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फ्लाई किल्लर - 4

फ्लाई किल्लर

एस. आर. हरनोट

(4)

उसे महसूस हुआ कि उसका रक्तचाप बढ़ रहा है। उसने तत्काल बिजली जला दी थी। वह दूसरे कमरे में सोई पत्नी को उठा कर रक्तचाप मापने की मशीन को मंगाकर अपना रक्तचाप देखना चाहता था लेकिन उसकी नजर जब घड़ी पर पड़ी तो वह रूक गया। रात का एक बज रहा था। उसने बिजली बुझा दी और पुनः सोने का प्रयास किया। लेकिन नींद कोसों दूर भाग गई थी। अंधेरे में जैसे ही आंखें बंद कीं उसे कुछ बड़ी राजनीतिक और बौद्धिक हत्याएं याद आ र्गइं। उसके मस्तिष्क में पहले कई राजनेता आए और बाद में एक-एक कर सफदर हाशमी, दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी बैठ गए। वह सोचता रहा कि स्वतन्त्र अभिव्यक्ति, विचार, लेखन और अभिनय भी कितने घोर अपराध की श्रेणी में आते होंगे कि उसके लिए सत्ता या उसके अंधभक्त उनका खून कर दें। वह सिहर उठा। उसे अपने शरीर में ऐसी कंपकपी महसूस हुई कि बाहर बर्फ गिर रही हो। उसने पास पड़ी रजाई से अपने शरीर को ढक लिया। धीरे-धीरे मन का विचलन, मस्तिष्क की थकान और परेशानियां उसकी आंखों के भीतर पसरने लगी और वह बेहोशी की जैसी हालत में अपने को महसूस करने लगा। अचानक उसे जयपुर में गाय खरीदते हुए पहलू और उसके चार साथी याद आ गए। उसके बाद राजस्थान का अलवर, आन्ध्रप्रदेश का पूर्वी गोदावरी जिला और गुजरात का उना याद आया जहां गौ-रक्षकों ने दलितों की न केवल पिटाई की बल्कि कुछ को मार भी दिया था। उसे इस तरह के अनगिनत किस्से याद आए जो सरकार के बदलने के बाद इस देश में आए दिनों हो रहे थे।

उसे नहीं पता सुबह कब हो गई। परन्तु उसकी आंखों में नींद की वजह से अजीब सी ऊंघ पसर गई थीं। वह रात भर जो कुछ भी मन की आंखों से देखता रहा उसकी धुंधली सी छवियां अभी तक आंखों में बसी थीं। उसने उठ कर कई बार आंखों में पानी मारा और कुछ देर पलकों को यूं झपकाता रहा जैसे उनके बाहर-भीतर नरसंहार और हत्याओं के कुछ बारीक कतरे फंसे हों।

वह रोज की तरह तैयार होकर बैंक के लिए चल दिया। उसने अपने बैग में रखे पुराने नोटों के बंडल को हाथ से छुआ। आश्वस्त होकर बाहर निकल गया। पत्नी ने उसके चेहरे पर जब नजर डाली तो घबरा गई। उसे ऐसा महसूस हुआ कि वह एक रात में ही इतना कैसे बूढ़ा गया है। उसका मन हुआ कि उसे आज न जाने के लिए कहें, पर पैसे याद आ गए। समय रहते नहीं बदले तो नोट बेकार हो जाएंगे।

अपने से उसने पूरा प्रयास किया कि वह जल्दी जाकर बैंक की पंक्ति में खड़ा हो जाए, लेकिन आज भीड़ पहले से ज्यादा थीं। उसने देखा कि पंक्तियों में असंख्य बिहारी, नेपाली और उत्तर प्रदेश के मजदूर अपनी पासबुकें हाथ में लिए खड़े हैं। कई नेपाली औरतों की पीठ में बच्चे हैं। उसी भीड़ में कई गांव के किसान भाई भी हैं। मजदूरों का कहना था कि वे अपने खाते बंद करवा रहे हैं क्योंकि अब शहर में काम नहीं रहा। ठेकेदारों के पास पैसे नहीं है। वे अपने-अपने गांव लौट जाएंगे। किसान कह रहे थे कि बिना पैसों के उनके छोटे-छोटे काम रूक गए हैं। खेतीबाड़ी चैपट हैं। ब्याह-शादियां बंद हो गई हैं। यहां तक कि दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हो रही। उसके साथ ही दो-तीन पत्रकार भाई भी थे, जिनके चेहरे से लग रहा था कि उनकी कलम कई दिनों से उनके झोले में बंद पड़ी है और वे लाइनों में या तो नोट बदलवाने या कुछ पैसे निकलवाने के लिए रोज आकर खड़े हो जाते हैं।

उसका मन लाइन में खड़े होने का नहीं हुआ। उसने दो-चार चक्कर भीड़ के आसपास ऐसे लगाए जैसे वह किसी अखबार का रिपोर्टर हो या किसी एजैन्सी का निरीक्षक। उदास-हताश वहां से आते हुए उसका मन काॅफी पीने का हुआ। पहले उसने सोचा कि वह काॅफी हाउस चलें लेकिन वह आज किसी शांत-एकांत जगह पर बैठना चाहता था। काॅफी हाउस के मिजाज से तो वह वाकिफ था कि वहां कितना शोर होता है।

चलते-चलते अब उसके मस्तिष्क में मजदूर, किसान और पत्रकार-लेखक जैसे कुछ और शब्द पसर गए थे जो भीतर पहले विराजमान शब्दों पर भारी पड़ते महसूस हुए। उसे पंक्तियों में इसी तरह के आमजन खड़े मिल रहे थे। जो सम्पन्न थे, या रसूखदार या राजनीति से जुड़े नेता या अफसर, उन्हें तो उसने कभी पंक्तियों में खड़े नहीं देखा। वह सोचने लगा कि क्या यह नोटबंदी हम जैसे आम लोगों के लिए ही हैं.......क्या उन लोगों के पास.......पांच या हजार रूपए के नोट नहीं होंगे.........क्या उन्हें पैसों की आवश्यकता नहीं होगी......?

यह सब सोचते हुए वह शहर के सबसे बढ़िया रेस्तरां में घुसा और एक किनारे की मेज पर बैठ गया। वेटर ने जैसे ही पानी के गिलास के साथ मैन्यू मेज पर छोड़ना चाहा उसने कोल्ड काॅफी का आर्डर दे दिया। वह यह तय करके कतई नहीं आया था कि कोल्ड काॅफी पियेगा। उसे यदि कुछ ठंडा ही लेना था तो वह बाहर आईसक्रीम या साफ्टी भी ले सकता था, यह सोचते हुए उसे पास ही से ‘चट‘ की आवाज सुनाई दी। यह उसे साधारण आवाज नहीं लगी। पता नहीं इस आवाज में ऐसा क्या था कि वह सीधे उसके मस्तिष्क में चुभती हुई दिल पर बैठ गई। उसने सामने ध्यान से देखा। वहां फ्लाई किल्लर लगी थी जिसके समीप जैसे ही कोई मक्खी जाती, चट की आवाज से उसके छिछड़े उड़ जाते। हालांकि उसने किसी मक्खी को मरते हुए नहीं देखा था परन्तु उस मौत की आवाज ने उसे परेशान कर दिया। इसी बीच वेटर कॅाफी लेकर आ गया और मेज पर रखते हुए उसने दो सौ रूपए थमाकर बिल काटने के लिए कह दिया। जैसे ही उसने काॅफी का गिलास मंुह तक लाया पुनः दो-तीन आवाजें उससे टकरा गईं। उसने पूरा गिलास पानी की तरह गटक लिया और यह भी नहीं सोचा कि आस-पास बैठे लोग उसे क्या कहेंगे ? उसने बकाया पैसे भी नहीं लिए और रेस्तरां से उन मौत की भयंकर आवाजों के साथ बाहर निकल गया। एक जगह खड़ा होकर सोचता रहा कि मौत किसी की भी हो शायद उसकी आवाजें ऐसी ही होती होंगी। उसे चिनार से अलग होते पत्तों का स्मरण हो आया और दिमाग पर जोर देकर सोचता रहा कि इस तरह की असंख्य आवाजें उसके भीतर पहले से मौजूद हैं। उसे एक पल के लिए अपने ऊपर गर्व हुआ कि वह दुनिया का शायद पहला आदमी होगा जिसने मौत की आवाज को इतने करीब से महसूस किया है। वह जानता था कि आए दिनों रेस्तरां में ये आवाजें बहुतों के कानों तक जाती होंगी लेकिन उनके लिए तो ये आम आवाजें होंगी.........केवल एक मक्खी के मरने की आवाज भर।

वह जिस शांति के लिए रेस्तरां में गया था उसे उन मौत की आवाजों ने भंग कर दिया था। वह अशान्त मन से उसी बैंच पर बैठने चला आया। उसने देखा कि चिनार बिल्कुल नंगा हो गया था। बैंच के ऊपर और आसपास कुछ पत्ते जरूर औंधे मुंह से पड़े दिखे जिन्हें न जाने कितने पैरों ने मसल दिया होगा। उसके भीतर, बैंच पर बैठते-बैठते, उन पत्तों के मरने की आवाजें पसर गईं। वह उनकी वेदनाओं में खो गया। आज चिनार के पेड़ से पत्तों का यूं विलग हो जाना उसे अच्छा नहीं लगा। न ही रेस्तरां में उन निर्दोष मक्खियों का मरना ही। उसकी आंखें भर आईं। वह बहुत देर गर्दन झुकाए रोता रहा था। चिनार की तरह का अकेलापन उसने अपने भीतर महसूस किया। उसे पहली बार ऐसी आतंकानुभूति हुई जो इससे पूर्व उसने कभी महसूस नहीं की थी। वह अपने भीतर के इस मनोविकार में कई कुछ तलाशने लगा था.......मन की अस्थिरता......... मस्तिष्क का असंतुलन......न्यूरोसिस या साइकोपैथी जैसा कुछ......या फिर इस चिनार के साथ-साथ उस पर वर्ष भर के मौसमों ने उसकी ज़ेहनीयत या मनोवृत्ति को बिल्कुल तबदील कर दिया है। वह अपने भीतर रिटायरमैंट से पूर्व के जीवन कुमार को ढूंढने लगा जो उसे कहीं नहीं मिला। उसकी जगह उसे अकर्मण्यता, अचेतनता, अजीवंतता, अवसाद और निराशा के चक्रव्यूह में फंसा एक दूसरा ही आदमी दिखाई दिया। वह कई बार खड़ा हुआ और बैंच के दांए-बांए बैठता रहा। उसने अपने को स्थिर करने का भरसक प्रयत्न किया। इस ठहराव में उसे एक बात यह सूझी कि वह व्यर्थ इतनी दुनिया की चीजों को अपने भीतर घुसा बैठा है जिसका शायद कोई मतलब नहीं हो.......वह आग को शायद अपने दामन में ढकने का प्रयास कर रहा है। उसने एक गहरी सांस ली और आंखें बंद कर लीं। उसे पता ही नहीं चला कि कब उसकी आंख लग गई और किसी अचम्भित करने वाले स्वप्नलोक में चला गया।

स्वप्नलोग में उसने जिस दुनिया में प्रवेश किया वह उसके अपने देश जैसी नहीं थी। क्योंकि बचपन से लेकर सेवानिवृत्ति तक जो कुछ उसने देखा या महसूस किया उस जैसा वहां कुछ नहीं था। अपने देश में तो वह अभी 4-जी में ही जी रहा था जबकि जिस दुनिया में वह चला आया था वह 11-जी से भी आगे की दुनिया थी। वह यह देख कर स्तब्ध था कि इस अत्याधुनिक तकनीक से सम्पन्न इस दुनिया के राजा को किन्हीं तीन लोगों की तलाश थीं जिन्होंनंे उसका जीना हराम कर रखा था।

उसने अपने को जहां खड़ा पाया, सामने भीतर प्रवेश के लिए एक विशालकाय गेट था जिसे सोने, चांदी और हीरों से मढ़ा गया था। उसके बीच कई रंगों में नहाई कुछ पक्तियां लिखी थीं जो रोशनियों के साथ रंग बदलती रहती थीं। शीर्ष पर लिखा था ---11 जी राष्ट्र। बहुत संकोच से उसने जब भीतर प्रवेश किया तो उसे किसी ने नहीं रोका। वह बहुत भय और संभल के चला जा रहा था। परन्तु सड़कों पर चलते हुए उसे गजब का सुकून महसूस हो रहा था। बहुत देर तक वह इसी में खोया रहा। अचानक कोई चीज उससे टकराई और वह गिरते-गिरते बचा। इधर-उधर देखा, कुछ दिखाई नहीं दिया। वह आगे चलता रहा। चलते-चलते उसे महसूस हुआ कि उसके कंधो पर कोई चीज है। उसने कई बार अपने कंधे उचकाए। गर्दन आड़ी-तिरछी की। आगे-पीछे मुड़ा। सिर कई बार झाड़ा। लेकिन वह कुछ ऐसा था जो कंधे से हिलने का नाम नहीं ले रहा था। परेशान होकर जब वह एक पेड़ के नीचे खड़ा हुआ तो उसे एक आवाज सुनाई दी जिसे वह पहचान गया.......कौए की आवाज। वह सोच में पड़ गया कि इस नई दुनिया में कौवा कहां से आ गया। कुछ और सोच पाता, कौवा आदमी की आवाज में बोलने लगा था।

‘सुनो जीवन कुमार! मैं भी तुम्हारे साथ हूं। तुम्हारे कंधे पर हूं। मैं पिछले कई सालों से भटक रहा था कि मुझे कोई सुरक्षित जगह मिले। मैं अब तक बहुत मुश्किल से अपने को बचाते हुए जिंदा हूं।‘

‘पर कैसे ?‘

‘मेरे पास उस राजा के कोट की 11-जी चिप जो है।‘

‘मतलब....घ्

‘जैसे टू जी, थ्री जी, और फिर फोर जी। तुम तो अपने देश में फोर जी के माहिर थे। तुम्हारे देश में यही सबकुछ तो चल रहा है। बच्चों और बूढ़ों के हाथों में अब फोर जी-फोन हैं। लेकिन इस दुनियां में तो लोग ग्यारह जी तक पहुंच गए हैं।

उसकी समझ में कुछ नहीं आया। कंधे उचकाते हुए चिढ़ कर उसने पूछा था,

‘तुम क्या बक रहे हो मेरे पले कुछ नहीं पड़ रहा है ?‘

‘बताता हूं, बताता हूं। सब बताता हूं। मैं जानता हूं, तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। सुनो मैं विस्तार से समझाता हूं।‘

कौवा उसे पूरी कहानी सुनाने लगा था।

इस दुनिया का जो राजा है वह पहले नमक बेचता था। उसने धीरे-धीरे इस धन्धे से अपना अपनी वर्चस्व सथापित कर लिया और नमक के व्यापार में देश-विदेश में मशहूर हो गया। वह जिसे भी नमक देता वह उसका दिवाना बनता गया। इसी नमक और अपने वाग्जाल की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते वह राजनीति में पहुंच गया। उस राजनीति की कई सीढ़ियां थीं। घर। पड़ोस। गांव। पंचायत। नगर। शहर। जिले। राज्य और उसके बाद देश। वह धीरे-धीरे देश के आखरी पायदान तक पहुंच गया और देश का एकस्व मुखिया बन गया। अपने झूठे प्रपंच और अनेक कारनामों से उसने देश में ऐसा जादू फैलाया कि वह उस देश का राजा घोषित हो गया। उसने अपने साथ बुजुर्वा किस्म के लोगों को लिया जिसमें अभिजात और रईस किस्म के लोग मौजूद थे। पूंजीवादी समाज का शासक वर्ग और उत्पादन के समस्त साधनों के स्वामी थे। उनके पास इतना पैसा था कि वे देश की 90 प्रतिशत जनता पर भारी थे। उन्होंने उस राजा को राजा बनाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया और अत्याधुनिक तकनीक से लैस कर दिया।

लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरते रहे, उसके आगे अनेक समस्याएं खड़ी हो गईं। उसके देश में पच्चास प्रतिशत से ज्यादा ऐसे लोग थे जो भूखे थे। नंगे थे। गरीब दलित थे। किसान-मजदूर थे। लेखक पत्रकार थे। हड़तालें होती थीं। विपक्ष किसी को चैन से नहीं रहने देता था। एक तरफ उन साधन सम्पन्न लोगों का पैसा किसी न किसी योजना में लाभ देकर चुकाना था तो दूसरी तरफ वहां गरीबी और बेकारी की समस्याओं से निजात पाना था। धर्म और जाति के नाम पर रोज-रोज दंगे फसाद हो रहे थे। किसानों के पास जमीनें थीं पर वे अन्धाधुंध कर्जो में डूबे हुए थे। आए दिनों वे आत्महत्याएं कर रहे थे। उनकी जमीनों पर उन चन्द बनिया किस्म के लोगों की नजरें गड़ी थीं जो वहां बड़े-बड़े उद्योग लगाना चाहते थे। कामगरों के हाथों का काम अत्याधुनिक मशीने छीने जा रही थीं। हर तरफ आक्रोश का माहौल बन रहा था। आतंकवाद जोरों पर था। लोग मर रहे थे। पानी के लिए लड़ रहे थे। धर्म एक दूसरे का दुश्मन हो गया था। ईश्वर और जानवरों के प्रतीक भयंकर नर संहार की ओर अग्रसर थे।

इसीलिए राजा इन सभी समस्याओं से अलग व मुक्त दुनिया बनाना चाहता था। उसकी सोच में फटेहाल लोगों के लिए कोई जगह नहीं थी। वह नहीं चाहता था कि कोई गरीब या नंगा भूखा उसकी दुनिया में रहे। वह जानता था कि यदि गरीब मजदूर और किसान रहेंगे, विभिन्न संस्कृतियां और धर्म होंगे तो अखबारों और पत्रकारों की दुनिया चलेगी। नेताओं की दुनिया जीवित रहेगी। उसकी इच्छा थी कि उसका एकछत्र राज हो जहां ऐसी सम्पन्नता हो कि सभी के पास ऐशो-आराम के साधन हों।

क्रमश...