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महामाया - 8

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – आठ

अनुराधा ने निर्मला माई के कमरे का दरवाजा खटखटाते हुए थोड़े ऊँचे स्वर में कहा।

‘‘माई हम है अनुराधा’’

‘‘अन्दर आ जाईये, अनुराधा जी’’

अनुराधा ने दरवाजा खोलकर कमरे में प्रवेश किया और निर्मला माई के पास आकर बैठ गई। निर्मला माई वार्डरोब के सामने पालथी मारे बैठी थी। उनके सामने ज्वलेरी बाॅक्स और कीमती घड़ियों के डिब्बे खुले पड़े थे।

‘‘अनुराधा जी देखिये तो, इतनी गिफ्ट इकट्ठी हो जाती है कि इन्हें कहाँ रखें समझ में नहीं आता। सब सामान इस अलमारी में ही ठूंसना पड़ता है । हमारे कपड़ों की प्रेस भी खराब हो जाती है। बहुत सारे कपड़े तो ऐसे हैं जा हमें बहुत पसंद हैं, पर उन्हें हम पहिन नहीं पाते।’’ अनुराधा के सामने निर्मला माई के अंदर वाली एक शौकीन लड़की बाहर आ जाती है। साधुता वाला गांभीर्य उनके चेहरे से तिरोहित हो जाता है।

‘‘आपको पसंद है तो पहिना कीजिए ना।’’

‘‘हाँऽऽ देखते हैं’’ कपड़ों में से एक नींबू रंग का टाॅ प उठाकर निर्मला माई ने अपने दोनों कंधों पर लगाया। ‘‘ये कैसा लग रहा है हम पर’’

‘‘आप पर तो सब अच्छा लगता है’’

‘‘निर्मला माई ने एक ज्वलेरी बाॅक्स से दो झुमके उठाकर उन्हें कान पर लगाते हुए पूछा -

‘‘और ये’’

‘‘सच में बहुत सुंदर लगेंगी आप इनमें’’

निर्मला माई के चेहरे पर मुस्कान तैर गई। वो वाॅर्डरोब में लगे काँच में खुद को देखने लगी।

‘‘इतनी सारी ज्वेलरी रखी है आप पहनती क्यों नहीं है माई।’’

‘‘आजकल तो कितनी ही साध्वियाँ सब कुछ पहिनती है पर बाबाजी मना करते हैं’’ निर्मला माई ने झुमकों को वापस ज्वेलरी बाॅक्स में रखते हुए कहा।

‘‘अरे.....मैं यही पूछने आयी थी कि बाबाजी अभी मिलेंगे क्या।’’

‘‘अभी चली जाओ, अपने कमरे में ही है।’’

‘‘अच्छा मैं फिर आती हूँ’’ कहते हुए अनुराधा कमरे से बाहर निकल गई।

‘‘आना जरूर.....तुमसे कुछ बात भी करनी है’’ निर्मला माई ने बिना अनुराधा की ओर पलटे दूसरे ज्वेलरी बाॅक्स को खोलते हुए कहा।

बाबाजी के कमरे के बाहर ब्रह्मचारी जी खड़े थे। उन्होंने अनुराधा को देखते ही मुस्कुराते हुए दोनों हाथ जोड़ दिये -

‘‘नमो नारायण दीदी’’

‘‘नमो नारायण महाराज जी....बाबाजी है कमरे में’’

‘‘हाँ बैठे हैं’’ कहते हुए ब्रह्मचारी जी ने बाबाजी के कमरे का दरवाजा खोला। अनुराधा अंदर चली गई। बाबाजी के पास वानखेड़े जी और दो अन्य व्यक्ति बैठे थे। अनुराधा ने बाबाजी को प्रणाम किया।

‘‘आओ बेटा, हम तुमको याद ही कर रहे थे।’’ बाबाजी ने स्नेह से पहले अनुराधा के सिर पर हाथ रखा फिर एक हाथ को ठोड़ी के नीचे लगाकर अनुराधा के चेहरे को थोड़ा ऊपर उठाते हुए पूछा -

‘‘माँ ठीक है’’

स्नेह का स्पर्श पाकर अनुराधा पिघलने लगी थी। उसकी आँखें गीली हो गई थी।

‘‘कल निकलना है बाबाजी। आपसे इजाजत लेने आयी हूँ।’’

‘‘कहाँ? आपको तो हमारे साथ नौगाँव चलना है बेेटे।’’

‘‘बाबाजी, आज तक की ही छुट्टी थी।’’

‘‘अरे आपको नौकरी करने की क्या जरूरत है। हम आपके लिये नैनीताल में एक बड़ा नर्सिंग होम बनवा रहे हैं उसे सम्हालिये....सेवा कीजिये और यहीं रहिये हमारे पास। जाईये तैयारी कीजिए कल सुबह जल्दी निकलना है।’’

‘‘जी बाबाजी’’ कहते हुए वह बाबाजी को प्रणाम कर कमरे से बाहर आ गई।

दिव्यानंद जी और अखिल भी बाबाजी से मिलने के लिये पहुंच चुके थे। अनुराधा के बाहर निकलते ही दिव्यानंद जी ने मुस्कुराते हुए पूछा -

‘‘क्या हुआ दीदी.....कहाँ जा रही है, दिल्ली या नौगाँव?’’

‘‘नौगाँव’’

‘‘वाह! यह हुई न बात। चलिये हम भी बाबाजी से मिलकर तैयारी करते हैं’’ अखिल ने चहकते हुए कहा।

तभी कुसुम कंधे पर झोला टांगे बड़बड़ाती हुई वहां पहुंच गई। कुछ नियम-धरम तो रह नहीं गया है। अरे साधु को क्या मोह-माया......, पर नहीं यहाँ तो जिसकी जो मर्जी में होती है वो वही करता है। कोई किसी की सुनता ही नहीं..... क्यों दीदी हम ठीक कह रहे हैं न! कुसुम ने अनुराधा के सामने पहुंचकर कंधे का झोला नीचे पटका और कमर पर दोनों हाथ रखकर खड़ी हो गई।

‘‘क्यों क्या हो गया कुसुम दीदी’’

‘‘साधु को साधु की तरह रहना चाहिए कि नहीं। निर्मला माई साधु है लेकिन वो तन पर लाल साड़ी लपेटे, खूब सारे जेवर पहिने दुल्हन की तरह सजी अपने आपको काँच में निहार रही है। बाबाजी से हमने कितनी बार कहा है कि जब तक कोई अंदर से तैयार न हो उसे सन्यास दीक्षा मत दो। पर बाबाजी तो कुसुम को पगली समझते हैं इसलिये कुसुम की हर बात हवा में उड़ा देते हैं। अरे लड़की की खेलने-खाने, सजने-संवरने की उम्र थी, पहना दिया भगवा चोला। अब तन पर भगवा रंग चढ़ा लेने भर से मन मरता है क्या......? सब साधु मुक्ति की बात करते हैं पर कोई मुक्त नहीं है वासनाओं से। इस सब से कुसुम को क्या? बाबाजी से भी कुछ कहने से क्या फायदा होगा.....कुसुम ने फिर से झोला उठाकर कंधे पर टांगा। ‘‘चलिये दीदी......देखिये न कितनी सुंदर लग रही है निर्मला माई.....कहते-कहते कुसुम ने अनुराधा का हाथ पकड़ा और उसे घसीटते हुए अपने साथ ले गई।

अनुराधा घिसटते हुए कुसुम के साथ चली जा रही थी। दिव्यानंद जी दोनों को जाते देखते रहे, फिर बुदबुदाये ‘‘पगली है बेचारी....पर कभी-कभी बड़ा खरा बोलती है। दिल हिल जाता है इसकी बात से।’’

अखिल हतप्रभ था। दोनों जब आँखों से ओझल हो गई तो अखिल और दिव्यानंद जी भी बाबाजी से मिलने के लिये उनके कमरे में प्रवेश कर गये।

नियत समय पर बाबाजी का काफिला हरिद्वार से नौगाँव के लिये रवाना हुआ। काफिले में पाँच गाड़ियाँ और एक एम्बूलेन्स थी। यात्रा लंबी लेकिन टुकड़ों में बटी हुई थी। पहला पड़ाव दिल्ली में डाला गया और दूसरा पड़ाव आरोन में करूणा चाची के घर । घर में बाबाजी के लिये पर एक कमरा बनाया गया था। जो बाबाजी के आने पर ही खुलता था। कमरा ऊपर की मंजिल पर था। बीच वाली मंजिल पर बाबाजी की स्थायी मंडली के सदस्यों को ठहराया गया। नीचे एक बड़े कमरे में देर रात तक बाबाजी का दरबार सजा। नीचे हॉल में आध्यात्मिक चर्चायें हो रही थी तो बीच वाली मंजिल पर हंसी ठठ्टा।

कौशिक, जग्गा, संतु महाराज और जसविंदर बाबाजी की स्थायी मंडली के सदस्य थे। कौशिक उत्तरांचल के किसी गाँव के रहने वाले थे। सामान्य कद काठी और उमर पचास के लगभग थी। कहने को वो भले ही बाबाजी के ड्रायवर हों लेकिन बाबाजी के सबसे विश्वास पात्र थे।

जग्गा हरियाणा का रहने वाला नई उमर का मुँहफट लड़का था। गौरा रंग, सुंदर चेहरा-मोहरा और पतला दुबला शरीर। वह बाबाजी की इस मंडली में गाड़ी चलाने के अलावा फोटोग्राफी और विडियो शूटिंग भी करता था।

साधारण सा दिखायी देने वाला पैंतीस वर्षीय जसविंदर बिहार का रहने वाला। बरसों से बाबाजी के साथ रहने से उसका बिहारी टोन समाप्त हो गया था। चारों एक कमरे में बैठे बातें कर रहे थे।

‘यार करुणा चाची के तो बड़े ठाठ है’’ जग्गा ने कौशिक जी की जांघ पर हाथ मारते हुए कहा-

‘‘बाबाजी के राज में कई लोग ऐश कर रहे हैं’’ कौशिक ने लेटे-लेटे ही कमरे की छत ताकते हुए कहा।

‘‘और कोण के ऐश हो रहे हैं यार ’’

‘‘क्यों तेरे नहीं है क्या...जसविंदर ने बैग से लूंगी निकालते हुए कहा।

कौशिक ने करवट ली और बोले ‘‘अब अपने संतु महाराज को ही देख लो आठ साल पहले बाबाजी से मिला था। पट्टे का पजामा और बनियान पहिने आता था। आज मालाएँ बेच के हजारों छाप रहा है’’

संतु महाराज बुश्शर्ट और धोती खोलकर चड्डी और बनियान में सोने की तैयारी कर रहे थे। वह कौशिक की बात सुन चिढ़ गये। ‘‘मालाएँ तुम्हारी पार्टनरशिप में ही बेचता हूँ। कौन अकेला हजम कर जाता हूँ।’’

‘‘अरे यहाँ टिकना है तो पार्टनरशिप तो करना ही पड़ेगी ........’’ कौशिक के चेहरे पर कुटिलता का भाव था।

जग्गा ने तकिया गोद में रखा। अपने दोनों हाथों को फिर तकिये पर टिकाते हुए विषयांतर किया - ‘‘यार कौशिक जी , ये करूणा चाच्ची का घर वाला यूँ ही गेलिया दिखे है...... के काम करे है.......नौकरी कि धंधा?’’

‘‘इतनी पूछाताछ करनी है तो सीबीआई में भर्ती हो जा। यहां एक ही सिद्धांत है चुपचाप देखो सवाल मत करो’’ कौशिक ने समझाईश भरे स्वर में कहा।

‘‘यार... तू कुछ भी कहले पर करुणा चाच्ची की वो छोरी है न... के नाम है उसका...

“शीला “ जसविंदर ने लूंगी लपेटकर बिस्तर में घुसते हुए कहा

... जोरदारा फटाका है यार...’’ जग्गा की आँखों में शरारत थी ।

‘‘आजकल तू हर जगह मुँह मारने लगा है जग्गा । चल अब टांगे लंबी कर और सोजा।’’ कौशिक ने बातों पर पूर्ण विराम लगाते हुए करवट ली और सोने की तैयारी करने लगे। जग्गा और संतु महाराज बिस्तर में घुसकर भी बहुत देर तक खुसुर-फुसुर करते रहे।

नीचे भी सभा समाप्त हो चुकी थी। बाबाजी अपने कमरे में पहुँच गये थे। रात लगभग एक बजे शीला दूध का गिलास लेकर आयी और बाबाजी के कमरे का दरवाजा खोलकर अंदर चली गई। सुबह लगभग साढ़े चार बजे बाबाजी के कमरे का दरवाजा खुला। शीला कमरे से निकलकर चली गई।

सूरज निकलने से घड़ी भर पहले ही घर में चहल-पहल शुरू हो गई। सुबह सात बजे के लगभग बाबाजी का काफिला आरोन से रवाना होकर दोपहर तीन बजे नौगाँव पहुँच गया।

बाबाजी यहाँ दस दिन रूकने वाले थे। यहाँ दो कार्यक्रम थे, दस महाविद्या यज्ञ और सूर्यानंद महाराज की समाधि। दोनों ही कार्यक्रम जालपादेवी मंदिर प्रांगण में होना थे। मंदिर लगभग पाँच एकड़ जमीन पर फैला हुआ था। मंदिर के बाहर हनुमान जी की विशाल प्रतिमा थी। मंदिर के अंदर संत निवास, प्रवचन हॉल, भोजनालय और खुला मैदान था। इसी मैदान में दस महाविद्या के लिये एक बड़ा सा यज्ञ मण्डप बनाया गया था।

संत निवास में दो कमरे थे। इसमें बाबाजी और दोनों माताओं को ठहराया गया। संत निवास से थोड़ी दूरी पर बने एक हॉल में महिलायें रूकी। बाकि लोगों के लिये मंदिर से जुड़ी माई की बगीची में व्यवस्था की गई।

सूर्यानंद महाराज को आयोजन स्थल से करीब तीन किलोमीटर दूर केलकर भवन में ठहराया गया।

क्रमश..