिये और सहवास करने के लिए बोलिये। बाकी का काम मैं कर लूँगा और ये एकदम ठीक हो जाएगी।”

जसविंदर बहुत खुश थी। मैं उसको कह रही थी कि यह सब बकवास है, पर मेरी बात कौन सुनता था। अगले दिन वह समझा-बुझाकर मुझे चंदन साहब के पास छोड़ आई। मैं दो रातें चंदन साहब के पास रही, पर बात न बनी। चंदन साहब अपनी ही दुनिया में विचर रहे थे। यदि मेरे पास आते भी तो अजीब-सी स्थिति पैदा कर देते। जसविंदर फिर मुझे उस पंडित के पास ले गई। बात समझते हुए पंडित बोला -

“आप चिंता न कीजिए, ये काम भी मैं ही कर देता हूँ।”

पंडित की बात सुनकर मैंने अपने अंदर की सारी हिम्मत बंटोरी और उठते हुए जसविंदर का हाथ पकड़कर उसको भी उठा लिया। पता नहीं, उस समय मेरे अंदर इतनी शक्ति कहाँ से आ गई थी।

दिन बीतते रहे। मैं दिन रात एक अजीब-से अलगाव में पड़ी रहती। जसविंदर स्कूल से लौटती, मुझे खाना खिलाने की कोशिश करती। पर धीरे-धीरे रोटी तो क्या, पानी भी मेरे अंदर जाना कठिन हो गया। जसविंदर परेशान रहने लगी। एक दिन जसविंदर के साथ काम करती उसकी एक कुलीग ने उसको न्यूरो सर्जन त्रिलोचन सिंह का पता दिया जिसने मेरे जैसे कई मरीज़ ठीक किए थे। जसविंदर मुझे उस सर्जन के पास ले गई। उसने मेरे कई टैस्ट किए और बीमारी पकड़ ली तथा मेरी भाभी को यह विश्वास भी दिलाया कि मैं एक महीने में बिल्कुल स्वस्थ हो जाऊँगी। उसने जो दवा दी वह अजीब थी। यह नींद की दवा थी और साथ ही, एक गोली ऑस्ट्रोजन हारमोन की थी। एक महीना मुझे सोते ही रहना था। सोयी पड़ी को ही मुझे दवाई दी जानी थी और पीने के लिए पानी-जूस आदि भी। जसविंदर और मेरी भतीजियों ने मेरी बहुत सेवा की। महीने बाद मैं ठीक होने लग पड़ी। शायद अबॉर्शन के बाद मेरे हारमोन्स का केमिकल बैलेंस बिगड़ गया था जिसको दवाई के साथ ठीक किया गया था। पूरी तरह स्वस्थ होकर मैंने चंदन साहब को फोन किया तो वह आकर मुझे ले गए।

(जारी…)