Hone se n hone tak - 22 books and stories free download online pdf in Hindi

होने से न होने तक - 22

होने से न होने तक

22.

एक महीने के भीतर ही यश के सिंगापुर शिफ्ट हो जाने की बात तय हो गयी थी। मेरी ऑखों में ऑसू तैरने लगे थे,‘‘तुम मुझसे छिपाते रहे यश। इसीलिए गए थे तुम सिंगापुर।’’

‘‘हम लोग बिज़नैस मैटर्स तय करने के लिए ही गए थे अम्बि। पर बिलीव मी मेरे वहॉ शिफ्ट होने की बात नहीं थी। असल में मम्मा वहॉ जाना चाहती थीं। वहॉ हमारी मौसी का परिवार है। मॉ और मौसी मिल कर बिग स्केल पर इण्डियन सामान के साथ फैशन स्टोर खोलना चाहती थीं। कुछ मशीनरी टूल्स के प्रोडक्शन की भी बात थी जिसे यहॉ के कोलाबोरेशन में किया जाना था। तय यही हुआ था कि मैं यहॉ का बिज़नैस सभॉलूगा और पापा मम्मा वहॉ का काम देखेंगे। मेरे ख़ुद ही नही समझ आ रहा है कि अचानक यह पूरा बिसनैस प्लान बदल कैसे गया। पर अब मम्मा कुछ सुनने के लिए तैयार ही नहीं हैं। मेरा तो ख़ुद ही जाने का मन नही है।’’

मुझ को आण्टी की उस दिन अपने ऊपर ठहरी हुयी निगाहें याद आयी थीं। किन्तु मैं चुप रही थी। कहूं भी तो क्या कहूं। फिर उससे फायदा? पर मेरी ऑखों से ऑसू गिरते रहे थे। मुझे क्या पता था कि अभी कुछ माह पहले मिले हुए घर बनवाने की बात कह कर यश समुन्दर पार चले जाऐंगे।

यश बहुत देर तक सुस्त से चुपचाप बैठे रहे थे,‘‘अम्बि तुम एक बार कह दो मैं मना कर दूंगा।’’

मैंने यश की तरफ देखा था और धीरे से हॅस दी थी। मन आया था पूछॅू कि क्या कहना होगा यश और कैसे कहना होगा, तुम जानते नही क्या कि...। पर मैं चुप रही थी। मैं जानती हूं कि इस समय यश को स्वयं नहीं पता है कि वे क्या बोल रहे हैं और उन शब्दों के अर्थ क्या हैं।

‘‘कुल चार घण्टे की ही दूरी पर तो है सिंगापुर। जब चाहोगी आ जाऊॅगा। वैसे भी महीने में दो बार तो आता ही रहूंगा। मैने तय कर लिया है। मॉम डैड से भी तय कर लूंगा।’’ फिर थोड़ी देर तक यश व्यथित निगाहों से मेरी तरफ देखते रहे थे,‘‘मैं ख़ुद ही बहुत परेशान हॅू। तुम ऐसा करोगी तो मैं क्या करुंगा।’’

यश सिंगापुर चले गये थे। कैसा तो होता है जब अनायास ही ज़िदगी अधूरी लगने लगे। कहीं किसी जगह किसी तरह मन ही न लगे। नीता ने देखा था तो पूछा था‘‘क्या हुआ अम्बिका ?’’

‘‘कुछ नही नीता।’’मैं धीरे से हॅसी थी और मेरी ऑखो मे नमी उतर आयी थी,‘‘यश सिंगापुर शिफ्ट कर गए नीता।’’ मैंने धीमें से कहा था।

मैंने नीता को पूरी बात बतायी थी। उस दिन हज़रतगंज में सहगल ऑटी के मिलने की बात और उनसे की गयी शिवानी की बात भी बताई थी मैंने। नीता ने कुछ कहने के लिए मुह खोला था फिर लगा था जैसे वह कुछ सोच कर चुप हो गयी थीं,‘‘तुम अकेले में और ज़्यादा परेशान होती रहोगी अम्बिका तुम मेरे साथ घर चलो। तुम्हारे साथ चल कर तुम्हारे कपड़े ले लेते हैं।’’

‘‘नहीं नीता मेरा अकेले ही रहने का मन कर रहा है। कहीं जाने की इच्छा ही नहीं हो रही है। कालेज तक आने का मन नही कर रहा था। एक दो दिन बाद लगा तो तुम्हे बता दूंगी।

मैं और नीता आपस में बात कर ही रहे थे कि मानसी चतुर्वेदी बगल में आ कर खड़ी हो गयी थीं। नीता ने बात बदल दी थी। मैं चुप थी। अभी भी चुप ही रही थी। मानसी जी कुछ क्षण वहॉ खड़ी रही थीं फिर कमरे के दूसरे किनारे पर लगी एक कुर्सी पर मैगज़ीन खोल कर बैठ गयी थीं। अक्सर ऐसा होता है कि मानसी जी के अचानक आ जाने पर हम लोग बात का प्रसंग बदल दिया करते हैं...पर हर बार मैं मानसी जी के प्रति अपराधी महसूस करती रहती हॅू। कितने निश्छल मन से वे मेरा ख़्याल करती हैं। कितने प्यार से उन्होंने मुझे अपनेपन के साये में समेट लिया है और उन्ही से यह छिपाव दुराव।

उस दिन मानसी को कहीं और जाना था इस लिए मैं अकेले ही घर लौटी थी। एक तरह से अकेले होना मुझे बेहतर ही लगा था। लगा था अकेला ही होना चाह रही थी। यह भी लगा था कि इस समय मानसी के धारा प्रवाह वार्ताक्रम को झेलना सरल नहीं होता मेरे लिए।

कालेज से घर पहुंच कर मैं कपड़े बदल कर लेट गयी थी। बड़ी देर तक मैगज़ीन पलटती रही थी। न जाने कब नींद आ गयी थी। मानसी जी की तेज़ आवाज़ से नींद खुली थी। दरवाज़ा खोला था तो वे सामने खड़ी हॅस रही थीं। अन्दर आते हुए उन्होने दाए हाथ का छोटा सा पैकेट ऊपर उठाते हुए दिखया था,‘‘जल्दी से चाय चढ़ाओ यार। गरम गरम समोसे और गुलाबजामन ले कर आए है।’’ उनका एक पैर अभी भी दरवाज़े के बाहर है। मुझ को अच्छा लगा था। लगा था उनकी उपस्थिति ने जैसे माहौल को आसान बना दिया है। मैं हॅसती हुयी सीधे किचन की तरफ चली गयी थी और चाय चढ़ाने के बाद ही मैंने मुह हाथ धोया था।

चाय ले कर हम दोनों डाइनिंग टेबल पर बैठ गए थे। बातें करते मेरी निगाह मेरे पलंग पर रखे उनके पर्स और उसके बगल में रखे एक प्लास्टिक बैग पर पड़ी थी। उसमें से झांकते हुए कुछ कपड़े,‘‘क्या ख़रीदारी कर डाली मानसी जी ?’’मैंने पूछा था।

‘‘कुछ नहीं। कुछ भी तो नहीं। शापिंग के नाम पर बस हलवाई की दुकान पर ही तो गए थे आज।’’ मेरी निगाहों का पीछा करते हुए मानसी ने अपने बैग की तरफ देखा था‘‘अरे उसमें रात में बदलने के कपड़े हैं।’’

‘‘मतलब?’’मेरे मुह से अनायास निकला था।

‘‘मतलब आज हम रात में तुम्हारे पास रुक रहे हैं। कल इतवार है सो कोई हड़बड़ी नही है। अब दोस्त तुम मार के वापिस भगा दोगे तो चले भी जाऐंगे।’’वे हॅसी थीं ‘‘बिल्कुल भी बुरा नहीं मानेंगे। वैसे भी यह बुरा भला मानने की बीमारी हमे नही है।’’

‘‘अरे कैसी बात कर रही हैं ?’’

‘‘देखो मित्र कैसी बात की बात नहीं है। हमने सुना था कि आज तुम्हारा अकेले ही रहने का मन हो रहा है। ऐसा तुम अपनी फुल टाइम दोस्त से कह रही थीं।’’

मैं हॅसी थी,‘‘यह फुल टाइम दोस्त क्या होता है ?’’

‘‘दोस्त यह पार्ट टाइम दोस्त का उल्टा होता है जैसे कि हम पार्ट टाइम हैं।’मानसी हॅसती रही थीं।

‘‘मानसी जी, आऽऽप भी...कुछ भी कहती हैं।’’

‘‘कहने की बात नही है। हम जानते नहीं हैं क्या?’’ उनके स्वर में कोई शिकायत और चेहरे पर किसी प्रकार का कोई विकार नही है,‘‘पर यार आज तुम्हे अकेले छोड़ने का मन नहीं किया सो बैग में अपने कपड़े डाल कर आ गए हैं। तुम्हे बिल्कुल ही अच्छा न लगे तो बेझिझक कह देना चले जाऐंगे।’’

‘‘अरे कैसी बात कर रही हैं?’’मैं अचकचा गयी थी।

‘‘अरे यार यही तो प्राब्लम है कि तुम सीधी सी बात को बहुत गहरा सा इमोशनल ट्विस्ट दे देती हो। इसमें ऐसी वैसी कैसी भी कोई बात नही है। हमें लगा हम रात मे तुम्हारे पास रुकेंगे तो तुम्हे अच्छा ही लगेगा। पर अगर दिन वाले अकलेपन का मूड बरकरार है तो हम चले जाऐंगे। कोई भी, कतई भी प्राब्लम नही है। बस सही सही बता देना।’’

कालेज में नीता के घर जाने की बात पर मुझे अकेले बने रहने की इच्छा भले ही रही हो पर इस समय मुझे मानसी जी का आना सच मे अच्छा लग रहा है। अपने प्रति मानसी का जुड़ाव भी औैर यह एहसास भी कि आज मैं अकेली नहीं रहूंगी। मन किया था कि मानसी से कहें यह बात पर लगा था कि फिर डाटेंगी वे मुझे,‘‘अरे यार तुम अंग्रेज़ी वाले इस कदर फार्मल क्यो हो जाते हो भई। यह हर समय थैक्यू वैल्कम अपने से नही होता। अपन तो ज़ुबान की नहीं दिल की भाषा बोलते हैं और वही हमे समझ में आती है।’’

उनसे इतने दिनों की निकटता में मैं मानसी की दिल की ज़ुबान अच्छी तरह समझने लग गयी हूं। इसलिए मैं चुप ही रही थी। पर उनका आना और इस समय अपने आस पास होना मुझे राहत दे रहा है। हम दोनो के बीच दुनिया भर की बातें होती रही थीं। मैं ने यश की भी बात की थी। यह भी बताया था कि अधिकांश जीवन हम दोनों आस पास ही रहे हैं। बीच के कुछ सालों को छोड़कर जब एम.बी.ए. करने के लिए और फिर एक साल की ट्रेनिंग के लिए यश बाहर रहे थे।.पर तब तक मुझे इस तरह से यश की आदत नही पड़ी थी। जब से मैं लखनऊ आई हूं तब से तो यश यहीं रहे हैं,‘‘मुझको यश की आदत पड़ गयी है।’’ मैंने कहा था और कहते हुए मेरी आवाज़ भर्रा गयी थी और ऑखो में पानी तैरने लगा था।

‘‘अरे दोस्त तुम्हारे उतरे चेहरे ने तो एकदम डरा दिया था हम को। यह भी ऐसे कोई मुॅह लटकाने की बात हुयी भला। हम जिनसे भी प्यार करे वे कहीं हैंं...स्वस्थ हैं और उन्होने हमे अपनी लिस्ट में से काटा नही है...बस इतना काफी होता है।’’

मानसी ने यह बात इस ढंग से कही थी कि मुझे लगा था कि शायद सही ही कह रही हैं वह। कुछ देर के लिए दूरी की पीड़ा सच में कम लगने लगी थी जैसे।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com