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पंचायत वेबसिरिज की समीक्षा

पतित माध्यम और विषय-वस्तु की साफ़-सुथरी तस्वीर : पंचायत

एक दौर था जब ग्रामीण जीवन साहित्य और सिनेमा का केन्द्रीय विषय-वस्तु हुआ करता था | साहित्य के पन्ने और सिनेमा या टेलीविजन के पर्दे पर जब गाँव की कहानी दिखाई जाती तो उसमें वह सबकुछ होता जो मन के अन्तर्तल को छू जाए | आगे चलकर ये माध्यम गाँव और ग्रामीण जीवन से धीरे-धीरे दूर होते चले गये | फिर यह स्थिति आई कि जब कभी-कभार इन माध्यमों पर कहीं गाँव दिख भी जाता तो उसका रूप बड़ा फूहड़ होता | द्विअर्थी गीत, संवाद और दृश्यों ने गाँव की कहानी को सस्ता और घटिया बना दिया | लोगों के मन से इन बेहया कहानियों के साथ गाँव भी धीरे-धीरे उठता गया | ऐसे में गाँव की जमीनी खूबसूरती को दर्शाने वाली नई वेब सीरीज “पंचायत” बड़ी रहत देने वाली है |

“पंचायत” उत्तर प्रदेश के बिलकुल पूर्वी छोर जिला बलिया के फुलेरा गाँव की कहानी है | या यूँ कहें कि पूरे गाँव की न होकर ग्राम पंचायत और उसमें भी मुख्यतः सचिव को केन्द्रित करके कुल जमा पांच लोगों की कहानी है | पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल के भेद को यह कहानी संकेतों में कह देती है | पश्चिमी यू.पी. के एक शहर से ग्राम पंचायत सचिव की परीक्षा पास करके बलिया में नियुक्त हुआ एक नवयुवक यहाँ से निकलने के लिए दिन-रात मेहनत करता है | लेकिन जाने-अनजाने वह ऐसे दलदल में जा फँसता है, जिससे निकलने के लिए वह जितना ही छटपटाता है, उतना ही और उलझता जाता है |

उसके आस-पास हैं प्रधान-पति, उप-प्रधान, सहायक और असली प्रधान जी | असली और नकली का मामला यह है कि गाँव की वास्तविक प्रधान हैं मंजू देवी लेकिन उनके महिला होने के कारण उनका पूरा काम देखते हैं उनके पति ब्रजभूषण दूबे | सरकार की निगाह से पहला असली है और दूसरा नकली जबकि गाँव वालों की निगाह से दूसरा असली है और पहला नकली | असली-नकली का यह खेल बड़ा रोचक बन पड़ा है, जो न केवल जिला बलिया बल्कि पूरे देश में जन प्रतिनिधि के रूप में महिलाओं की वास्तविक स्थिति को बड़े व्यंग्यपूर्ण तरीके से दर्शाता है | यह मुंशी प्रेमचंद के कहानियों की तरह वास्तविक से आदर्श की ओर बढ़ते क्रम की सरज, सहज और सुरुचिपूर्ण बानगी है |

कई बार यह कहानी फनीश्वरनाथ रेणु, मुंशी प्रेमचंद और श्रीलाल शुक्ल की कहानियों का आधुनिक काकटेल लगती है | इसे देखते हुए रेणु के कहानी की आंचलिकता, प्रेमचंद के कहानियों की तरह का द्वंद्व और सहजता तथा श्रीलाल शुक्ल का धारदार व्यंग्य बार-बार स्मरण हो आता है | जिसतरह राग दरबारी में रंगनाथ गाँव में आगंतुक है और गाँव की हरेक घटना उसे चौकाती है वही दशा सचिव बने अभिनेता जीतेंद्र कुमार (जीतू भैया के रूप में प्रसिद्द) की भी है |

लगभग आधे घंटे के हरेक कड़ी में एक द्वंद्व या समस्या उत्पन्न होती है, अपने चरम पर पहुँचती है और बिना किसी बनावटीपन के, सहजता से आदर्शमूलक समाधान प्राप्त कर लेती है | इसतरह यहाँ प्रेमचंद की बहुप्रसिद्ध शैली का जादू दिखता है | सचिव जी कई बार “मैला आँचल” के डॉक्टर बाबू की तरह नज़र आते हैं |साथ ही साथ बलिया जिले के मार्फ़त पूरे पूर्वांचल क्षेत्र की सामाजिक, राजनीतिक विडम्बनाओं को दर्शाना रेणु की अंचल-प्रधान कथा की याद दिला जाती है | अगर दर्शक इसे पहचान पाएं तो रेणु के जन्मशती वर्ष में आई यह सीरीज रेणु के कहानियों की आधुनिक रूप जान पड़ेगी |

इसके हरेक कड़ी में पूर्वांचल के रंग की छाप दिखाई देती है | पंचायत के छुटभैया नेताओं का निजी लोभ, भूत का वहम, छोटी-छोटी बातों को लेकर अहम् का टकराव, महिला प्रतिनिधित्व के नाम पर पुरुष का दबदबा, बात-बात में गोली- बन्दूक तान देने जैसी घटनाएँ पूर्वांचल से लगायत बिहार में सामान्यतः देखी जाती हैं | “पंचायत” ने समाज के इस मर्म को काफी हद तक छुआ है | लेकिन एक कमी बार-बार सालती है कि कहानी गाँव के बाहर ही काफी हद तक अटक गई है | गाँव की कहानी होकर भी यह यदा-कदा ही गाँव में घुसती है, बल्कि गाँव-कथा जितना खुद चलकर पंचायत ऑफिस के दहलीज तक आ जाती है, उसी का चित्रण हो पाता है |

सामान्यतः जब कहानी गाँव की हो तो साहित्य और सिनेमा गँवई रोमांस को दिखाने में बिलकुल नहीं चुकते | बल्कि कभी-कभी तो इसका अतिरेक भी हो जाता है | लेकिन “पंचायत” इस मामले में बिलकुल ही अछूती है | इसका एक मुख्य कारण है केन्द्रीय चरित्र अभिषेक त्रिपाठी का उचटा और झुंझलाहट वाला स्वभाव | दो-दो युवा पात्र होने के बावजूद रोमांस का एक छिटका भी कहानी को छू न सका है | बल्कि महिला प्रधान और प्रधान-पति के बीच ही जो प्रेमपूर्ण नोंक-झोंक होती है, वह इस अभाव को कमोबेस भरने की कोशिश करती है | कहानी के बिलकुल अंत में प्रेम की एक बूँद सहसा उछलती है, जिससे उम्मीद किया जा सकता है कि वेब सीरीज के दूसरे सीजन में यह खालीपन कुछ भर सकेगा |

“पंचायत” ने जहाँ देहाती जीवन के बिलकुल मामूली पहलुओं को छुआ है, वही मामूली-सी दिखने वाली बातों के पीछे के बतंगड़ को भी बड़े मन से उभारा है | जैसे एक नारा “दो बच्चे हैं मीठी खीर, उससे ज्यादा बवासीर” दीवार पर लिख देने मात्र से कैसे गाँव की राजनीति में भूचाल आ जाता है, यह देखने लायक है | इसीतरह एक से एक चुटीले संवाद इस सीरीज में जान डाल देते हैं | वन लाइनर तो ऐसे रचे गए हैं कि उसके आधार पर बनने वाले मीम्स की सोशल मीडिया पर बाढ़-सी आ गई है |

वास्तव में वन लाइनर भी तभी जमते हैं जब अभिनेता और चरित्र उसके अनुकूल हों | इस मामले में नवोदित अभिनेता चन्दन रॉय ने बाजी मार ली है | चन्दन का चरित्र विकास ग्राम पंचायत में सहायक कर्मचारी का है | इस सीरीज में गाँव के भदेसपन को कोई चरित्र साकार करता है तो वह चन्दन ही है | गाँव का भोला-भाला युवक जो बिना किसी बनावटीपन के देहाती युवक के रोल को साकार करता है | वास्तव में चन्दन रॉय की वजह से ही यह सीरीज ज्यादा गँवई हो पाई है | उसके बोलने का लहजा बिलकुल वही है, जो पूर्वांचल के देहातों में प्रयोग किया जाता है | इस मामले में मँजे हुए कलाकार रघुबीर यादव और नीना गुप्ता भी उससे पिछड़ जाते हैं | रघुबीर यादव ने प्रधान-पति के चरित्र में रम जाने का भरसक प्रयास किया है, लेकिन पूर्वांचल क्षेत्र के भदेसपन को नहीं ओढ़ पाए हैं | वही गाँव की महिला प्रधान के तौर पर नीना गुप्ता ने अपने देहाती चरित्र को ठीकठाक निभा लिया है | बचा-खुचा एक और पात्र जो देहाती किरदार को भलीभांति प्रस्तुत करता है वह उप-प्रधान प्रह्लाद पाण्डेय के रूप में फैसल मलिक हैं | हमेशा मौके का फायदा उठाने वाले चरित्र का अभिनय करते हुए फैसल की भाव-भंगिमाएं देखने लायक हैं |

अमेजन प्राइम पर टीवीएफ की प्रस्तुति “पंचायत” वेब सीरीज का यह पहला सीजन है, जो कुल आठ कड़ियों का है | हरेक कड़ी किसी उपन्यास की रोचक खण्ड-सी लगती है | प्रत्येक कड़ी का एक अलग शीर्षक है और वही उसका केन्द्रीय भाव भी है | जैसे “चक्के वाली कुर्सी” कड़ी में जहाँ सचिव की पहिया वाली कुर्सी गाँव वालों को अहम् प्रदर्शन का जरिया दिखती है, वहीँ “कंप्यूटर नहीं मोनिटर” कड़ी में एक देहाती द्वारा कंप्यूटर-मोनिटर को टी.वी. समझकर चुरा लेने की कहानी बड़ी हँसाती और सुहाती भी है |

आज ओ टी टी (ओवर-द-टॉप) मनोरंजन का सबसे नया और सबसे पसंदीदा माध्यम बन गया है | सेंसरशिप से परे इस माध्यम पर प्रस्तुत किये जाने वाले ज्यादातर वेब सीरीज में नग्नता, फूहड़ता, हिंसा आदि बिलकुल आम बात है | यह सब कई बार मन को जुगुप्सा से भर देता है | “पंचायत” का सबसे सकारात्मक पहलू यही है कि यह बिलकुल साफ-सुथरा मनोरंजन करता है, जिसके कुछेक संवादों को नज़रअंदाज करते हुए परिवार के साथ भी देखा जा सकता है | साथ ही साथ गाँव-देहात को केंद्र में रखकर बनने वाली गंदी और भद्दी क्षेत्रीय कहानियों की वेब सीरीज और फिल्मों के लिए भी यह एक आदर्श है | निर्देशक दीपक कुमार मिश्रा से उन्हें सीखना चाहिए कि गाँव केन्द्रित वेव सीरीज व् फिल्मों को भी अगर साफ-सुथरे ढंग से पेश किया जाए तो लोग जरुर पसंद करेंगे | इस तरह एक पतित हो चुके माध्यम (ओ टी टी) पर पतित मानी जा चुकी कथा-वस्तु (सामान्यतः गाँव केन्द्रित वेब सीरीज व् फिल्म) को साफ़-सुथरे तरीके से प्रस्तुत करके “पंचायत” एक नई लीक रखती है | अब आगे यह देखने वाली बात होगी कि यह कहाँ तक विस्तार पाती है |

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मौलिकता की घोषणा

मैं अमित कुमार सिंह यह घोषित करता हूँ कि यह समीक्षा-लेख मेरी मौलिक रचना है |

नाम – अमित कुमार सिंह

पता – खलीलपुर, डाक- सँवरा, जिला- बलिया 221701 (उ.प्र.)

सम्प्रति – केन्द्रीय विद्यालय (क्रमांक-1) वायुसेना स्थल गोरखपुर में पीजीटी (हिंदी)

मोबाइल संपर्क – 8249895551

email- samit4506@gmail.com

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