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फ्लाई किल्लर - 1

फ्लाई किल्लर

एस. आर. हरनोट

(1)

उस चिनार के पेड़ पर सारे मौसम रहते थे।

उसके नीचे लगी लोहे की बैंच अंग्रेजों के ज़माने की थी जिस पर वह बैठा रहता था। वह कई बार अपनी उंगलियों के पोरों पर हिसाब लगाता कि इस चिनार के पेड़ की उम्र इस बैंच से कितनी छोटी रही होगी लेकिन वह सही सामंजस्य नहीं बिठा पाता। वह आस-पास खड़े आसमान को स्पर्श करते देवदारों से बतियाना चाहता, जिन पर वह विश्वास कर सकता था कि इस दुर्लभ चिनार के पेड़ को किस समय और किस मौसम में रोपा गया होगा। वह नगर निगम के माली से भी यह बात पूछ सकता था परन्तु उसे किसी पर विश्वास ही नहीं होता कि कोई इस बारे में सही बता देगा। कुछ भी था वह इस बैंच पर बैठा-बैठा अपने को बहुत स्वतन्त्र और सुरक्षित महसूस किया करता था।

गर्मियां शुरू होने से पहले चिनार पर चैत्र-बैसाख बैठ जाते और उसके सूखे जिस्म से छोटी-छोटी हरी कोंपले निकलने लगतीं। बैंच पर बैठा वह अपने भीतर बसंत महसूस करता और उसके अप्रतिम सौन्दर्य से अभिभूत हो जाता। हर पंखो की ओट में उसे ज्येष्ठ और आषाढ़ भयंकर गर्मी की झुलस से छुपते दिखते। हवाएं जैसे तीव्र लू से बचती, उन्हीं के बीच छुपछुपी करती, शीत झोंकों में तबदील होती लगतीं और तीखी गर्मी में उस बैंच पर बैठा वह अपने भीतर गजब की ठंडक महसूस करता। उसके देखते-देखते चिनार के पŸाों पर पूरा यौवन बस जाता और सावन-भादों उन्हें अपने आलिंगन में ले लेते। रिमझिम या भारी वर्षा में भी वह अपने रूमाल से बैंच के मध्य भाग को सूखा कर वहां बैठ जाता। इन दिनों उसके पास एक छाता होता। कई बार बादलों की पतली परतें उसके छाते पर इठलाने लगतीं और उसे अपने शरीर में कांटो जैसी हल्की चुभन महसूस होती। उसे अचानक मां याद आ जातीं जो बरसात में अक्सर उसे समझाया करतीं कि रिमझिम वर्षा के साथ जो सफेद धुंई खेतों में पसरी रहती है उसके कांटे बदन में चुभ जाते हैं।

अश्विन और कार्तिक के महीनों का आक्रमण जैसे ही उस हरियाते पेड़ पर होने लगता वह विचलित हो जाता। इन महीनों के साथ माघ और फाल्गुन भी चले आते। चारों मिलकर उस चिनार को नंगा और निर्जीव करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। एक-एक करके उसके पंखो झरते रहते और बैंच के चारों तरफ उनका ढेर लग जाता। वह बैठने के लिए जैसे ही उन्हें हटाने लगता वे अजीब तरह से चीखने लगते। पौष के आते-आते उन पŸाों का कहीं नामोंनिशां नहीं मिलता। माघ और फाल्गुन तो जैसे उसका पूरी तरह चीर हरण कर लेते और वह पेड़ ऐसा लगता जैसे सदियों से सूखा खड़ा हो। निर्जीव। अचेत। निस्तेज। उसकी निराशा, शिथिलता, बुझापन और उल्लासता मानों पूरे परिवेश पर छा गई हो। इन्हीं सभी के बीच वह भी अपने को जैसे निपट नंगा पाता......महसूस करता। उसे ये महीने कई राजनीतिक दल के गठबंधनों जैसे लगते, जिनके मिजाज तो अलग-अलग होते पर उस हरे-भरे पेड़ पर पतझड़ से लेकर शीत-आक्रमण तक वे एकमत हो जाते और उस चिनार के जीवन को विरामित कर देते। पेड़ निर्जीव जरूर दिखता पर वह और अधिक प्रमाणिकता के साथ उन प्रतिकूल प्रहारों को सहते हुए किसी तपस्वी जैसा सम्पूर्ण अक़ीदत के साथ नया जीवन पाने तक विश्रामशील लगता।

उस बैंच पर एक साथ चार लोग बैठ सकते थे। वह लंच टाइम में आकर वहीं बैठ जाता और उन मौसमों को अपने भीतर जीने लगता। उसका बैठना बैंच के मध्य इस तरह होता ताकि उसके अकेलेपन में कोई दूसरा खलल न डाले। वह जितनी बार भी वहां आता उसे बैंच खाली मिलता। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उस पर पहले से कुछ लोग बैठे हों और उसे अपने बैठने का इंतजार करना पड़ा हो। कभी जब उस पर कोई बैठा रहता और उसे सामने से बैंच की ओर आते देखता तो वह या कोई भी दो तीन लोग या बच्चे या औरतें या उसके हम उम्र पचपन साल के आसपास के लोग अचानक उठने लगते जैसे वे सभी उसके सम्मान में बैंच को खाली कर रहे हों। उसे अपने होने पर गर्व होता और वह बीच में बैठ जाता। कुछ पल बैठने के बाद वह मानसिक रूप से स्खलित होने लगता। एकाएक खड़ा हो जाता। अपने कपड़े झाड़ता। अपनी पैंट की जिप को देखता कि कहीं खुली तो नहीं रह गई है। फिर जेब से अपना एंडराएड फोन निकालता और उसकी स्क्रीन में अपना चेहरा देखता। बाल देखता। गले में बंधी टाई हाथ से ठीक करता। अपनी छोटी-छोटी मूंछों को उंगलियों के पोरों से सिधाता। जब पूरी तरह आश्वस्त हो जाता कि उसके यहां होने या बैठने में कोई अवनति, अपकर्ष या अभद्रपन नहीं है जिसकी वजह से वह दुर्यश का कारण बने, वह फिर अपनी पूर्व मुद्रा में बैठ जाता और चिनार के पेड़ पर बैठे मौसम को निहारने लगता।

कुछ देर बैठने के बाद पता नहीं क्यों उसका अर्जित आत्मविश्वास टूटने लगता और आत्मसंदेह में परिवर्तित हो जाता। उसे लगता कि क्या उस के शरीर से कोई अशिष्ट संकेत तो नहीं मिलने लगे हैं जिससे लोग उससे दूरियां बना लेते हैं। वह अपने भीतर की गंध को महसूस करने लगता। कई बार अपने नाक से सूंघने की कोशिश करते हुए जल्दी-जल्दी ऐसे सांस भीतर और बाहर लेता-छोड़ता मानो सुदर्शनक्रिया का अन्तिम चरण पूरा कर रहा हो। बहुत प्रयास के बाद वह अपने को थोड़ा स्थिर और सहज कर लेता और अपने विश्वास को समेटते हुए आश्वस्त हो जाता कि कहीं कुछ ऐसा दुष्कर नहीं है जिससे लोग उसकी उपस्थिति से असहजता महसूस करने लग जाए।

किसी भी काम से यदि किसी ने मिलना होता तो वह डेढ़ से दो बजे के मध्य इसी जगह चला आता और खड़े-खड़े उससे बातें करता। उसे अपने आॅफिस, मित्रों और रिश्तेदारों के बीच कई असामान्य गुणों की वजह से ऐसी मक़बूलियत हासिल थी जो आज किसी में भी विरल देखने को मिलती। हालांकि योजना निदेशालय में वह किसी बड़े पद पर तैनात नहीं था फिर भी कम्प्यूटर विज्ञान में महारत हासिल होने की वजह से उसे इन्फाॅरमेशन टेक्नोलाॅजी विंग का इन्चार्ज बनाया गया था। इसलिए कम्प्यूटर और इन्टरनैट से जुड़ी तमाम तकनीकें उसे बखूबी मालूम थीं। गूगल जैसी विश्व प्रख्यात साइट से तो उसका रिश्ता दादी-पोते जैसा हो गया था। अपने देश सहित विश्व भर की तमाम जानकारियां उसके जे़हन में दादी के उपले में रखी आग की तरह छुपी रहती। बैंच पर बैठा वह कभी किसी को मिलने खड़ा नहीं होता और न ही मिलने वाला उसके अगल-बगल बैठता। लोग उसके पास कई तरह की सलाहें और मशविरें लेने आते रहते जिनमें आधुनिक तकनीक से लैस एंडराएड फोन का कल्चर समझने वाले अधिक होते। किसी का इन्टरनेट नहीं चल रहा होता। किसी की फेसबुक या दूसरे एकाउंट नहीं खुलते। कोई अपना पासवर्ड भूल जाता। कोई अपने थ्री जी फोन को फोर जी में कनवर्ट करने की तकनीक समझता। किसी का फोन हैंग हो जाता तो कोई हिन्दी में टाइप न होने की वजह को जानता-समझता। अब तो लोग विशेषकर उसकी सेवाएं मोबाइल इन्टरनेट बैंकिंग और पे-टीएम को समझने के लिए लिया करते और अपने-अपने बैंक के एकाउंट उससे खुलवाकर साथ-साथ पेटीएम एप भी डाउनलोड करवा लेते। उसके मित्र इस काम के बदले उसे चाय-काॅफी आॅफर करते लेकिन वह साफ मना कर देता। वह इन कामों को करते कभी भी अमृदुल या असहज नहीं होता। वह हमेशा विनम्र बना रहता। किसी ने कभी भी उसके चेहरे पर मायूसी या शिकन नहीं देखी होगी। उसके चेहरे पर हमेशा चिनार के पेड़ की तरह चैत्र-बैसाख बैठे रहते और उस बसंती मुस्कान से उसके मित्र भी उस जैसा बनने का प्रयास करते।

उसकी सेवानिवृत्ति भी उसी मौसम में हुई थी जब अश्विन और कार्तिक के महीनों ने चिनार पर बैठ कर उसके पत्तों को एक-एक कर गिराना शुरू किया था। अपनी सेवानिवृत्ति के दूसरे दिन भी वह पहले की तरह तैयार होकर जब घर से बाहर निकलने लगा तो पत्नी ने पूछ लिया था,

‘जी, ऐसे सजधज कर कहां जा रहे हो ?‘

उसके कदम ठिठक गए। क्योंकि आजतक तो कभी पत्नी ने इस तरह टोका नहीं था। खड़े-खड़े वह पीछे मुड़ कर उसके चेहरे को गौर से देखने लगा कि कहीं उसकी तबीयत तो खराब नहीं। इससे पहले वह कुछ प्रतिक्रिया देता पत्नी ने उसकी शंका का समाधान कर लिया था।

‘आप पिछले कल रिटायर हो गए हैं ?‘

रिटायर शब्द ने उसे भीतर तक झिंझोड़ दिया। उसे लगा जैसे पल में ही वह चिनार की तरह नंगो हो गया है। वह उस शब्द की विलोम ध्वनि कुछ देर अपने भीतर महसूस करता रहा। सचमुच उसे बिल्कुल याद नहीं था कि वह अब सेवानिवृत्त हो गया था। अपने को सहज करते हुए वह थोड़ा पास आया और प्यार से समझाने लगा,

‘मैं तुम से झूठ नहीं बोलूंगा। सच में मुझे नहीं याद रहा। तुम तो जानती हो 37 सालों तक नौकरी की है और वह भी एक ही दफतर में। अब यह आदत तो धीरे-धीरे जाएगी न। वैसे भी घर से बाहर तो उसी रूटीन में निकलना होगा। नहीं तो कुछ दिनों में ही जड़ हो जाऊंगा।‘

‘तो लंच साथ ले जाओ। अब दफतर की कण्टीन तो नहीं है कि भूख लगने पर कुछ मंगा लिया।‘

पत्नी ने रसोई में जाते-जाते कहा था।

उसे उसकी बात जच गई। पता नहीं कितना समय लौटने को लगेगा। फिर उसे रिटायरमैंट के बाद के कई काम याद हो आए। अपने पर गुस्सा भी आया कि क्यों उसे इतनी सी बात याद नहीं रही। याद रहती तो पैंडिग कामों की एक लिस्ट ही बन जाती। दफतर के भी तो अभी कई काम शेष थे।

इसी बीच पत्नी ने उसे लंच पकड़ा दिया और हिदायत दी कि समय पर खा लें और जल्दी घर आ जाएं।

उसने लंचबाक्स पकड़ कर अपने बैग में डाला और बाहर निकल गया।

बाहर निकलते ही उसे नारों का शोर सुनाई दिया। उसने सामने देखा तो एक विशाल हुजूम गाजे-बाजे के साथ सब्जीमंडी ग्रांउड की ओर जा रहा था। उसे एकाएक झटका सा लगा। उसे याद आया कि पूरे देश में नई पार्टी जीत कर आई है। रिटारयरमैंट की पार्टी और मिलने-जुलने आने वाले लोगों की वजह से पिछले दिन उसे याद ही नहीं रहा कि चुनाव में विपक्ष भारी बहुतमत के साथ जीत गया है। पिछली रात को उसने पहली बार इतनी थकावट महसूस की कि समाचार तक ध्यान से नहीं देख-सुन पाया। हालांकि उसके कमरे में टीवी नहीं था, वह अपने कम्प्यूटर पर ही इन्टरनैट से यह काम चला लेता था। समाचार तो वह अपने आॅफिस में लगे टीवी पर ही देख लिया करता।

इन्हीं नारों की ध्वनियों के मध्य वह अपने रास्ते चलता रहा। बहुत से खयाल उसके मन में आते-जाते रहे। सबसे आहत करने वाली बात यह थी कि जिस एक पार्टी को वह बरसों से, या आजादी के बाद से वोट देता रहा, वह पूरी तरह हर जगह हारती चली गई। उसे चिनार पर बैठे मौसम याद हो आए कि परिवर्तन तो समय की मांग है, उसे कौन रोक सकता है। लेकिन किसी भरे-भराए पेड़ पर से सारे मौसमों का इस तरह चले जाना दुःखद तो है ही।

आज जब वह उठा तो उसे अपने घर में कई परिर्वतन देखने को मिले। पहले उसका बेटा कमरे में आया। उसके हाथ में पांच सौ और हजार के कई नोट थे। फिर बहू आई और उसके बाद पत्नी। उनके हाथों में भी कुछ नोट थे। बेटे ने ही शुरूआत की थी,

‘कैसा लग रहा है डैड फ्री होकर ?‘

वह मुस्कुरा दिया था। कहा कुछ नहीं।

‘आप जानते हैं कि पांच सौ और हजार के नोट बन्द हो गए हैं।‘

उसे झटका सा लगा।

‘कब हुआ यह सब........घ्‘

‘अरे डैड, रात से ही तो टीवी पर आ रहा है।‘

उसने कुछ नहीं कहा। वैसे वह इसका बढ़िया जवाब दे सकता था कि घर के दोनों टीवी तो आप लोगों के कमरों में हैं। मनमर्जी के कार्यक्रम देखने के लिए। अब मुझे तो समाचारों के लिए तीसरा टीवी खरीदना होगा। पर वह चुप्पी साध गया।

बेटे ने अपनी पत्नी और मां से नोटों को लेकर उसे पकड़ा दिए थे।

‘डैड! ये नोट हमारे पास थे। कुछ मां के पास भी। आपके पास भी तो होंगे ही। अब समय ही समय हैं। बैंक जाकर इन्हें बदलवा लीजिए। आपकी तो जान-पहचान भी बहुत है।‘

अपना-अपना काम बता कर सभी कमरे से बाहर निकल गए। उसे आज अच्छा लगा कि वह अब अपने परिवार के लिए भी समय दे सकता है। उसका छोटा सा परिवार था। बेटा यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर था और बहू एक प्राइवेट स्कूल में अध्यापिका। दो पोतियां थीं जिनकी शादियां हो गई थीं। उसने नोटों को समेटा और अपनी अल्मारी खोली। पांच सौ और हजार के कुछ नोट रखे थे। आज घर में जितना भी धन जिस किसी ने अपने-अपने हिसाब या जरूरत के मुताबिक रखा था वह सभी निकल गया। कुल पैंतालीस हजार के करीब। उसे जोर की हंसी आई कि जीवन कुमार के पास 37 सालों की नौकरी के बाद घर में बस यही काला धन हैं ? उसने पैसों के साथ कुछ दूसरे कागज अपने बैग में डाल दिए। तैयार हुआ और नए काम पर निकल गया।

आज पूरे शहर का माहौल गर्म था। हर तरफ नोटबंदी की चर्चाएं थीं। बौखलाहट थीं। मायूसी थीं। हड़कंप था। वह सीधा अपने बैंक में गया। वहां देखा तो सर चकरा गया। तकरीबन पांच सौ लोगों का जमघट लगा था। कई लाइनों में लोग खड़े थे। वह भी एक लाइन में खड़ा हो गया। इधर-उधर झांकता रहा। बैंक में बहुत से कर्मचारी थे जो पूर्व में उसकी सेवाएं लेते रहे थे। लेकिन आज कोई दिखाई नहीं दे रहा था। एक दो बार उसने लाइन से बाहर निकल कर बैंक के भीतर जाने का प्रयास किया लेकिन वहां खड़े पुलिस वालों ने रोक दिया। पूरे दिन वह भूखा-प्यासा खड़ा रहा लेकिन उसकी बारी नहीं आई। थका हारा वह घर चला आया।

कई दिनों तक वह उसी रूटीन में बैंक के चक्कर काटता रहा परन्तु नोट बदलवाने या जमा करवाने में कामयाब नहीं हो पाया। घर में सभी आश्वस्त थे कि वह सभी के पैसों को बैंक में या तो जमा करवा लेगा या बदलवा देगा। आज जब वह घर पहुंचा तो सीधा बिना कुछ बात किए अपने कमरे में चला गया।

क्रमश..

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