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बहीखाता - 26

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

26

अचानक… और प्लेग

हमसे नीचे वाला फ्लैट एस. बलवंत का था। हमारे फ्लैट के ऊपर इमारत की छत थी। यह छत हमने एक लाख रुपये देकर खरीदी थी। यहाँ हम बैठकर सर्दियों में धूप सेंका करते थे। नीचे से बलवंत की बेटी और पत्नी आ जाया करतीं। धूप में बैठकर हम मूंगफली टूंगती रहतीं। कभी कभी उनका नौकर भी सिगरेट पीने ऊपर छत पर आ जाता। चंदन साहब को यह बात पसंद नहीं थी। छत के पैसे हमने दिए थे और इस्तेमाल दूसरे भी कर रहे थे। उन्होंने वहाँ ताला लगवा दिया। धीरे धीरे हालात ऐसे बने कि इनकी पड़ोसियों के साथ भी बोलचाल बंद हो गई। इनके मित्रों की गिनती अब बहुत कम हो गई थी। साहित्यिक मित्र तो अब इनके संग बोलते ही नहीं थे। लेखकों की महफिलें तो लगती ही रहती थीं, कभी कहीं और कभी कहीं, पर इन्हें कोई न बुलाता। मैं भी इनके साथ बंधकर रह जाती। महफिलें तो बलवंत के घर भी लगती थीं। ये गैलरी से नीचे खड़ी कारों की ओर देखते रहते और पहचानने की कोशिश करते कि महफिल में कौन कौन आया होगा। गुस्से में आकर शराब पीते रहते और गालियाँ बकते रहते। कई बार सोफे पर ही सो जाते।

दिन में मैं कालेज चली जाती तो यह अकेले रह जाते। अकेले रहकर यह और भी अधिक खतरनाक बन जाते। शराब-सिगरेट पीते रहते। इस प्रकार इनकी क्रिएटिविटी भी कम हो जाती। मैं घर लौटती तो सिगरेटों के धुएँ से मेरा दम घुटने लगता। शिकायत तो मैं कर ही नहीं सकती थी क्योंकि अधिक पीकर वह अपने होशोहवास गवां देते थे। जब कभी बहुत उदास होती तो बलवंत की पत्नी जसवीर के पास जा बैठती। उनके साथ मेरी अच्छी बनती थी। मेरी तो हरेक से बहुत अच्छी बनती थी। हम इस फ्लैट में करीब तीन साल रहे, पर इन तीन सालों में एक भी ऐसा दिन याद नहीं कि मैंने खुशी देखी हो। जिस भरपूर ब्याहता ज़िन्दगी के बारे में मैं कभी सोचा करती थी, वह तो कहीं आसपास भी नहीं थी। घर का सपना एक छलावा था।

इनका मेरी अर्ली रिटायरमेंट वाला फंडा अभी वहीं का वहीं खड़ा था। आखि़र मुझे हथियार फेंकने पड़े और मैंने रिटायरमेंट के लिए आवेदन कर दिया। जून, 1994 में मुझे रिटायरमेंट मिल गई। यह बहुत खुश थे, पर मैं बहुत उदास। चैबीस वर्ष से इस कालेज में पढ़ा रही थी। अभी और कई वर्ष पढ़ाने में समर्थ थी, पर मुझे काम छोड़ना पड़ रहा था। मेरे सभी साथी भी मेरे इस कदम पर खुश नहीं थे। इस कालेज से मेरी बहुत सारी यादें जुड़ी हुई थीं।

एक दिन नीचे बलवंत के घर पार्टी चल रही थी। चंदन साहब खिड़की में खड़े देख रहे थे कि कौन कौन आया होगा। उनके अंदर की तड़प को मैं समझ सकती थी। मैं बातें करके इन्हें नरम करने की कोशिश कर रही थी। परंतु इनका गुस्सा बढ़ रहा था कि इन्हें क्यों नहीं बुलाया गया। यह अचानक उठे और सीढ़ियाँ उतर गए। कुछ देर बाद गुस्से से भरे हुए वापस लौट आए और बोले -

“अब मैं नहीं रहूँगा इस मुल्क में, घटिया लोगों के बीच। बस, अब मैं चला जाऊँगा वापस, अपने मुल्क।“

कहकर शराब पीने लगे और वही नित्य का ड्रामा शुरू हो गया।

इन्होंने इंग्लैंड में अपना हेज़ वाला घर काउंसिल को किराये पर दिया हुआ था। वह इन्हें एक तय किए गए अरसे के बाद ही वापस मिलना था। इसलिए मुझे नहीं लगता था कि यह अभी वापस जाएँगे। यह दिनभर गुमसुम-से घूमते रहते। कहाँ जाते थे, क्या करते थे, इस बारे में मुझे अधिक पता नहीं था। कुछ पूछने की तो मेरे अंदर हिम्मत ही नहीं थी। एक दिन इन्होंने कार बेच दी तो मुझे लगा कि शायद यह वापस जाने की तैयारी में हैं। मैं भी मन ही मन गुस्से में थी कि आखि़र इनकी पत्नी हूँ, मुझे क्यों नहीं कुछ बता रहे। मैंने इनसे कुछ पूछा भी नहीं। मैं सोच रही थी कि यदि ये वापस इंग्लैंड चले गए तो मंै क्या करूँगी। कालेज से तो मैंने रिटायरमेंट ले ली थी। संग इंग्लैंड ले जाने के विषय में तो कोई बात ही नहीं कर रहे थे, फिर मेरा क्या होगा। मैंने इस सवाल पर अधिक सोचना छोड़ दिया और निर्णय कर लिया कि यदि ये यूँ ही अकेले चले जाएँगे तो मैं फ्लैट को ताला लगाकर माँ के घर चली जाऊँगी।

अगस्त का महीना आ गया। मेरे लिए भी खाली बैठना दुष्कर हुआ पड़ा था। अचानक एक दिन यह बोले -

“मैं कल वापस जा रहा हूँ।”

मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं !

मैं सच में अब अकेली खड़ी थी। एक सहरा मेरे इर्दगिर्द पैदा हो गया था। चंदन साहब अधिक कुछ कहे बग़ैर चले गए थे। मैंने एक बार भी इनसे कोई सवाल नहीं किया था। सोचती थी कि शायद कुछ कहेंगे, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। ‘मेरा घर तेरा इंतज़ार करता है’ यह वाक्य पंख लगाकर कहाँ उड़ गया था। मेरे ज़ेहन में ये पंक्तियाँ करवट ले रही थीं -

“सूरजां दे वायदे कित्थे मुक गए ने, धरती ने नहींओं इह सवाल करना।”

(सूरज के दावे कहाँ खत्म हो गए, धरती यह सवाल नहीं करेगी)

बस, एकमात्र सहारा शब्दों का था जिसके साथ मैं दिल की बातें कर लेती। हर बार डॉ. हरिभजन सिंह की दुआ झूठी पड़ती जा रही थी और हर बार ही कविता लिखने के आसार बनने लगे थे।

लंदन पहुँचकर इन्होंने मुझे फोन करके बता दिया कि सकुशल पहुँच गया हूँ। इससे ज्यादा कुछ नहीं। मैं एकबार फिर बीमारी की ओर धकेली जाने लगी। डिपै्रशन मुझे फिर घेरने लगा था। मैं इससे बचने की कोशिशें कर रही थीं। मैं अपने भाई के बच्चों के संग अपना मन बहलाने लगती। कभी घर के कामों में मदद करती। मेरी भाभी जसविंदर हमेशा ही मेरे साथ बहनों की तरह खड़ी होती। मेरी हर मदद करती। कई महीने बीत गए। मुझे अपने भविष्य की चिंता होने लगी। न मैं उधर की रही और न ही इधर की। मैं सोचती कि काश, मैंने रिटायरमेंट न ली होती, मित्रों का कहना मान लिया होता। मेरी माँ मुझे बहुत हौसला देती, पर मेरा दिल डूबने लगता। कई महीने और बीत गए। एक दिन इनका फोन आया और बोले -

“ऐसा कर कि फ्लाइट पकड़कर आ जा। कल ही।”

“चंदन जी, टिकट जब की मिलेगी, तभी आऊँगी न।”

“नहीं, कल की ही बुक करा। मुझे पता चला है कि दिल्ली में प्लेग फैला हुआ है। कहीं ऐसा न हो कि तू भी इसकी लपेट में आ जाए और मेरे लिए भी कोई मुसीबत खड़ी कर दे।”

उन्होंने अपने सख़्त लहजे में कहा। दिल्ली में प्लेग के एक-दो केस तो सुनने में आए थे, पर इसके फैलने वाली तो कोई बात नहीं थी। सोचा - जाऊँ कि नहीं। कभी दिल कहता - मैं क्यों जाऊँ ? कभी मन कहता - यहाँ रहकर क्या करूँगी ? नौकरी मैं छोड़ चुकी थी। दूसरी नौकरी कहाँ आसानी से मिलने वाली थी। लोग इस नौकरी के लिए तरस जाते हैं और मैंने स्वयं ही इस नौकरी को लात मार दी थी। शायद, अभी भी एक एतबार-सा था कि ज़िन्दगी ठीक रास्ते पर चल पड़ेगी। शायद चंदन साहब वापस जाकर ठीक हो जाएँगे। मेरे लिए यही बहुत था कि उन्होंने आने के लिए कह दिया था। मैंने तैयारी करके जो भी फ्लाइट मिली, पकड़ ली। चंदन साहब मुझे लेने आए। इनका पहला सवाल था -

“प्लेग तो साथ नहीं लेकर आई ?“

मैं हैरान-सी उनकी ओर देखने लगी। सोच रही थी कि ये कैसी बातें कर रहे थे। हम अमनदीप के फ्लैट में आ गए। इनका घर अभी भी काउंसिल ने खाली नहीं किया था। अमनदीप का दो बैडरूम वाला फ्लैट था। एक कमरा अमनदीप का था और एक इनका। अपना लिखने-पढ़ने का मेज़ लगा रखा था। उन दिनों ‘वायरस’ नाम का कोई उपन्यास लिख रहे थे जो शायद इनकी पहली पत्नी को लेकर था। अपना सारा सामान बैठक में ले गए और मेरे लिए वह कमरा खाली कर दिया। बोले -

“क्या मालूम, तू वहाँ से क्या साथ ले आई हो, मैं कोई बीमारी नहीं लगवाना चाहता।”

“अगर इतना ही था तो बुलाया ही क्यों ?” मैंने पूछा।

“मैंने नहीं, यह तो अमनदीप ने बुलाने के लिए कहा था।”

यह सुनकर मेरा मन बहुत खराब हुआ। मुझे लगा मानो मैं सच में प्लेग की मरीज़ हो गई होऊँ। तंग-सा फ्लैट था। छोटे छोटे कमरे। सिगरेटों और शराब की गंध हर समय माहौल में तारी रहती। ठंड का मौसम होने के कारण खिड़कियाँ भी नहीं खोल सकते थे। मेरा सांस घुटने को होता। कमरे का औरा ही धुएँ से भर गया। मेरे इर्दगिर्द प्रतिकूल वातावरण निर्मित होता जा रहा था। जब भी ज़रा-सा नशे में आते तो यही कहते कि मुझे प्लेग से बचाने के लिए ही इंग्लैंड बुलाया गया था। मुझे और अधिक हीन-सा महसूस होने लगता। मेरे लिए तो यह बात असहय थी कि मुझे शूद्रों की तरह एक तरफ कर दिया गया था। चंदन साहब कभी कभी मुझे यहाँ तक कह जाते कि मैं प्लेग बनकर आ गई हूँ। शराब पीकर पूरी दिल्ली को गालियाँ देना तो उनका नित्य का काम था। मेरे लिए जीना दूभर होने लगा। मुझे अभी आए हुए सप्ताह भर ही हुआ था कि बोले -

“परसों, तेरी इंडिया वापसी की टिकट बुक करवा दी है।”

“इतनी जल्दी ?”

“हाँ। मैंने तो तुझे प्लेग से बचाने के लिए यहाँ बुलाया था, पर तू तो मेरे लिए ही प्लेग बन गई है।”

मैं सुन्न रह गई। लगा जैसे अपनी पहली पत्नी के बारे ‘वायरस’ नाम का उपन्यास लिख रहे हैं, कल हो सकता है, मेरे बारे में ‘प्लेग’ लिख दें। स्त्रियों की बारे में ये किस तरह के शब्दों का चयन करते थे। इनके नये रिश्ते और मूल्य न जाने कहाँ पंख लगाकर उड़ गए थे। ‘कंजकां’ लिखने वाला यह वही लेखक था ? मेरे मन में इनके संवेदनशील लेखक होने को लेकर संदेह पैदा होने लगा लेकिन मैंने इन्हें कुछ नहीं कहा। बस, अंदर ही अंदर एक विश्वास गल गलकर बहने लग पड़ा था और गीत की सतरें जन्म ले रही थीं -

“तुर रही है, तुर रही है

बर्फ़ बनके खुर रही है

गा रही है, गा रही है

जिंद महुरा खा रही है

सौं रही है, सौं ही है

सुपनियाँ संग भऊं रही है

जी रही है, जी रही है

अगन चोला सी रही है।”

(चल रही है, चल रही है/बर्फ़ बनकर गल रही है/गा रही है, गा रही है/ज़िन्दगी करवट ले रही है/सो रही है, सो रही है/ सपनों के संग घूम रही है। जी रही है, जी रही है/अग्न चोला सी रही है।)

मैंने ज़िन्दगी के संग लड़ने के लिए शब्दों को ही सहारा बना लिया था। डॉ. हरिभजन सिंह की दी हुई दुआ भी मानो रूठ गई थी। न ईश्वर संग प्रतीत होता था, न जग, इसलिए हर खुशी राह बदलकर गुज़र रही थी।

(जारी…)