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घूँघट

आरुषि ने घूँघट उठाकर ससुराल में जब अपने स्वागत के लिए की गई तैयारियों को देखने की कोशिश की, तो दादी सास ने बहू की तरफ भौहें चढ़ाकर घूँघट नीचे करने का इशारा किया। आरुषि ने भी बेमन से दादी सास का आदेश स्वीकार किया। क्योंकि आरुषि का पालन पोषण एक शहर में हुआ था। इसीलिए उसे गांव के रीति-रिवाजों के समझने में असहजता महसूस हो रही थी। साथ ही साथ आरुषि आधुनिक युग में पर्दा प्रथा जैसे रूढ़िवादी रीति-रिवाजों को देख कर अचंभित भी थी। शादी के कुछ दिन बीत जाने के बाद जब आरुषि सभी परिवार वालों के साथ मित्रता पूर्वक व्यवहार करती।अपनी दादी सास को दादी जैसी,सासु माँ को अपनी सगी माँ जैसी,ससुर जी को अपने पिता समान समझकर उनके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करती तो ग्रामींण इलाक़े के इन लोगो को कुछ अटपटा ही लगता।ससुरालवालों पर अपनी बहू के इस प्रेमपूर्ण व्यवहार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। वे तो अभी भी आरुषि को रूढ़िवादी रिवाजों में लिपटा हुआ देखना चाहते थे। जबकि आरूषि इन रुढिवादी रिवाजों को त्यागकर एक सुंदर समाज की रचना करना चाहती थी। जिसमें गांव की हर एक महिला इस घूँघट प्रथा की कुरीति को त्याज्य मानकर समाज में अपनी एक पहचान स्थापित करें। लेकिन आरुषि के ससुरालवाले उसके इस व्यवहार से रुष्ट रहते थे। एक दिन आरुषि का हृदय अपने सासुमां के तीक्ष्ण कटाक्षो को सुनकर चूर-चूर हो गया।इन कटाक्षो को सुनकर आरुषि के आत्मसम्मान को काफी हद तक ठेस पहुंची।आज उसका मन जोर-जोर से चिल्ला कर अपने सारे विरोधो को आँसू के जरिये बहा देना था। लेकिन शायद उसका रोना उसे अपने रूढ़िवादी विचारधारा रखने वाले सास-ससुर के सामने कमजोर कर देता। इसीलिए उसने अपने आंसुओं को अपने आंखों के अंदर ही छुपाना बेहतर समझा। और सास-ससुर के तीक्ष्ण प्रहारों का जवाब आरुषि ने बड़ी ही सहजता से दिया।

आरुषि ने कहा कि- "सासुमाँ क्या आपको याद है। जब मेरी विदाई हुई थी, तो आपने मेरे पापा से कहा था कि आरूषि को हम बिल्कुल अपनी बेटी की तरह रखेंगे। क्योंकि हमारी अपनी कोई सगी बेटी नहीं है। लेकिन आरुषि के रूप में आपने हमें एक बेटी दी है। इसीलिए आरुषि की तरफ से आप एकदम निश्चिंत रहिए।"

सासु मां ने इसका प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि- "हां बिल्कुल कहा था। और क्या जब से अब तक हमने तुम्हें कोई दुख दिया है।"

आरुषि ने कहा कि- "आपने मुझे कोई दुख नहीं दिया। लेकिन एक बात मेरे अभी तक समझ में नहीं आई कि आपके घर में कोई बेटी होती तो क्या आप उसे घूंघट में रखते या फिर यह नियम सिर्फ बेटी जैसी बहू के लिए ही है। सासु माँ मेरा विरोध आपसे नहीं है। बल्कि आप लोगों के दिलों में घर कर चुकी उस दकियानूसी सोच से हैं, जो इस समाज की हर महिला को आगे बढ़ने में अटकलें लगाती है। अगर कोई महिला आगे बढ़ने का साहस जुटा भी लेती है, तो यह रूढ़िवादी रीति-रिवाज किसी महिषासुर की भांति उसके मार्ग में खड़े हो जाते हैं। और आप बताइए सासुमाँ अगर हर वक्त में घर में मुख को घूंघट के पीछे छिपाकर रखूंगी, तो आप लोगों के सामने कैसे सहज हो पाऊंगी। अगर आप घूँघट को किसी महिला की मर्यादा से जोड़कर देखते हैं, तो यह उचित नहीं है। अगर एक लड़की अपने मायके में अपने माता-पिता के सामने बिना किसी पर्दे के रह सकती हैं, तो शादी के बाद ससुराल में माता-पिता जैसे सास-ससुर के सामने ऐसा क्या बड़ा परिवर्तन आता है कि उसे हमेशा पर्दे के पीछे रहना पड़ता है। शादी के बाद लड़की के घूंघट से ढके हुए चेहरे को उसकी शान क्यों समझा जाता है। अगर आप लोग अपनी बेटी को इस तरह रखते हैं, तो मैं आपकी बहू बनकर ही खुश रहूंगी। क्योंकि मैं नहीं चाहती कि इससे किसी की बेटी की सफलता पर कोई रोक लगे।"
आरुषि यह कहकर अंदर चली जाती है।

आज एक साल बाद आरूषि अपनी शादी की पहली सालगिरह बिना किसी घूँघट के मना रही है। और उसके गांव की महिलाएं भी बिना किसी पर्दे के आरुषि के खुशियों के इस जश्न में शिरकत कर रही है। आरुषि के इस घूंघट प्रथा के विरोध से सिर्फ उसका जीवन ही खुशियों से नहीं भरा है। बल्कि गांव की सभी महिलाओं ने पर्दा प्रथा से रहित समाज को देखने का अनुभव प्राप्त किया है।