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तानाबाना - 2

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झीनी बीनी चदरिया के ताने की पहले तारों की बात मैंने शुरु की ही थी कि एक तार खट से टूट गया । दूसरा तार उलझ कर स्वयं से ही लिपट गया ।

जिस साल यह घटना घटी, वह साल था उन्नीस सौ चालीस का साल जब भारत जो तब हिन्दोस्तान के नाम से जाना जाता था, गुलाम देश था । यह राजनीतिक और सामाजिक उथलपुथल का वर्ष था । एक तरफ आजादी का संघर्ष चरम पर था तो दूसरी ओर मिशनरी तथा ब्रह्मसमाज जैसी संस्थाओं के प्रयासों से भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रचार - प्रसार हो रहा था । युवक थोङा बहुत पढकर सरकारी नौकरियाँ पाने लगे थे । धनी वर्ग की पहुँच इंग्लैड के शिक्षण संस्थानों तक होने लगी थी । राजा राममोहन राय, केशव चंद्र जैसे कई लोग और रामकृष्ण मिशन जैसी संस्थाएँ समाजसुघार के लिए प्रशंसनीय कार्य कर रही थीं । निम्नवर्ग पहले की तरह शोषण का शिकार था और इस दलितवर्ग में हर समाज की स्त्रियाँ शामिल थी । ये स्त्रियाँ पाँच मीटर की साङी पहने गजभर घूँघट में लिपटी सारा दिन घर के कामों में खटती । कई कोस चल कर पानी लाना, चक्की पर आटा पीसना, छानना , चूल्हा फूँकना, रांधना, पकाना, बरतन माँजना और सबका घ्यान रखना इस सब से फुर्सत पाती तो कढाई, सिलाई, बुनाई या चरखा लेकर बैठ जाती । सुबह के चार – पाँच बजे जगने से शुरु हुए काम रात आठ बजे तक काम खत्म ही न होते ।

शिक्षा की, जागरुकता की कोई किरण इस वर्ग तक नहीं पहुँची थी । तेरह चौदह बरस की अबोध आयु में ब्याह कर आई ये औरतें अपनी सास, दादस ( दादी सास ), पितस ( ताई सास ), फूफस ( बुआ सास ), जेठानियों की गालिय़ाँ खाते, डाँट सुनते सयानी होते होते इसे ही अपनी नियति मान लेती और मरते दम तक घर भर की चाकरी में खुद को खपा देतीं ।

ऐसे ही एक परिवार में मेरी दादी वधु बन कर आई तब वे मात्र बारह –तेरह साल की थी । मायके में सब उसे चिङी कहते । ससुराल में आकर नाम मिला दुर्गा देवी पर वे देवी कभी न बन पायी । हमेशा घर भर के लिए वे दुरगी रहीं । सास तो नहीं थी पर तीन विवाहित ननदें और विधवा बुआ सास अपना आतंक जमाय़े रखती ।

पति पांच गाँव के पटवारी थे । जब तुरले वाली पठानी पगङी पहन घोङी पर सवार हो दौरे पर निकलते तो राह चलते लोग पगडंडियों के दोनों ओर दंडवत प्रणाम में लेट जाते । एक तो ऊँच्च जाति का कुलीन ब्राह्मण, ऊपर से पटवारी जो ग्रामीणों के लिए धरती पर दूसरा भगवान होता है सो जिस गाँव में जाता, उसके सत्कार में कोई कमी न रहने दी जाती । हुक्म की तामील के लिए पूरे गाँव के लोग हाथ बाँधे खङे रहते । फसल आती तो पहले ही हिस्सा घर आ जाता । पत्नी के जेवरों से अधिक चिंता पटवारी साहब को घोङी पुन्ना के साज की होती । हर साल उसके जेवर बढते जाते । पूरे सेर भर की कङियाँ और भारी भरकम साज पहनकर घोङी जब गलियों में निकलती तो लोग देखते रह जाते ।

पर कहते हैं न विधाता से किसी का सुख बहुत दिन नहीं देखा जाता या यह भी कहा जाता है कि सौभाग्य को लोगों की नजर लग जाती है । कुछ ऐसा ही यहाँ भी बीत गया । संक्षिप्त सी बीमारी में पटवारी साहब अचानक चल बसे । उनकी पत्नी भरी जवानी में विधवा हो गयी । अनपढ औरत थी । हर पल घुटनों में सिर दिये काम में जुटी औरत । बाहर की दुनिया कभी देखी नहीं । घर से बाहर कभी निकली नहीं थी । मायके में न माँ थी न पिता । एक भाई था जिसके अपने आठ बच्चे थे । और काम के नाम पर दस घर की जजमानी जिससे उनका अपना ही गुजारा बङी मुश्किल से होता था । उसने झूठमूठ में भी बहन को मायके आने को नहीं कहा । ऐसे में सह्दय पाठक स्वयं सोच सकते हैं, दादी का जीवन किस धारे में और कैसे बहा होगा ।

यह वह समय था जब एक ओर लक्ष्मीबाई, अहिल्याबाई, देवीचेनम्मा, महारानी पद्मावती की वीरता की कहानियाँ घर घर कही सुनी जाती थी पर घर की औरतों को भरसक दबा कर रखा जाता । मायके ससुराल कहीं उनकी कोई सुनवाई नहीं थी । इसी कुल की एक महिला की कहानी सुनिए, खुदबखुद उस समय की औरतों की हालत का अंदाज हो जाएगा ।

इसी परिवार के लङके की शादी हुई । वधु सामान्य कदकाठी की साँवली सी लङकी थी । नैन नक्श भी बिल्कुल साधारण । तब दूल्हा दुल्हन को देखने दिखाने का चलन ही नहीं था । परिवार का कुलीन और समान स्तर का होना ही पर्याप्त होता था । लङकी को थोङा बहुत घरेलु काम आता हो तो ठीक वरना सासरे परिवार की औरतें ठोक पीट कर सिखा देती थी ।

चौदह साल की गुणवंती की शादी के सात महीने बाद गौना हुआ और वह वधु बन घूँघट में लिपटी ससुराल की दहलीज पार कर गयी । लङकी क्या हँसी का फुहारा थी । छोटी से छोटी बात पर हँसना शुरु करती तो हँसते हँसते पेट पकङकर बैठ जाती । आँखों में आँसू आ जाते पर हँसी मजाल है रुक जाए । यहाँ तक कि सुहागसेज पर पति के छूते ही जो ङँसी का दौरा पङा तो ओढनी गिर गयी । साँवला रंग हँसने के श्रम से काला हो गया था । झुँझलाया पति पैर पटकता हुआ छत पर जा सो गया । सुबह होते ही घर भर की औरतों पर चिल्लाया – “ मेरे लिए इससे कलूटी और बेवकूफ औरत नहीं मिली क्या “ ?

“ मैं समझाती हूँ देवर जी, आप जरा शांत हो जाओ “ – रिश्ते की भाभी ने कही ।

देवर के बाहर जाते ही जेठानी ने डाँटा – “ क्यों री, आधी रात को पागलों की तरह हँसी क्यों ? देखा नहीं था,बाहर सारे बुजुर्ग सो रहे थे । “

तो वह मासूम बच्ची आँखें झपकाती बोली – “ भाभी, जोर की गुदगुदी हो रही थी “ ।

जेठानी ने सिर पीट लिया । फिर समझाया कि पति भगवान होता है । वह जो भी कहे, बिना सवाल किए बिना आवाज किए चुपचाप मान लेना चाहिए । समझी और गुणवंती ने अगले चार साल पति को तन और मन से खुश रखने की पूरी कोशिश की । बिना बोले वह पति और उसके परिवार की सारी जरुरतों का ख्याल रखती पर पति के मन से वह उतर गयी तो उतर गयी । बङे भाई के डर से मुकुंद पत्नी को कुछ बोल तो न पाते पर भीतर ही भीतर कुढा करते ।

ऐसे में भाई की अचानक मौत हो गयी तो वह डर और संकोच भी जाता रहा । एक दिन अचानक उन्होंने पत्नी के सामने जाकर कहा – मायके जाओगी । पत्नी को पहले तो इस बात पर ही विश्वास नहीं हुआ कि उसके पति ने आज उससे बात की । शादी के पाँच साल में यह उनकी ओर से पहली बात थी । अचम्भा होना स्वाभाविक था । वे जहाँ खङी थी, खङी रह गयी । होश आया तो पति वहाँ से जा चुके थे । वे भीतर जा जेठानी के गले लग गयी । वही तो इन सालों में उसके दुख सुख की साथी रही थी । जेठानी के बार बार पूछने पर करीब आधे घंटे बाद वे इतना बता पायी कि वे जल्दी मायके जाने वाली हैं ।

और वे तैयारी में लग गयी । समझ ही नहीं पा रहीं थी, क्या लेकर जाना चाहिए । एक पोटली में भारी कामदार साङियाँ, उनके जंपर,पेटीकोट रखे गये । मिट्टी की झज्जर मँगवायी गयी । उसमें शुद्ध गंगाजल भरा गया । एक डलिया में खाने पीने का सामान लेकर शुभ लगन में वे घर से रवाना हुई । उनके बैठने के लिए जनाना डिब्बे में सीट ली गयी । मुकुंद बाबू जनरल डिब्बे में सवार हुए । जी हाँ उन दिनों ट्रेन में एक डिब्बा औरतों का होता था । तीन डिब्बे मर्दों के लिए और एक फर्स्ट क्लास का डिब्बा अंग्रेज अफसरों के लिए । सो गुणवंती बेचारी डरी सहमी अपने सामान की पोटलियाँ थामे बैठी थी । गाङी ने सीटी दी और पाकपटन का स्टेशन छोङ आगे सरकने लगी । अभी दो चार स्टेशन बीते होंगे कि एक छोटे से स्टेशन पर मुकुंद बाबू नीचे खङे दिखाई दिए । अपना सामान समेटती गुणवंती उतर पङी पर यह क्या गाङी तो चल पङी और जब तक उसे कुछ समझ आता, पति महाशय भाग कर गाङी में सवार हो गये और गाङी उन्हें लेकर आँखों से ओझल हो गयी । दूसरे दिन मुकुंद बाबू मुँह लटकाए घर लौटे और पूरी घटना सब को मुँह लटकाए ही सुनाई ।गुणवंती के मायके खबर पहुँचने में चौदह दिन लगे और पिता को आने में और चार दिन । बेटी की करतूत से शर्मिंदा पिता को मुकुंद ने भी जी भर कर सुनाया कि वे उल्टे पैरों लौट गये ।

उसके बाद गुणवंती का क्या हुआ वह मर गयी या जीवित रही । जीवित रही तो कहाँ है ? किस हाल में हैं, भीख माँग रही या धंधे वालियों के हत्थे चढी, मायके या ससुराल के किसी मर्द ने भी जानने की न तो कोशिश की, न जरुरत समझी । वही जेठानी ही मन ही मन उस अभागिन लङकी को याद कर लेती पर किसी से यह कहानी बाँटने की हिमाकत उसने भी नहीं की । इस तरह उस अभागी वधु का अध्याय इस घर से हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो गया ।