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मारिया

मारिया

ज़किया ज़ुबैरी

सभी एक दूसरे से आँखें चुरा रहे थे।

अजब-सा माहौल था। हर इंसान पत्र-पत्रिकाओं को इतना ऊँचा उठाए पढ़ रहा था कि एक दूसरे का चेहरा तक दिखाई नहीं दे रहा था। सिर्फ़ कपड़ों से अंदाज़ा होता था कि कौन एशियन है और कौन ब्रिटिश, वर्ना चेहरे तो सभी के ढँके हुए थे। और जो मुजरिम थे वो शांत और बेफ़िक्र बैठे थे, जैसे उन्होंने कोई जुर्म किया ही न हो। मुजरिम पैदा करने वाली तो बस माँएँ थीं।

कुछ सिरफिरे तो यहाँ तक कह देते थे कि भगवान का भी तो यह जुर्म ही है जिसने इस सृष्टि की रचना की। क्या मिला उसे? क्या हासिल हुआ? हर पल हर लम्हा अपने विद्रोही बंदों के हाथों ज़लील ही तो होता रहता है! हर घड़ी उसे चुनौती दी जाती है, ललकारा जाता है। कितने लोग सच्चे दिल और बिना किसी स्वार्थ के उसे याद करते हैं? सिर्फ़ शिकायतें, फ़रियादें और मुसीबत ही में उसे याद किया जाता है।

बिल्कुल उसी तरह मारिया की माँ मार्था भी अपनी बेटी के समय से पहले माँ बनने की घड़ी से शर्मिंदा-शर्मिंदा, भारी-भारी कदमों से, क्लिनिक से बाहर निकल रही थी। जाते-जाते अपनी ही तरह की दो तीन माँओं से उसकी मुठभेड़ हो गई। सबने नज़रें झुका लीं। ऐसा महसूस हो रहा था जैसे सभी कब्रिस्तान में मुर्दे दफ़न करने जा रहे हों। सबके चेहरे उदास-उदास, बेरौनक़, मुरझाए-मुरझाए से लग रहे थे। जैसे सब कुछ लुट गया हो – कुछ न बचा हो।

मार्था भी जिधर को कदम उठे चल दी। कुछ अंदाज़ा ही नहीं था कि किधर जा रही है। पतली-सी एक पगडंडी थी जिसके दोनों ओर शाह-बलूत के पेड़ अपने हरे-हरे पत्तों से मुक्ति पा चुके थे। काली-काली शाख़ें लिए नंग धड़ंग, लजाए-लजाए, शर्मिंदा-शर्मिंदा से खड़े थे। पीले और आग के रंग में रंगे हुए पत्ते मार्था के कदमों के नीचे दब-दब कर ऐसे कराह रहे थे जैसे किसी बच्चे का गला घोंटा जा रहा हो। जो हाथ बढ़ा-बढ़ा कर सहायता माँग रहा हो, गिड़गिड़ा कर प्रार्थना कर रहा हो कि मुझे बचाओ, मुझे बचाओ। मेरा क्या कुसूर है? मैंने क्या अपराध किया है? मुझे किस बात की सज़ा दी जा रही है?

मार्था घबरा कर तेज़-तेज़ और लंबे-लंबे कदम उठाने लगी, किंतु आवाज़ भी वैसी ही तेज़ होती चली गई। मार्था का गला रूँध गया। कदम रुक गए और वह पास ही पड़ी एक बेंच पर बैठ गई। आँखें डबडबा आईं और फिर सबकुछ धुँधला-धुँधला नज़र आने लगा। आँखों से मोटे-मोटे और गरम-गरम आँसू गालों पर बहने लगे। जैसे उसके आँसुओं में सारा संसार डूब गया हो, ग़र्क हो गया हो। आँखें बंद थीं पर सब कुछ देख रही थीं। दरख़्तों की ओट से क्लिनिक की इमारत दिखाई दे रही थी। किंतु मार्था बार-बार इस भवन से आँखें चुरा रही थी कि कहीं कोई यह न समझ जाए कि मारिया को उसने वहाँ छोड़ा हुआ है। फिर हर व्यक्ति के दिमाग़ में हज़ारों प्रश्न उठेंगे. होंठों तक आएँगे और उनका इज़हार किया जाएगा।

मार्था किस किस को जवाब देगी? कितने झूठ बोलेगी? एक झूठ से दसियों सवाल और पैदा होते हैं। अगर एक बार हिम्मत करके सच बोल दिया जाए, तो सिर्फ़ एक ही जवाब तमाम सवालों का जवाब हो जाता है। किंतु सच बोला कैसे जाए? बेहद कड़वा सच! चुभने वाला सच कैसे होठों तक लाया जाए? कैसे अदा किया जाए? बेचारी मार्था इसी उधेड़बुन में बैठी रोती रही, सिसकती रही। पतझड़ की मार खाए पत्तों को कुचलते हुए राहगीर आते रहे जाते रहे। मार्था बैठी, पत्तों की चीख़ पुकार सुनती रही। घड़ी देखी, अभी बहुत समय बाक़ी था। क्या करे? किधर जाए?

प्रकृति का तमाशा भी ख़ूब है। सृजन में समय लगता है जबकि विनाश कुछ ही पलों में हो जाता है। दम घुटा जा रहा था। खुले आसमान के नीचे भी साँस लेना दूभर हो रहा था। मार्था का जी घबराने लगा और बेइख़्तियार जी चाहने लगा कि दौड़ कर किसी अंधेरे कमरे में जा कर, किसी की बाहों में मुँह छुपाकर अपने सारे दुख उसकी सफ़ेद टी-शर्ट की आस्तीन में ख़ुश्क कर दे। वह अपना दायाँ हाथ मार्था के बालों में फेरता रहे, पेशानी पर प्यार करता रहे और कहता रहे, "सब ठीक हो जाएगा, सब ठीक हो जाएगा।"

मार्था की अनिश्चित गहरी गहरी साँसें और आहें सुन-सुन कर सीने से लगा ले और हल्की-हल्की डाँट के अंदाज़ में अपनी नर्म और कानों में शहद घोलती आवाज़ में कहे, "तुम तो पागल हो।" किस कदर इंतज़ार रहता था उसके मुँह से पागल शब्द सुनने का। जब वह पागल कहता तो मार्था भी कहती, "तुम दीवाने हो!" वह और ज़ोर से गले लगा लेता और प्यार करता।

मार्था साँस रोके उसकी आग़ोश में बच्चों की तरह लेटी रहती। सुरक्षा का अहसास किस कदर यक़ीन पैदा करता है ! प्यार में कितनी परिपक्वता पैदा हो जाती है! चाहत किन हदों को छूने लगती है! यह केवल दो सच्ची मुहब्बत और एक दूसरे से ख़ुलूस बरतने वाले और एक दूसरे पर यक़ीन रखने वाले ही समझ सकते हैं। कभी मार्था का सिर उसके कंधों पर होता और कभी उसका सिर मार्था के पहलू में। ऐसा महसूस होता जैसे उसका अपना बच्चा गोदी में छुपा हुआ हो। भाई हो, बाप हो, पति हो या प्रेमी – नारी तो एक माँ होती है। वह समय असमय ममता न्यौछावर करने को मजबूर होती है। बिल्कुल इसी तरह कभी-कभी सारी रात उसका घने और चमकदार बालों वाला ख़ूबसूरत सिर अपने पहलू में छुपाए पड़ी रहती। बालों में उँगलियाँ फेरती, पेशानी चूमती और ठोड़ी और गर्दन को महसूस करती।

कभी-कभी वह सोते में आवाज़ देता। मार्था जवाब में प्यार करके अपने अस्तित्व का अहसास दिलवा कर बिल्कुल बच्चों की तरह उसके सिर को और ज़ोर से भींच कर सुला देती। वह फिर एक मासूम बच्चे की तरह इत्मिनान कर लेता कि मार्था गई नहीं है, और फिर गहरी नींद सो जाता। अचानक अलार्म की घंटी से दोनों जाग जाते और एक दूसरे से लिपट जाते कि यह जुदाई की घड़ी कैसे बरदाश्त करेंगे। थोड़ी देर में कार रवाना हो रही होती और वह खिड़की में से झाँक कर हाथ हिला रहा होता – एक क़ैदी की तरह। चाहते हुए भी वह उसको विदा नहीं कर पाता था। अंधेरे में मार्था को जाते देखता तो घबरा जाता और मिन्नत करता कि थोड़ी और रौशनी हो जाने दो फिर चली जाना। वह जिस रौशनी की बात करता वह तो केवल उसके व्यक्तित्व से थी। जहाँ वह होता, रौशनी ही रौशनी होती। उससे दूरी ही अंधेरा पैदा करती। चाहे सूरज कितनी भी तेज़ रौशनी क्यों न फैला रहा हो। यदि वह नहीं तो कुछ नहीं। और गाड़ी सड़क पर फिसलती चली जाती।

मार्था शीशा उतार कर हाथ हिलाती। हाथों से इशारा करके चुंबनों की बौछार करती। जब तक वह नज़रों से ओझल न हो जाती वह हाथ हिलाता रहता और दूसरे ही लम्हे टेलिफ़ोन की घंटी बजती। सोई-सोई-सी आवाज़ कानों में रस घोल रही होती। "अब कहाँ तक पहुँच गईं?.. कैसी हो? ... ठीक हो?.. डर तो नहीं रहीं?.... "

मार्था अपनी आवाज़ में विश्वास पैदा करते हुए कहती, "नहीं, डर किस बात का? तुम जो साथ हो! "
जब तक घर न पहुँच जाती वह फ़ोन पर हिम्मत बढ़ाता रहता। गाना सुनाता रहता और बार-बार मालूम करता कि अब वह कहाँ तक पहुँच गई? "

मार्था बताती कि वह घर के अंदर जा रही है। वह फ़ौरन उदास हो जाता और कहता, "तुम बहुत याद आ रही हो। और ज़िद करता कि छोड़ कर मत जाया करो, बस अब हमेशा के लिए आ जाओ।"
मार्था उसे दिलासे देती, बहलाती, प्यार से चुमकारती और घर में दाख़िल हो कर तुरंत सो जाने की हिदायत देती। रूँधी-रूँधी आवाज़ में शुभरात्रि कहती और फ़ोन बंद कर देती।

जब भी दोनों मिलते एक-एक लम्हा जी भर कर प्यार करते। मार्था तो उस पर वारी-वारी जाती। और जब बिछड़ते तो जी भर कर उदास हो जाते। एक अनिश्चित अहसास कि मालूम नहीं कि अब कल क्या होगा? इसी तरह दोनों ने बरसों साथ साथ गुज़ार दिए थे। और आज जब मार्था अकेली है, बग़ैर पत्तों के दरख़्तों के नीचे तन्हा और उदास बैठी थी। यह दरख़्त भी मार्था को अपनी ज़िंदगी का प्रतिबिंब दिखाई दे रहे थे। जो ज़िंदगी की बहारें देखने के बाद पतझड़ के हत्थे चढ़ चुके थे। जिनकी ख़ूबसूरती और जवानी पतझड़ की भेंट हो चुकी थी। अब केवल पीले, सुनहरे, भूरे और नारंगी पत्ते ही बहार गुज़र जाने की कहानी कह रहे थे।

मार्था बेचैनी से मारिया का इंतज़ार कर रही थी। इंतज़ार की तड़प के साथ-साथ रह-रह कर उसका ख़याल आ रहा था। उसकी कसक महसूस कर रही थी। उसका अकेलापन खाए जा रहा था। वह कितना मज़बूत सहारा होता जब-जब वह मुश्किल में होती। कोई भी परेशानी होती तो वह कहता, "तुम क्यों परेशान होती हो?.. मैं जो हूँ।" और आज जब मार्था को एक चाहने वाले सहारे की आवश्यकता है तो वह कितनी अकेली है!

मारिया, जो उसकी साथी होती, जिसको माँ हमेशा अपना दोस्त, अपनी साथी और अपना सहारा समझती रही, वह माँ को बताए बग़ैर सबकुछ कर ग़ुज़री। माँ के भरोसे को किस क़दर ठेस पहुँचाई। इस तड़प को केवल वही समझ सकता। मार्था को फिर वह याद आने लगा। और आँसू बंदिशों को तोड़ कर बाहर आने के लिए बेताब हो गए।

अचानक जो घड़ी पर नज़र पड़ी, तो वक्त हो गया था। मार्था तेज़ी से उठी और तेज़-तेज़ कदम बढ़ाती क्लिनिक की तरफ़ रवाना हो गई। अब यह पत्ते तड़प-तड़प कर ख़ामोश हो गए थे। मार्था कि चाल में भी ठहराव आ चुका था। आँसू भी काफ़ी हद तक थम गए थे। क्लिनिक की घंटी बजाते ही दरवाज़ा खुल गया, और मार्था ने दाख़िल होते ही रिसेप्शन पर बैठी एक अनुभवी नर्स से पूछा, "मारिया कहाँ है, कैसी है, वह ठीक है न? क्या उसने स्वयं मारिया को देखा है?" मार्था लगातार सवाल करती गई, बोलती गई। उस नर्स को जवाब देने का अवसर तक नहीं दिया।

थोड़ा-सा अंतराल मिला तो नर्स ने पूछा, "मारिया का पूरा नाम क्या है?.. और उम्र क्या है? "
मारिया का नाम जैसे मार्था के हलक में अटक गया हो। जैसे उसका जी चाह रहा हो कि मारिया का नाम छुपा ले। कहीं यहाँ बैठी सारी औरतों को न मालूम हो जाए कि मारिया ने क्या किया है। और उम्र के बारे में तो सोचते ही जैसे उस पर बेहोशी-सी छाने लगी थी। पंद्रह साल की कुँवारी माँ ! मार्था एक बार फिर काँप उठी। शर्म से पानी पानी होने लगी। वह नर्स मारिया को लेकर आ चुकी थी। माँ बेटी की नज़रें मिलीं। दोनों की आखें नम हो उठीं। दोनों ने नज़रें झुका लीं।

मारिया ने माँ के कंधे पर सिर रख दिया। माँ ने उसके हाथ पकड़ लिए। हाथ बिल्कुल ठंडे बर्फ़ हो रहे थे। माँ अपने हाथों से जल्दी-जल्दी उसके हाथ मल-मल कर गरम करने लगी। माँ को महसूस हुआ कि मारिया का रंग संगमरमर की तरह सफ़ेद हो रहा है। होंठो का गुलाबी रंग उड़ चुका है। घने सुनहरे बाल उलझे हुए कंधों पर पड़े हुए हैं। मारिया में माँ की सी पवित्रता पैदा हो चुकी थी। माँ उसको पकड़ कर धीरे-धीरे चलाती हुई कार तक लाई। मार्था स्वयं को इतना कमज़ोर महसूस कर रही थी जैसे कार चलाने की ताक़त ही न हो। उसने हिम्मत करके मारिया से मालूम किया कि ऐसा कौन था जिसके लिए मारिया यह कुर्बानी दे गुज़री। मारिया ने माँ को कोई जवाब नहीं दिया और उसकी गोद में मुँह छुपा लिया।

माँ और अधिक उदास हो उठी। उसको फिर उसका ख़याल आ गया। वह भी मार्था की गोद में ऐसे ही मुँह छुपा लेता था। घंटों उसकी गोद में सिर रख कर लेटा रहता और कहता, "मेरा जी चाहता है कि वक्त यहीं ठहर जाए।"

मार्था की गोद में उसे बेहद सुकून मिलता। मार्था भी उसको लिटाए घंटों एक ही स्थान पर बैठी रहती। हिलती भी नहीं थी।

मारिया के बालों में उँगलियाँ फेरते हुए माँ ने दोबारा पूछा, "मारिया ऐसा कौन था जिसकी मुहब्बत में तूने अपने आपको बरबाद कर लिया? "

मारिया ने चेहरे को और ज़्यादा अंदर घुसाते हुए घुटी आवाज़ में कहा, "माँ जिसके पास तुम जाती थीं! "

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