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महामाया - 6

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – छह

अखिल कुछ सोचता हुआ रिसेप्शन पर पहुंचा । वहाँ दिव्यानंद जी आनंदगिरी से किसी बात पर उलझ रहे थे। आनंदगिरी जोर-जोर से बोलता हुआ पीछे पलटा और अखिल को देखा-अनदेखा करते हुए गुस्से में वहाँ से चला गया। दिव्यानंद जी भी रिसेप्शन की कुर्सी पर बैठे गुस्से में बड़बड़ा रहे थे।

‘‘अरे ऐसे बहुत साधु देखे। भगवा चोला पहना और हो गये मनमुखी साधु। अरे साधु समाज में ऐसे मनमुखी साधुओं की कोई बखत थोड़ी होती है। अभी कोई इस आनंद गिरी से पूछेगा कि तेरा गुरू कौन.......? कौन अखाड़ा.......? तो भूल जाऐगा सारी साधुगिरी......बड़ा गुरू बना फिरता है।’’

अखिल बिना कुछ बोले दिव्यानंद जी के पास बैठ गया। दिव्यानंद जी साधु कैसे हैं यह तो वह नहीं कह सकता लेकिन आदमी सहज हैं। थोड़ी देर भिन-भिन करते रहे फिर दराज खोलकर कमर में खुंसी चाबियों के गुच्छे को पटका। रजिस्टर उठाकर नीचे वाली दराज में रखा, फिर थोड़ा सहज होते हुए अखिल की ओर पलटे

‘‘आप भोजनशाला में नहीं दिखायी दिये प्रभू ?’’

मैं काशा के साथ बाहर कुछ खा लिया’’ अखिल ने जवाब दिया।

‘‘इन विदेशियों को ज्यादा मुँह मत लगाना प्रभू। इनको औकात में रखो तो ही ठीक रहेंगे। बाबाजी ने इन लोगों को इतना सिर चढ़ा रखा है । अपना तो साफ सिद्धांत है, साधु हो तो साधु की तरह रहो। धंधेबाज हो तो धंधेबाज की तरह रहो।’’ दिव्यानंद जी का गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ था।

थोड़ी देर खामोशी छायी रही फिर अखिल ने दिव्यानंद जी से पूछा -

‘‘आप अभी आनदंगिरी को मनमुखी साधु कह रहे थे। ये मनमुखी साधु क्या है ?’’

‘‘जो अपनी मर्जी से गेरूआ पहिन कर नाम बदल ले वो मनमुखी साधु और क्या? अरे समाज में आदमी की पहचान जात-पांत, उसके कुल, उसके ठिकाने से होती है। ऐसा थोड़े ही होता है कि जनेऊ पहनी, चोटी खड़ी की, तिलक ताना और हो गये ब्राह्मण। सात पीढ़ियों का लेखा-जोखा बखानना पड़ता है वेद वचन बोलने पड़ते हैं, तब कहीं जाकर ब्राह्मण-ब्राह्मण सिद्ध होता है।’’ ‘‘ऐसा ही साधु का भी है। समझ में आ जाता है असल है कि मनमुखी।’’

‘‘कोई साधु असल है कि मनमुखी, इसका पता कैसे चलेगा? अखिल को अब दिव्यानंद जी की बातों में रस आने लगा था।’’

‘‘एक मिनिट में पता चल जायेगा प्रभू..., मुण्ड है कि जटा है’’ जटा है तो केश कैसे बांधे हैं.....? किस ओर करके बांधे हैं? त्रिपुण्ड है कि तिलक? पहनावा कैसा है? फिर जो पूछना शुरू करेंगे कौन सम्प्रदाय.....कौन अखाड़ा......? कौन मढ़ी........? कौन गुरू.......? मनमुखी होगा तो जवाब देते थोड़े ही बनेगा। सिट्टी-पिट्टी गुम हो जायेगी।’’

‘‘बापरे....इतनी तगड़ी इन्क्वायरी?’’ अखिल विस्मित था।

‘‘हाँऽऽतो.....जूना अखाड़ा तो अपने साधुओं को परिचय पत्र भी देता है। ये देखिये हमारे पास है परिचय पत्र। दिव्यानंद जी ने झोले से कार्ड निकालकर दिखाया। बखत जरूरत काम आता है। कभी पुलिस पकड़ ले और पूछे ‘साधु के भेस में तुम कौन...?’ तो चट्ट से निकालकर परिचय पत्र दिखा दो। काई नकल नहीं असल साधु है महाराज। पुलिस अपने रास्ते अपन अपने रास्ते।’’ बोलते समय दिव्यानंद जी के चेहरे पर गर्व का भाव था।

‘‘फिर असली सन्यासी कौन होता है?’’ अखिन ने जिज्ञासा प्रकट की।

‘‘जो किसी अखाड़े के सद्गुरू से दीक्षा ले। सन्यास दीक्षा आसान नहीं है। पूरे बारह बरस गुरू की सेवा करनी पड़ती है। हमारी, खुद की, सन्यास दीक्षा अभी बाकि है।’’

‘‘आपकी सन्यास दीक्षा कब होगी?’’

‘‘अगले सिंहस्थ में होगी। तभी तो हम पीले वस्त्र पहनते हैं’’ दिव्यानंद जी ने जवाब दिया।

‘‘अच्छा तो जो सफेद वस्त्र पहिनते हैं....वो कौन होते है?’’ अखिल की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी।

‘‘ब्रह्मचारी! शुरू में सभी को सफेद कपड़े पहिनने को मिलते हैं। चार-पाँच साल गुरू जो आज्ञा दे उसी में जुट जाओ, जब ब्रह्मचारी की सेवा से गुरू खुश होंगे तो पीले कपड़े देंगे। तब शुरू होगा बैरागी जीवन...।’’

‘‘वो जो रसोई में सेवा दे रहे हैं वो ब्रह्मचारी हैं?’’

‘‘हाँ ब्रह्मचारी हैं। देखा नहीं कैसा दिन-रात सेवा में लगा रहता है। किसी से ज्यादा बातचीत, हँसी ठड्ढा नहीं, बस अपने काम से काम रखो और गुरू की सेवा करो।’’

‘‘ब्रह्मचारी जी को सन्यास दीक्षा के लिये बारह साल इंतजार करना पड़ेगा।’’ अखिल ने चकित होते हुए पूछा।

‘‘गुरू चाहे तो जल्दी भी दे सकते है। दोनो माईयों की तो बाबाजी ने सीधे सन्यास दीक्षा करवा दी थी। अबके सिंहस्थ में दोनों महामण्डलेश्वर भी हो जायेंगी।’’

‘‘दोनों माईयों की सीधे सन्यास दीक्षा कैसे हो गई?’’ अखिल ने प्रश्न किया।

‘‘ माईयों का प्रारब्ध तगड़ा था। पिछले जनम में ही ब्रह्मचारी और बैरागी जीवन पूरा हो गया था। इसलिये बाबाजी ने उनको सीधे सन्यास दीक्षा दी।’’

कुछ देर चुप्पी छायी रही। अखिल सोच रहा था कि बाबाजी ने दोनों माताओं के पिछले जन्म के बारे में कैसे जाना होगा? क्या किसी के अगले-पिछले जन्म के बारे में जाना जा सकता है? दिव्यानंद जी भी अपनी ही रौ में थे। वो फिर से बोलने लगे -

‘‘शुरू-शुरू में जब हम घर से भाग के आये थे तो फलाहारी बाबा के पास रहते थे। फलाहारी बाबा नियम के बड़े पक्के थे। ब्रह्मचारी का तिलक जरा आड़ा तिरछा हुआ....सेवा टहल में जरा भी देर हुई, उनकी आज्ञा के बिना किसी से बात कर ली। खास तौर पर औरत जात से तो बाबा की आँखों से अगन झरने लगती थी। दुर्वासा ऋषि थे बाबा।’’ दिव्यानंद जी की बातों से अखिल की विचार तंद्रा टूटी। उसने दिव्यानंद जी के चुप होते ही तपाक से पूछा -

‘‘और अपने बाबाजी......?’’

‘‘अपने बाबाजी तो शिव हैं.....शिव। एकदम शांत। नियम-धरम के मामले में भी ज्यादा कड़क नहीं है। इसलिये तो इस आश्रम में ब्रह्मचारी, बैरागी, साधु और भक्त सब आनंद में है।’’ बोलते समय दिव्यानंद जी की आँखों में बाबाजी के प्रति श्रृद्धा स्पष्ट झलक रही थी।

अखिल दिव्यानंद जी से कुछ पूछने ही जा रहा था कि एक विदेशी लड़की रिसेप्शन पर आ धमकी। उसे देशी-विदेशी का काॅम्बीनेशन कहा जा सकता था। रूप-रंग में पूरी तरह विदेशी। चटख रंग के कपड़ों और श्रृंगार में पूरी तरह बंजारा भारतीय स्त्री। नाक-कान यहाँ तक कि उसने नाभि में भी बाली पहिन रखी थी। माथे पर मोटी सी लाल बिंदी । सिर पर कंधे तक झूलती असंख्य पतली-पतली चोटियाँ। सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि वह अच्छी हिन्दी भी बोल रही थी।

‘‘स्वामीजी मैं गंगा आरती में जा रही हूँ लौटने में देर हो जायेगी। आश्रम का गेट तो बंद नहीं होगा न?’’

‘‘देखो माई, आरती कोई आधी रात तक तो चलती नहीं...ग्यारह बजे आश्रम का गेट बंद होता है तब तक लौट आना।’’

‘‘ठीक है’’ कहते हुए लड़की चली गई। दिव्यानंद जी अखिल की ओर मुड़ फिर कहने लगे -

‘‘हमारा बस चले तो इन अंग्रजों को आश्रम में घुसने ही न दें। खास करके पर इन हिप्पियों को तो कभी नहीं। इनको धरम-करम से कोई मतलब नहीं है। फोकट में रहने-खाने को मिल जाये बस, अब इस गंगा को ही देखो, मैं इसको जानता हूँ। यहाँ से सीधे गंजेड़ी बाबा के यहाँ जाकर दम लगायेगी। काहे की गंगा और काहे की गंगा आरती।’’

‘‘इसका नाम गंगा है’’ अखिल के स्वर में आश्चर्य का पुट था।

‘‘हओऽऽ ये सब देवी-देवता ही तो हैं जो समय-असमय भारत में रमण करने आते है।’’ दिव्यानंद जी ने व्यंग्यात्मक स्वर में जवाब दिया।

अखिल को यह व्यंग्य अच्छा नहीं लगा। उसने बात को काटते हुए कहा ‘‘विदेशियों का आना हमारे लिये गर्व की बात होती है। ये लोग हमारी संस्कृति के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। पैसा और समय खर्च करते हैं। आश्रम-आश्रम भटकते हैं। हमें इनका स्वागत करना चाहिये।’’

‘‘अरे महाराज, आप नहीं जानते। बहुत चालाक कौम है ये अंग्रेज जात। अब इस गंगा को ही लो। काम-काज कुछ करती नहीं। इसके देश में तो इसका गुजारा भी मुश्किल है। इसे बेरोजगारी भत्ता मिलता है। उसी पैसे से ये हमारे देश में मजे से घूमती-फिरती है। ‘नमो नारायण स्वामीजी’ भी सीख लिया है। बस जब मर्जी तब घुस आती है। बाहर गांजा, भांग, चरस जो भी मिल जाये वही नशा कर लेती है। बताईये, यही हमारी संस्कृति है क्या?’’

‘‘ऐसे लोगों को बाबाजी आश्रम में घुसने ही क्यों देते हैं?’’

‘‘अरे महाराज गोरी चमड़ी को तो राष्ट्रपति भवन में भी कोई नहीं रोक सकता तो फिर आश्रम में इन्हें कौन रोकेगा।’’

‘‘पर राम और काशा जैसे विदेशी भी तो हैं। जिनकी ध्यान और योग सीखने में रूचि है’’ अखिल ने तर्क दिया। दिव्यानंद जी खिलखिला कर हंस पड़े।

‘‘अखिल प्रभू, इस संसार में आप अभी बालक हो बालक........। ये राम......ये काशा.....इन जैसों की दुकाने हैं पूरे यूरोप में। यहाँ छोटी-मोटी रकम खर्च करके थोड़ा बहुत योग और ध्यान सीख लेते हैं। फिर अपने देश में योग सिखाने के नाम पर ऊँचे दाम वसूलते हैं। इन सालों ने योग, ध्यान जैसी गूढ़ विद्याओं को धंधा बना दिया है धंधा।’’

अखिल सोच में पड़ गया। उसे दिव्यानंद जी की बातों में सच्चाई नजर आ रही थी। हमारे देश में ही कोचिंग क्लासेस की तरह योगा क्लासेस का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है। कोई डिवाइन कोर्सेस चला रहा है तो कोई आर्ट आॅफ लिविंग सिखा रहा है। किसी ने लाइफ एण्ड माइण्ड इंस्टीट्यूट ही डाल दिया है। कोई सेवा नहीं है। हर जगह मोटे दाम वसूले जा रहे हैं। एक योग गुरू तो महज 20 वर्षों में कई सौ करोड़ की सम्पत्ति खड़ी कर चुके हैं। अखिल दिव्यानंद जी की बात से प्रभावित हुआ।

‘‘नमोनारायण गुरू भाई।’’ दिव्यानंद जी मुख्य द्वार से प्रवेश कर रहे एक युवा साधु को देखकर चिल्लाये। जवाब में युवा साधु ने भी दोनो हाथ जोड़कर ‘नमोनारायण’ कहा और तेज कदमों से चलकर स्वागत कक्ष में पहुंच गया। दिव्यानंद जी ने रिसेप्शन से बाहर आकर युवा साधु को गले लगा लिया। युवा साधु की उम्र पच्चीस-छब्बीस वर्ष के आसपास होगी। चेहरा-मोहरा साधारण, कंधे तक झूलते घुंघराले बाल, रंग थोड़ा दबा हुआ। भगवा वस्त्र लुंगी की तरह कमर पर लपेटा हुआ। भगवा जैकिट, पैरों में पंप शूज। कंधे पर झोला।

अखिल इस युवा साधु को गौर से देखने लगा। दिव्यानंद जी ने हाथ पकड़कर युवा साधु को सौफे पर बिठाया खुद भी उनके पास ही बैठ गये। अचानक दिव्यानंद जी की नजर युवा साधु के हाथ में बंधी पट्टी पर पड़ी तो उन्होंने चिंतित स्वर में पूछा-

‘‘ये क्या हुआ धर्मानंद जी’’

‘‘अरे क्या बतायें। रानीखेत से आमि एक बस में चढ़ा। वो ड्रायवर बोहोत खतरनाक गाड़ी चलाया। एक जगह पर बोस इतना जोर से उछला आमि सीट से गिरा....हाथ में थोड़ा चोंट लग गया। तुमि बोलो.....सुना सूर्यानंद महाराज का समाधि होने को है।’’

‘‘हाँ....श्रीमाताजी की ईच्छा है।’’

‘‘होना भी चाहिये....पंद्रह साल हो गया महाराज को इधर बाबाजी की सेवा में।’’

‘‘सो तो है.....लाईये हमारा प्रसाद कहाँ है?’’ कहते हुए दिव्यानंद जी ने अपनी दोनों हथेलियों को जोड़कर फैला दिया। धर्मानंद जी ने किसी मंझे हुए जादूगर की तरह अपने थैले में हाथ डाला। बंधी हुई मुट्ठी बाहर निकाली और दिव्यानंद जी के हाथ के कटोरे में खोल दी।

इस प्रसाद के लिये ही हम आपका इंतजार करते हैं। वरना हमें आपसे क्या मतलब। मुस्कुराते हुए धर्मानंद जी को छेड़ा। फिर हाथ अखिल के सामने करते हुए कहा ‘‘लीजिए प्रभू आप भी पाईये स्पेशल प्रसाद।’’

‘‘वाह! ये तो चाॅकलेट्स हैं।’’ अखिल ने एक चाकलेट उठाते हुए आश्चर्य से कहा।

‘‘विदेशी है प्रभू। लीजिए एक दो और लीजिए।’’

अखिल ने और दो-तीन चाॅकलेट उठाते हुए कहा - ‘‘आपने महाराज जी का परिचय नहीं कराया।’’

‘‘लो मैं तो भूल ही गया। ये धर्मानंद महाराज हैं। सोलह बरस की उमर में ही सन्यासी हो गये थे। शुरू-शुरू में दो एक बरस तो इसी आश्रम में रहे। फिर बाबाजी की आज्ञा से पिंडारी में अपना आसन जमाये हुए हैं।’’ बोलते समय दिव्यानंद जी की आँखों में धर्मानंद जी के प्रति स्नेह स्पष्ट झलक रहा था।

अखिल ने धर्मानंद जी को झुककर प्रणाम किया। प्रत्युत्तर में धर्मानंद जी ने भी ‘नमोनारायण’ कहा फिर झोले में हाथ डाला और एक साॅफ्ट लेदर का भगवा जैकिट निकालकर दिव्यानंद जी की ओर बढ़ाया -

‘‘लो गुरू भाई ये तुमि भालो लगेगा’’

‘‘अरे नहीं....यहाँ प्लेन्स में इतनी सर्दी ही कहाँ पड़ती है। आप रखो आप तो बरफ में रहते हो’’ दिव्यानंद जी ने जैकिट लौटाते हुए कहा।

‘‘हमारे पास है। इस बार बोहत विदेशी आया। जैकिट आमि को माई दिया।’’

दिव्यानंद जी जैकिट पहिनते-पहिनते अखिल की ओर मुड़े।

‘‘जानते हैं। हिमालय में हजारों फुट की ऊँचाई पर बैठे साधु के पास आपको ऐसा-ऐसा विदेशी सामान मिलेगा जो दिल्ली-मुम्बई के गृहस्थ के पास भी नहीं होगा।’’ फिर दोनों सन्यासी एक-दूसरे की आँखों में देखते हुए हँस पड़े।

‘‘सूर्यानंद महाराज से भी भेंट कर लें। आमि को तो समाधि कार्यक्रम में जाने की इजाजत नहीं मिला’’ धर्मानंद जी ने सौफे से उठते-उठते कहा।

‘‘इजाजत हमें भी नहीं है।’’ कहते हुए दिव्यानंद जी ने स्नेह से धर्मानंद जी का हाथ पकड़ा और आश्रम के अंदर चले गये।

अखिल रिसेप्शन पर अकेला रह गया। उसका मन कहीं जाने का नहीं हुआ। वह सोचने लगा। धुंध घटने की बजाय और अधिक गहराने लगी है। दस-पन्द्रह दिनों में इस संसार को समझ लेना आसान नहीं है। सच पूछा जाय तो धर्म और अध्यात्म एक विशाल सागर है। इस सागर को विस्तार से जानना। फिर अपनी राय बनाना साधारण काम नहीं है। पर, मैं एक लहर के करीब हूँ। इस लहर को ही सूत्र बनाना होगा समझने की कोशिश करनी होगी। कुछ दिन यहाँ रूकना होगा। वैसे भी यहाँ कोई असुविधा नहीं है। रहने को कमरा, दोनो समय स्वादिष्ट भोजन जानने-समझने के लिये भक्त और साधु-सन्यासी, पढ़ने-लिखने को पर्याप्त समय। एक मुक्त जीवन है यहाँ। चलो, कुछ दिन यहीं सही.....।

क्रमश..