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भदूकड़ा - 41

सुमित्रा जी, कुन्ती, सुमित्रा जी की बेटियां रूपा-दीपा और जानकी पीछे वाली अटारी में नीचे गद्दे बिछा के लेटीं, एक लाइन से. कुन्ती तो जल्दी ही सो गयी, लेकिन अब कूलर की आदी हो चुकीं सुमित्रा जी और रूपा-दीपा सितम्बर की उमस वाली गरमी में बिना पंखे के सो ही नहीं पा रहे थे. इन तीनों ने जानकी सहित, अटारी के बाहर वाली छोटी छत पर लेटने का मन बनाया.
इन तीनों ने जानकी सहित, अटारी के बाहर वाली छोटी छत पर लेटने का मन बनाया. फटाफट बाहर गद्दे लाये गये. यहां कुछ हवा भी थी और कमरे के अन्दर वाली उमस भी नहीं थी. सुमित्रा जी ने कुन्ती को भी जगा के बाहर चलने के लिये पूछा, लेकिन गहरी नींद में डूबी कुन्ती ने बाहर जाने से मना कर दिया. सुमित्रा जी तो यही चाहती थीं. उन्हें अब जानकी से बात करने का मौक़ा मिलेगा, वरना सुबह तो फिर वही कामकाज शुरु हो जायेगा तो कोई बात हो ही नहीं पायेगी, जिसके लिये सुमित्रा जी खासतौर से छुट्टी ले के आईं हैं. दीपा अभी छोटी है, तो उसे भी जल्दी ही नीं आ गयी, जबकि रूपा अब बड़ी हो गयी है तो तमाम परिस्थितियों को न केवल समझती है बल्कि मां को सलाह भी देती है. अभी भी वो सुमित्रा की चिन्ता में बराबर की भागीदार है.

दीपा के सोते ही, सुमित्रा जी जानकी के पास खिसक आई हैं. जानकी भी जैसे मौके की तलाश में थी.

जानकी, बेटा जो कुछ हमें किशोर ने बताया, वो हमारी समझ में ठीक से नहीं आ पाया. तुम बताओ, बात क्या है? सुमित्रा जी के इतना पूछते ही पहले तो जानकी चुप हो गयी फिर उसने धीरे-धीरे बोलना शुरु किया-

छोटी अम्मा, जे अम्मा हमाओ जीना हराम करें. हमाओ खाबौ-पीबौ मुस्किल करें. पहनबे ओढ़बे की तौ छोड़ई दो. कछु बनाओ, उनै थारी फ़ेंक दैनें. बात-बात में हमाय अम्मा-पापा खों गारीं दैनें. तनक काजल-बिन्दी कर ल्यो, तौ ताने मारने, कै हमें जरा रईं का ! सासें अपनी बहुअन खों कित्तौ तैयार कर कें राखती इतै, गांव में, औ एक जे हमाई सास हैं, इनै हमाओ तैयार होबो नई पुसात. एक तौ बैसई इतै गांव में काय हां तैयार हौने, कभऊं त्यौहार के दिना पहन ओढ़ ल्यो, तौ ल्यो! सुन ल्यो फिर ऐन मताई-बाप कीं. अम्मा-पापा के लानै गारीं नईं सुनी जातीं हमसें छोटी अम्मा....!

सुमित्रा जी पता नहीं कब लेटे-लेटे ही जानकी के सिर पर हाथ फेरने लगी थीं.

अबै, एक मइना सें इननै मारबौ सीक लओ. अब जे बात-बात पै मारबे दौड़तीं. जौन कछु हांत में पकरैं रतीं, बाई फ़ेंक कैं दै मारतीं. तीन-चार दिना पैलां तौ उनने हमाई जौन गत बनाई, काऊ नै न बनाई हुइये. हमाय अम्मा-पापा नै हमाय ऊपर कभऊं हाथ नईं उठाओ. बे मार कें जानतई नइयां . अब अगर बे सुनैं कै उनकी मौड़ी कुट रई, लातन सें, हांतन सें, बार पकड़ कें घसीटो जा रओ, तौ बे तौ मर जें छोटी अम्मा.

अंधेरे में ही अपना घिसटने से छिल गया हाथ दिखाती जानकी आंसुओं सहित रोने लगी थी.

तुम रोओ नईं बेटा. हम करेंगे कुछ न कुछ जरूर.....! कह तो दिया लेकिन सुमित्रा जी ही कहां सोच पा रही थीं, कि आखिर वे करेंगी क्या? कुन्ती को तो ब्रह्मा जी भी नहीं समझा सकते उसकी तौ औकात ही क्या !

क्रमशः