Dasta e dard - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

दास्ताँ ए दर्द ! - 13

दास्ताँ ए दर्द !

13

ज़ेड जैसे एक अलग सी लड़की थी, कुछ न कुछ ऊट - पटांग करती ही रहती |कभी बेकार ही रीता के घर की ओर देखकर मुस्कुराकर असमंजस में डाल देती तो कभी अजीब से चेहरे बनाकर कुछ गाली सी देती रहती | प्रज्ञा ने महसूस किया उसका व्यवहार नॉर्मल तो नहीं ही था | जैसे किसी से बदला लेने की उलझन में सदा उसके दिमाग़ की चूलें ढीली होतीं तो कभी बेबात ही जैसे ज़रूरत से अधिक कस जातीं |

जब भी प्रज्ञा की दृष्टि उस पर पड़ती, वह असहज हो उठती | उसने रीता से कई बार इस बात पर चर्चा की पर कुछ समझ नहीं आया | रीता व देव ने ज़ेड के बारे में उसको अधिक न सोचने की सलाह दी | किन्तु प्रज्ञा के मन में जैसे कोई कुदाली लिए बैठा था | न जाने वह उसके बारे में कुछ अधिक जानने के लिए क्यों बेचैन हुई जा रही थी | कहीं न कहीं उसकी नाज़ुक उम्र जैसे कुछ कहती प्रतीत होती | जैसे कोई सरगोशियाँ कर रहा हो |

हर ज़िंदगी के साथ ऐसा कुछ न कुछ जुड़ा होता है जो एक नॉर्मल ज़िंदगी को झंझोड़कर रख देता है |देखा जाय तो सबके साथ रहते हुए भी एक प्रकार से ज़ेड अकेली ही थी | इस कमसिन उम्र में किसी न किसी का दिशा-निर्देश आवश्यक था उसके लिए भी, और सब टीन-एजर्स की तरह |

ज़ेड रहती ज़रूर थी अपनी माँ के साथ लेकिन माँ के पास दूसरी दो बच्चियाँ थीं, एक प्रेमी था और जैसा सुना गया था, वह अपने उस प्रेमी से शीघ्र ही विवाह करने वाली थी जिसकी वो दोनों छोटी बच्चियाँ थीं | उसकी माँ अपनी व्यस्तताओं में ख़ुश दिखाई देती थी | शायद इसी वातावरण ने ज़ेड को उश्रृंखल बना डाला था |उसके पास पिता का स्नेह नहीं था |

आख़िर उसका संबंध ही क्या था उससे जो वह उस बद्तमीज़ लड़की के बारे में सोचे | प्रज्ञा ने कई बार अपने मस्तिष्क को झटकने का प्रयत्न किया पर वह हल्की न हो सकी |

अब प्रज्ञा के वापिस लौटने के केवल दो दिन शेष थे | रीता और देव इस बात से दुखी थे कि भारत वापिस जाने के समय प्रज्ञा उन्हें असहज हो गई थी |जाने से एक दिन पूर्व दोनों पति-पत्नी ने किसी प्रकार मैनेज करके दो दिन की छुट्टी रखी थी | पहले दिन प्रज्ञा को बाज़ार ले जाना चाहते थे, कुछ उसकी पसंद की गिफ़्ट खरीदना चाहते थे और मंदिर में सबसे मिलवाना चाहते थे, दूसरे दिन तो उसे हीथ्रो एयरपोर्ट पर छोड़ने जाना ही था |

मंदिर पहुँचने पर पता लगा आज बनारस से पधारे श्री चतुरानन्द जी महाराज को मंदिर में पधारना है | प्रज्ञा का रहा -सहा मूड भी ख़राब हो गया | जिस दिन वह रवि के साथ उनसे मिली थी, तब से ही उनकी आकृति उसके मन में एक अजगर की भाँति लपेटे मारे बैठी थी |

समय की बात है चतुरानन्द को भी उसी दिन और उसी समय लैमिंगटन स्पा के मंदिर में अपनी चतुराई की ख़ाक झाड़नी थी, वो भी जब वह मंदिर में पहुँची उसी समय ! रीता उसके मन में उठते हुए झंझावात से बेख़बर नहीं थी |

प्रज्ञा को यह भय भी सता रहा था कि वह ज़रूर उससे रामायण के पाठ में न आने का कारण पूछेगा और वह कुछ ऊट-पटांग जवाब ज़रूर दे बैठेगी | अजीब सी वितृष्णा से उसका मन भरा हुआ था | 'राखी तो हाथ में बँधती है ----'ओह ! एक भारतीय, वो भी उपदेशक, समाज-सुधारक पाखंडी को सहना कितना कठिन होता है ! लोग आँखों पर पट्टी बाँधकर रहते हैं क्या?' प्रज्ञा की आँखों में पीड़ा छलक आई |

प्रज्ञा वहाँ निकलना चाहती थी, देव व रीता भी यही सोच रहे थे | मंदिर में ख़ासी भीड़ जमा हो गई थी और लोग उत्साह से मरे जा रहे थे |

महाराज की गाड़ी मंदिर के बाहर आ रुकी, भक्त-जन हर्षोल्लास में भरे सिंह-द्वार पर उनकी अगवानी के लिए पहुँचे, हाथों में मालाएँ पकड़े, अँजुरियों में फूल भरे ! वहाँ से निकलना आसान नहीं था |

अचानक प्रज्ञा को ज़ेड का चेहरा दिखाई दिया |

'यह लड़की मंदिर में क्या कर रही है ?' दिमाग़ ने सोचा और तुरंत उसने रीता को फुसफुसाकर बताया | रीता ने देव को ---और फिर वेा तीनों बाहर जाने के लिए रास्ता बनाना भूल गए | उनका ध्यान ज़ेड पर चिपक गया जो अपने उसी ब्वॉय-फ्रैंड का हाथ पकड़े भीड़ में झाँक रही थी |

पुष्प-वर्षा हो रही थी, चतुरानन्द महाराज भक्तों से घिरे सबके हाथों से माला पहनते, फिर उन्हें उतारकर भक्तों की ओर उछाल देते | प्रज्ञा के मन से जैसे कोई घाव रिसने को हुआ कि अचानक फूलों और हारों के बीच एक जूता आकर चतुरानन्द की खोपड़ी पर टपक गया |

चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई,

"ये कौन बद्तमीज़ है ?" शोर मच गया |

"इट्स मी--मी---ऑल इडियट्स ----"ज़ेड कोने में से चिल्लाई |

उसने भागने की कोशिश भी नहीं की, जमकर अपने दोस्त के साथ खड़ी रही |

"व्हाट --नॉनसेंस ----" लोग क्रोध से पागल हो रहे थे |

अब प्रज्ञा बाहर जाना भूल गई थी, उसको मज़ा आने लगा | रीता व देव भी आँखों में आश्चर्य भरकर देख रहे थे | आख़िर हो क्या रहा था ?

चतुरानन्द का ख़ून जैसे अचानक जम गया था | भक्तन व सेविका सेबी ज़ेड की ओर बढ़ी तो ज़ेड ने उसे भी एक धक्का मार दिया |

"यू पीपल ---ऑल इडियट्स क्रिएट दिस टाइप ऑफ़ नॉनसेंस ---"वह चिल्लाई |

"माय मदर वाज़ ए फ़ूल लाइक यू, शी यूज़्ड टू टाई द थ्रेड ऑन हिज रिस्ट एंड गेव मी बर्थ --"

सबकी आँखें कभी चतुरानन्द की ओर तो कभी उस बिफरी हुई लड़की ज़ेड की ओर गोल-गोल घूम रही थीं | चतुरानन्द की चतुराई न जाने कहाँ विलुप्त हो गई थी |

मिनटों में पुलिस ने आकर पूरे मंदिर को घेर लिया और लड़की को पकड़कर ले गई | वह चिल्लाती जा रही थी --

"ही इज़ द वन हू इस माय सो कॉल्ड फादर ---माय फूट -----"ज़ेड ने पुलिस की गाड़ी में चढ़ने से पहले अपने पैरों को ज़ोर से हिकारत से पछाड़ा |

वह गाड़ी में बैठकर उछलती हुई चिल्लाती जा रही थी कि उसके पास इस बात का प्रमाण है और वह जल्दी ही सबका पर्दाफ़ाश कर देगी |

उसके साथ उसके दोस्त को भी पुलिस-गाड़ी में बैठा लिया गया था | चतुरानन्द के भक्त उसके विरुद्ध कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे | कुछ लोग उसकी मरहम-पट्टी में जुट गए थे | सेबी एक ओर बैठी थी और कुछ लोगों की आँखों में संदेह उभर आया था | रवि पंडित जी का कहीं अता-पता नहीं था | प्रज्ञा की आँखें रवि को खोज रही थीं |

तो असली कारण यह था ज़ेड की तकलीफ़ का ! बेचारी बच्ची ! प्रज्ञा के मन में उसके प्रति और भी करुणा भर आई | ये बच्चों का कसूर नहीं होता | कसूरवार होते हैं माँ-बाप जो जन्म देकर एक जीव को इस प्रकार छोड़ देते हैं | अधकचरे रिश्तों से जन्मे बच्चे किधर के भी तो नहीं रहते, बस त्रिशंकु बनके ताउम्र लटकते रह जाते हैं | उसका अधिक क्रोध उस चतुरानन्द पर था जो अपनी नीच चतुराई से लोगों को बरगलाता है और 'चतुराई' शब्द को भी कलंकित करता है |

और ये नीच चतुरानन्द ! उनके भक्त उसकी सेवा-टहल में लगे थे, कहीं श्राप ही न दे दें --उस मूर्ख लड़की को तो उनका श्राप छोड़ेगा नहीं, फुसफुसाते लोग उसे महामूर्ख लग रहे थे | वह तो पहले ही दिन उसकी हरकतों से समझ गई थी |

जब तक कोई दुर्धटना न हो, कोई भी लड़की अपने आपको किसीके सामने परोसना नहीं चाहेगी | और परोसेगी भी तो किसी न किसी कारण से, किसी उद्देश्य को लेकर ! न जाने ज़ेड की माँ इस निक्क्मे से क्यों बेवकूफ़ बनी होगी, शायद ऐसे ही जैसे यह सेबी उसके साथ चिपकी हुई है | अपनी महानता की कोई न कोई चतुराई तो अवश्य ही दिखाई होगी इस गेरुएधारी ने | वह वितृष्णा से भर उठी |

इस तमाशे को देखकर प्रज्ञा का मन और भी कच्चा हो आया | वह देव व रीता के साथ वहाँ से निकल तो आई लेकिन मन में सैंकड़ों सवालों के पोटलों का भार ढो लाई |

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