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कुफ़्र

कुफ़्र

(कहानी पंकज सुबीर)

ज़फ़र आज भी घर नहीं लौटा है। ऐसा अक्सर ही होता है। दिन भर का थका हारा ज़फ़र देर रात घर लौटता है। घर लौट कर एक ही बात कहता है आज खाना नहीं खाऊँगा दोस्त नहीं माने तो उनके साथ खा लिया था। मुमताज भी कुछ नहीं बोलती। मालूम है कि उसका शौहर उसे शर्मिंदगी से बचाने के लिए ऐसा कह रहा है। वरना क्या वो इतना भी नहीं जानती कि ग़रीबी और दोस्त ये दोनों चीज़ें एक साथ कभी नहीं रह सकतीं। भूख का पेड़ जब पेट में उगा हो तो चेहरा ख़ुद ही बता देता है। मुमताज उस एक झूठ को चुपचाप गरदन हिला कर मान लेती है। मान लेने के अलावा चारा भी क्या है। जब ग़ुरबत घर में भांय-भांय करती डोल रही हो तो भूख भी उसकी सहेली बनकर सर पर तीन तड़ांग खेलती है।

बच्चों को थोड़ा बहुत खिला पिला कर सुला दिया है मुमताज ने। ज़फ़र जान बूझकर देर करता है, जानता है बच्चे सो गए होंगे। जब हाथ भरे होते हैं तब तो शाम ढलते ही घर लौट आता है। मगर हाथ भी रोज़ कहां भरे होते हैं, अक्सर तो देर रात अपने ही घर में बिना खटके चोरों की तरह आता है। अगर पेट में भूख हो तो आंखों में नींद भी कच्ची होती है। फिर बच्चों को भी कहां पता है कि उनका बाप किस हाल में है, वे तो बस ये जानते हैं कि अब्बा सुबह से काम पर निकल जाते हैं। काम के बदले में पैसा मिलता है जिससे खाना आता है, और ये खाना ही भूखमार दवा है। अब इन्हें ये कौन बताए कि काम तो आदमी तब करेगा ना जब काम हो। दिन भर फैक्ट्री के पिछवाड़े बैठकर घर लौटा हुआ आदमी खाली हाथ नहीं आएगा तो कैसे आएगा।

तीन भाइयों की पीठ पर पैदा हुई मुमताज का नाम माँ-बाप ने मुमताज क्यों रखा था ये तो उसे पता नहीं। हाँ नाम जैसा कुछ नहीं मिल पाया उसे। जो मिला वो सब कुछ उन्हीं नामों के अनुरूप था जो अम्मी उसके झौंटे पकड़ कर पीटती हुई उसे देतीं थीं ‘‘करमजली, नासपीटी’’। अम्मी की ही ज़बान फल गई थी। अगर वो ऐसा जानतीं तो शायद उसे मुमताज ही कह कर बुलातीं।

‘‘बच्चे सो गए क्या ?’’ ज़फ़र ने धीरे से पूछा। ‘‘हाँ अभी सोए हैं, आज बड़ी देर कर दी ?’’ मुमताज ने कहा।

‘‘हाँ आज फिर काम नहीं मिला ठेकेदार कहता था कि अगर और ऐसा चला तो वो वापस चला जाएगा। यहां उसको बैठे की मज़दूरी भी नहीं निकल रही’’। ज़फ़र ने कुरता उतार कर मुमताज को देते हुए कहा।

‘‘ख़ुदा सब ठीक करेगा, उस पर भरोसा रखो’’ मुमताज ने शौहर को टूटा हुआ जानकर कहा।

‘‘हाँ अब तो बस उसी का भरोसा है’’ ज़फ़र ने ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा।

कुरता टांग कर मुमताज रसोई घर में चली गई। हाथ में खाने की थाली लिए लौटी तो ज़फ़र आंखें बंद किए लेटा है। भूख भी कितना अभ्यस्त कर देती है आदमी को। जानता है कि अगर खाली हाथ घर लौटा है, तो केवल सुलाने के अलावा ये घर और कुछ भी नहीं देगा। ‘‘खाना खा लो’’ मुमताज का स्वर सुनकर ज़फ़र चौंक पड़ा।

‘‘अरे मैं तो ......’’ ज़फ़र की बात को काटती हुई बोली मुमताज ‘‘बाहर से खाकर आए हो, पर थोड़ा बहुत खा लो आज तुम्हारी पसंद का सालन बनाया है।’’

‘‘तुमने खा लिया......?’’ ज़फ़र ने हाथ में थाली को पकड़ते हुए पूछा।

‘‘खा लूंगी आप खाओ तब तक मैं अंदर का काम निबटा लेती हूँ’’ कहते हुए मुमताज जैसे ही अंदर जाने के लिये मुड़ी वैसे ही ज़फ़र ने उसका हाथ थाम लिया। ‘‘आओ बैठो साथ ही खा लेते हैं’’ ज़फ़र ने मुमताज को नीचे बैठाते हुए कहा। दोनो मियाँ बीबी चुपचाप खाना खाने लगे। दोनों छोटे से छोटा कौर तोड़ कर खाने का प्रयास कर रहे थे ताकि अगला ज़्यादा खा सके। ‘‘ऐसे कब तक चलेगा ?’’ मुमताज ने शौहर की ओर देखते हुए पूछा। ‘‘वही तो मैं भी सोच रहा हूँ कि कुछ तो करना ही पड़ेगा अब फैक्ट्री का तो आसरा है नहीं’’ ज़फ़र ने हाथ के कौर को थाली में ही छोड़ते हुए कहा। ज़फ़र को कौर छोड़ते देख मुमताज को अपनी ग़लती का एहसास हुआ कि उसने ग़लत वक्त़ पर ग़लत बात छेड़ दी है ‘‘खा तो लो फ़िक्र करने को तो उम्र पड़ी है’’ मुमताज ने शौहर के हाथों पर हाथ रखते हुए कहा। ज़फ़र ने फिर से खाना शुरू कर दिया ‘‘सोचता हूँ कि कल केण्ट तरफ चला जाऊँ, सुना है वहाँ कुछ फैक्ट्रियों में भर्ती चल रही है लेबर की’’ ज़फ़र ने सर झुकाए झुकाए ही कहा। ‘‘कहीं पिछली बार जैसा न हो, देख कर जाना’’ मुमताज ने भी उसी प्रकार सर झुकाए हुए कहा ‘‘अब होता है तो होता रहे उस पर तो किसी का बस नहीं है’’ ज़फ़र ने थोड़ा सख़्त लहजे में कहा। कनपटियों की नसें भी कुछ उभर आईं।

दो महीने पहले भी ज़फ़र ने एक जगह काम के लिए प्रयास किया था। फैक्ट्री के जावर ने मजबूत कद काठी देखकर उसे रखने पर अपनी रज़ामंदी भी दे दी थी मगर जब सुपरवाइज़र के सामने पेशी हुई तो ज़फ़र की क़िस्मत उसके धर्म के सामने हार गई। बाहर निकलते समय ज़फ़र के कान में वो शब्द भी पड़े थे जो सुपरवाज़र जावर से कह रहा था ‘‘तुमको कुछ अकल भी है कि नहीं ? ये लोग भरोसे के क़ाबिल भी होते हैं ? सेठ वैसे ही इन लोगों से चिढ़ता है, ख़ुद तो जाओगे साथ में मेरी भी नौकरी लेकर डूबोगे’’। सुपरवाइज़र की कही बात ज़फ़र के कानों में गर्म लावे की तरह उतर गई थी।

आदमी ने अपनी बेईमानी और कमीनेपन को छुपाने के लिये धर्म नाम का शब्द गढ़ लिया है। ये शब्द वास्तव में आदमी ने पूरी आदमियत के कमीनेपन को उजागर होने से बचाने के लिए गढ़ा है। ये लोग कहते हैं कि वो लोग बेईमान हैं और वो लोग कहते हैं कि ये भरोसे के क़ाबिल नहीं हैं। ये लोग, वो लोग के चक्कर में पूरी आदमियत अपनी बेईमानी अपना कमीनापन छुपा कर मासूम बनी रहती है। मुमताज ने ज़फ़र की कनपटियों और माथे की नसों को उभरते देखा तो धीरे से कहा ‘‘सब लोग एक समान नहीं होते’’। खाना ख़त्म करके ज़फ़र पानी का लोटा लिए बाहर हाथ धोने चला गया मुमताज बर्तन समेट कर अंदर चली गई।

अगले दिन सुबह जब ज़फ़र काम पर पहुंचा तो वहाँ का माहौल पिछले दिनों की तरह से ही था। सारे मज़दूर हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। ज़फ़र भी जाकर विनय के पास बैठ गया, विनय पढ़ा लिखा लड़का है, ज़फ़र से काफी कम उम्र का है फिर भी दोनों की ख़ूब पटती है।

‘‘आओ ज़फ़र भाई तुम भी देखो तमाशा’’ विनय ने व्यंग्य के स्वर में कहा।

‘‘तमाशा.....? आज क्या होने वाला है’’ ज़फ़र ने पूछा।

‘‘सुना है आज सब फाइनल हो जाएगा। अपने अपने घर जाओ कांदा रोटी खाओ।’’ विनय ने व्यंग्य के साथ हंसते हुए कहा।

‘‘खाओ तो तब ना जब घर में हों’’ ज़फ़र ने व्यंग्य का जवाब व्यंग्य से देते हुए कहा।

‘‘पूरी कविता सुनो तुम्हारे सवाल का जवाब मिल जाएगा। ‘अपने अपने घर जाओ कांदा रोटी खाओ, कांदा रोटी ना मिले तो चूहे की पूंछ कुतर के खाओ’’ विनय ने कविता को गाकर सुनाते हुए कहा।

‘‘ग़रीबों के घर ये चूहे क्या भूखे मरने आऐंगे ? आखिर को चूहों का भी तो पेट होता है, जिस घर में इंसानों को ही दो वक्त की नसीब नहीं हो रही है, वहां के चूहों को रोज़े नहीं रखने पड़ेंगे तो और क्या होगा’’ ज़फ़र ने कहा।

‘‘ज़फ़र भाई कविता तो मैंने नहीं बनाई, जिसने बनाई उसने चूहे की पूंछ कुतरने का ही लिखा है’’ विनय ने हंसते हुए कहा।

‘‘ज़रूर किसी भरे पेट वाले ने लिखी होगी ये कविता, जिनके घर में चूहे होते होंगे। यहां तो बच्चे ही दानों के लिए तरस रहे हैं।’’ ज़फ़र ने कुछ हिकारत के साथ उत्तर दिया।

‘‘अब करोगे क्या ? यहां तो सुना है कि आज ही सब कुछ फुल एंड फाइनल होने वाला है’’ विनय ने ज़फ़र के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

‘‘देखूँगा कोई ऐसी जगह जहां मुझे मुसलमान होने के बाद भी काम मिल जाए’’ ज़फ़र ने कड़वे स्वर में उत्तर दिया।

‘‘ज़फ़र भाई हिन्दू मुसलमान तो कोई धर्म है ही नहीं, असल धर्म तो दुनिया में दो ही हैं। अमीरी और ग़रीबी। भरे पेट वालों का धर्म और खाली पेट वालों का धर्म। जब तक आदमी का पेट खाली है तब तक उसे ना तो ये याद रहता है कि मै हिन्दू हूँ और ना ये कि सामने वाला मुसलमान है, मगर जहां पेट भराया कि तुरंत अपना धर्म याद आ जाता है’’ विनय ने ज़फ़र के स्वर की कड़वाहट को भांपते हुए समझाइश भरे स्वर में लंबी बात कही। ज़फ़र ने कोई उत्तर नहीं दिया चुपचाप ज़मीन कुरेदता रहा। ‘‘जब पेट में रोटियां छम छम करके नाच रही हों, तब होता है आदमी हिन्दू या मुसलमान, वरना तो हम एक ही ज़ात के हैं भुखमरों की ज़ात के। हिन्दू या मुसलमान होने का रईसी शौक पालना हमारी औक़ात से बाहर की चीज़ हैं’’ विनय ने ज़फ़र के गुस्से को कम न होते हुए देख कर अपनी बात को बढ़ाया।

‘‘तो फिर मैं कहा जाऊँ ? ग़रीबों की फैक्ट्रीयाँ तो होती नहीं हैं, होती तो रईसों की ही हैं। और रईसों के लिए तो मैं या तो मुसलमान हूँ या हिन्दू हूँ। ‘वो लोग’ जिन पर भरोसा नहीं किया जा सकता’’ ज़फ़र ने कड़वाहट भरे स्वर में ही कहा। विनय निरुत्तर होकर उसे देखता रहा।

‘‘जैसे ही अपना नाम बताता हूँ वैसे ही लोगों के माथे पर शिकन पड़ जाती है। जैसे मैं मुसलमान न होकर कोई जानवर हूँ। क्या मुझे ये सब दिखता नहीं है ? और बेईमानी तो आदमी की ज़ात में ही है मगर ये बेईमानी हमेशा भरे पेट वाले ही करते हैं। हम जैसे भुखमरों के पास रोटी का सवाल हल करने से ही फ़ुरसत कब मिलती है जो बेईमानी जैसे अमीरों के शौक़ पालें’’ ज़फ़र ने विनय को मौन देखकर कहा।

‘‘और, बच्चे क्या करते हैं दिन भर ?’’ विनय ने बात को गंभीर होते देख विषय बदलते हुए कहा।

‘‘करते क्या हैं जब तक यहां का काम चलता था तब तक वो स्कूल भी जाते थे, पर अब तो हालत ये है कि दिन भर मारे मारे मुहल्ले में फिरते हैं’’ ज़फ़र ने उत्तर दिया।

‘‘कहीं काम पर क्यों नहीं लगा देते, चार पैसे लाऐंगे तो तुमको भी सहारा मिलेगा’’ विनय ने कहा।

‘‘हाँ अब तो वही करना पड़ेगा सोचता था कि फैक्ट्री में काम चालू हो जाएगा तो फिर से स्कूल भेजना शुरू कर दूंगा। बच्चों के हाथों में पेचकस और पाने पकड़ाना नहीं चाहता था, पर ऐसा लगता है कि वही क़िस्मत में लिखा कर आए हैं, वो तो भला हो मुमताज का कि जो उसे कुछ सीना पिरोना आता है थोड़ा बहुत इधर उधर का कर के घर का चूल्हा सुलगा लेती है’’ ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा ज़फ़र ने।

‘‘कोई ज़रूरी है कि बच्चों को मैकेनिक ही बनाओ, और भी तो काम हैं’’ विनय ने कहा।

‘‘जो लोग मुझे मुसलमान होने के कारण काम नहीं दे रहे हैं, वो मेरे बच्चों को देंगे क्या?’’ ज़फ़र ने कड़वाहट से कहा।

‘‘एक काम है तो सही, और रोज़-रोज़ का भी नहीं है बस हफ्ते में एक दिन करना है। तीनों बेटे एक दिन में ही इतना कमा लाऐंगें कि घर भी चल जाएगा और स्कूल भी जाने लगेंगे’’ विनय ने कुछ सोचते हुए कहा।

‘‘कुछ ग़लत काम ही होगा’’ ज़फ़र ने कहा।

‘‘ग़लत का मतलब चोरी वगैरह तो नहीं हाँ तुम्हारे मजहब के हिसाब से वो ज़रूर है जिसे तुम वो क्या कहते हो, हाँ क़ुफ्ऱ, क़ुफ्ऱ ज़रूर है’’ विनय ने मुस्कुराते हुए कहा।

‘‘क़ुफ़्र की तो तब सोचें जब पेट में रोटियां हों, खाली पेट वालों के लिए क्या तो क़ुफ़्र और क्या उसका डर’’ ज़फ़र ने कहा।

‘‘तो चलो मेरे साथ’’ विनय ने उठते हुए कहा।

‘‘कहां ? पहले यहां का फैसला तो सुन लें’’ ज़फ़र ने हैरानगी के स्वर में कहा।

‘‘फैसला तो हो चुका है अब हमारे सुनने या ना सुनने से कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला तुम तो चलो मेरे साथ’’ विनय ने हाथ पकड़ कर ज़फ़र को उठाते हुए कहा।

‘‘पर चलना कहाँ है ?’’ ज़़फर ने उठते हुए पूछा।

‘‘तुम चलो तो सही तुम्हें कुछ सामान दिलाता हूँ’’ विनय ने कहा।

‘‘सामान....? यहां तो रोटियों के लाले हैं और तुम सामान ख़रीदने की बात कर रहे हो’’ ज़फ़र ने हैरानी से फिर कहा।

‘‘अभी उधार दिलवा देता हूँ परसों आकर पैसे दे जाना’’ विनय ने कहा।

‘‘कहां से दे जाऊँगा ? क्या कल आसमां से टपक पड़ेंगे पैसे ?’’ ज़फ़र ने फिर सवाल किया।

‘‘आसमां से नहीं इन्हीं रईसों के पास से आऐंगे जो तुम्हें काम नहीं दे रहे’’ विनय ने कहा।

‘‘कैसे आऐंगे ? ’’ चलते हुए ज़फ़र ने पूछा।

‘‘क्योंकि कोई ऐसा भी है जिसके माने इन सारे के सारे रईसों की फटती है’’ विनय ने ठिठक कर ज़फ़र की आखों में झांकते हुए उत्तर दिया।

‘‘कौन है वो.....?’’ ज़फ़र ने पूछा।

‘‘सब पता चल जाएगा तुम चलो तो सही’’ कहते हुए विनय ने ज़फ़र की बाँह पकड़ कर उसे खींच लिया।

शाम को जब सामान का झोला लिए ज़फ़र घर पहुंचा तो मुमताज हैरत में पड़ गई।

‘‘ये क्या ले आए’’ हाथ का झोला पकड़ते हुए उसने पूछा।

‘‘काम का सामान है, विनय ने दिलवाया है कल से बच्चों को काम पर भेजना है, और हाँ एक थैली में कुछ राशन भी है, विनय ने ही दिलवा दिया है कि परसों आकर पूरा हिसाब कर जाना’’। ज़फ़र ने उत्तर दिया।

‘‘काम पर जाना है ? कहाँ ?’’ मुमताज ने पूछा।

‘‘वो कल बता दूंगा, सुबह जल्दी उठकर बच्चों को नहला धुला कर तैयार कर देना’’ ज़फ़र ने संक्षिप्त सा उत्तर देकर बात को खत्म कर दिया। सुबह जब मुमताज बच्चों को नहला धुला कर लाई तो देखा कि ज़फ़र सारा सामान जमा कर बैठा है। ज़फ़र ने बच्चों को देखा तो मुमताज से बोला ‘‘मेरे वास्ते भी नहाने का पानी भर लाओ तब तक मैं बच्चों को तैयार कर देता हूँ ’’। मुमताज जब पानी भर कर लौटी तब तक ज़फ़र बच्चों को तैयार कर चुका था। मुमताज ने देखा तो कानों पर हाथ रख कर बोली ‘‘या ख़ुदा ये क्या क़ुफ्ऱ कर रहे हो’’

‘‘कुछ क़ुफ्ऱ नहीं है, ये बस एक दिन का ही है। बस हफ़्ते में एक दिन के लिए।’’ ज़फ़र ने लापरवाही से कहा।

‘‘ज़रा तो ख़ुदा से डरो’’ मुमताज ने कहा।

‘‘इसमें बुरा क्या है जो डरूँ ? कोई चोरी डकैती जैसे काम तो करवा नहीं रहा मैं अपने बच्चों से।’’ ज़फ़र ने उत्तर दिया।

‘‘मगर आस पड़ोस वाले क्या कहेंगे ?’’ मुमताज ने फिर सवाल किया।

‘‘कोई कुछ नहीं कहेगा। मुंह अंधेरे बच्चे निकलेंगे तो शाम ढलने के बाद ही आऐंगे। कोई देखेगा ही नहीं तो बोलना क्या’’ ज़फ़र ने फिर उतनी ही लापरवाही से कहा। ‘‘मगर.......’’ मुमताज ने कुछ प्रतिवाद करने का प्रयास किया। लेकिन ज़फ़र ने हाथ का इशारा करके बात काटते हुए कहा। ‘‘बस... अब इस बारे में कोई बात नहीं होगी।’’

मुमताज ने शौहर के तेवर देखे तो कुछ ना बोली। ज़फ़र ने सबसे छोटे बेटे के बाल ठीक किये और बोला ‘‘ठीक वैसा ही करना जो मैंने बताया है, उन तीन शब्दों के अलावा कुछ भी मत बोलना नहीं तो सब गड़बड़ हो जाएगी। ’’

बड़े बेटे ने उत्तर दिया ‘‘जी अब्बू’’

‘‘चलो अब एक बार अपनी अम्मी के सामने जाकर प्रेक्टिस कर लो’’ ज़फ़र ने कुछ मुस्कुरा कर मुमताज की ओर देखते हुए कहा। तीनों बच्चे मुमताज के पास पहुंचे और अपने हाथ में पकड़ी हुई स्टील की लटकन को ऊपर उठाते हुए एक स्वर में बोले ‘‘जय शनि महाराज’’।

-:(समाप्त):-