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वीर शिरोमणिः महाराणा प्रताप।(भाग-(४)

जब दिनकर नभ में आते हैं,तम का प्रभाव तब मिटता है।
या दिख जाये जब केहरि तो, भेड़ों का दल कब टिकता है।।
जग में प्रताप ने जन्म लिया, मुगलों का मान मिटाने को।
आजादी की बलि वेदी पर, अपना सर्वस्व लुटाने को।।
राणा को रण करना ही है,इन निर्मम मुुगल अमीरों से।
हम मुक्त करें निज धरती को,परवशता की जंजीरों से।।
हर घड़ी कौंधते थे विचार, कैसे कलंक यह धुल जाये।
बन्धन सारे भरतभूमि के, कैसे मुझसे कब खुल पायें।।
कैसे चित्तौड़ गुलाम हुआ, हमसे थी कैसे चूक हुई।
कब जंग खा गयीं तलवारें, शेरों सम गर्जन मूूक हुई।‌।
धरती का ऋण जो मुझ पर है,उसको इस तरह चुकाना है।
जब तक तन में प्राण रहेंगे, मुझको सिर नहीं झुकाना है।।
मुगलों के अत्याचारों से, सबको परिचित करवाते थे।
कैसे वो क्रूर कुटिलता से, खुतबे अपने पढ़वाते थे।।
समयानुरूप ही राणा ने, अपने जीवन को ढाला है।
माटी का कर्ज चुकाने को,कर में थामा अब भाला है।।
जब उदयसिंह का मरण हुआ,तब राणा का अभिषेक हुआ।
जन-जन में छायी हर्ष लहर,सच स्वप्न सभी का एक हुआ।।
जन-जन था मन में सोंच रहा, मुगलों का मान मिटायेंगे।
निश्चित राणा इन मुगलों को, कुछ सबक नया सिखलायेंगे।।
नृप बने बाद में थे प्रताप, पहले था यह ऐलान किया।
परवशता नहीं सहेंगे हम,प्रण ऐसा कठिन महान लिया।।
एक दिन प्रताप की सभा मध्य, मुगलों का सेवक आता है।
हमको अकबर ने भेजा है, यह राणा को बतलाता है।।
अकबर ने भेजा संदेशा, उनकी शर्तें स्वीकार करें।
करते हैं अगर नहीं ऐसा, जीवन का नहीं विचार करें।।
हम मुगलों का इतिहास रहा,सब नृप आधीन करायें हैं।
जिनको जीवन से प्रेम रहा, वो अकबर नाम रमायें हैं।।
जिस पत्थर पर डाली निगाह, पत्थर हीरे बन जाते हैं।
जब तिरछी की मैंने निगाह,खण्डहर किले हो जाते हैं। शपथ।
जनता को नहीं हलाल करें, यह ही कर्त्तव्य तुम्हारा हो।
झण्डा भी फहरे जो गढ़ पर, वह तेरा नहीं हमारा हो।।
अकबर का सुनकर संदेशा, था राणा का यह हाल हुआ।
मानो अब लंका-दहन हेतु, अंजनीलाल विकराल हुआ।।
सेवक से बोले राणा थे, यह अकबर को बतला देना।
राणा जो सोंच रहा मन में,उन भावों को जतला देना‌।।
अकबर का गर्व मिटाऊंगा, वह समय अधिक है दूर नहीं।
राणा रण में प्राण तजेगा, परवशता तो मंजूर नहीं।।
राजपूत खुद महाकाल हैं,भय कालों के उपजाते हैं।
यदि यम भी अरि बन जाये तो,रण चढ़कर लौह चबाते हैं।।
है हमें मृत्यु का खौफ नहीं, वह तो वीरों की दासी है।
लगता काली की कृपा हुई, माता रक्त की प्यासी हैं।।
ठप्पा जो लगा दासता का, राणा को उसे हटाना है।
है खाली खप्पर काली का, तो मुझको इसे भराना है।।
पहले हम शान्ति समर्थक थे, अब हमको शपथ उठानी है।
मुगलों का दल अब देखेगा, राणा में कितना पानी है।।
जब पराधीन है मातृभूमि, तो शैय्या पर है शयन नहीं।
अमन-चैन से अकबर सोये, मुझको कदापि यह सहन नहीं।।
राणा भोजन तभी करेगा, सोने-चांदी की थाली में।
जब कलंक वह धो डालेगा, रिपु के शोणित की लाली में।।
जब तक कर्त्तव्य अधूरा है,पग महलों में ना धरना है।
जीवन अर्पण हे वसुन्धरे, अब मातृभूमि हित मरना है।।
सुख की चिंता है नहीं मुझे,दुख का भी है संताप नहीं।
भगवानदास या मानसिंह, बन सकता कभी प्रताप नहीं।।
जो राजपूत आधीन हुये,कुल का कलंक कहलाते हैं।
आन-बान पर पानी फेरा, अकबर के दर पर जाते हैं।।
भगवानदास या मानसिंह, मूंछों पर ताव लगाते हैं।
जब मुख देखें वह दर्पण में,तब दर्पण भी शर्माते हैं।।
अकबर से तुम यह कह देना, राणा ने मन में ठान लिया।
कर रहा समर की तैयारी, रणभूमि हेतु प्रस्थान किया।।
राणा का सुनकर संदेशा,उस सेवक ने था गमन किया।
दुश्मन तो था वह राणा का, पर निज दुश्मन को नमन किया।।
आया जब मुगल सभा में वह,तब तक सूरज ढल जाता है ‌।
राणा की पाती सुनकर अब, अकबर मन में जल जाता है।।
अकबर को यह आभास हुआ,इज्जत मिट्टी में मिलती है।
राणा पर विफल हुआ गर्जन, जिससे धरती भी हिलती है।।
मैं उलट-पलट कर दूंगा अब, मेवाड़ नृपति के आसन को।
वह करे कलंकित मेरा यश, और एकछत्र इस शासन को।।
भय मुगलों का मिट जायेगा, जनता बागी हो जायेगी।
पुरखे भी थूकेंगे मुझ पर, बदनामी भी हो जायेगी।।
कैसे झुके शीश राणा का,किस तरह विजित मेवाड़ करूं।
बस यही लालसा है मन में, मैं कब प्रताप के प्राण हरूं।।
जो मुगल सभा में बैठे हैं, मेरे जो भी हितकारी हैं।
दें उचित राय सब मंत्रीगण,करनी कैसी तैयारी है।।
अकबर के मुख से यह सुनकर, मंत्रीगण गर्जन करते हैं।
गर्वित हो गया अधिक राणा, अब मान ही मर्दन करते हैं।।
बस 'मान' शब्द को सुनते ही, अकबर ने नजर उधर डाली।
तप रहा मान था गद्दी पर, आंखों में छायी थी लाली।।
तुम कहां खो गये मानसिंह, राणा को सबक सिखाना है।
कठिन कार्य है नहीं मित्रता, पर उसको कठिन निभाना है।।
लोहा कटता है लोहे से, इसमें किंचित संदेह नहीं।
कैसे भूले मित्रता मेरी, अथवा जोधा से नेह नहीं।।
इतिहास मान का साक्षी है,रखता वीरों का मान नहीं।
इतिहास पुनः वह लिखना है, अब बातों का कुछ काम नहीं।।
तुमको रण करने जाना है, राणा का गर्व घटाने को।
अब रणभेरी को बजवाओ,लोहू की नदी बहाने को‌।।
सारा राजपुताना जाने,सत्ता का हमें घमंड नहीं।
निर्दोषों का रक्त बहाना,अकबर को कभी पसंद नहीं।।
शक्ति सिंह दिल्ली आया था, उसने यह बात बताई है।
चित्तौड़ दुर्ग पर कब्जे को, राणा ने फौज सजाई है।।
उसने यह भी बतलाया था, वह राणा का लघु भ्राता है।
घर के भेदी से देखें तो, कुछ भेद हमें मिल पाता है।।
रिपु शूरवीर हो राणा सा, तो हमें सजग ही रहना है।
साम-दाम या दण्ड-भेद से, बस उसको वश में करना है।।
वीरों की सदैव कद्र करना, यह तो अकबर की फिदरत है।
फिर भी प्रताप के नेत्रों में, अकबर के प्रति बस नफरत है।।
अतः सुनो हे मानसिंह अब, जाकर प्रताप को समझाओ।
मेवाड़-भूमि पर किसी तरह परचम मुगलों का फहराओ ।।

यदि इस कारज में सफल रहे, तो नाम अमर हो जायेगा।
संसार आपकी यशगाथा,तब युगों-युगों तक गायेगा।।