Hone se n hone tak - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

होने से न होने तक - 13

होने से न होने तक

13.

कौशल्या दी लखनऊ आ कर क्यों रह रही हैं इसके सबने अलग अलग कारण बताए थे। दीदी के पति की अपने पिता से नहीं पटती इसलिए चली आई हैं वे। किसी ने यह भी बताया था कि वे अपनी निसंतान मौसी को बहुत प्यार करती थीं और मौसी के अकेले रह जाने पर उन्हीं के पास आ गई थीं और यहीं रह कर पढ़ाई पूरी की और एलाटमैन्ट की बड़ी सी केठी में मौसी के निधन के बाद भी रहती रहीं। मौसी इस कालेज की फाउंडर मैम्बरों में से थीं। शुरु में कौशल्या दी मौसी के साथ कालेज के कामों में रुचि लेती रहीं बाद में यहाँ पद रिक्त होने पर और मैनेजर के आग्रह करने पर उन्होंने इंगलिश डिपार्टमैन्ट ज्वाईन कर लिया था।

इस कालेज में आने के बाद से मुझ को अनायास अपना जीवन जीने का तरीका बहुत ख़ाली ख़ाली सा लगने लगा है। लगता है रोज़मर्रा की ज़रूरतों के अलावा मैंने तो कभी ज़िदगी के बारे में गंभीरता से सोचा ही नहीं था। मेरी सारी ज़रूरतें भी स्वयं मुझ तक सिमटी रहीं। न जाने कैसे इस विद्यालय में इन मित्रों के बीच बैठ कर ज़िदगी परत दर परत अर्थवान लगने लगी है। लगा था बहुत कुछ सोचने के लिए है और बहुत कुछ सुलझाने के लिए भी। अपने आस पास के बहुत से रिश्ते अनायास भिन्न अर्थ से भर उठे थे। लगा था क्यों आहत महसूस करती हॅू मैं। जितना जिसने मेरे साथ किया है उस सबका हिसाब रखना है मुझे। अब किसी से भी अपना नाराज़ होना तो किसी भी कोण से सही नहीं ठहरा पाती मैं। लगा था बहुत सारे लोगो के लिए रिश्तो की बहुत सारी क्षति पूर्ति करनी है मुझे...ढेर सारी भरपाई। मामी अब इस दुनिया में नहीं हैं। बहुत दुखी हुयी थी मैं उनके निधन पर। पर बस। मैं न तो गयी थी मामा से मिलने,न कोई अधिक संपर्क ही रखा था उन लोगों से। वे लोग मेरे शहर से दूर थे तो मैं दूर ही बनी रही। मामा और भैया ने तो न जाने कितनी बार आने का आमंत्रण दिया था। मामा हैं, भैया,दीदी हैं। किसी से भी तो मैंने अपनां जैसा अपनापन नहीं रखा। फर्क तरह के हैं वे सब। तब..? मुझे तो सबने प्यार, मान सम्मान सभी कुछ दिया है। मैंने ही कुछ ख़ास रिश्ता नहीं रखा उन सबसे। अब यहॉ इन मित्रों के बीच रह कर समझ आने लगा है कि अपनों के साथ सुख दुख में शरीक हुआ जाता है...होली दीवाली याद किया जाता है...भाईयों को राखी टीका भेजा जाता है। मैंने तो कभी किसी संबध का निर्वाह नही किया। इस विद्यालय में आने के बाद से अचानक लगने लगा है कि मेरी ज़िदगी में बहुतों का योगदान है, विशेषतौर से आण्टी का। इतना अधिक कि उतने के लिए आभार प्रदर्शित कर पाना भी संभव नही है...भले ही सारे दायित्व निर्वाह के बीच ही एक दूरी उन्होने मुझसे बनाए रखी। या शायद वह मेरा ही अर्न्तमुखी स्वभाव था जिसके कारण मैं सदैव उनसे दूरी महसूस करती रही...उनसे...बुआ से...अपने आस पास के सब लोगों से। बस एक यश को छोड़ कर। नहीं। एक तरह की दूरी तो मैंने यश से भी सदैव महसूस की ही थी। सारे लगाव और अपनेपन के बावजूद मैं अधिकार तो कभी यश पर भी महसूस नही कर पायी। यश ने मेरे लिए जो कुछ किया उसके लिए मैं उनकी आभारी रही। मेरे लिए दिए गये समय, धन, श्रम, सब के लिए। अपनो के प्रति कहीं मन मे वैसा आभार रहता है कि हर क्षण मन उस भार तले दबा रहे, कभी उऋण ही न हो पाए। जीवन में कुछ भी सहज स्वभाविक अपना अधिकार जैसा तो मुझे कभी लगा ही नहीं। शायद मैंने अपने आप को भी रिश्तों के सारे बंधनों से मुक्त रखा। रिश्तों से जुड़े सहज स्वभाविक दायित्वों के बंधन में कभी नहीं बॉधा।

मुझे कालेज में नौकरी करते कुछ महीने बीत चुके थे। मैं क्लास से पहले अपने नोट्स पलट रही थी कि फाईनल ईयर की कोई छात्रा रेनेसॉ पीरियड की पोयट्री के विषय में कौशल्या दी से समझने आई थी। दीदी ने उस युग के इतिहास से शुरू किया था...वहॉ की राजनीति,उस काल का दर्द,उस दर्द के कारण, उसकी त्रासदी,उससे जुड़ा अकेलापन। बहुत विस्तार से समझाने के बाद दीदी ने उस कवि की कविताऐं पकि्ंत बद्ध समझानी शुरू की थीं। मेरे लिखते हुए हाथ रुक गए थे और मैंने अपनी कापी पलट कर रख दी थी। मैं मंत्र मुग्ध सी उनको सुनती रही थी,उनके चेहरे पर आते जाते भाव देखती रही थी। मुझे लगा था जैसे मैं किसी दूसरी दुनिया में पहुॅच गई हूं। वह लड़की चली गयी थी। काफी देर तक हम दोनो चुपचाप बैठे रहे थे। उस मौन को मैंने ही भंग किया था,‘‘दीदी मैंने बी.ए.में लिटरेचर लिया था। इस तरह से पोयट्री और हिस्ट्री के बीच कॉसल कनैक्शन हमने कभी नही जोड़ा था। हमने कभी नही समझा था कि पोयट्री अपने समय की देन होती है। हमें उस तरह से कभी पढ़ाया नही गया था। आज लग रहा है कि काश मैंने पाल सॉइस में नहीं इंग्लिश में एम.ए. किया होता।’’

दीदी थोड़ी देर चुप रही थीं जैसे कुछ सोच रही हों,‘‘नहीं अम्बिका सब्जैक्ट्स तो सभी इन्टरैस्टिंग हैं...और शायद आपस में जुड़े हुए भी। कम से कम पालिटिकल थॉट और साहित्य सीधे सीधे अपने समय के इतिहास से जुड़ा होता है। क्या तुम्हे नहीं लगता कि नार्मल समय में पूरी की पूरी जैनरेशन मीडियॉकर हो जाती है। क्योंकि थॉट के मामले में उसके पास रिएक्ट करने के लिए या सोचने के लिए कुछ भी नहीं होता। इसी लिए ऐसे समय के पास कोई चिंतन नही होता...कोई साहित्य नहीं होता। समाज में सिर्फ पालिटिक्स होती है पर कोई पालिटिकल थॉट नही होता है...साहित्य के नाम पर लिखने के लिए लेखक के पास सिर्फ अपने सुख,दुख होते हैं...समाज की कोई ऐसी धड़कन नही होती जिसे साहित्यकार शब्द दे सके।’’ कुछ देर के मौन के बाद वे धीमें से हॅसी थीं ‘‘ऐसा समय बहुत हॉलो होता है...एकदम खोखला...साहित्य के लिए...राजनीति के लिए। ऐसे समय में राजनीति में कोई नेहरू गॉधी नहीं जन्मता...फायदा उठाने वाले चालाक और मक्कार लोग आते हैं।’’ मैं कौशल्या दी को देखती रही थी। मुझे लगा था उन्होने मेरी सोच को नयी दिशा दी है।

उसके बाद मैं और कौशल्या दीदी बहुत देर तक अलग अलग तरह से उसी विषय पर बात करते रहे थे। दीदी ने ही कहा था कि किसी भी थिंकर को पढ़ाने से पहले उस पीरियड का इतिहास जानना बहुत ज़रूरी है। जितनी गहराई से तुम इतिहास को समझोगी उतनी ही गहरी पकड़ थॉट पर होगी। क्योंकि हर थॉट अपने समय से जन्मी परिस्थितियों की देन हुआ करता है। मुझे लगा था कि शायद वे सही कह रही हैं। उनके अपने लिखे कुछ आर्टिकल्स थे और कुछ किताबें जिन्हे देने का वायदा उन्होने मुझसे किया था। उन्हें लेने के लिए अगले इतवार को मैं उनके घर गयी थी।

1984

कौशल्या दीदी स्वागत की मुद्रा में दोनों हाथ फैला कर घर से बाहर निकली थीं। फिर मेरा हाथ पकड़े पकड़े ही घर में घुसीं थीं। फिर ड्राईंगरुम से ही आवाज़ लगाई थी,‘‘चन्दर जी, स्वीटहार्ट देखो कौन आया है, वह अपनी अम्बिका आई है और आपका तो अभी स्नान ध्यान ही नहीं हुआ। डार्लिंग जल्दी से निबट कर बाहर आओ चाय नाश्ता लगवा रहे हैं।’’ मैं ने कनखियों से घड़ी की तरफ देखा था। दुपहर गर्म होने लग गई थी। घड़ी की सुई साढ़े बारह के आगे निकल चुकी है और कौशल्या दी के घर अभी चाय नाश्ता लगाया जा रहा है। उन्होंने मुझे घड़ी देखते देख लिया था और अपने विशिष्ट अंदाज में हो,हो,करके हंसती रही थीं। तभी चंदर भाई बाहर आए थे।कौशल्या दी ने उनसे मेरा परिचय कराया था और मेरी तरफ देख कर हॅसती रही थीं,’’देखो अपनी अम्बिका मेरा मियाँ रायल तबियत का इंसान है। सुबह सबेरे सो कर नहीं उठ सकता,चाय नाश्ता नहीं कर सकता। मेरे घर की घड़ी मेरे मिंया की इच्छा से चलती है...क्यों है न चन्दर डार्लिंग।’’

चन्दर भाई चुप ही रहे थे।

दूसरे दिन मैं कालेज पहुची थी तो मुझे देखते ही मानसी चतुर्वेदी ने पूछा था,‘‘क्यों अम्बिका जी मिल आईं डार्लिगं से?’’ रूपाली बत्रा और अंजलि माथुर खिलखिला कर हॅसने लगी थीं।

मैं चुप रही थी। वैसे भी उस बात के जवाब में मैं कह ही क्या सकती थी। मुझे उन तीनों का कौशल्या दीदी पर हॅसना अच्छा नहीं लगा था। पर क्या बोलती।

‘‘कल गयी थीं न कौशल्या दी के घर?’’ अंजलि माथुर ने फिर पूछा था।

‘‘हॉ गए थे।’’ मैंने जवाब दिया था,‘‘बहुत अच्छा लगा उनके घर जा कर।’’ मैंने अपनी बात पूरी की थी।

‘‘अरे यार हम लोग घर की बात थोड़ी पूछ रहे हैं। हम तो स्वीटहार्ट की बात कर रहे हैं। उनसे मिलीं या नही? वह कैसे लगे?’’ अंजलि ने कहा था और वे तीनों समवेत स्वर में हॅसने लगे थे।

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया था। मैं उठ कर अन्दर के साईड रूम मे चली गयी थी और अपनी अल्मारी खोल कर खड़ी हो गयी थी। अगले क्लास का अटैन्डैन्स रजिस्टर,डस्टर और चाक निकाल कर मैंने पास की मेज़ पर रख दिया और नोट्स की फाईल निकाल कर वहीं खड़े खड़े पलटती रही थी। बगल के बड़े कमरे से उन तीनों के हॅसने की आवाज़े आती रही थीं। मुझे लगा था वे तीनों कौशल्या दी पर ही हॅस रही हैं।...क्या पता। अगले क्लास का समय होने वाला है और स्टाफरूम में लोग आने लगे हैं और चहल पहल लगने लगी थी।

ख्ौर जो भी हो मैं कौशल्या दी से अंतरग होती गयी थी। उनके पास जा कर, उनके पास बैठ कर मुझे हमेशा अच्छा लगता, भले ही वे कभी फनी लगतीं, कभी बेहद डामिनेटिंग,कभी उबाऊ भी, पर फिर भी मन का कोई तार है जो उनसे जा कर जुड़ता है..शायद उनकी जैनुइननैस,बहुत सारी अड़चनों के बीच सिर उठा कर चलने की ताक़़त,उनका स्वाभिमान। थोड़े थोड़े दिन पर कौशल्या दी से फोन पर बात करना,उनके घर जाना मुझे अपना दायित्व ज्ौसे लगते, जिसका निर्वाह मैं सदैव करती रही...उनके रिटायर होने के बाद भी। बहुत बाद में समझ पाई थी कि इस तरह के संवाद उस घर में रोजमर्रा की बात थी। चन्दर भाई बहुत कम बोलते और जितना बोलते उसमें कोई आत्मीयता एवं उष्मा नहीं लगती। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट प्रायः कभी भी नही आती...भावहीन सपाट चेहरा। पर उनसे बात करते समय कौशल्या दी हमेशा उत्तेजित सी दिखतीं। मैं अब सोचती हूं कि उनके प्रति अपना मुखर प्रेम प्रदर्शित कर वे अपना अभिमान ढकती थींं या उनका सम्मान, पता नहीं या शायद दोनों की ही शान बढ़ाने का उनका अपना ढूंडा हुआ तरीका था वह। जिंदगी को लेकर उनका अपना नज़रिया रहता, एकदम साफ और आदर्शवादी।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com