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पश्चाताप

पश्चाताप

रात के बारह बज रहे थे, लेकिन राधारमण जी की आंखों से नींद मानो कोसों दूर थी। पलंग पर बड़ी बेचैनी से वह करवटें बदल रहे थे। घर में वह बिल्कुल अकेले थे। पत्नी लोला स्थानीय क्लब के वार्षिक समारोह में गई हुई थी। बेटा अनिरुद्ध तो रात के एक बजे से पहले कभी घर लौटता ही नहीं। रोज अपने मनचले दोस्तों की मंडली के साथ डिस्कोथेक, पिक्चर, पार्टियों में व्यस्त रहता। बेटी प्रिया भी जवानी के जोश में डिस्कोथेक, दोस्तों, पार्टियों में व्यस्त रहा करती तथा रात के बारह बजे से पहले कभी घर नहीं लौटती। पत्नी से कह कह कर वह हार गए थे, जवान बेटी पर अंकुश रखें, लेकिन हर बार पत्नी उनकी बात यह कहकर मखौल में उड़ा देती कि वह बहुत पुराने विचारों के हैं। आज के आधुनिक युग में बेटा बेटी अगर अपना वक्त अपने दोस्तों के साथ मौज-मस्ती में बिताते हैं तो उसमें आखिर हर्ज ही क्या है, और वह बेटे बेटी की उन्मुक्त जीवन शैली को देख देख कर झींकते रह जाते। पत्नी की जिस आधुनिकता पर रीझ कभी उन्होंने उसे वरा था, जीवन के इस मोड़ पर वही आधुनिकता अब उनके गले की फांस बन गई थी।

कभी-कभी उन्हें लगता, विधाता उन्हें अपनी पूर्व पत्नी के प्रति किए गए घोर अन्याय का गिन गिन कर उनसे बदला ले रहा है। बरसों पहले जवानी के जोश में वह किस निर्दयता से अपनी सीधी सरला पत्नी निर्मला को त्याग आए थे, दुधमुंही तीन बेटियों के साथ, न जाने अब वह कहां किस हाल में होगी? उनकी बेटियों का क्या हश्र हुआ होगा?

तभी घर का मुख्य दरवाजा खुला और उन्होंने दरवाजे की आड़ से देखा, सिगरेट का धुआं उड़ाती उनकी बेटी अपने कमरे की ओर बढ़ी थी। यह क्या देखने को वह बचे हैं। बेटी खुलेआम सिगरेट पीने लगी है। बेटी को इस बदहाल में देखने के बाद राधारमण जी को लगा था, उनकी सांसें उखड़ने लगी है कि तभी दरवाजा खड़का और उन्होंने देखा, उनका बेटा शराब के नशे में झूमता हुआ घर में घुसा था। राधारमण जी को लगा, उनका दम निकल जाएगा करीब आधे घंटे बाद इत्र से महकती गमकती, गहनों से लदी फ़दी उनकी पत्नी घर में घुसी थी, जिसे देखते ही उनका रक्तचाप बढ़ गया तथा वह चिल्ला उठे, "रात के एक बजे हैं और तुम्हारा अब वक्त हुआ है घर में घुसने का? भले घर की शरीफ़ बहू बेटियों का क्या यह वक्त होता है घर आने का? खुद के तो लक्षण इतने निराले हैं, बच्चों को भी अपने रंग में रंगने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कुछ पता है दोनों अभी अभी घर में घुसे हैं।"

जवाब में उनकी पत्नी भी कर्कश स्वरों में चिल्ला उठी, "आप तो बुढ़ापे में सनक गए हैं। न खुद जिंदगी का मजा लूटते हैं ना हमें जिंदगी का लुत्फ़ चैन से उठाने देते हैं। बच्चे जवानी में मौज मस्ती नहीं करेंगे तो क्या बुढ़ापे में करेंगे?"

पत्नी के ये कटु स्वर सुनकर उनकी इच्छा हुई कि वह उसका सर फोड़ डालें। लेकिन अपने गुस्से को नियंत्रित करते हुए वह वापस अपने पलंग पर लेट गए। ऐसे क्षणों में उन्हें अपनी सरला पूर्व पत्नी निर्मला बहुत याद आने लगी थी। उसकी धीर गंभीर वाणी उनके कानों में गूंजने लगती, जिससे कभी वह बेहद चिढ़ा करते थे ।

एक छोटे से कस्बे में जन्मे राधारमण जी बचपन से अति कुशाग्र बुद्धि के थे। कॉलेज में अच्छे परिणाम की बदौलत उन्हें डॉक्टरी में दाखिला मिल गया। डॉक्टरी में दाखिला मिलते ही उनके पिता ने जबरदस्ती उनके ना चाहते हुए भी उनकी शादी एक धनी घराने की सुंदर, सुशील कन्या निर्मला से कर दी। डॉक्टरी पास करते-करते निर्मला ने उन्हें तीन तीन सुंदर बेटियों का पिता बना दिया। बाद में वह सरकारी नौकरी में लग गए। उसी नौकरी में लोला नाम की एक क्रिश्चियन नर्स से उनका परिचय बढ़ा तथा धीरे-धीरे वह उसके प्रेमपाश में बुरी तरह जकड़ गए। लोला के प्रेम का नशा उन पर इस बुरी तरह हावी हो गया कि उसके प्यार में वह अपनी सीधी-सादी पत्नी निर्मला तथा अपनी तीन नन्ही बेटियों को भी भुला बैठे। निर्मला उनके पिता के कस्बे के पैतृक मकान में रहा करती थी। पिता की मृत्यु हो चुकी थी। केवल उनकी मां निर्मला के साथ रहा करती। दिल्ली से वह सप्ताहांत पर ही घर आया करते। लेकिन लोला से प्रेम की पेंगे बढ़ने के बाद उन्हें महीना महीना भर हो जाया करता घर आए हुए। मां की मृत्यु के बाद तो वह जैसे और निडर हो गए थे तथा दो दो महीने निर्मला के पास नहीं आते।

लोला ने जब उनपर विवाह के लिए ज्यादा जोर डाला तो एक दिन वह भोली निर्मला से तलाक के कागजों पर धोखे से हस्ताक्षर करवा कर ले गए और उन्होंने निर्मला को अपना कठोर निर्णय सुना दिया, "तुमने मुझे एक बेटा पैदा करके नहीं दिया। बेटे की वजह से मैं दूसरी शादी कर रहा हूं। मुझे अपना वंश बढ़ाने के लिए एक बेटा हर हाल में चाहिए। भविष्य में मुझसे मिलने की हर्गिज कोशिश नहीं करना। तुम्हारा और बच्चों का घर खर्च घर के किराए की आमदनी से चल जाएगा। किराए की आमदनी पर हमेशा तुम्हारा ही अधिकार होगा। बस मुझसे मिलने की कोशिश कभी मत करना। तुम्हारा मेरा रिश्ता खत्म।" यह कहकर सिसकती निर्मला को छोड़ जब दिल्ली आए तब से वहीं लोला के साथ बस गए ।

लोला जैसी अत्याधुनिक युवती से विवाह कर वह परम संतुष्ट थे। अब वह लोला को अपने पढ़े-लिखे डॉक्टर मित्रों के सामाजिक दायरे में गर्व से अपनी पत्नी के रूप में परिचय कराते। धीरे-धीरे वह अपनी डॉक्टरी में अत्यंत व्यस्त होते गए। डॉक्टरी के पेशे में वह अत्यंत सफल रहे। एक कुशल सर्जन के रूप में उन्हें अपार सफलता मिली तथा धीरे-धीरे उन्होंने अपना निजी नर्सिंग होम खोल लिया। दिल्ली तथा आसपास के क्षेत्रों में उनके तीन बढ़िया नर्सिंग होम चल रहे थे।

लोला ने उन्हें एक बेटा और एक बेटी दी थी। बचपन में वे दोनों उनकी आंखों के तारे हुआ करते। लोला उनकी गृहस्थी की वैसी देखभाल नहीं कर पाती जैसी कि उन्हें अपेक्षा थी। लोला घर गृहस्थी, बच्चों में संतुष्ट रहने वाली युवती नहीं थी। वह घर के बाहर अपनी सहेलियों में ज्यादा सुखी रहती। उसका सामाजिक दायरा अत्यंत विस्तृत था। न जाने कितने क्लबों की तो वह सदस्या थी। आए दिन वह अपने विभिन्न क्लबों की विभिन्न गतिविधियों में व्यस्त रहा करती। बच्चे जब छोटे थे तो वे नौकरों और आया के भरोसे रहकर पले। जैसे जैसे बच्चे बड़े होते गए, वे भी मां की देखा देखी घर से बाहर ज्यादा वक्त बिताया करते। दोनों बच्चों की अपनी-अपनी विस्तृत मित्र मंडली थी तथा दोनों उस में देर रात तक व्यस्त रहा करते। राधा रमण ने कई बार लोला को बच्चों की शिक्षादीक्षा की ओर ध्यान देने के बारे में समझाने की कोशिश की लेकिन लोला पर इसका कभी कोई असर नहीं होता। यही वजह थी कि दोनों ग्रेजुएशन तक नहीं कर पाए तथा बीच में ही दोनों ने पढ़ाई छोड़ दी।

सुबह राधारमण जी उठे तो उनका सर अत्यंत भारी था। रात से ही वे अत्यंत क्षुब्ध थे तथा सुबह सवेरे नौकर से चाय बनवा कर पीकर वे अपनी गाड़ी ले दिल्ली के पास के कस्बे के नर्सिंग होम की ओर चल पड़े।

नर्सिंग होम जाकर उन्होंने देखा, नर्सिंग होम की एक कनिष्ठ डॉक्टर स्निग्द्धा अपनी रात की ड्यूटी पर बड़ी मुस्तैदी से अपनी सीट पर बैठी हुई थी। उनके के नर्सिंग होम में जब से वह डॉक्टर आई थी, उस में स्त्री रोगों के मरीजों की संख्या में अनअपेक्षित उठाव आया था। वह डॉक्टर एक कुशल सर्जन थी तथा अत्यंत कम समय में बहुत प्रसिद्ध हो गई थी। वह युवती न जाने क्यो राधारमण जी को बहुत अच्छी लगा करती। उसे देख अनजाने ही वह ममता से मानो भीतर तक भीग जाते। व्यवहार से वह इतनी शालीन तथा बड़े बुजुर्गों को मान सम्मान देने वाली लगती कि उससे बातें कर राधारमण जी बड़ी संतुष्टि महसूस किया करते।

रविवार को नर्सिंग होम पहुंचने पर उन्हें पता चला कि डॉक्टर स्निग्धा उस दिन छुट्टी पर थी। राधारमण जी से न जाने क्यों उस दिन डॉ स्निग्द्धा से मिले बिना नहीं रहा गया और वह नर्सिंग होम के परिसर में बने डॉक्टरों के फ्लैट्स की ओर चल दिए। स्निग्धा के फ्लैट के दरवाजे पर पहुंचते ही वह ठिठक कर रह गए। भीतर से स्निग्द्धा की मधुर आवाज में रामायण के सुंदरकांड पाठ की आवाज ठीक उसी लहजे से आ रही थी जिस लहजे में उनकी पूर्व पत्नी बीते दिनों में गाया करती थी। भीतर ड्राइंग रूम में वह स्निग्द्धा की प्रतीक्षा करने लगे। चंदन का तिलक लगाए सद्यःस्नाता स्निग्द्धा ने आकर उनके चरण स्पर्श किए तथा उन्हें भगवान का प्रसाद दिया। राधारमण जी ने स्निग्द्धा से पूछा, "क्यों बेटी, इतनी व्यस्त दिनचर्या में भी भगवान की पूजा का वक्त निकाल लेती हो?"

"सर, मेरी मां ने बचपन से हमारी आदत डाल दी है कि नहाने के बाद रामायण की कुछ चौपाइयों का पाठ किए बिना हम बहनें कुछ खाती नहीं हैं। कल रात से मां को बहुत तेज बुखार आ रहा है इसीलिए मुझे आज की छुट्टी लेनी पड़ी।"

"मां की तबीयत खराब है, चलो अपनी मां से मिलवाओ तो सही मुझे।"

"हां सर, चलिए भीतर।"

अगरबत्ती और धूप की भीनी भीनी खुशबू से महकते कमरे में जैसे ही उन्होंने प्रवेश किया, सामने पलंग पर लेटी महिला को देखकर उनके पांव जड़ हो गए तथा जुबान को जैसे लकवा मार गया। वह प्रौढ़ा महिला और कोई नहीं थी, उनकी पूर्व पत्नी निर्मला थी। निर्मला भी उन्हें देखकर चौंक गई थी। लेकिन उसने शीघ्र ही अपने आप को संयत कर लिया। स्निग्द्धा ने उनका परिचय अपनी मां से कराया, "मां यह नर्सिंग होम के हमारे सर हैं। नर्सिंग होम इनका ही है और यह मेरी बहन चंदना है। यह पुलिस विभाग में उप पुलिस अधीक्षक है तथा यह मेरी छोटी बहन अमृता है। इस ने अभी-अभी इंजीनियरिंग की अंतिम वर्ष की परीक्षा दी है। दोनों अति आकर्षक युवतियों ने उन्हें आदर से प्रणाम किया।

, अपनी तीनों बेटियों को जीवन में इतनी अच्छी तरह से व्यवस्थित देखकर राधारमण जी की खुशी का पारावार न रहा था, लेकिन दूसरी ओर अगले ही क्षण वह घोर पीढ़ा से भर उठे। इतनी प्यारी बेटियों का पिता हो ने का सौभाग्य प्राप्त होने पर भी वह उन्हें बेटी कहकर नहीं बुला सकते थे ।

तीनों बेटियां बीमार मां की सेवा सुश्रुषा में व्यस्त थी। अमृता मां के माथे पर बर्फ की पट्टी रख रही थी तो चंदना उन्हें दवाई देने में व्यस्त थी। यूं बेटियों को मां की परिचर्या में व्यस्त देख उनके सीने में एक हूक सी उठी। वह भी तो अभी पिछले पखवाड़े बीमार पड़े थे। लेकिन उनके बीमार पड़ने पर उनकी पत्नी और बच्चों ने उनकी सेवा करना तो दूर, वे उनके पास घर पर टिके तक नहीं थे। बीमारी की हालत में भी पत्नी और बच्चे उनकी जरा भी परवाह नहीं करते हुए सारा सारा दिन घर से बाहर रहते तथा वह अकेले अपने कमरे में पड़े रहते। उन्होंने सोचा, किस्मत वाली है निर्मला जो उसे इतनी अच्छी संवेदनशील बेटियां मिली है और एक दिन इन्हीं बेटियों को बेसहारा छोड़ वह उनकी जिंदगी से निकल आए थे, अत्यंत क्षोभ और संताप से उन्होंने सोचा ।

उस दिन सोमवार था। स्निग्द्धा आपरेशन थिएटर में व्यस्त थी। वह यूंही नर्सिंग होम के परिसर में उद्देश्यहीन घूम रहे थे कि उन्होंने देखा, दूर सड़क पर चंदना तथा अमृता कहीं जा रही थीं। तत्काल ही उनके जेहन में सोच कौंधा, निर्मला घर में अकेली होगी। उससे अकेले में मिलने का अच्छा मौका है। यह सोच वह द्रुत गति से स्निग्द्धा के फ्लैट की ओर चल पड़े। उन्होंने उसके फ्लैट का दरवाजा खटखटाया। भीतर से निर्मला निकली थी। उसने उनसे कहा, "घर में तीनों में से कोई नहीं है। आप यहाँ से चले जाइए।"

उन्होंने उससे कहा, "मैं अभी चला जाऊंगा। बस एक बार मेरी बात सुन लो। बहुत दिनों से सोच रहा था, तुम से मिलने के विषय में, तो आज चला ही आया। निर्मला, तुमने मेरी बेटियों का पालन पोषण बहुत अच्छे ढंग से किया है। मुझे कभी कभी बहुत पश्चाताप होता है, मैंने तुम्हारे साथ बहुत अन्याय किया। बेवज़ह तुम्हें इतना सताया। खैर, विधाता ने तुम्हारे साथ पूरा न्याय किया है। तुम्हें इतना प्यार करने वाली सुघड़, संस्कारी, लायक बेटियाँ दीं हैं। उनके रहते अब तुम्हें जिंदगी से कोई शिकायत नहीं होगी। मुझे गम है तो सिर्फ़ इस बात का कि मैंने इतनी प्यारी, योग्य बेटियों का बाप कहलाने का हक स्वयं अपने हाथों खो दिया। खैर विधाता ने मुझे अपने किए अन्याय की सजा दे दी है। लोला, मेरी बीवी से मेरा एक बेटा और बेटी हुई है लेकिन दोनों ही बहुत नालायक निकले हैं। उनकी मां ने उन्हें न तो कोई संस्कार दिए हैं, न ही शिक्षा के महत्व की समझ। आज मैं तुमसे बस एक विनती करने आया हूं, मुझे अपनी बच्चियों को अपनी बेटियां कहने का हक दे दो। उन्हें बता दो कि मैं ही उनका बाप हूं।"

"मैं उन्हें बता चुकी हूं कि तुम ही उनके पिता हो। लेकिन जानते हो इस खबर की क्या प्रतिक्रिया हुई उन पर? स्निग्द्धा ने कल ही दूसरे अस्पताल में नौकरी के लिए आवेदन कर दिया है तथा तीस तारीख को हम यहां से हमेशा के लिए चले जायेंगे। चंदना तो कल ही यहां से जाने को तैयार थी, बड़ी मुश्किल से मैंने उन्हें तीस तारीख तक यहां रुकने के लिए मनाया है। तीनों की तीनों तो तुम्हारा मुंह देखने तक को तैयार नहीं है और हां, अब तो खैर हम यहां से चले ही जाएंगे। तब तक मुझसे यहां आकर मिलने की कोशिश मत करना, कुछ ठीक नहीं लगता।"

"ठीक है तुम जो चाहती हो वही होगा। बस एक आखिरी बात, अपनी और मेरी बेटियों की एक फोटो मुझे दे दो। मैं उसी के सहारे अपने दिन काट लूंगा ।"

"अच्छा लाती हूं", कह कर निर्मला ने अपने परिवार का एक फोटो उन्हें भीतर से ला कर दिया जिसे लेकर वह भारी कदमों से घर लौट गए, एक टूटे दिल का एहसास लिए। उन्हें अनुभव हो रहा था, जैसे अपना सबकुछ वह कहीं खो आए हैं ।

यह कहानी सम्प्रेषण पत्रिका के जुलाई-सितंबर, 2013 के अंक में प्रकाशित हो चुकी है।