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वरा'ह

वरा'

[ सदियों पेहले सौराष्ट्र के कई राजपरीवार अपने नाम के आगे अपने इष्टदेव भगवान वराह का नाम जोड़ते थे : मगर समय के साथ वराह का अपभ्रंश होते-होते वै वराह की जगह पर रा लगाने लगे । जो आज तक हयात हैं ।

अध्याय १

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सूरज के ढलने के साथ ही राडियास का एक और दिन निराशा में बित गया । पाटण के रसाले को वापस गये आज लगभग हफ्ता भर हो चुका हैं मगर अभी तक उनकी ओर से कोई भी संदेश जुनागढ़ नहीं भिजवाया गया । लगता हैं कि महाराज दुर्लभसेन को राडियास का प्रस्ताव पसंद नहीं आया इसलिए शायद उन्होने बात को हवा में उड़ा दि होंगी ।

हताश-नीराश राआज फिर हिम्मत हार बिस्तर पर किसी टूटी इमारत की तरह गिर पड़े :और जैसे ही अपनी आँखों को मींचा के फिर से वही हसीन ख्वाब नजरों के आगे लेहराने लगा ।

कुछ महीनों पेहले :-

पूरा जुनागढ़ आनंद और उलास से गूंज रहा था । सालों के इंतेजार के बाद आज सोरठ को अपना वारीस जो मिला था । महाराणी राजबाई की कोख से जन्मे राजकुँवर को देखने पूरा जुनागढ़ उमड़ पड़ा ।लोग बढ़-चढ़ कर राज की खुशी में शामिल होना चाहते थे । कंही मिठाईया बन रही थी ,महेल को फूलो से सजाया जा रहा था ,तो कंही नाच गाने की तैयारियां हो रही थी । पूरे सोरठ में खुशी की लहेर दौड़ रही थी तो वंही दूसरी तरफ काल के कदमों ने भी आज सोरठ के द्वार पर अपनी दस्तक दि ।

पुत्र प्राप्ति की खुशी में एक रोज़ रा अपने किन्ही करीबी दोस्तों के साथ मेहफ़िल जमा कर बैठे थे । सब दोस्त अपने-अपने पुराने प्रसंगो को उजागर कर हसी ढिढोली में मग्न हुए पड़े थे । कोई इस राज्य की प्रशंसा के क़सीदे पढ रहा था तो कोई उस राज्य के ...!किसी को राजा पसंद आता,तो किसी को रानी पसंद आती ,या किसी को उनकी राजकन्याए ...!इसी बीच अजीतसिंह जो राडियास का करीबी मीत्र था उसने हालही में सोरठ घूमने आई पाटण की राज कुमारीयों की बात छेड़ दि....

‘’अरे....येह सब तो उन पाटण से आए मेहमानो के आगे कुछ नहीं हैं रा...!कोन जाने किस एकांत की घड़ी मे परमात्मा ने उनका देह घड़ा होगा ।लगता हैं कि दोनों राजकन्या जैसे कोई अलौकीक कन्याए हो ।और उसमें भी बड़ी रजकुमारी तो....!आहा...!क्या देह ?,क्या काया?क्या मनमोही सूरत ?उनकी प्रशंसा में तो सारे शब्द कम पड़ जाए । ’’

‘’अरे....भाई पर उस स्वप्न सुंदरी के बेकार सपने मत देखो !पता है ना सोरठ और गुजरात के संबंध कुछ ठीक नहीं!’’सोमरस के नशे में चूर एक दोस्त उसकी बात काट ते हुए बोला।

‘’हाँ मगर... ठीक होतो सकते हैं...!’’

‘’क्या मतलब ’’

सब लोगो ने अजीतसिंह के आगे कान धरे ।

‘’सोचो अगर रा उस कन्या से विवाह कर ले तो ...?

सोचो जरा सोरठ को इस रिश्ते से कीतना लाभ होगा !पीढ़ीयों की शत्रुता एक क्षण में खतम !, गुजरात और सोरठ में फिर से मैत्री भरे संबंध होंगे,ऊपर से जो गुजरात की ओर से हमे साथ मीलेगा सो तो अलग !’’

अजीतसिंह राके नजदीक आया...

‘’ महाराज वोह कोई सामान्य सी राज कन्या नंही हैं...!लंबे घने केश,नाज़ुक तन,कंचनकाया देह ,कटार से तीखे नैन,दूध सा श्वेत वान,जैसे कि....जैसे....जैसे....कोई अप्सरा साक्षात धरती पर उतर आई हो ! जिसे पाना हरकोई के बस की बात नहीं ।

सोचीये महाराज अगर वोह जुनागढ़ की रानी बन कर आई तो …!सारे राज्यों की आँखेँफटी की फटी रेह जाएगी । सोचीये जिस कन्या के रूप के आगे स्वर्ग की अप्सराए भी फीकी लगने लगे वोह अगर आपकी वीवाहीता बन कर आए तो ?

....सोचीये महाराज सोचीये....’’

अजीतसिंह की बाते धीरे-धीरे रा के मन को कुरेदने लगी । उनके मन में भी राज कुमारी के दर्शन की लालसा जगी। अजीतने रा के चेहरे पर उभर आए भाव को पढ़ लिया और बोला....

‘’वेसे कल वोह लोग दामोकोंड मे संध्या आरती के दर्शन के लिये जाने वाले हैं । अगर आपको मेरी बातों पे विश्वास ना हो तो कल खुद ही जाके देख सकते हैं। ‘’

अजीत की बातों के झाँसे में आके अगले दिन शाम को राजकुमारी के दर्शन के हेतु राडियास स्वयंम दामोककोंड पोंहच गए ।आरती होने से पेहले वोह यूंही मंदीर के परीसर में घुन रहे थे कि उनकी नज़र एक अलौकिक कन्या पर पड़ी । सेकड़ों की भीड़ में भी राजकन्याओ को पेहचानना कुछ खास मुश्किल नहीं था । काग के जुन्ड मेसे किसी पारेव के भांती वोह भी उभर आई । उनको देख राडियास को आभास हुआ कि अजीत ने तो अभी राजकुमारी की प्रशंसा में कुछ भी नहीं कहा ।राजकुमारी तो उसके किये वर्णन से भी कईं अधीक आकर्षीत हैं । इनकी सुंदरता का शब्दो में वर्णन करना तो जैसे सचमें असंभव था । राकी एक टूक नज़र राजकुमारी पे एकदम जम गई । उनके अलावा नतो उन्हे कुछ दिखाई दे रहा था और नाहीं कुछ सुनाई पड रहा था ।रूप का जादू कुछ इस तरह सर पें हावी हो चुका था कि वो आरती के दौरान भी बार-बार पीछे मुड़ कर बस उनको ही देख रहे थे ।

आरती खतम करके राजेसे-तेसे करके बाल-बाल महेल पोंहचे और आके सीधे अपने कमरे में जाके मद्धौशी से धडम करके पलंग पे गिर पड़े ।राजकुमारी की वोह तलवार की धार जेसी नुकीली नज़रे बार-बार राके मन पर वार करते जा रही थी और राभी वोह हर वार खुशी-खुशी अपने दिल पर सेह रहे थे । किसी पानी बिगेर की मछ्ली की तरह रा का मन भी यंहा-वंहा तड़फड़ा ने लगा ।माथे से पसीने की जैसे नदी छुटने लगी,हाथ-पैर सुन होने लगे और पुरा बदन एकदम ठंडा....! जैसे कोई जीती जागती लाश । ना सूद ना बुद !

राडियास की एसी हालत देख उनकी धरमपत्नी राजबाई भी घबरा गई कि ‘’आखिर आज राको हुआ क्या हैं?’’ उनहों ने तुरंत ही वैद को बुलाया और राकी बीमारी का कारण जानना चाहा: लेकिन बेचारा वैद भी उनको क्या बता पाता ?वोह तो खुद सोच में पड गया कि‘’येह आखिर कौनसी नई बीमारी लग गई राजा को?’’सच में...!इश्क कंहा किसी को समझ में आता हैं

***

दूसरे दिन राडियास ने अपने मीत्रों को आखेट पर जाने का निमंत्रण भेजा और जानबुज कर अपना डेरा पाटण के मेहमानो के नजदीक में रखवाया । ताकि रोज कोई न कोई बहाने से उन्हें राजकुमारी के दर्शन मिल सके । फ़िर क्या था ?सारे दोस्तो के हांमी भरते ही सब निकल पड़े आखेट पर...! लेकिन आखेट था कीसका जंगली जानवरों का या राजकुमारी का ?क्यूंकी रा की हरकतों से तो यही मालूम पड़ रहा था ! पुरा दिन बस अपने ही डेरे के पास घुमना,खीड्कीयों से छुप-छुप के राजकुमारी को जांखना, जंहा पाटण के मेहमान उपस्थित हो वंही बार-बार जाना, उनके सामने देख मुस्कुराना,बार-बार राज परीवार की खबर पूछने पोंहच जाना ये सब देख के तो कोई भी राडियास की हालत को पेहचान जाता ।राउनकी सिर्फ एक जलक के लिये पूरा दिन उनके पीछे-पीछे भागते रेहते और केहते रेहते...

ओ रेहनुमा जरा गौर कर ,

रुखसद नां हो ,रुख मौड़ कर ,

गायब नां हो मेरी रुंह पर ,

यूं छाप तेरी छोड़ कर ,

होजा जरा

दीदायतर,दीदायतर,दीदायतर......

है कड़ी बेसुद घड़ी ,चल रहा नां ज़ोर ,

ख्वाहीशे ज़ीद पर अड़ी, कर रही हैं शोर,

हैं ये केसी चाहत,दर्द में भी राहत ,

जाना चाहु दूर मगर आ रहा तेरी और,

दीदायतर,दीदायतर,दीदायतर....

रा की हालत को राजकुमारी शायद समझी ना समझी मगर उनकी माँ जरूर समझ गई थी । पाटण की महाराणीने राडियास के मनसूबो को पेहचान कर तुरंत राजकुमारी को धमकाके बाहर घुमना-फ़ीरना बंध करवा दिया और जल्द से जल्द पाटण वापस लौट जाने का नीर्देश दे दिया ।

ये बात जब अजीत को पता चली तो वो सीधा भागा-भागा रा के पास आया और उन्हें सारी बात बताई । राडियास उसकी बात सुन एकदम से घबरा गए । लगा की अब उनकी ये प्रेम कहानी बस यंही अधुरी रेह जाएगी : मगर वो इतनी आसानी से एसा कैसे होने दे सकते थे ?उन्होने तुरंत ही हड्बड़ाहट में किसी से बिना सलाह-मश्वरा किये ही अजीतसिंह के हाथो पाटण की महाराणी के पास विवाह का प्रस्ताव भीजवा दिया ।

पाटण का काफीला अभी वापस जाने को तैयार हो ही रहा था कि अजीतसिंह महाराणी से बात करने पोंहच गया ।महाराणी ने उसका मान रखते हुए उसे आग्रह कर बैठाया । अजीतसिंह उन से प्रवास में किसी तरह की तकलीफ या अव्यवस्था के बारे में पूछने लगा ।इतने दिनो में अजीत ने उनलोगों की काफी सेवा की थी । महाराणी भी उसे अपना भाई मानती थी । तो वै उसके भाव को समझ कर अपने प्रवास के दोरान हुई सारी अच्छी-अच्छी बाते बताने लगी । अब द्रश्य ये था कि महाराणी एक तरफ अजीतसिंह को अपने प्रवास के बारे में बता रही हैं और पीछे सारे सेवक उनका सामान बेड़ो में रख रहे थे । बात के बीच-बीच में अजीत बार-बार राकी उदारता ,शौर्य और वीरता के भी बखान करते जा रहा था । फ़िर बातों ही बातों में उसने एक अच्छा सा मौका देख के विवाह की बात छेड़ दि...

‘’तो महाराणी लगता है की अब मुझे यंहा से जाना चाहीये :मगर जाने से पेहले मैं आपके आगे एक प्रस्ताव रखना चाहता हूँ । ‘’

‘’प्रस्ताव ?....कैसा प्रस्ताव ?’’महारणी ने ध्यान धरा।

‘’विवाह का प्रस्ताव!

अब महाराणी आप तो जानती ही होंगी कि गुजरात और सोरठ के बीच संबंध काफी सालो से बिगड़े हुए थे । पर अब जब वो धीमे-धीमे सुधर नें ही लगे हैं तो हमारे महाराज सोचते है कि क्यूँ न इस संबंध को और भी मीठा बना दिया जाए...?‘’

‘’मतलब ?मैं कुछ समझ नहीं पाई । ‘’

‘’जी....वोह दरअसल महाराणी मैं ये केह रहा हूँ की अगर आपकी बड़ी राजकुमारी जुनागढ़ की रानी बन जाए तो ...?यानि कि हमारे महाराज को आपकी बड़ी राज कुमारी बहोत पसंद आई और वो उनसे विवाह करना चाहते हैं ।

अगर आपको कोई आपत्ती ना हो तो …! ‘’

महाराणी को जिस बात का ड़र था आखिर में वही हुआ । बस इतना ही सुन ना भर बाकी था कि उनके भिंतर लाखो ज्वालामुखी एक साथ फटने लगे । तन-मन में जैसे आग सी लग गई । मन तो हो रहा था के सामने बैठे उस इंसान के पेट में अपनी कटार पीरोंदे पर अभी वोह उनके राज में थी । तो यंहा उनको कुछ केहना मतलब मौत को दावत देना । भलाई इसी में थी कि वोह बस चुप रेह कर उनकी हाँ मे हाँ मिलाती रहे ।

‘’ आखिर मेरी पुत्री को इतना बड़ा ससुराल मिले ,धन-धान्य से सु:खी वैभवशाली राज मिले तो इसमे भला हमें क्या आपत्ती हो सकती हैं ?मैं तो आपके इस प्रस्तावसे बड़ी ही खुश हुई । पर विवाह का नीर्णय तो महाराज के हाथ में ही होता है ना !अगर वोह मान जाए तो हम तुरंत आपको विवाह के लिये सुचीत करेंगे...।‘’

‘’जी महाराणी’’

‘’तो अब हमे निकल ने की आज्ञा दीजिये ।

जय सोमनाथ ‘’

‘’जय सोमनाथ ‘’

इसके बाद महाराणी पाटण के रास्ते चली गई और अजीतसिंह उनकी बातों को सच मान कर दौड़ा-दौड़ा येह खुशखबरी राडियास को सुनाने आ गया । राभी उसकी बात सुन बड़े ही प्रसन्न हो गए । आखिर कार कब से जीसकी आस लगाए बैठे थे वोह उन्हें मिल ही गया ये सोच राका मन खुशी से फूले नहीं समा रहा था । पुरी मेहफिल इस खुश खबरी को सुन कर जूम उठी ।और रानीत्चिंत होकर सोलंकीराज के‘’हाँ...‘’की राह देखने लगे ।

इस समय :-

आज आखिर कार राडियास के इंतज़ार का अंत आ ही गया । दूर से आ रहे काफिले के ऊपर लेहराता सोलंकी राज का ध्वज रा पेहचान गए । मन में उत्साह उमड़ने लगा ,सपने फिर उजागर होने लगे ,राजकुमारी की शक्ल एक दम से आँखों के सामने घूमने लगी और खुशी की लहेर माथे पें छाने ही वाली थी कि एक हवाँ को चीरता हुआ तीर सीधे रा खड़े थे उस जरूखे की दीवार में आ लगा ।तीर के साथ एक पत्र भी लगा हुआ था ।रा ने तीर को अलग कर पत्र को पढ़ना शुरू किया ...

‘’जुनागढ़ के राजा राडियास को पाटण के राज दुर्लभसेन की ओर से ये सुचीत किया जाता हैं की सोरठ के प्रवास पे आए उनके परीवार के घोर अपमान के कारण गुजरात उनपे हमला कर रहा हैं । ‘’

पाटण की महाराणी ने वापस पोंहच ते ही सारी बात राजा दुर्लभसेन के सामने रख दि थी ।राडियास का यूं राज कुमारी के पीछे-पीछे घुमना,उनको छुपछुप जांखना,बार-बार हाल-चाल के बहाने उनके समीप आने की कोशिश करना और आखिर में एक मामुली से सेवादार के हाथो विवाह का प्रस्ताव भीजवा कर उनका मान भंग करना । इन सारी बातों को महाराणी ने काफी बढ़ा-चढ़ा कर पैश की थी । एक तो पाटण और सोरठ के संबंधो में पेहलेसे ही वीष घुला हुआ था और ऊपर से दुर्लभसेन काफी समय से बस जुनागढ़ के उपर चढ़ाई करने का अवसर ही ढूंढ रहे थे । जो उनको राडियास ने सामने से दे दिया ।

पत्र के खतम होते ही लाखो बाण की ऊपरकोट पर बोछार होने लगी । बाहर से सैनीक अंदर आने को मशक्कत करने लगे ,नगाड़े ,शंख आधी का नाद करके युद्ध का ऐलान कर हजारों पट्टणी सिपाही ऊपरकोट पर चढ़ाई करने दौड़ आए :मगर उन्हे कंहा पता था कि जुनागढ़ की रक्षा के लिये खास बनवाया गया रारिपु का ये अडीखम उपरकोट किल्ला भेदना लगभग नामुमकिन सा हैं और ऊपर से सोरठ की सेना को पार करना उससे भी ज्यादा मुश्किल ।

देखते ही देखते पूरा हफ्ता निकल गया । पाटण की सेना किल्ला भेदना तो दूर एक पत्थर भी नहीं हिला पाई थी । कई तरह कि योजनाओ के बाद भी उन्हें सफलता का मुह देख ना नसीब ना हुआ । रोज़ रात को निराश होकर लौटती सोलंकी सेना बस यही सोच में आधी हो रही थी के इस अभेद किल्ले को आखिर तोड़ा कैसे जाए । आज़माई हुई हर तरकीब ,हर योजना ,हर नुस्खा नाकाबिल साबीत हो रहा था : लेकिन उनके हर रोज़ के प्रचंड हमले के कारण कई सोरठ के सैनीक भी रोज़ वीरगति को प्राप्त हो रहे थे । रोज़ सेंकड़ों सैनीको की लाशे जलायी जा रही थी । रोज़ कई बच्चे अनाथ हो रहे थे ,कईं औरते विधवा हो रही थी । उनके चिंखने की आवाज़े रोज़ ऊपर कोट में गूंज बन घूमती रेहती ।

अनाथ हुए बच्चो का रुदन रोज़ राडियास को अंदर ही अंदर से तोड़े जा रहा था । इतना खून इतना खराबा,इतनी मौते,ये सब चिचियारी आखिर किसके कारण ?बस उनकी एक छोटी सी इच्छा के कारण...!उनकी वजह से रोज मौत के घाट उतरने वाले लोगों को देख राडियास का अंतर चिल्ला उठा । बोलने लगा कि...

‘’कैसा कायर राजा हैं तू जो अपनी आँखों के सामने अपने ही लोगों को रोज़ मरता देख भी चुपचाप किल्लेमें किसी कायर के भांति छुप कर बैठा हैं । अपने गौरव शाली कुल का नाम मिट्टी में मिला रहा हैं । है अगर असली रा तो उठ खड़ा हो और काल बन टूट पड़ दुश्मन सेना पर । ‘’

रा ने तेय किया कि वोह अगले दिन युद्ध पे उतरेंगे । सारी सेना को भी युद्ध के लिये सज्ज होने का आदेश दे दिया गया। उसी रात को राजा ने अपने एकलौते नवजात पुत्र ‘’नवघण’’ को भी महेल में काम करने वाली एक स्त्री के हाथो छुपके से उनके खास मीत्र और रानीजी के मुहबोले भाई ‘’देवायत बोदर ‘’के घर ‘’बोड़ीदर’’गाँव भिजवा दिया । कि शायद उनकी हार हो तो वोह छोटा बालक तो जीवीत रहे । उस बेचारे को आखिर इस राजकपट से क्या लेना देना था ।

दूसरे दिन ऊपरकोट के केवाड़ खोल के युद्ध का बिगुल बजा दीया गया । एक तरफ थी हजारों की पटणी सेना तो दुसरी तरफ थे सोरठ के बस कुछ मुट्ठी भर सैनीक । देख के तो एसा लगता के पाटण की जीत तो बड़ी ही सहेज हैं । ये हजारों वोह सिर्फ कुछेक बस....!जीत तो सोलंकीयो की ही नीच्छित लग रही थी । युद्ध शुरू हुआ । लाखो पट्टणी सैनीक रा को मारने दौड़े आए पर उनके लीये राको छु पाना भी मुश्किल था । राकी भुजाओ में छुपा अनंत बल सोलंकीयो पे देखते ही देखते भारी पड़ ने लगा । काल जैसे आज एक मानव बन कर जान लेने पें आतुर हुआ था । जैसे के गीर का कोई भुखा केसरी सिंह आज शिकार पे निकला हो । जो जीतना खुन देखता उतना ही ज्यादा भूखा होता । चारो तरफ लाशों के ढेर लगने लगे । बजरिया रंग की माटी ने लाल रंग ओढ़ लिया । पट्टणी सैनीको की संख्या तेझी से कम होने लगी । आज राडियास को रोक पाना जैसे नामुमकीन सा था ।एक प्रहर,दोप्रहर ,तीन प्रहर और चौथा प्रहर होते-होते तो सोलंकीयो की जीत देखते ही देखते हार में बदल ने वाली थी :मगर शाम हो गई । नियम के अनुसार दिन ढलने के बाद युद्ध नीषेध था इसलीये ऊपरकोट मेंसे शंख फुक के युद्ध के आज दिन की समाप्ती की घोषणा कर दि गई ।

शंख नाद सुन सोरठी सेना वापस लौटने लगी । रा ने भी अपना घोडा वापस मोड़ा और अपना रुख ऊपर कोट की ओर कर परत जाने लगे ।आज के द्वंद से पाटण की सेना ये जान गई थी कि कल भी अगर एसे ही युद्ध हुआ तो शायद वोह हार जाए : लेकिन कई हफ़्तों के इंतजार के बाद वोह हार कर वापस भी कैसे जाते ?तो उनलोगों ने तेय कीया कि राको ही आज यंही मार देते हैं ।

राअपने आज के शौर्य पर गर्व करते हुए बडी ही खुशी से वंहा से जा रहे थे कि पीछे से किसी सैनीक ने राके घोड़े पर वार कर राडियास को नीचे गीरा दिया और जब-तक राखुद को संभाले न संभाले इससे पेहले तो एक तेज़ी से आते तीर ने उनकी छाती भेद दी । वोह उस तीर को नीकाल ने की कोशिश करे इससे पेहले तो एक और सैनीक आ कर उनकी पीठ पर तलवार से ज़ोर का वार कर देता हैं और फिर चारो तरफ से उनको घेर कर सारा कटक एक नीहथ्थे राजा पर बरस पडा । पुरी पट्टणी सेना एक बेचारे अकेले आदमी पर नपुंसक की तरह अपना शौर्य दिखाने लगी ।राका सर बड़ी ही बेशर्मी से धड़ से अलग कर दिया लेकिन आखिर में कपट से तो कपट से ...!मगर पाटण की सोरठ पर जीत हो ही गई ।

राडियास के वीरगती प्राप्त करने के समाचार के साथ ही उनकी तीनों रानीयों ने भी जौहर की आग में प्राण त्याग दिये ।ऊपरकोट पे से राका परचम उतार कर सोलंकीयों का जंडा लेहरा ने लगा ।कुछ ही देर में धींगाणा (डाका) भी शुरू हो गया । घर जलने लगे ,गेहने चोरी होने लगे,औरतो और कन्याओं को उठाना शुरू हो गया ,धन की भी लुट मच गई और इज्जत की भी...!धन धान्य से सु:खी जुनागढ़ सारा रातो-रात तहेस-नहेस हो गया ।

मगर इसी बीच बोडीदर गाँव में देवायत बोदर के घर रानवघण को संभाल के पोंहचा दीया गया। देवायत बोदर एक छोटे से गाँव का आम आदमी था । जो अपनी गायों-भेंसों को चरा कर और खेतीबाड़ी कर अपना गुज़रान चलाता था । पुरे सोरठ में बस एक वही थे झीनपे राडियास को पुरा भरोसा था । ऊपर से महाराणी राजबाई के लिये भी वोह बड़े भाई जैसे थे ।तो उनको लगा कि बस उनके ही पास रानवघण बिलकुल सुरक्षीत रहेगा ।

एक तरफ सोलंकी राजा एक सुबेदार को जुनागढ़ की सत्ता सौप कर वापस पाटण चले गए तो वंही दुसरी तरफ रानवघन बड़े ही लाड़-कोड से देवायत के घर बड़ा हो रहा था । देवायत की खुद की भी दो संताने थी । एक बेटा ‘’वाहल’’और दुससी फुल सी कोमल बच्ची‘’जांहल’’। इन दोनों के साथ रानवघन को भी देवायत अपने बेटे की तरह बड़ा करने लगे ।देवायत की पत्नी‘’सोनल’’ के लिये रानवघण भी खुद का ही बेटा था ।झीसको भले ही उसने खुद ने जन्म ना दिया हो मगर भाग्य ने उसे उसकी गौड़ में रख दिया था ।

हस्ते खेलते करीब पाँच साल निकल गए । बच्चो के साथ खेलने में देवायत और सोनल का जीवन खुशहाली से बित ही रहा था के एक दिन काल के पग देवायत की चोखट पर पड़े ।जुनागढ़ से एक अस्वार उसे पंचायत में बुलाने आया । किसी ने सुबेदार को बातमी दि थी की राका वंश देवायत के घर पे पल रहा हैं ।

देवायत पंचायत में हाजिर हुआ। उनको मिलने जुनागढ़ सताधिन सुबेदार खुद आया था । देवायत को देख वोह अपनी गद्दी का रौब जाड्ते हुए बोला....

‘’क्या तुम ही देवायत बोदर हो ?झिसके घर रा का बेटा पल रहा हैं‘’

‘’जी साब । मैं....ही....वो देवायत हूँ झीसके घर राका वंश पल रहा हैं । ‘’

देवायत ने सारा भेद बिना डरे सुबेदार के आगे खोल दिया । सुबेदार तो उसकी बेबाग बात सुन भड़क उठा....

‘’क्या देवायत भूल गए क्या ?कि अब रा का नहीं सोलंकीयों का राज हैं ?राके बेटे को बड़ा कर के क्या उसे गादी पे बीठाना चाहते हो?राज से विद्रोह करोगे ?’’

‘’क्या?साब!हमारी इतनी ताकत कंहा कि हम सोरठ के राज से लड़ सके। हम तो आम सी रैयत हैं जो अपनी गायों-भेंसों को चरा कर अपना गुजारा करते हैं । आखिर हमे इन राज-पाट की बातों से क्या लेना देना ?

ये तो राजा ने बिना बताए अपना हपेतरा (सामान/ज़िम्मेदारी )मुझे पकड़ा दीया और वोह मेरी पत्नी उसे अपना बेटा समझ कर पाल ने लगी । नहीं तो मैं तो आपको कबका इसे सौप चुका होता !’’

‘’हाँ तो अब सौप दो! ‘’

‘’अरे महाराज जैसा आप कहे ...!मगर कुछ इनाम –विनाम ....?’’

‘’हाँ...हाँ....वोह भी मिलेगा !पर पेहले उस रा के बच्चे को यंहा ला! ‘’

‘’जी साब... ‘’

केह कर देवायत ने अपनी पत्नी सोनल को तत्काल कागज भेज के रा को सौपने को कहा । देवायत...!जिसे रानी राजबाई अपना भाई मानती थी वोह इतना नीच नीकलेगा ये किसे पता होगा । बेचारे राडियास ने उसपे भरोसा करके अपना बच्चा सौंपा और उस ने बस थोड़े से धन के लालच में उनका भरोसा बैच दिया । शायद किसी को नहीं पता होगा के देवायत इतना मेला नीकलेगा ।

अस्वार ने देवायत के घर पोंहच कर पत्र सोनल के हाथ में दिया सोनल उस पत्र को पढ़ने लगी ।

उसमें लिखा था कि...’’अगर रा सुबेदार को ना सौपा गया तो वोह उन्के भी बच्चो को राके साथ मार देगा । ‘’

देवायत बड़ी अच्छी तरह से जानता था कि सोनल के पास से बच्चे को कैसे निकल वाया जाए । अपने दोनों बच्चो को मारने की बात सुन वो डर गई । किसी के बच्चे को अपना बना के पालना तो आसान है पर उसके लिये कोई अपने बच्चो को थोड़ा मरने देगा!उन्हें लगा कि अगर तीनों बच्चे मर गए तो ...?थोड़ा सोच-समझ ने के बाद सोनल ने उस अस्वार को रानवघन सौप दिया ।उसने रनवघण को सौप तो दिया मगर उसे मौत के मुह में जाते देख खुद भी ना रेह पाई । इतने सालों से जो खुद का बच्चा बन रेह रहा था उसे आखिर वो एसे ही कैसे एक जटके से अलग होने देती । सोनल भी वाहल और जांहल को लेकर पंचायत को चल पड़ी।

अस्वार राके बच्चे को लेकर पंचायत में हाजिर हुआ ।देवायत बच्चेकों सौपते हुए बोला...

‘’लो ये लीजीये आ गया आपका शत्रु। ‘’

सुबेदार ने उसे शंकाशील नज़रों से बड़े ही ध्यान से देखा और बोला...

‘’वाह देवायत वाह...!हम बड़े खुश हुए तुम्हारी वफादारी देख के...!हाँ पर अब काम शुरू किया ही हैं तो इसे आधा क्या छोड़ना? जरा इसे अपने ही हाथो से मार भी दो ना !’’

‘’क्या साब शक हैं कंही ये मेरा बेटा तो नहीं ?

अरे इतना भी मेरा कोई भाईचारा नहीं था राडियास के साथ के उसके लिये अपना वारीस कुर्बान कर दूँ । पर कोई बात नहीं साब...!आप भी अपनी संतुष्टि कर लीजिये । ’’

बोलकर देवायत ने अपनी ही तलवार से राके बेटे को बड़ी आसानी से मार दिया के जैसे उसे उससे कोई लगाव ही ना हों । सुबेदार तो देवायत की राष्ट्रभक्ति देख बड़ा ही खुश हुआ ।उसे खुशी-खुशी गले लगा लिया और उसको भेट-उपहारो से लाद दिया । सुबे की खुशी आज सातवें आसमान पर थी और आखिर क्यूँ न हो ?उसके राज का आखरी दुश्मन जो मारा गया था । देवायत को अब उसके अपने खास आदमीयों में शामील कर लिया और वंहा से फिर जुनागढ़ रवाना हुआ ।

सब लोगो ने ये मान लिया कि अब रा का वंश खतम हुआ । पर कोई भी ये नहीं जानता था के देवायत ने सचमे अपने ही बेटे वाहल को रानवघण बता कर खुद के ही हाथो से मार दिया हैं । इस बात को बस सोनल और देवयात अपने सिने में छुपा कर बड़ी सावधानी के साथ जीने लगे ।

***