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बहीखाता - 45

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

45

मनहूस ख़बर

दिसंबर का महीना था। मैं ज़रा देर से ही उठी। इतनी ठंड में किसका उठने को दिल करता है। मैंने पर्दे हटाये तो अजीब-सा उदास करने वाला दिन था। उदास दिन को देखकर मेरा दिल भी उदास हो गया। कुछ देर बाद ही हरजीत अटवाल का फोन आया, “चंदन साहब नहीं रहे।“

चंदन साहब की मृत्यु की ख़बर सुनकर पता नहीं मैं क्यों रोने लगी। कितनी ही देर रोती रही। व्यक्ति का क्या है ? किस तरह उन्होंने जिस सम्पत्ति को बचाने के लिए कितने झूठ बोले थे, उसी सम्पत्ति को कितनी जल्दी छोड़कर किसी अन्य दुनिया में जा बिराजे थे। मेरी सहेलियों को पता चला तो अफसोस प्रकट करने आने लगीं। फोन भी आ रहे थे। उनके निधन की ख़बर साहित्यिक हलकों में एकदम फैल गई। किसी ने फेसबुक पर डाल दी जिससे दुनिया भर में बसते लेखकों तक यह मनहूस ख़बर जा पहुँची। मेरे फ्लैट में कई लोग आ गए। मैंने अपनी एक सहेली से कहा -

“मेरे घर में यह शोक की चादर क्यों बिछ रही है ? मैं कौन सी विधवा हुई हूँ ?”

“वह तेरा पति था। धर्म में भूतपूर्व कुछ नहीं होता। जब ग्रंथ साहब के इर्दगिर्द लावें(फेरे) हो जाती हैं तो औरत पत्नी बन जाती है। जब आदमी मरता है तो विधवा होना औरत का धर्म होता है। किसी के कहने या न कहने से कोई अंतर नहीं पड़ता।” यह मेरी सहेली का जवाब था।

उसने क्या, वुल्वरहैंप्टन की सभी स्त्रियाँ ही मुझे चंदन साहब की विधवा कह रही थीं। हालांकि चंदन साहब ने मुकदमे के दौरान विधवा पेंशन के बनने वाले अधिकार भी खत्म कर दिए थे। पता नहीं, फिर भी मैं चंदन साहब की मौत का शोक मनाने लग पड़ी। सभी मित्र इकट्ठे हो रहे थे। श्रद्धांजलियाँ भी दी जा रही थीं। मित्र एक दूसरे को फोन करके चंदन साहब की मौत का अफसोस कर रहे थे।

मृत्यु के समय चंदन साहब पी रहे थे। आधी बोतल वैसे ही उनके सामने पड़ी थी। जैसा कि वह कहा करते थे कि तुझे क्या ? मैं अपने आप से ही खेल रहा हूँ। सच, वह अपने आप से ही खेल गए थे। उनकी मृत्यु घर में ही हुई थी, पर उनही देह को पोस्ट मार्टम के बाद साउथाल के एक अंडरटेकर के पास रख दिया गया था। फ्युनरल की तारीख तय कर दी गई। फ्युनरल का सारा प्रबंध अमनदीप को ही करना था, यद्यपि अमनदीप के लिए वह अपनी अंतिम वसीयत में कुछ भी छोड़कर नहीं गए थे। सब कुछ अपनी बेटी अलका के नाम कर गए थे, फिर भी अलका दर्शक बनी बैठी थी और अमनदीप खराब टांग के बावजूद अंतिम विदाई के लिए इधर उधर दौड़ भाग रहा था। अमनदीप को ऐसे मामलों में अनुभव न होने के कारण वह हरजीत अटवाल से सलाह ले रहा था और हरजीत मुझे सारी बात बता रहा था। अमनदीप भी और चंदन साहब के मित्र भी यही चाहते थे कि उनका अंतिम संस्कार उस इलाके में ही किया जाए, जहाँ वह अधिक समय रहे थे। सो फ्युनरल हैनवैल के क्रैमोटोरियम में होना था। एक दिन किसी मित्र ने मुझे कहा -

“चंदन की फैमिली कहती है कि देविंदर फ्युनरल में जा आए।”

मैंने हरजीत अटवाल को फोन किया। वही चंदन के अधिक निकट था। मैंने कहा -

“लोग कह रहे हैं कि मैं फ्युनरल में न जाऊँ।”

“मेरी अमनदीप के साथ बात हुई थी। वह कहता था कि डैड अलका को कह गए हैं कि देविंदर उनके फ्युनरल में न आए।”

“तुम क्या कहते हो ?”

“मैं कहता हूँ कि मैं चंदन से अलका के बाद भी मिला हूँ, मेरे साथ तो ऐसी कोई बात नहीं हुई।”

“फिर ?”

“फिर यह कि तुझे आना चाहिए। तुमने कौन-सा अलका के कारण या किसी और के कारण आना है। तुमने तो अपने कारण आना है। यदि नहीं आए तो सारी उम्र गिल्टी फील करोगे।”

मैंने दिल में सोचा कि चले गए या मर गए से कैसा गिला ? फैसला कर लिया कि फ्युनरल पर हर हालत में जाऊँगी।

वह बताने लगा -

“ऐसा है कि डेड बॉडी पहले अमनदीप के घर जाएगी, तुम वहाँ न आकर सीधी हैनवैल क्रैमोटोरियम में आ जाना।”

जैसा हरजीत ने बताया था, अंतिम संस्कार को ले जाने से पहले उनकी देह अमनदीप के घर में आनी थी। संस्कार का सारा प्रबंध अमनदीप को ही करना था। वुल्वरहैंप्टन से सभी मित्रों ने उसी समय पहुँचना था। सबने ही पहले अमनदीप के घर जाना था। मुझे मनमोहन अपनी कार में ले गए। साथ में कोई दूसरा भी था। राह में मैंने फूलों का गुलदस्ता खरीदा और अंतिम विदाई के तौर पर मनमोहन के हाथों भेज दिया। वे सभी घर में गए, पर मैं कार में बैठी रही। वहीं से सभी जुलूस की शक्ल में हैनवैल क्रैमोटोरियम की ओर चल पड़े। वहाँ का हॉल खचाखच भरा हुआ था। इंग्लैंड भर के लेखक पहुँचे हुए थे। हरजीत अटवाल ने चंदन साहब के बारे में भावुक-से दो शब्द कहे। अमनदीप ने बटन दबाया जिससे बक्सा आगे विद्युत संयंत्र में चला गया। वहाँ से सभी गुरद्वारे में आ गए जहाँ पाठ रखा हुआ था और दूसरे दोस्तों ने भी श्रद्धांजलियाँ देनी थी। पाठ चल रहा था। मैं भी संगत में बैठी थी। अचानक किसी ने आकर मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैंने पीछे मुड़कर देखा तो अनीश खड़ा था। वही मोटी मोटी आँखें। मैंने उसे अपनी बांहों में भर लिया।

(जारी…)