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गधे की सवारी

यह उस समय की बात है जब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था।हमारी गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थी।इस मई और जून के महीने का इंतजार हम किसी विरहणी की तरह एक एक दिन काटकर करते थे।छुट्टियों का मेरे लिये वही महत्व था जैसे किसान के लिये मानसूनी वर्षा, रोगी के लिये उसकी दवा और विरहणी के लिये उसका प्रेमी का।
मुझे लगता है महाकवि कालिदास के अमर कृति मेघदूत की नायिका बादलो पर अपने प्रेमी को जितना हृदय से संदेशा भेजती थी उससे तनिक भी कम शिद्दत से नहीं मैं ठाकुर प्रसाद कैलेंडर पर दिन ,सप्ताह और महीने के आगे क्रास का चिन्ह बनाता था।खैर ये तो मेरे मन की बात थी ।

उस दिन हर दिन की तरह गर्म पछुवा हवा ( लू ) ने दोपहर का कर्फ्यू लगा रखा था।लोग उस अलसाई दोपहरी में घरों में आराम कर रहे थे।धूप इतनी तेज की पत्थर पिघला दे और छाया भी कहीं सुस्ताते के लिये छांव ढूंढता फिरे।हवा छप्पर, जंगलों,और गलियों से गुजरती तो सायं साय की आवाज उठती।आदमी तो छोड़ो कहीं कोई जानवर भी नहीं नजर आता था।सब कहीं न कहीं दुबके हुये।रोज की तरह मैं उस दिन भी छोटे से मटके में पानी लिये और अंगौछे को दुल्हन की तरह सर पर ओढ़ कर घर के सामने लगे नीम के चबूतरे पर आ बैठा ।दोपहर में मुझे नींद नहीं आती थी और माँ इस शर्त के साथ ही बाहर आने की अनुमति देती थी कि मैं चबूतरा छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगा,और सर से अंगोछा किसी भी हाल में नहीं उतारूँगा।मैं वहीं बैठे बैठे अपने मित्र का इंतजार करने लगा।वह रोज नहीं आ पाता था इसका कारण था कि उसके कलकत्ते वाले बाबा घर पर आये थे और वो बहुत ही सख्त मिजाज के थे लगता है बुढ़ऊ को बचपन में जरूर कालापानी की सजा हो गयी थी सो वो सारी कसर बेचारे मेरे दोस्त पर उतारना चाहते थे।मैं बैठे बैठे पैर हिला रहा था और कच्ची निमकौरियों को एक एक कर दीवार पर मार रहा था।वहां पर उस समय दो ही शख्स थे एक तो मैं और दूसरे दूब चर चर कर थके वैसाखनंदन जो छाया देख वहां रुक गये थे।मुझे उस समय अच्छा लगा जैसे वह मुझे कम्पनी दे रहा हो।मैं उसे देखकर मुस्कुराया,लेकिन वो भी अपने बड़े बड़े कानों को मेरी तरफ कर चौकन्ना था। उसने मुझे ध्यान से देखा ,शायद वह कह रहा था कि तुम्हें घर में ठिकाना नहीं क्या ।मैं भी बड़े ध्यान से उसे देखा एकदम मांसल शरीर सर और शरीर में एक तिहाई का अतर और बड़े बड़े कानों,, गर्मी का कहीं कोई असर नहीं देख के ऐसा लग रहा था कि अभी अभी ही लोट पोट कर उठे हों,आगे के दोनों पैरों में रस्सियां बंधी थी ।शायद उसके स्वामी ने एहतियात के तौर पर उसे बांधी थी जिससे वह ज्यादा दूर न जा सके।इस कारण बेचारे को कूद कूद कर चलना पड़ रहा था।तभी मेरा मित्र जो मुझसे एक कक्षा आगे था मेरी आशा के विपरीत आता दिखाई दिया।उसे देख मैंने कहा,,क्यों मंत्री दरबार में आने में इतनी देर क्यों कर दी ।अक्सर जब हम खेल खेलते तो मैं राजा बनता और वो मेरा दरबारी।
महाराज मैं जंगलों में डाकुओं द्वारा पकड़ लिया गया था बड़ी मुश्किल से जान बचाकर आ रहा हूँ,,वो पहले से ही किरदार में था।
उसके यह कहने पर हंस पड़ा,,क्यों तुम्हारा घर जंगल है क्या और तुम्हारे बाबा डाकुओं के सरदार,,,
हाँ यार,,,ऐसा ही समझो।
इस बात पर हम दोनों ही हंस पड़े ।
अब वहां तीन सदस्य हो गये थे मैं, मेरा मित्र और वैसाखनंदन जी।हम अपने खेल में व्यस्त हो गये और वह भी खड़े खड़े आधी पलकें मूंदे सुस्ताने लगा।
अचानक मुझे एक खुराफात सूझी ,,,मैंने कहा मंत्री मेरे लिये शाही घोड़ा लाया जाय हम शिकार पर जायेंगे ।ये शब्द दूरदर्शन की वजह से आ रहे थे उस समय एक ऐतिहासिक सीरियल का प्रसारण होता था जिसे मैं बड़े चाव से देखता और उसके डायलाग्स रट लिये थे।
देख मैं वैसे भी गोबर के पलड़े उठा उठाकर थक गया हूँ आज मैं तुझे कंधे पर लादकर नहीं चल सकता,सो महराज आज शिकार का विचार त्याग दें,,,मेरे मित्र ने कहा।
अबे,,, चुप तू कोई घोडा है क्या,,,,मैं तो इसकी सवारी की बात कर रहा था,मैंने इशारे से कहा।
किन्तु ये तो गधा है,,,,,,
तो,,,तो ,,,क्या मैं असली में राजा हूँ और हां राजा के साइज के हिसाब से यह एकदम सही सवारी है।
चलो ,,,ठीक है,,
हम दोनों ने उसे पकड़ लिया,,,बेचारे वैसाखनंदन जी पैर बंधे होने के कारण भाग नहीं सके और थोड़ी मशक्कत के बाद मैं उनकी पीठ पर सवार हो गया।उस पर बैठकर मैं खुद को महाराणा और उसे चेतक समझने लगा पूरी फीलिंग्स आये इसलिये हाथ में भाले के स्थान पर सरकंडे का डंडा पकड़ रखा था ।मेरे मित्र ने उसके कान पकड़ लिये जिससे वह मुझे गिरा न दे।
दोनों पैर बंधे होने से वह ठीक से चल ही नहीँ पा रहा था और मुझे सवारी की धुन सवार थी ।इसकी मुझे युक्ति सूझी ।
क्यों न हम रस्सी की लगाम बना दे और पैर की रस्सी खोल दे तो मजा आ जायेगा।
पर समस्या ये थी रस्सी आये कहाँ से,,मैने इसका भी हल निकाला।तय हुआ कि मेरा मित्र अपने बछड़े की रस्सी खोल दे थोड़ी देर बारी बारी से सवारी कर वापस उसे बांध दिया जायेगा।फिर क्या था लगाम तैयार हो गयी मैं बड़े शान से तनकर उसकी पीठ पर बैठ लिया और उससे कहा कि वो पैरों की रस्सियाँ खोल दे।वह मुझे कस कर पकडने की हिदायत देता रहा।
अंततः रस्सियाँ खुल गयी,,,अब तक मरियल से चुपचाप खड़े वैसाखनंदन अचानक ही चेतक बन गये,,,वह सरपट भागा,,,,किन्तु मैं उसकी पीठ पर संतुलन न रख सका और दो तीन कदम के बाद ही राणा जमीन पर पड़े थे,गनीमत यह थी वहां धूल बहुत थी मैंने सिर्फ धूल चाट ली थी कोई चोट मुझे नहीं लगी।
मैं अभी ठीक से उठा भी नहीं था कि मेरे मित्र ने रोना शुरू कर दिया,,,वो रस्सी ले गया अब बाबा,,,,,
चुप हो जाओ वो अभी दूर नहीं गया है,,हम उसे पकड़ लेंगे तुम्हारी रस्सी मिल जायेगी।मैंने उसे चुप कराया।
वह दूर नहीं गया था,,कुछ दूर जाकर वह फिर से घास चरने लगा था।हम दब पांव से धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़े।
किन्तु वह चौकन्ना था,,,उसने अपने पीछे के पैर हवा में लहराये,,,शरीर को भटकाते हुये तेजी से भागा,,,मैंने रस्सी पकड़ने की कोशिश की किन्तु उसकी फुर्ती और ताकत दोनो ही हमसे ज्यादा थे।वह अकेला हम दोनो पर भारी पड़ रहा था ।
कौन कहता है कि गधे के बुद्धि नहीं होती वह तो हमें ही पता चल रहा था।कितने ही प्रयास हमने किये सब असफल।ऐसा भी नहीं हो रहा था कि वह भाग कर ओझल ही हो जाये वह तो हमारे साथ लुका छुपी खेल रहा था,,,अलग-अलग भाव भंगिमा के साथ मटकता और रेकता हुआ,,जब हम उसके पास जाने की कोशिश करते तो वह आगे चला जाता।
अंततः थकहार कर हमने उसे दौडाकर थकाने की योजना बनाई, उसे घेर कर बंद गली में घुसा कर पकड़ लेने की ठानी।फिर क्या था उस दोपहरी में वह आगे और हम दोनों उसके पीछे,,,पूरे गांव व की पगडंडी पर मैराथन चालू थी कोई भी हार मानने को तैयार नहीं था।हम थक चुके थे,हमारी हिम्मत भी जवाब दे रही थी ,,,हमारे सिर और कान से धुआं निकल रहा था,,,पर हम क्या करते हम मजबूर थे,,,क्योंकि उसके गले में रस्सी थी।
अंततः वह भागते हुये गली में ठिठक गया।हम दोनो भी रुक गये।हम कुत्ते की तरह हाँफ रहे थे।आगे गली बंद थी।मैंने ईश्वर का नाम लिया और आगे बढ़ा ।उसने मुझे देखा,,,किन्तु स्थिर रहा।शायद उसे भी हम पर दया आ गयी थी,,धीरे-धीरे पास पहुँच कर मैंने रस्सी उसके गले से निकाल ली।रस्सी पाकर हम इतना खुश हुये कि लगा इस मैराथन का गोल्ड ही हमें मिल गया हो ।हम वापस चबूतरे पर लौट आये।प्यास से गला सूख रहा था सो गला तर किया और प्रण किया कि अब कभी भी गधे की सवारी के बारे में सोचेंगे भी नहीं ।आज की दोपहरी हम पर बहुत भारी गुजरी हमारे घुटने और हांथो में चोट आयी अब हमने दोपहर में आराम करने में ही अपनी भलाई समझी ।

अचलेश सिंह यथार्थ ।