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तानाबाना - 3

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उस लङकी के इस तरह लापता हो जाने पर चार दिन तक तो घर बाहर उसकी चर्चा रही फिर उसे किसी बुरे सपने की तरह भुला दिया गया । इस घटना को घटे महीने से एक दो दिन ज्यादा बीते होंगे कि एक दिन पङोस की ताई चूल्हे की आग लेने चौके में आई ।

आज की पीढी को हो सकता है, बात हजम न हो । लाईटर से या आटोमैटिक गैस से चूल्हे जलते देखने वाली पीढी की जानकारी के लिए बता दूँ । इसी इंडिया में माचिस से दिया या चूल्हा जलाना परिवार के लिए बहुत बङा अपशगुण माना जाता था । रसोई का काम खत्म हो जाने पर एक जलता कोयला या उपला राख में दबा दिया जाता, जब जरुरत होती, उसी अंगारे को दहका कर आग जलाई जाती । यदि किसी कारण से वह दबा अंगारा न मिले या राख हो जाए तो पङोसिन से आग माँग ली जाती । इस बहाने औरतें एक दूसरे से दुख सुख भी कर लेती ।

सो तुलसी ताई सुबह सुबह आग मांगने आई तो दुरगी चौके में ही रसोई करने में व्यस्त थी । मौका देखकर तुलसी ने कहा – देख बहु पटवारी तो अब रहा नहीं । और अब तो तेरी दिरानी भी नहीं रही । अगर तेरा मन हो तो देवर से चादर डाल ले ।

दुरगी ने घूँघट की ओट से देखा । सामने वाले बरांडे में देवर खङे थे । मतलब तुलसी भाभी को मुकुंद ने भेजा था । दुरगी ने हाथ का आटे का पेङा परांत में रखा और तुलसी को अचंभे में डालती हुई सीधे मुकुंद के सामने जा खङी हुई । गज भर का घूँघट उत्तेजना में उलट गया था । गोरा चम्पई रंग कुछ गुस्से और कुछ लाज के चलते तांबिया हो गया था । जिस औरत ने अब तक जिंदगी सुबह दिन निकलने से लेकर आधी रात बीतने तक छाती भर पल्लू में लिपट घुटनों में सिर दिए काम करते निकाली थी, उसने पहली बार मुकुंद की आँखों में आँखें डालकर कहा – “ सुनो लला जी, पहली बार जब मैं इस घर में आई थी तो घर की बुजुर्ग औरतों ने तुम्हें मेरी गोदी में डालकर कहा था – “ ले नूहे, ये तेरा छोटा देवर, भाई भी और बेटा भी “ । आज ससुरजी चले गये । जो ब्याह के लाया था वो भी ऊपर गया । मेरे पास सिर्फ तुम हो । मैं सारी जिंदगी तुम्हारी गुलामी करुँगी । ये बच्चे तुम्हारे हैं । तुम्हारे खानदान के हैं । इन्हें चाहे मारो, चाहे पालो । मैं दखल नहीं दूँगी पर मेरा घर्म न लेना । तुम अपनी पसंद किसी लङकी से शादी करलो । मैं सारी जिंदगी उसे रानी बना कर रखूँगी “ ।

देवर का मन पहले प्रेममय था अब श्रद्धा से झुक गया । उसने धीरे से कहा - ठीक है । जो तू चाहती है वही होगा । लङकी तू अपनी पसंद की ढूँढ ले । और सिर झुकाए घर से चले गये ।

दुरगी की थाली परसी परसाई दो दिन तक देवर का इंतजार करती रही । इन दो दिन में दुरगी के हलक से भी पानी की एक बूँद नीचे न उतरी । तीसरे दिन मुकुंद बाबू सही सलामत घर लौट आए तो जिंदगी फिर से पटरी पर आ गयी ।

इस बीच ये किस्सा गली मौहल्ले की सीमा लांघता हुआ शहर शहर गाँव गाँव पार करता करता सारे नाते रिश्तेदारों और शहर में चर्चित हो गया । लोग सुनते तो अश अश कर उठते । वाह जी कैसी सती है । क्या सत है । कैसे मुँह खोलके नाँह कर दी । बेचारे का मुँह इत्ता सा रह गिया होणै । हिम्मत है जी । सच्ची । दमयंती की कहानी ऐवें ही नहीं बनी ।

जितने मुँह उतनी बातें और उतनी ही किस्सा – कहानियाँ । हाँ महीने के बीतते बीतते दुरगी एक गरीब घर की बेटी को सादी सी रसम में चुन्नी ओढाकर घर ले आयी । लोगों की उँगली एक बार फिर मुँह पर धरी की धरी रह गयी । दुरगी फिर से जेठानी बन गयी । उसने नववधु के पूरे लाडचाव किये और अपनी पलकों पर बैठा लिया ।