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सीता: एक नारी - 2

सीता: एक नारी

॥द्वितीय सर्ग॥

मेरे लिए जो था प्रतीक्षित वह समय भी आ गया
रण बीच रावण बन्धु-बांधव के सहित मारा गया

कम्पित दिशाएँ हो उठीं जयघोष से अवधेश के
विच्छिन्न हो भू पर पड़े थे शीश दस लंकेश के

था मुक्ति का नव सूर्य निकला पूर्व के आकाश में
शीतल समीरण बह चला, नव-सुरभि भरता श्वास में

हरि से मिलन की कल्पना से, हृदय आह्लादित हुआ
मन दग्ध करता अनवरत जो ताप, वह बाधित हुआ

वे धमनियाँ जो सुप्त थीं, उनमें रुधिर बहने लगा
मन पर खड़ा था वेदना का मेरु, वह ढ़हने लगा

अपने अनागत का सुनहला रूप मैं गढ़ने लगी
नूतन उमंगों से भरी, हरि राह मैं तकने लगी

पर प्रभु स्वयं आए नहीं मुझको लिवाने के लिए
कपि-श्रेष्ठ को अनुचर सहित भेजा बुलाने के लिए

यह जानकर उत्साह सब मेरा तुरत खोने लगा
फिर एक नव अज्ञात भय मन में उदित होने लगा

अबला कहाने का कदाचित अर्थ होता है यही
अज्ञात भय से सर्वदा नारी यहाँ शंकित रही

बलहीनता तन की हृदय पर सतत आरोपित हुई
भयभीत मन में नित्य शंकाएँ कई पोषित हुईं

होते हुए मैं बंदिनी, लंकेश को फटकारती
अपनी तपस्या-सिक्त वाणी से उसे धिक्कारती

दुर्दान्त को ललकारता सिय-सत्य बारम्बार था

भयभीत होना शक्ति से मुझको नहीं स्वीकार था

पर उन सभी घटनाक्रमों का ज्ञात है उत्तर नहीं
जो जुड़ गई हैं प्रश्न बनकर व्यक्ति से मेरे कहीं

था मर गया रावण मगर संतुष्टि थी मन में नहीं
कुछ घटित होने की कुशंका थी हृदय में पल रही

हिय-व्योम आच्छादित हुआ उद्विग्नता के मेघ से
अंधड़ कई चलने लगे थे द्वन्द के अति वेग से
संदेह से क्या मुक्त होगी पूर्णतः अब जानकी
क्या सोचती होगी प्रजा, क्या सोच होगी राम की

विश्वास पर सम्बन्ध जीवन के टिके होते सदा
विष घोलती शंका, हृदय को रुग्ण करती सर्वदा
क्या राम के मन में पुनः होगी वही आत्मीयता
विषधर सदृश यह प्रश्न बारम्बार था फुँफकारता

श्रीराम तो सर्वज्ञ हैं, पर दृष्टियाँ हिय बेधतीं
मुझ पर पड़ेंगी दूसरों की, व्यंग के शर फेंकती

बातें अयोध्या राज्य मे होंगी यही सर्वत्र ही-
"था हरण राक्षस ने किया सीता दशानन घर रही"

मानक चरित के हैं यहाँ पर भिन्न दोनों के लिए
स्वच्छंदता नर को मिली, बहु बंध नारी को दिए

होता पतित नर स्वेच्छया ही, वासना में डूबता
खोती विवश हो पुरूष बल से किन्तु नारी शुद्धता

होते हुए निर्दोष भी समझी गई दोषी यहाँ
नारी रही अधिनस्थ ही, व्यक्तित्व उसका है कहाँ

निज कर्म के ही साथ वह फल भोगती पर कर्म का
करता पुरूष दोहन सदा, ले आड़ धर्माधर्म का

था एक रावण मर चुका, पर दूसरे कितने खड़े
हैं रूढ़ियों के बंध नारी के लिए जग में बड़े

था नाश करके असुर का, मुझको छुड़ाया राम ने
क्या कट सकेगा लोकबंधन, है खड़ा जो सामने

था स्थूल मेरा मुक्त लेकिन सूक्ष्म बंधन-युक्त था
चिर-कालिमा से काल के कब भाग्य मेरा मुक्त था

शंका-कुशंका का हृदय में हो रहा संचार था
आए नहीं क्यों राम? चुभता प्रश्न बारम्बार था

श्रृंगार मेरा कर रही थीं नारियाँ अति नेह से
उठने लगी थी सुरभि नाना पुष्प रस की देह से

नव-वस्त्र औ’ स्वर्णादि से फिर गात को सज्जित किया
माला सुशोभित कंठ में, पग में महावर रच दिया

थे केश मंडित पुष्प से, अंजन नयन में भर रहे
था स्वर्ण कुंडल कर्ण में, गुंजन नुपुर थे कर रहे

बहु-भाँति सज्जित पालकी थी किंतु मैं पैदल चली
मन में तथा मानस पटल पर मच रही थी खलबली

जाती जहाँ तक दृष्टि, दिखता शीश चारो ओर था
कपि, नर, निशाचर का निरन्तर तीव्र उठता शोर था

मैं चाहती थी मिलन हो, प्रिय-प्राण से एकांत में
संवाद के कुछ ज्वार से थे उठ रहे उर प्रान्त में

जितने दिनों तक दूर अपने राम से थी मैं रही
बनकर समय अब धुन्ध अपने बीच था छाया वही

अन्यान्य लोगों की उपस्थिति में हृदय खुलता नहीं

संकोच, लज्जा बीच अंतर्भाव है घुलता नहीं

एकांत ही प्रिय-प्राण का हिय जानने को चाहिए

निर्जन जगह उपयुक्त होता, आज मिलने के लिए

मुझको नहीं दुर्जेय राज राम से मिलना वहाँ
औ' असुर-भंजक देव से भी था मुझे मिलना कहाँ

मेरे नयन तो खोजते थे प्राण-प्रियतम राम को
मैं चाहती थी देखना अपने पुरुष अभिराम को

थे जनकपुर की वाटिका में राम जो मुझको मिले
मन मध्य, जिनको देखकर, तत्क्षण कई उपवन खिले

सानिध्य ही जिनका, चरम सुख सर्वदा मेरे लिए
मैं साथ जिनके चल पड़ी थी, अवध तज वन के लिए

जिनके हृदय की प्रीति मैं, मन का अटल विश्वास थी
उस राम से ही मिलन की, मेरे हृदय में आस थी

जिनसे मिलन की आस में निज अश्रु को पीती रही
मैं शोक-वन में दुसह दुःख सहती हुयी जीती रही

जाने मुझे क्यों लग रहा था राम वे मुझसे कहीं-
हैं खो गए, सम्मुख खड़े यह राम तो हैं वे नहीं

पति का पराक्रम सहज ही होता विषय है हर्ष का
बनता मगर है प्रेम कारण, हर्ष के उत्कर्ष का

सम्मुख खड़ी मैं किन्तु ऐसा लग रहा अति दूर थी
गंभीर मुख उनका, तनिक आत्मीयता लक्षित न थी

अति शांत थी वह भीड़ भी निज साँस को रोके हुए
'क्या राम कहते हैं', सभी हिय मध्य उत्सुकता लिए

सब चाहते थे देखना विश्रान्त प्रभु के नयन में
आनंद होता प्रस्फुटित, निज प्रियतमा से मिलन में

उनके हृदय में मिलन का आनंद-जल था भर रहा
पर साथ में संताप, दुःख औ’ ग्लानि भी था झर रहा

नर-श्रेष्ठ का वह तेज अतुलित दीखता अति क्षीण था
प्रतिक्षण बदलते चेहरे पर भाव कोई स्थिर न था

अर्धांगिनी से पुनः मिलकर भी थमा आवेग था
थी शुष्क जिह्वा, क्लांत मुख पर उमड़ आया स्वेद था

द्वी-चक्षु उनके भर गए, मुझको निरखकर भीड़ में
ज्यों नील सागर सिमट आया था नयन के नीड़ में

उद्विग्न मन उनका कदाचित लोक भय से ग्रस्त था
दुर्भाग्य अपराजित सिया का कर रहा हिय त्रस्त था

सबके लिये जो था प्रतिक्षित, मौन वह मुखरित हुआ

कातर दृगों ने राम के था चक्षु को मेरे छुआ

अभिसिक्त होकर भावना से शब्द थे बहने लगे
मुझको तथा उस भीड़ को कर लक्ष्य वे कहने लगे

सीते! हमारे शत्रुओं का नाश पूरा हो गया
दुर्दान्त रावण कुल सहित है काल-मुख में खो गया

उनके शवों पर रुदन को भी शेष है कोई नहीं
ठंडी हुई, जो अग्नि थी मन में निरंतर जल रही

मेरा पराक्रम सफल औ' पुरुषार्थ अकलंकित रहा
रघुवंशियों का शौर्य स्वर्णिम वर्ण से अंकित रहा

कोई विधर्मी कर सका है धर्म का कब सामना
अन्यायियों का नाश ही तो न्याय की है स्थापना

इस लोक-शिक्षण के लिये भी खल-दमन अनिवार्य है
रघुवंश का अपमान कब मेरे लिये स्वीकार्य है

रण में विजय से तो अधिक अभिनंदिनी कुछ भी नहीं

है वीरता खुद आज अभिनन्दन हमारा कर रही

जयकार मेरा कर रहा वैकुण्ठ औ' भू-प्रान्त है
लेकिन खुशी के इन क्षणों में भी नहीं मन शांत है

अपहृत हुई निज प्रियतमा के मिलन से भी मन नहीं-
हर्षित हुआ, है चुभ रहा कुछ शूल सा उर में कहीं

सीता नहीं मेरे लिये है आज रघुकुल कामिनी
ज्यों कांति खोकर व्योम से भू पर गिरी हो दामिनी

कैसे बनेगी, पर-पुरुष-घर जो कभी नारी रही-
रधुवंश की फिर कुल-वधू, स्वीकार यह होगा नहीं

वर्जित हुआ है आज जिसका स्पर्श भी मेरे लिये

अर्धांगिनी कैसे करूँ स्वीकार मैं तुमको प्रिये

यद्यपि नही संदिग्ध है सिय की अखंड पवित्रता

तप जनित अतुलित तेज को भी मैं तुम्हारे जानता

पर लोक तो चलता नही मेरे-तुम्हारे ज्ञान से
जो प्रस्फुटित, संपृक्त हिय के प्रेम के प्रतिदान से

जन-मान्यताएँ, नीतियाँ कोशलपुरी की रोकतीं
स्वीकारने की ये तुम्हें, मुझको न देतीं अनुमती

फिर से तुम्हें मैं पा सकूँगा ज्ञात है मुझको नहीं
क्या इस महासंग्राम का परिणाम होना था यही

हर क्षण तुम्हारी खोज में औ' युद्ध के मैदान में
बनकर सदा तुम प्रेरिका थी विद्य मेरे प्रान में

यदि यह न होता तो कभी उत्साह रह पाता नहीं
तुमसे मिलन की आस मुझको प्रेरणा देती रही

मैं सोचता-रावण अधम मिल जाए यदि मुझको कहीं
सिर काट दस कन्दुक सदृश नभ में उछालूँ मैं वहीं

उसके करों को नोच दूँ, फिर वक्ष पर मैं पग धरूँ
अति रोष-पूरित रूद्र जैसे अनवरत ताण्डव करुँ

मारा गया दुर्दांत, थी उस अधम की परिणति वही
रघुकुल प्रतिष्ठा विषम-अति परिवेश में रक्षित रही

पर इस विजय के बाद भी, मन आज दुर्बल हो रहा
निस्सार सा लगता जगत, उत्साह सारा खो रहा

जिसके लिये भीषण हुआ रण, वह प्रिया है सामने
पर विवशता मेरी प्रबल, देती नहीं स्वीकारने
उसको करुँ अब पुनः अंगीकार मैं, साहस नहीं
सिय के बिना मेरे लिए जग में नहीं कुछ भी कहीं

शिव के धनुष को तोड़, मैंने प्राप्त था तुमको किया
मेरा सदा सुख और दुःख में साथ है तुमने दिया

फिर आज धनु ही प्राप्ति का साधन बना मेरे लिए
पर विवश हूँ विधि-हाथ मैं परित्याग करने के लिए

अतिरिक्त सिय के नारि कोई स्वप्न में आई नहीं

सुख-मेघ सी मन-प्राण पर तुम ही सदा छाई रही

अब तो हृदय मेरा रहेगा दाह- सिक्त अतृप्त ही

पर्यन्त-जीवन जगह सीता की रहेगी रिक्त ही

मैं रह सकूँ सीता बिना, दें शक्ति मुझको सुर सभी
है पार करना लोक-रण कोशल सहित मुझको अभी

जब मात इच्छा जानकर पत्नी सहित वन को चला
सम्मान अति मेरे लिए जन-जन-हृदय में था पला

अब कौन सा मैं मुख लिए सीता रहित जाऊँ वहाँ
सब लोग पूछेंगे यही--हे राम, सीता है कहाँ?

वापस अयोध्या लौटकर जाऊँ भला किसके लिए
सीता बिना मरघट बनेगा अवध अब मेरे लिए

अगणित चिताएँ जल रही होंगी हृदय-आकाश में
बस प्रेत घूमेंगे चतुर्दिक राम के रनिवास में

रुँधने लगा उनका गला, द्वी-चक्षु भी झरने लगे
जो थे खड़े सब लोग हाहाकार वे करने लगे

अवधेश का वह वचन वज्राघात मुझ पर कर गया
मूर्छित हुई मैं, धुंध हृदयाकाश में था भर गया

मुझको प्रतीक्षा उस समय थी लखन की क्या प्रतिक्रिया-
होती, सदा अन्याय का प्रतिकार लक्ष्मण ने किया

वन में भरत के, अवध में निज तात के प्रतिरोध में-
की गर्जना थी, जनकपुर में उठ खड़े थे क्रोध में

पर आज क्यों तुम सिर झुकाए इस तरह से मौन हो
रघुवीर के अन्याय के प्रतिकार में कुछ तो कहो

थे तिलमिला उठते सदा, अन्याय कब तुमने सहा
पर वह तुम्हारा चिर अखंडित क्रोध इस पल है कहाँ

हे शेष! क्रोधित फन तुम्हारा आज क्यों उठता नहीं
क्यों आचरण इस पल तुम्हारा पूर्व सा दिखता नहीं

अति रोष-प्रिय, औ' स्पष्ट-वक्ता ही तुम्हें सब जानते
अन्याय-रोधी व्यक्ति मिथिला, अवध में सब मानते

पर आज उर्जित तन्तु क्यों हैं संकुचित लगते सभी
यूँ लग रहा पाताल जाना चाहते हो तुम अभी

सहना धरा का भार तो आसान होता है बड़ा
अतिशय कठिन पर साथ जग में सत्य के होना खड़ा

है और उससे भी कठिन तो न्याय मेरे प्रति यहाँ
अन्याय का प्रतिकार, नारी के लिए होता कहाँ

बस राम के प्रति हो रहा अन्याय तुमको दीखता
पर राम के अन्याय से क्यों उर नहीं है भींचता

इस मौन का उत्तर लखन तुम दे न पाओगे कभी

यह मुँह छुपाओगे कहाँ, जब प्रश्न पूछेंगे सभी

सीता, तुम्हारी पूज्य भाभी आस तुमसे खो रही
क्यों आज मर्यादा-पुरूष को सत्य समझाते नहीं

सौमित्र गुमसुम अनमने से मौन हो बैठे रहे
अतिशय व्यथित थे, पर समर्थन में नहीं कुछ भी कहे

मुझको लगा पैरों तले धरती खिसकती जा रही
आकाश में मैं झूलती अस्तित्व मेरा कुछ नहीं

जिस प्राण को मैं थी अभी तक यत्न से रोके रही
तत्काल ही तज गात मेरा चाहता जाना वही

थी मैं अभी तक जी रही बस राम की ही आस में

होगा मिलन उनसे कभी तो बस इसी विश्वास में

पर आज जब परित्याग ही मेरा उन्होंने कर दिया

मेरी सुकोमल कीर्ति पर है आज अपयश धर दिया

अब राह कोई भी नहीं मेरे लिए तो शेष है
करना वरण ही मृत्यु का अंतिम बचा उद्देश्य है

पर मृत्यु तो केवल मिटा सकती हमारे गात को
कैसे मिटेगा दाग, करता दग्ध मेरे माथ को

है मृत्यु तो उत्तर नही, यह है पलायन प्रश्न से
निर्दोषिता होगी प्रमाणित तो नहीं इस यत्न से

देनी मुझे होगी परीक्षा, पंक धोने के लिए
वर्चस्वता ने पुरुष के जो दाग माथे पर दिए

उनके लिए भी जो रहीं निर्दोष, होकर बन्दिनी
इस भ्रष्ट सामाजिक व्यवस्था के अनल ने हवि बनी

तपना पड़ेगा आग में, जब चाहते नरपति यही
मेरे समर्पण, त्याग की विधि ने लिखी परिणति यही

संकेत पाकर प्रज्वलित तब अग्नि लक्ष्मण के किया
उठती शिखाओं ने मुझे निज अंक में था भर लिया

पर जल न पाई अग्नि में मैं और जल सकती न थी
सहना बहुत कुछ था मुझे, यह वेदना अंतिम न थी

सब देव, दानव, मनुज, वानर अवनि औ' आकाश से
करने लगे जयकार मेरा भर नए उल्लास से

सब लोग श्रद्धा और आदर से मुझे तकने लगे
तुरही, नगाड़े, ढ़ोल चारो ओर ही बजने लगे

पर मैं मनोहत हो उठी, मन में वितृष्णा भर गई
व्यक्तित्व मेरा जल चुका था, प्रश्न सम्मुख थे कई

क्या बस परीक्षा ही कसौटी है यहाँ विश्वास की
क्या नारि-जीवन है कथा बस वेदना, संत्रास की

विद्रोह सा उठता हृदय में, प्रश्न था यह वेधता
अनिवार्य क्यों, करना प्रमाणित है अनल से शुद्धता

क्यों बस परीक्षित नारि होती, नर नहीं होता कभी
भुजबल पुरुष का क्यों कुकृत के पंक धो देता सभी

भगिनी, सुता, माता, बधू सम्बन्ध के इस बंध से
शोषित हुई नारी सदा ही पुरूष के छलछंद से

अबला बनी वह पुरूष-अत्याचार सब सहती रही
बस कोसती दुर्भाग्य को, खुद अश्रु बन बहती रही

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