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महामाया - 5

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – पांच

‘‘व्हाट इज यूअर नेम.....?’’ आश्रम की रिसेप्शन कुर्सी पर बैठे-बैठे ही स्वामी दिव्यानंद ने सामने खड़ी विदेशी महिला से पूछा।

‘‘काशा’’

‘‘आऽऽशा’’ स्वामी दिव्यानंद ने महिला का नाम जोर से दोहराते हुए रजिस्टर में लिखा।

‘‘नो..नो.. काशा’’

‘‘ओके...काशा नाॅट आशा।’’ दिव्यानंद ने रजिस्टर में नाम दुरस्त करते हुए पूछा ‘‘कन्ट्री नेम।’’

‘‘आस्ट्रीया’’

‘‘कन्ट्री....आस्ट्रेलिया’’

‘‘नो...नो...नाॅट आस्ट्रेलिया । आ....स्ट्री....या....’’ काशा ने देश के नाम के सभी हिस्सों को अलग-अलग करके बोला।

‘‘दुनिया में कितने सारे देश हैं और उनके कितने अजीब-अजीब नाम हैं। अब पहले दुनियाभर के देशों के नाम याद करो यही तुम्हारा सन्यास है बेटा दिव्यानंद। स्वामी दिव्यानंद भिनभिनाये फिर हाथ से एक तरफ ईशारा करते हुए बोले ‘‘यूअर कमरा....उधर उधर....।’’

काशा बिना किसी प्रतिक्रिया के दिव्यानंद के चेहरे की ओर ताक रही थी।

‘‘रूम....यूअर रूम.....दिस साइड’’ दिव्यानंद ने हाथ फैलाकर एक ओर ईशारा करते हुए कहा।

‘‘ओहऽऽ यस....थैंक्स...बट....’’

‘‘अरे यार, अब क्या दिक्कत है इसको’’ दिव्यानंद बड़बड़ाये फिर काशा के सामने अपने दोनों हाथ नचाते हुए पूछा...।

‘‘प्राब्लम......व्हाट प्राब्लम?’’

‘‘आय वान्ट टू कीप माय पासपोर्ट एण्ड सम वेल्यूबल थिंग्स एट लॉकर फर्स्ट ’’ काशा ने एक साँस में कहा। दिव्यानंद कुछ पल तो काशा की ओर निर्निमेष आँखों से ताकते रहे फिर अपने चारों तरफ देखा मानो किसी को मदद के लिये खोज रहे हो। तभी उन्हें सामने से अखिल आता दिखाई दिया। अखिल का मन कुछ लिखने का था। वह डायरी लिये गंगा किनारे जा रहा था। उसे देख दिव्यानंद जी का चेहरा चमक उठा। हाथ के ईशारे से उसे अपने पास बुलाया, उसे अपनी समस्या बतायी। अखिल ने काशा से अंग्रेजी में बातचीत की, वह क्या चाहती है समझा। फिर दिव्यानंद जी को बताया - ये अपना पासपोर्ट और कुछ कीमती सामान लॉकर में रखना चाहती है। अखिल की बात सुन दिव्यानंद ने अपना सिर ठोंकते हुए कहा तो सीधे-सीधे बोलना चाहिए था न.... आई वान्ट लॉकर ।’’

दिव्यानंद की बात सुन अखिल के हाठों पर मुस्कुराहट फैल गई। अखिल को देख काशा भी मुस्कुरा दी। दिव्यानंद ने रिसेप्शन की दराज से एक चाबी निकाली और काशा की ओर बढ़ाते हुए बोले -

‘‘लॉकर नं. 13, पुट योअर सामान।’’

‘‘नो...नो...आई डोंट वान्ट 13 नं.’’ काशा ने चाबी वापिस लौटाते हुए कहा।

‘‘क्यों ?’’ दिव्यानंद ने प्रश्नवाचक निगाहों से पूछा।

‘‘थरटीन नं. इज अनलकी फाॅर मी, प्लीज इशू अनदर लॉकर ’’ काशा के स्वर में अनुरोध का भाव था।

अखिल ने दिव्यानंद को काशा की बात समझाते हुए आश्चर्य प्रकट किया।

‘‘अरे अखिल प्रभू पूछो मत। ये विदेशी अंधविश्वास में हमसे दो कदम आगे ही होंगे’’ दिव्यानंद ने दराज से दूसरी चाबी निकालकर काशा की ओर बढ़ायी। काशा ‘‘थैंक्स’’ कहते हुए लॉकर रूम की तरफ चल दी। जब वह थोड़ी दूर चली गई तब दिव्यानंद जी ने एक लंबी साँस छोड़ी और दोनों हाथ जोड़कर अखिल से बोले -

‘‘प्रभू आप ही हमारी थोड़ी मदद करिये। आज विदेशी लोग आ रहे हैं और हमारी अंगे्रजी तो आप देख ही चुके हैं।

अखिल का मन गंगा किनारे बैठ कुछ लिखने का था लेकिन वह दिव्यानंद जी का आग्रह टाल नहीं सका। दिव्यानंद जी ने अपनी कुर्सी पर अखिल को बैठाया। उसके हाथ में विदेशी मेहमानों की सूची थमाकर वहां से रवाना हो गये।

दोपहर तक आश्रम में विदेशियों के आने का सिलसिला चलता रहा। पीठ पर बड़ा सा पिट्ठू बैग, हाथ में पानी की बाॅटल, गले में टंगा कैमरा और विचित्र वेशभूषाएँ। अखिल के लिये यह नया अनुभव था। कल तक जिस आश्रम में वो अजनबी था। आज वहाँ आने वाले विदेशी मेहमानों की अगवानी कर रहा था। आस्ट्रेलिया , इटली, जापान, अमेरिका, इंगलैंड, आस्ट्रीया, जर्मनी से लोग आये थे। थोड़ी देर बाद दिव्यानंद जी एक ओर सफेद वस्त्रधारी युवा को साथ लेकर रिसेप्शन पर लौटे। दिव्यानंद जी इस युवा साधु को ब्रह्मचारीजी कहकर पुकार रहे थे। दोनों के बीच हंसी-मजाक चल रही थी। वो बीच-बीच में विदेश्यिों को देखकर टिप्पणियां भी करते जा रहे थे।

विदेशियों को यूं आश्रम में आते हुए देखना, उनके साथ बातचीत अखिल के लिये एक दिलचस्प अनुभव था। उसके लिये चकित करने वाली बात यह थी कि पूर्णतः भौतिकवादी देशों में जन्में इन लोगों में हिन्दू धर्म के प्रति गहरा आकर्षण था। यहाँ पहुंचने वाले ज्यादातर विदेशी भारतीय वेशभूषा में थे। कुछेक विदेशी तो साधु-सन्यासियों की तरह भगवा वेशभूषा के साथ-साथ गले में रूद्राक्ष की मोटी माला और माथे पर त्रिपुण्ड भी लगाये हुए थे।

अखिल जर्मनी से आये युवक राम से ज्यादा प्रभावित हुआ। छह फुट से कुछ ज्यादा लंबा, गोरा-चिट्ठा, तीखे नैन नक्श। सफेद कुर्ता पजामा और गले में मोटी रूद्राक्ष की माला। वह सभी विदेशियों में अलग ही नजर आ रहा था। बातचीत के दौरान ही अखिल को पता चला कि वह पिछले पाँच सालों से हर वर्ष भारत आता है। दो महिने यहाँ रहता है। उसकी भारतीय योग विद्या में गहन रूचि है। वह योग के बारे में जानने के लिये कई आश्रमों में घूमा लेकिन अंत में बाबाजी से दीक्षा ली। अब बाबाजी के सानिध्य में ही यूरोप के कईं देशों में लोगों को योग सिखाता है।

एक जापानी भी भारतीय सन्यासियों की तरह भगवा वस्त्र पहने हुए था। उसने एक ही वस्त्र को आदि शंकराचार्य की तरह कमर में लपेटकर, उसके दोनो छोर को कैंची की शक्ल में गरदन के पीछे ले जाकर बांधा हुआ था। माथे पर अष्टगंध का गोल तिलक था और सिर सफाचट। अखिल के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने अपना नाम स्वामी आनंदगिरी बताया।

आनंदगिरी को देखते ही ब्रह्मचारी जी ने चहकते हुए कहा ‘‘नमो नारायण आनंदगिरी’’

ब्रह्मचारी जी के अभिवादन का जवाब देने के बजाय वह चिढ़ गया। बाद में उसने कमरे की चाबी लेते वक्त आनंदगिरी ने अपनी पीड़ा अखिल को बतायी कि आश्रम में बाबाजी के कुछ शिष्य उसका ठीक से सम्मान नहीं करते हैं। उसे ‘स्वामी जी’ पुकारना तो दूर उसके नाम के आगे ‘जी’ भी नहीं लगाते हैं जबकि वह खुद एक गुरू है। जापान में उसके पाँच सौ से ज्यादा शिष्य हैं। वह रैकी का थर्ड डिग्री मास्टर है और यहाँ बाबाजी के पास समाधि सीखने आया है।

अखिल ने आने वाले विदशियों की सूची एक बार और देखी, लगभग सभी आ चुके थे। यानि उसका काम खत्म हो गया था। वह दिव्यानंद जी को सूची सौंपकर कमरे में लौट आया। उसे बड़ जोरों से भूख लग रही थी। उसने घड़ी देखी। अभी दोपहर के भोजन में एक घंटा था। वह पलंग पर लेटकर आज के अनुभवों के बारे में सोचने लगा। तभी दरवाजे पर खट-खट हुई और एक महिला का स्वर उभरा ‘‘एक्सक्यूज मी प्लीज....।’’ अखिल ने दरवाजा खोला। सामने काशा खड़ी थी। काशा का हुलिया पूरी तरह बदल चुका था। जिंस, टाॅप की जगह गैरिक रंग का लोअर और उस पर खादी का कुर्ता। गले में दो-तीन रंग-बिरंगे मोतियों की माला। ऊंची पूरी, गौर वर्णीय, भूरी आँखों वाली काशा दोनों हाथ नमस्कार की मुद्रा में जोड़े खड़ी थी।

‘‘आईये......वेलकम...’’

‘‘नो थैंक्स....यहाँ आसपास कोई शाॅपिंग माॅल है क्या? असल में मुझे कुछ सामान खरीदना है।’’ काशा ने अंग्रेजी में पूछा।

अखिल को भूख लग रही थी। वह बाजार में कुछ खाना चाहता था। उसने काशा के साथ चलने का प्रस्ताव रखा। काशा ने खुश होते हुए कहा ‘मोस्ट वेलकम’। दोनो आश्रम से बाहर बाजार की ओर चल दिये। काशा ने एक स्टोर से जरूरी सामान खरीदा और फिर दोनों ने एक फूड प्वाईंट पर बैठकर एक-एक मसाला डोसा खाया और आश्रम लौट आये। इस बीच उसकी काशा से खूब बात हुई। उसने बताया कि वह तीन महीने से भारत में है। पहले भी वह दो बार आ चुकी है। उसकी अध्यात्म में गहरी रुचि है। उसने यह भी बताया कि हिमालय में ऐसे बहुत से संत हैं जो मृत्यु के बाद भी सूक्ष्मरूप में मौजूद हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि अपनी इच्छा से कभी भी देह धारण कर सकते हैं। ऐसा उसने योगी कथामृत में पढ़ा है। वह ऐसे सिद्ध संत की तलाश में बहुत से मठों में गई जो उसे हिमालय में सूक्ष्म रूप में विचरने वाले महाअवतार बाबा से मिलवा दे। कईं साधु-महात्माओं से मिली। हिमालय की यात्रा भी की। लेकिन कोई सफलता हाथ नहीं लगी। हिमालय यात्रा के दौरान ही पातालपानी में बाबाजी से मुलाकात हुई। बाबाजी ने उसे महाअवतार बाबा से मिलवाने का वादा किया था। इस बार वह महाअवतार बाबा के दर्शन करने ही यहाँ आयी हुई है।

काशा की बातें सुनकर अखिल आश्चर्यचकित था। बरसों पहले मरे हुए व्यक्ति का सदेह किसी के सामने उपस्थित होने की घटनाएँ उसने कईं बार सुनी थी। हर बार उसने ‘सब बकवास है’ कहकर मजाक उड़ाया था। लेकिन आज काशा के मुँह से यह सुन वह ‘बकवास’ कहकर टाल नहीं पाया बल्कि गंभीर हो गया था।

वे आश्रम लौट आये थे। काशा थैंक्स कहते हुए अपने कमरे में चली गई।

क्रमश..