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आधा आदमी - 10

आधा आदमी

अध्‍याय-10

दीपिकामाई की कहानी बीच मंझधार में आकर रूक गई। उन्होंने जो पन्नें दिए थे वह ज्ञानदीप ने पढ़ लिए। आगे दीपिकामाई के साथ क्या हुआ? यह उत्सुकता उसके ज़ेहन में एक जासूसी नॉवेल की तरह बनी थी। काश! वह भी महाभारत के संजय की तरह देख पाता कि आगे क्या हुआ। ज्ञानदीप, दीपिकामाई को लेकर बेहद चिन्तित था।

इसी उधेड़ बुन में उसे यह भी याद नहीं रहा कि उसे टयूशन पढ़ाने जाना हैं। ज्ञानदीप सारी रात करवटें लेता रहा।

चन्द्रमुखी छज्जे पै खड़ी

सूरज की आँख खुलते ही कोहरे का वर्चस्व खत्म हो गया। धूप की चमक देखने लायक थी। कहीं से नहीं लगता था कि यह दिसम्बर की धूप हैं। दीपिकामाई दरवाजे़ के बाहर चियर डाले बैठी थी। इसराइल बसली से लकड़ी चीर रहा था।

पायल सीढ़ी के पास बैठी लहसुन छील रही थी। ड्राइवर चारपाई पर बैठा खाना खा रहा था।

सेलफोन के टिनटिनाते ही दीपिकामाई ने उठाकर कान से लगाया, ‘‘ड्राइवर को तययार रखव अउर सुनव, गोस बनाई ल्यौ.‘‘ दूसरी तरफ से बड़की की आवाज आयी।

‘‘काहे?‘‘

‘‘काहे का, हमरे बहिन-बहनोई अउर हमरी दुई बिटिया भी सात में आवत हय.”

‘‘ठीक हैं.‘‘ कहकर दीपिकामाई ने फोन कट कर दिया। और झल्ला कर ड्राइवर की तरफ मुख़ातिब हुई, ‘‘तोहरी बीबी तो अईसा आर्डर देत हय जईसे हम्में सारी जींदगी कमा के खिलाया हय। तोहरा खेत बिका बगिया का हिस्सा मिला। सब तुमने अपनी बीबी के सीपो पै निछावर कर दिया। हमसे ज़ींदगी पर धोका ही किया.....।‘‘

ड्राइवर चुपचाप सुनता रहा उसे पता था कि दीपिकामाई जो कह रही हैं वह सोलह आना सच हैं।

‘‘पहिले बीमार पड़ै तब तुमरी बीबी ने धौका दिया। अब फिर उकी गाँड़ में घुसे हव, उ तोहका सितली अमल कराई के खिलाईस हय। जब तुम गंदा खाई बईठे हव तो उ जित्ता कहिये तुम उत्ता ही तो करियौं.‘‘

ज्ञानदीप ने साइकिल खड़ी करके दीपिकामाई के चरण-स्पर्श किये। और ड्राइवर की तरफ मुखातिब हुए, ‘‘और भाईजान! कैसी तबियत हैं आप की?‘‘

इससे पहले ड्राइवर कुछ कहते दीपिकामाई बोली, ‘‘अब ठीक होय गैं हय तो इनकी निहारन जौधाबाई बन के आई रही हय इनका लें अब तुमसे हम्म का बताई भइया! जऊनें हालत में ई इहाँ आये राहैं लगत राहैं अबै खतम होई जियै। डाग्दर से लेई के इनका बाबा की चैखट तक गयैन, मंनत माँगा जब तक ठीक न होइय्हे हम्म अपने बाल में कंघी न करबै। अब ठीक होय गै हय तो जावे के लिये फड़फड़ात हय.‘‘

‘‘ई सब तुम हम्में काहे सुना रही हव?‘‘

‘‘तब किका सुनाई, इससे पहिले बेमार पड़ेव तब अच्छा किया अउर भाग गैं अपनी निहारन का सीपो चाटे, पलट कर नाय देखव सात महना कि हम्म मर गई या ज़िंदा हय। बस कमाई-कमाई के अपनी निहारन का भरना भरते रहेव क्योंकि ऊ तुमरी निहारन हय अउर हम्म तुमरी कुच्छ भी नाय, खाली हमई का लूटे का सीखें हव.‘‘

”अब चुपैं होई जाव, सुरू होई जात हव तो यहूँ नाय देखत हव कि को बईठा हय.‘‘

‘‘काहे न सुरू हूँ जिप्पैं पड़त हय उहीं जानत हय। पर तै तो हमरे सात ज़ींदगी भर गद्दारी-मक्कारी कियव.‘‘

‘‘गड़े मुरदे उखाड़े से कौनों फाइदा हय.‘‘

‘‘काहे न उखाड़े? हमने तुमरे पीच्हे अपनी ज़ींदगी खराब कर दी। कान खोलकर सुन लव अगर आज उ फालतु की कुटनी कीस तो हम्म उका अईसा लच्छन झाँड़ूगी कि उका होश उड़ जयय्हें.‘‘ कहकर दीपिकामाई खड़ी हो गई। और ज्ञानदीप को लेकर अंदर वाले कमरे में आ गई।

‘‘बस अईसी ही हय हमरी ज़ींदगी बेटा. ‘‘दीपिकामाई पलंग पर तकिये का टेक लगा कर बैठ गई।

‘‘माई! आप की डायरी के इन पन्नों को पढ़ने के बाद मेरी उत्सुकता और भी बढ़ गई। मुझे आगे के पन्नें दे दीजिए.‘‘

दीपिकामाई मुस्करायी और एकटक ज्ञानदीप को देखने लगी। बोली, ‘‘का करोंगे पढ़ कर बेटा! सवाय दुख-तकलीफ के तुमैं कुच्छ नाय मिलेगा। हिजड़ों की ज़ींदगी भी कौनों ज़ींदगी हय.‘‘

‘‘माई, मैं फिर भी पढ़ना चाहूँगा.‘‘

‘‘बेटा, हमने लिक्खा तो बहोत हय मगर सब इधिर-उधिर बिखरा पड़ा हय.‘‘ दीपिकामाई ने मसाले की पुड़िया मुँह में फाँकी। बोली, ‘‘कई बार सोचा कि तुमसे पुछबै मगर जब आये तो भूल गैन.‘‘

‘‘चलिए आज पूछ लीजिए, कोई खास बात है.‘‘ ज्ञानदीप ने मुस्करा के कहा।

‘‘खास बात कौनों नाय हय, बस इहीं जानैं राहे कि घर में कऊन-कऊन हय?‘‘

‘‘फिलहाल तो माई मैं अकेला हूँ.‘‘

‘‘अउर माँ-बाप?‘‘

‘‘वे तो बचपन मे ही मर गये.‘‘

‘‘याह अल्लाह! तू भी बंदों की कईसी-कईसी परीछा लेता हय, तो का तुमरा कौनों संगा-संबंधी नाय हय.‘‘

‘‘दूर के मामा-मामी हैं जो गाँव में रहते हें। उन्हीं ने मुझे पाला-पोसा और पढ़ाया-लिखाया.‘‘

‘‘सहर कइसें आना हुआ?‘‘

‘‘पढ़ने के लिए आया और फिर यहीं आकर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगा.‘‘

‘‘वाह बेटा, तुमने भी कौनों कम दुख नाय भोगा हय.‘‘

‘‘मैं तो इतना जानता हूँ माई, भगवान जिस हाल में रखें उसमें रहना चाहिए.‘‘

‘‘सही कहत हव बेटा.‘‘

ज्ञानदीप ने बातों का रूख बदला, ‘‘माई! जब आप चंदा के साथ पहली बार रतज़गा नाचने गई थी तो उस रात आप ने कौन-सा गाना गाया था?‘‘

‘‘तुमका तो ओकील होय चाही.‘‘

प्रत्युत्तर में ज्ञानदीप मुस्कराया।

दीपिकामाई ने सिगरेट सुलगाई और दिमाग़ पर जोर देकर बोली, ‘‘अउर कौनों बात होती तो शैद याद न होती। पर उ हमरी पहिली रतजगा थी। उका हम्म कईसे भूल सकित हय। खैर, अब न उ उमर रही अउर न उ आवाज़.‘‘

‘‘सुनाइए न माई.‘‘

दीपिकामाई ने सिगरेट को ऐशट्रे में बुझाया और गाने लगी-

चन्द्रमुखी छज्जे पै खड़ी

कही मेरा भी बन्ना देखा है?

देखा हैं बीबी देखा हैं,

हमने माली की गलियो में देखा हैं।

वो तो गजरे गुंथा रहा सुंदर-सा,

जिसका गोरा मुख चन्दा-सा।। चन्द्मुखी.........

कही मेरा भी बन्ना देखा हैं?

बीच-बीच में दीपिकामाई की साँस टूट रही थी। फिर भी वह सुर-ताल में गाने की कोशिश कर रही थी।

‘‘मैंया! छरिन्दा (चावल) बनाई ली?‘‘ पायल ने कमरे में आकर पूछा।

‘‘बना ले, अउर सुन! जादा बनाई ल्यो भूतनी लोग आई रही हय.‘‘ दीपिकामाई उठी और ज्ञानदीप की तरफ़ मुख़ातिब हुई, ‘‘फिर कभई सुनईबै बेटा.....।‘‘

दीपिकामाई के साथ ज्ञानदीप भी बाहर आ गया।

‘‘बुर बने बौसड़ी के लेटे हव.‘‘ कहकर दीपिकामाई इसराइल के साथ गोश्त धोने लगी।

‘‘गुरू! सलावालेकुम.‘‘

‘‘वालेकुम सलाम.‘‘ दीपिकामाई उसकी तरफ़ मुखातिब हुई, ”अरी ई गाडू कहाँ से आई गवा.‘‘

‘‘कच्ची न करव गुरू.‘‘ अन्ना मुस्कराया।

‘‘ अरी ऐ री! गांडू का पानी-वानी देव.‘‘

‘‘अउर बहिनी का हाल-चाल हय.‘‘ अन्ना बात तो कर रहा था पायल से, मगर उसकी चुम्बकीय निगाहें ज्ञानदीप पर टिकी थी।

मगर ज्ञानदीप उनकी बात डायरी में नोट करने में मशगूल था।

‘‘जानत हव भइया.‘‘ दीपिकामाई ज्ञानदीप की तरफ़ मुख़ातिब हुई, ‘‘जब ई सौदी अरब गवा तो उहाँ के मौलविन का अपने झाँसे में फँसाये लीहिस अउर उनसे गाँड़ मरवाईस। अब सोचव ई कित्ता हरामी मेहरा हय। अगर सौदिया में जान जइते तो इके लंड का कीमा बनाई देते.‘‘

अन्ना मेहरा ऐसे मुस्करा रहा था जैसे उसकी तारीफ़ में कसीदे पढे़ जा रहे हो।

‘‘अरी जाव गुरू, तुम तो हमरी कच्ची (शिकायत) ही किये जात हव.‘‘ अन्ना हाथ हिला कर बोला।

‘‘सुना हय तुम पैन्ट पहिन के खान्जरा करती हव.‘‘ पायल ने मसखरी की।

”हुस्न हय तो करती हूँ कौनों का जूठा तो नाय खाती हूँ.‘‘ अन्ना ने ताली बजाया।

‘‘अरी भागव बहिनी, जानित हय बहोत बड़ी अनसुईयां हव न.‘‘

‘‘तुमरे जईसे मुच्छमन्डे मेहरे तो हम जईसे हिजड़ों को बदनाम किये हय, खाली हम्म लोग मटक के चलित हय। बाकी धुरावत-पिटावत (गलत काम) तो तुम हव.‘‘ दीपिकामाई ने उगलदान उठाकर पीक की।

‘‘अरी गुरू! हम्म तो कडे़ ताल (पुरूष वेशभूषा) से चलित हय, जब चीसा देखित हय तबै लहराईत हय.‘‘

‘‘तो का ई अलीगढ़ कुरता-पजामा पहिन कै घंटाघर झुझवावत हव.‘‘

‘‘अरी गुरू, जब हमरी बठली बिकत हय अउर हमका लौंडे मिलत हय तो हम्म घंटाघर जाई के का करी.‘‘

‘‘अरी तो तुमरी गाँड़ हय कि सदाम का कुआँ.‘‘ कहकर दीपिकामाई बाथरूम में चली गई।

‘‘पंजाबी लीकम खाये हव की नाय?‘‘ पायल ने पूछा।

‘‘नाय खायेन हय.‘‘

‘‘अरी हम्म तो खायेन हय बड़ा अड़ियल (मोटा) होत हय.‘‘

‘‘अरी, इक बार हम्म शादी में गै राहै उहाँ हमका छै टेपके पकड़ लीन अउर हमरे सात जोर-जबरदस्ती करे लगै। तो हमने उनसे कहा अगर सब के सब नंगे होई जियव तो हम्म बारी-बारी से सब का देबैं। ई सुनते ही वे सब नंगें होई गैं। उमे कुच्छ छिन्दू (हिन्दू) अउर कुच्छ छिलकू (मुस्लिम) थे.‘‘

‘‘तो का सब का देई दियव?‘‘

‘‘तो का करती बहिनी, छिन्दू का मजा चखा अउर छिलकू का भी.‘‘

‘‘छिन्दू और छिलकू का क्या मतलब हैं?‘‘ ज्ञानदीप ने पूछा।

‘‘छिन्दू माने हिन्दू अउर छिलकू माने मुसलमान.‘‘ पायल ने बताया।

ज्ञानदीप ने डायरी पर नोट किया।

‘‘ऐ री राखी से भामड़ा (बर्तन) माँज का कनजड़ेन की तरह साफ करत हय.‘‘ दीपिकामाई पेटीकोट का नारा बाँधती बोली।

‘‘अच्छा गुरू! चलती हय सलावालेकुम.‘‘

‘‘वालेकुम सलाम.‘‘

‘‘अच्छा माई, मैं भी चलता हूँ.‘‘ ज्ञानदीप को खड़ा होता देख, दीपिकामाई तेजी से कमरे में गई। और जब वह वापस लौटी तो उनके हाथ में डायरी के पन्ने थे। उन्होंने ज्ञानदीप की तरफ बढ़ा दिये, ”ई लेव.”

”जी.” कहकर ज्ञानदीप ने दीपिकामाई के चरण स्पर्श किये और साइकिल लेकर चल पड़ा। उसका बस चलता तो वह साइकिल को हवाई जहाज बना देता। मगर यह उसके बस में नहीं था। तमाम तरह के प्रश्न उसके जे़हन को चार्ज कर रहे थे।

ऐसी उत्सुकता कभी ‘चन्द्रकांता‘ को लेकर प्रेमचंद में थी।

17-4-1977

सन्नो आई और उस भीम जैसे आदमी से मुझे छुड़ाने लगी।

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