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बहीखाता - 28

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

28

उम्मीद

रात का समय था। गहरा अँधेरा था और हल्की हल्की बारिश हो रही थी। ऊपर से जबर्दस्त ठंड। गर्मी के मौसम में भी इतनी ठंड पड़ सकती है इसका मुझे पता ही नहीं था। मैं अपना बैग उठाये बाहर सड़क पर खड़ी थी। अपनो से दूर, बेगाने मुल्क में, बिल्कुल अकेली। सड़क एकदम वीरान थी। कोई कोई कार उधर से गुजरती। पता नहीं उसमें बैठे लोग मेरी तरफ देखते थे कि नहीं, पर मैं अपनी ओर अवश्य देख रही थी। किसी फिल्म के सीन-सा लगता था सबकुछ। अब कहाँ जाऊँ ? न मेरा कोई परिचित था, न रिश्तेदार। जो लेखक मित्र थे भी, वे सब चंदन साहब के ही थे। मेरे रिश्तेदार जो हैरो में रहते थे, उनका पता भी इस हालत में मुझे याद नहीं आ रहा था। मैं आहिस्ता आहिस्ता चल पड़ी। स्पैंसर एवेन्यू के साथ ही शेक्सपीयर एवेन्यू लगती थी। इस रोड के इर्दगिर्द की सारी सड़कों के नाम कवियों के नामों पर रखे हुए थे और मैं इतने सारे कवियों के नामों के बीच घिरी बिल्कुल अकेली थी। हाँ, मेरे बैग में इंग्लैंड के (पंजाबी) कवियों की किताबें ज़रूर थीं जो मुश्ताक मुझे दे गया था। सामने टेलीफोन बूथ नज़र आया। बारिश से बचने का बढ़िया ठिकाना प्रतीत हुआ। मैं उसमें जा घुसी। भारी कपड़े न पहने होने के कारण मेरे दाँत बज रहे थे। अकस्मात् प्रोफेसर रंधावा का नाम मेरे दिमाग में कौंधा। रंधावा ऑल इंडिया रेडियो वाले हरभजन का दोस्त था। सन् 1986 में जब मैं इंग्लैंड आई थी तो रंधावा के घर भी गई थी। एक दिन उसने मुझे लंदन भी घुमाया था। उसके बाद भी एक-दो बार मैं उससे मिली थी। वे पति-पत्नी जब इंडिया गए थे, तो मुझसे मिले थे। रंधावा का ड्राइविंग स्कूल भी था। कार चलानी सिखाता था। उसका फोन नंबर सीधा-सा ही था और मुझे मुँहजबानी याद था। पर अब फोन कैसे करूँ, मेरे पास तो कोई चिल्लर ही नहीं थी। चिल्लर क्या, कुछ भी नहीं था। मुझे अचानक ख़याल आया कि इंग्लैंड में रिवर्स कॉल की सुविधा उपलब्ध थी, सो मैंने रंधावा को फोन कर लिया। करीब आधे घंटे में रंधावा आकर मुझे ले गया।

उस रात चंदन साहब के साथ क्या बीती होगी, मैं नहीं जानती। परंतु मेरे लिए वह रात पहाड़ से भी अधिक भारी थी। इन्होंने मेरे भाई को घर से निकाला, मेरे गुरू डॉक्टर हरिभजन सिहं को भी निकाला और अब मुझे भी। जिस घर की तलाश में मैं सारी उम्र भटकी थी, उसमें से तो निकाल दी गई थी। मैं बहुत गुस्से में थी। मैं तब यह भी नहीं जानती थी कि इस हालत में काउंसिल के पास भी जाया जा सकता था। मैंने ऐसा कहाँ सोचा था। यह हादसा इतना अचानक घटित हुआ कि पता ही न चला कि यह क्या हो गया था। जसविंदर का एक वाक्य बार बार याद आ रहा था, “आज तुम अपने बेटे को गालियाँ दे रहे हो, कल को दीदी के साथ भी यही करोगे।” वाकई जसविंदर की बात सच साबित हो रही थी। अमनदीप की तरह मुझे भी घर से बाहर निकाल दिया गया था। शायद जसविंदर मुझसे अधिक समझदार थी। मैं जिस घर में पली-बड़ी हुई थी, वहाँ दुनियादारी का कोई पाठ नहीं पढ़ाया गया था। घर के सभी सदस्य इतने सीधे थे कि मैं भी कोई चालाकी नहीं सीख सकी थी। अब भी कुछ नहीं सूझ रहा था। बस, यही मन करता था कि अब वापस इंडिया लौट जाऊँ। सोच रही थी, ‘इतनी बड़ी डिगरी की मालिक हूँ, कुछ न कुछ तो कर ही लूँगी। किसी अख़बार के लिए ही लिख लूंगी। शायद, यूनिवर्सिटी में ही कोई नौकरी मिल जाए या फिर कुछ और।’ पिछली बार जब चंदन साहब ने दस दिन में ही वापस इंडिया भेज दिया था, तब तो मन के किसी कोने में एक आस थी कि वह दुबारा बुला लेंगे, पर अब तो घर से ही निकाल दी गई थी। रंधावा और उसकी पत्नी मुझे हौसला दे रहे थे और कह रहे थे कि चिंता न कर, जब तक रहना है, हमारे साथ रह। उन्होंने मुझे एक कमरा दे दिया। उन्होंने भी मुझे काउंसिल का रास्ता नहीं दिखाया था।

अगले दिन ही रंधावा ने चंदन साहब को फोन करके बता दिया कि मैं उनके घर पर हूँ, कोई चिंता न करें। मैं जानती थी कि उन्हें मेरी क्या चिंता होगी। इन्होंने तो मुझे फोन तक नहीं किया। मैं रंधावा के घर में रहने लगी। मैं सोच रही थी कि यदि कोई मुझे काम आदि मिल जाए तो मेरे लिए कोई उद्यम हो जाएगा और खर्च करने के लिए चार पैसे भी हो जाएँगे। पैसों की ओर से मैं हर समय ही तंग रहती थी। दिन भर में खाली रहती थी। इन दिनों एक बात अच्छी हुई कि मैंने वरिंदर परिहार द्वारा कहा गया परचा पूरा कर लिया। ब्रितानवी कवियों की सभी किताबें पढ़कर एक थ्यौरी घड़ ली और परचा लिख लिया। अब मुझे चिंता थी कि यह परचा वरिंदर परिहार तक कैसे पहुँचाया जाए। मेरे पास न उसका फोन नंबर था और न ही उसका पता। कार्यक्रम भी निकट ही था। मैं सोच रही थी कि परचा रंधावा के माध्यम से चंदन साहब के पास भेज दूँ, वह स्वयं आगे भेज देंगे और समारोह में किसी से पढ़वा लिया जाएगा। मैं ऐसा कुछ सोच ही रही थी कि अचानक एक दिन चंदन और नूर साहब रंधावा के घर आ गए।

उन्हें देखकर मैं खुश भी हई और मेरी नाराज़गी भी दुबारा उभर आई। चंदन साहब मेरा हाथ पकड़ते हुए बोले -

“आय एम रीयली साॅरी। उस दिन शराब के नशे में पता नहीं क्या कह गया। चलो, घर चलें। नूर साहब भी आए हुए हैं।”

मेरा सारा गुस्सा छूमंतर हो गया। मैं उनके साथ चल पड़ी। नूर साहब चंदन साहब को मिलने आए थे। अगले ही शनिवार उन्हें भी प्रोग्राम में शामिल होना था। मैंने उन्हें अपना लिखा परचा दिखलाया तो वह बहुत खुश हुए। उन्होंने परचा पढ़कर देखा और मुझे बढ़िया परचा लिखने के लिए मुबारकबाद देने लगे। मुझे इंग्लैंड की साहित्यिक राजनीति की अधिक जानकारी नहीं थी इसलिए मैंने अपने हिसाब से परचा लिखा था। नूर साहब की शख्सियत मुझे बहुत अच्छी लगी। वह धीरे धीरे नपी-तुली-सी बात करते थे और दूसरे की बात को भी पूरे ध्यान से सुनते थे। चंदन साहब के साथ उनकी पुरानी मित्रता थी। मैं सोचती थी कि दिल्ली वाले नूर के साथ तो इन्होंने झगड़ा कर लिया था, इस नूर साहब के साथ भी न कर बैठें, पर मैं देख रही थी कि वह इनकी बहुत इज्ज़त करते थे।

मैंने साउथहैम्पटन के प्रोग्राम में परचा पढ़ा। सभी ने परचे को सराहा। कुछ नुक्ते भी उठे जिनके जवाब मैंने दिए थे। जैसा कि मुझे लगता ही था कि वरिंदर परिहार की कविता में नई चेतना दिख रही थी, बाकी लोगों को लगा, उसकी मेरे द्वारा कुछ अधिक ही तारीफ हो गई थी। चंदन साहब ने यहाँ के साहित्यिक ग्रुपों के बारे में थोड़ा-बहुत बता रखा था, पर यह नहीं पता था कि ये तो एक दूजे की जानबूझकर टांग खींचते रहते थे अथवा ग्रुप के हिसाब से एक-दूजे को उठाते थे। अब तक मैं इंग्लैंड के लगभग सभी लेखकों को जान चुकी थी, पर यह नहीं जानती थी कि परचे में किसकी तारीफ करनी है और किसकी नहीं। भूपिंदर पूरेवाल की कविता की मैं हमेशा मद्दाह रही हूँ। परचे में उसका भी भरपूर जिक्र किया था, पर प्रोग्राम के बाद वह ताने-से मारने लगा। शायद वह किसी दूसरे की तारीफ़ सुनने का आदी नहीं था। क्योंकि वरिंदर परिहार उसकी अपेक्षा नया कवि था, उसको वह अपने बराबर होता अच्छा नहीं लगता था। फिर धीरे धीरे मुझे यहाँ की सियासत समझ में आने लगी, पर उसका हिस्सा मैं कभी न बन सकी।

सितंबर का महीना आ गया। एक दिन नूर साहब का फोन आया और पूछने लगे -

“देविंदर जी, नौकरी करनी चाहोगे ?” 

(जारी…)