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आधा आदमी - 11

आधा आदमी

अध्‍याय-11

वह मुझे छोड़कर सन्नो को पीटने लगा।

मैं मौका पाते ही पहरे के झुण्ड में घुस गया। चाँदनी रात होने के कारण मुझे पहरे के अंदर से दिखाई पड़ रहा था।

सन्नो जमीन पर औधे मुँह पड़ी सिसक रही थी।

वह भीम जैसा आदमी उसे मारते खींच ले गया। मैं चाहकर भी उसे बचा न पाया।

सुबह होने से पहले ही मैं पहरे से बाहर आ गया। और मर्दाना कपड़ा पहन कर, पैदल ही चल पड़ा। लगभग बीस किलोमीटर चलने के बाद मेरे पैरों में सूजन आ गया था। मेरी हिम्मत जवाब देने लगी थी। प्यास के मारे मेरा गला सूख रहा था। यह तो भगवान का शुक्र था कि एक ताँगे वाला मिल गया।

7-7-1977

मैं शहर पहुँचते ही सीधे चंदा के घर गया और उससे सारी बात बताया। उसने सारी बात सुनने के बाद मुझे खाना खिलाया और एक पुराना कुर्ता-पजामा दिया। जिसे पहन कर मैं घर चला आया।

घर पहुँचते ही अम्मा ने पूछा, दो दिन कहाँ थे? प्रत्युत्तर मैंने जवाब दिया कि मैं दीदी के यहाँ था।

मगर अम्मा यह मानने को जरा भी तैयार नहीं थी।

मैं अच्छी तरह से समझ गया था कि अम्मा जान चुकी हैं मैं कहाँ गया था। फिर भी बड़ी सफाई से झूठ बोल गया, ‘‘काम से गया था.‘‘

यह सुनकर अम्मा मेरी चुप हो गई। मैं चुपचाप कमरे में आकर लेट गया।

अगले दिन शरीफ बाबा ने भी मुझझे यही सवाल किया। तो मैंने उसे सच-सच सारी बात बता दी। इतना सुनते ही शरीफ बाबा तैश में आकर मुझे मारने लगा, ‘‘मिल जाये तो उस भौसड़ी वाले को बताये कैसे तुम्हें लेकर गया था.‘‘

‘‘हम अपनी मर्जी से गई थी, बस तुम हमारा कपड़ा उससे दिलवा दो क्योंकि वह कपड़ा हमारी बहन का हैं.‘‘

‘‘अब साले! तू मेहरों की भाषा भी बोलने लगा.‘‘

‘‘माफ कर दो अब नहीं बोलूँगा.‘‘

फिर उसने मुझे बड़े प्यार से समझाया, ‘‘देखो मेहरों से मत मिला करों अगर तुम्हारे घर वालों को पता चल गया तो क्या होगा, सोचा हैं?‘‘

‘‘देते हो दस रूपया रोज और दिखाते हो इतना रूवाब, जब हमारा खर्चा नहीं पूरा होगा तो हम मेहरों के साथ जाऊँगा ही.‘‘

‘‘कितना खर्चा है तुम्हारा?‘‘

‘‘बीस रूपया रोज़ घर का खर्चा हैं.‘‘

शरीफ बाबा बीस रूपया रोज देने को तैयार हो गया। मगर साथ-साथ कड़ी चेतावनी भी दी, ‘‘अगर इसके बावजूद भी तुम मेहरों के साथ घूमें तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा.‘‘

अगले दिन शरीफ बाबा ने सन्नो से साड़ी लाकर मुझे दिया। मैंने घर आकर चुपके से साड़ी को अलमारी में रख दिया।

इत्तफाक से उसी दिन दीदी आ गई। शाम को जब अपना ब्लाउज ढूढ़ने लगी तो उसे यह साड़ी मिली। उसमें काजल, लाली, लिपिस्टिक का दाग देखकर वह बौखला उठी।

मैं जैसे ही बाहर से आया कि वह मेरे ऊपर बेलन लेकर टूट पड़ी। मेरे तो जैसे काटों खून नहीं। डर के मारे मेरा बुरा हाल था। अब क्या होगा? क्या ज़वाब दूगाँ?

‘‘ऐ मेहरकुल्ले कहाँ नाचै गै राहव?‘‘ दीदी ने पूछा।

मैं अपने बचाव में सफाई देता रहा मगर दीदी थी जो मानने को तैयार नहीं थी। वह मुझे तब तक मारती रही जब तक मैंने सच बता न दिया।

25-7-1977

हम कहाँ किस्मत आजमाने जाएं

तू ही जब खंजर आजमान हुआ।

जैसे-जैसे दिन गुजर रहे थे। वैसे-वैसे मेरी परेशनियाँ भी बढ़ती जा रही थी। पैसा आने का कोई भी जरिया नहीं था। पर परिवार तो चलाना ही था। शरीफ बाबा ने भी पैसा देना बंद कर दिया था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे क्या होगा? जिंदगी इस कदर बीच मझधार में आकर थम गई थी। जहाँ से मुझे कोई भी किनारा नहीं दिख रहा था। मन उदास था मैं उसी उदासी में चंदा के घर गया।

‘‘इतने दिन कहाँ थी?‘‘ चंदा ने पूछा।

मैंने उससे एक-एक करके सारी बातें बताया।

‘‘देखो बिटिया, हमने तुमसे पहले भी कहा था कि गिरिये-गँवारों के चक्कर में पड़ो। अभी तुम जवान हो, माशूक हो, खूबसूरत हो खूब खान्ज़रा करो। जौबन-जलवे से कमाओं.‘‘

‘‘गुरू! अब तुम जो कहोगी वही हम करेगी पर हमरे गिरिये से कच्ची मत करना.‘‘

‘‘अरी भागव बहिनी, हमें का पड़ी हय किसी की कच्ची करके.‘‘

‘‘मैंने सोचा, कहीं तुमारे खूमड़ से निकल न जाये.‘‘

‘‘हमरा खूमड़ कोई हाथी की गाँड़ नाय जब देखो निकला करे.‘‘

‘‘अरी गुरू, तुम तो झलक गई.‘‘

‘‘अच्छा अब नहीं कहेगी.‘‘

खाना खाने के बाद हम दोनों ने शराब पी। मैंने पहली बार उस दिन शराब पी थी। नशा चढ़ते ही मैं बहक गया, ‘‘चल गुरू, हम लोग तो रात की रानी हैं हमें किस बात का डर.‘‘

‘‘ठीक कहती हो बहनी.‘‘ चंदा ताली बजाती उठी।

हम लोग बात करते-करते घंटाघर पहुँच गये। रात के बारह बज रहे थे। सिवाय पुलिस वालों के वहाँ कोई नहीं था।

‘‘इतनी रात को तुम लोग कहाँ घूम रहे हो?‘‘ सिपाही ने पूछा।

‘‘क्या करूँ सर, इस समय हम लोग हवा खाने निकली हूँ.‘‘

‘‘रात में घूमने का क्या मतलब?‘‘ चैकी इन्चार्ज ने आँखें तररे कर पूछा।

‘‘सर! दिन में हम लोग निकलती हैं तो पब्लिक हमें परेशान करती हंै। इसलिए हम और हमारे गुरू रात में ही निकलती हैं.‘‘ कहकर मैंने ताली बजाई, ‘‘न हम लोग चोर हैं न ही बदमाश, हम लोग तो वैसे ही ठोकर खाये हैं। हमारा तो जनम ही खराब हैं। भगवान न करे किसी दुश्मन का भी बच्चा हमारी तरह हो.‘‘

चैकी इन्चार्ज व्यंगात्मक हँसी हँसा, ‘‘चलो मैं घुमाता हूँ तुम लोगों को.‘‘

‘‘बिटिया! कड़े कर जाओं, खुमड़ मत लगो चलो पत (भाग) चलें.‘‘ चंदा डर गई थी।

‘‘अरी गुरू, चुप करो हम डरने वाली बला नहीं हूँ.”

हमारे साथ-साथ वह भी जीप में बैठ गई।

‘‘चलिए सर.‘‘

जीप सड़क पर दौड़ने लगी। शहर से बाहर पहुँचते ही चैकी इन्चार्ज ने पूछा, ‘‘क्यों मेरा घुमाना तुम लोगों को पसंद आया?‘‘

‘‘भला आप हमें घुमाये और अच्छा न लगे, यह हो ही नही सकता.‘‘

‘‘चलो अब शराफत से नीचे उतरों....।‘‘

‘‘नहीं सर ,रास्ते में मरघट पड़ता हैं हम डर जायेगी.‘‘

‘‘तुम लोगों का क्या डर, तुम्हें इंसान तो क्या शैतान भी नहीं पूछेगा.‘‘

‘‘ठीक है सर, जैसी आप की मर्जी अगर हम-दोनों को कुछ हो गया तो इसके जिम्मेदार आप होगे.‘‘

चैकी इन्चार्ज जीप लेकर चला गया था।

दूसरे दिन हम-दोनों फिर खिलवा टाक के घंटाघर पहुँच गई। चैकी इन्चार्ज ने देखते ही पूछा, ‘‘क्यों कल जी नहीं भरा था?‘‘

‘‘नहीं सर.‘‘

‘‘जा तिवारी, जीप लाकर इन पर चढ़ा दें.‘‘

चंदा मारे डर के पसीना-पसीना हो गई थी।

मैं कुर्ता उतार कर जीप के सामने खड़ा हो गया। बोला, ‘‘चल चढ़ा जीप.....।‘‘

‘‘मरने के लिए तैयार हो जाओं.‘‘ कहकर चैकी इन्चार्ज जीप में बैठ गया।

‘‘आप क्या समझते हैं हम आप से डर जायेगी, हम डरने वाली जनानी नहीं है। स्टार्ट कर जीप.‘‘ मैंने सारे कपड़े उतार कर ताली बजाया, ‘‘चला भड़वे गाड़ी, नहीं चढ़ायेगा तो तेरी गाड़ी का आज नक्शा बिगाड़ दूँगी। तुम्हें क्या हिजड़ो को सिर्फ पकड़ने की डंयूटी मिली हैं.‘‘

‘‘साले दो कौड़ी के हिजड़े अभी गाँड़ में यह बेत खोसूगाँ तो बाँय-बाँय करती फिरेगी, सीधी तरह से भागती है कि खोसूँ.‘‘

‘‘चल, अब तू डंडा गाँड में खोस के ही दिखा अरे हम हिजड़े हैं। हिजड़े! डंडा तो क्या पूरा बम्बा गाँड़ में ले लेगी। पर ज़रा अपनी सोच? अगर हमारी एक उँगली भी तुम्हारी गाँड़ में घुस गई तो कूदता-फिरेगा......।‘‘

दीवान ने आकर चैकी इन्चार्ज को समझाया, ‘‘अरे सर, चलिए इनकी तो वैसे ही ज़िदंगी खराब हैं इन्हे परेशान करके हमे क्या मिलेगा। ये लोग तो ऐसे होते हैं अगर श्राप दे दें तो लग जाती है। मेरा कहना मानिये तो सर, इन्हें जीप में बैठाकर इनके दरवाजे पर छोड़ दीजिए.‘‘

‘‘ठीक हैं.‘‘

मै कपड़े पहनकर चंदा के साथ जीप में बैठ गया। जीप हम-दोनों को घर के दरवाजें पर छोड़कर चली गई थी।

‘‘जौबन गुरू, आज हम बहुत खुश हैं। बताओ चीसा किया की नहीं?‘‘

‘‘और अगर बीली हो जाती तो?‘‘

‘‘बीली कैसे होती? जानती हो गुरू अगर आज हम ऐसा न करती तो ये डोगरें हर कही जनानियों को बीला करती.‘‘

‘‘ठीक कहती हो बहिनी, अच्छा अब चलती हूँ.‘‘

‘‘गुरू! ख़ुदा हाफिज़.‘‘

15-8-1977

कागज थोड़ो हित घनो, क्या कुछ लिखूँ बनाय।

कर काँपत छतियाँ फटे, डोबा बहि-बहि जाय।।

उस दिन मेरी मुलाकात सन्नो से हो गई। मैंने उससे प्रोग्राम में ले जाने की गुज़ारिश की।

सन्नो झलक उठी, ‘‘भाग रे मेहरे, तोहका लई जाई के अपने जीव का नरक करैं हय.’’

‘‘अरी जाव बहिनी, तो इमा हमरा का दोष तुम भभका (मेकअप) ही अईसा कियैं राहव जो बवाल होई जाये.’’

‘‘देखव हम्म तोहका एक सर्त पैं लेई के चलबै, जब तै हमका अपना गुरू मनय्हें.’’

हालात के आगे मुझे झुकना ही पडा़। सन्नो ने मुझे तीन दिन बाद नेपाल गंज चलने को कहा।

मैं सन्नो से इज़ाज़त लेकर घर आ गया। देखता क्या हूँ घर वाले टाँफी लपेट रहे हैं। मैंने अम्मा से पूछा, ‘‘जब मैं खर्चा देता हूँ तो आप लोग टाँफी क्यों लपेट रहे हैं?’’

‘‘इंसान को काम करना चाहिए। जब तक के चार दिन की जवानी हैं चाहे जहाँ मौजमस्ती कर लो बाद में तो पछताना ही हैं.’’

बात ही बात में पिताजी बहुत बड़ी बात कह गये थे उनका इशारा मेरी तरफ था।

7-10-1977

मैं नेपालगंज से प्रोग्राम करके लौटा तो रात हो गई थी। बस का कोई साधन नहीं था। मेरे साथ-साथ सन्नो और पार्टी मालिक भी था।

‘‘तुम यह जनानियों की भाषा क्यों बोलती हो?’’ पार्टी मालिक ने पूछा।

‘‘जब हम सारा काम जनानियों वाला करती हूँ तो मर्दो की भाषा क्यों इस्तेमाल करूँ?‘‘

तभी भूरी ड्राइवर आया और मेरी तरफ इशारा करके पार्टी मालिक को गाली-गलौच देने लगा, ‘‘काहे बे ललवा, तेरी माँ का चौदे ई माल कहाँ से लाये हव?’’

‘‘नाय मालिक! सब आपैं के लोग हय, आवा जाई संझा के मनवरंजन होई.‘‘

भूरी ड्राइवर के जाते ही मैंने पार्टी मालिक से पूछा, ‘‘यह आदमी कौन था?’’

‘‘ई इहाँ का रंगबाज हय.’’

‘‘जो भी हो समझा देना हमसे बत्तमीजी न करें.’’

पार्टी मालिक बगैर कुछ कहे चला गया था।

खाना खाने के बाद मैं और सन्नो लेटे ही थे कि भूरी ड्राइवर शराब के नशे में आया, ‘‘काहे बे ललवा, माल कहाँ छुपाई दियव?‘‘

इतना सुनते ही हम-दोनो ने चुप्पी साध ली थी। मगर भूरी ड्राइवर के पुकारते ही, ‘‘ओय डांसर, इहाँ काहे पौड़ी हव तुमरी जगह इहाँ पौड़े की नाय हय राजा.‘‘

‘‘नाय-नाय बाबू , तुम जहाँ कहव उही पौड़ी.’’

वह हम-दोनों को अपने घर ले गया।

डबल बेड देखते मैंने कहा, ‘‘गुरू! पूरा इंतजाम इहाँ किये हय, लागत हय हम लोगन का सुबह चील घर बेजे का पलान बनाये हय.’’

‘‘तुम तो बहिनी इत्ती होशियार हव कौनौं अईसा चक्कर चलाव जो इह आदमी चुपचाप लेटा-पौड़ा रहे.’’ सन्नो धीरे से कान में फुसफुसायी।

‘‘अरी जाव, इह आदमी भैसा डोम जईसा हय इमा हम का चक्कर चलाई। अब अईसा हय जो इह काहत हय इका कहना मानव.’’

‘‘इहाँ आ बे, का तुम लोग फुसर-फुसर करत हव?’’

‘‘हम तो आप की तारीफ़ कर रही हय.’’

सच कहूँ तो मैं भी भूरी ड्राइवर से अंदर-अंदर ही बहुत डरा हुआ था। पर चेहरे से जाहिर नहीं होने दे रहा था।

वहाँ दो आदमी और आ गये थे। उनमें से एक ने कहा, ‘‘भूरी भाई! सुना हय दुई ठो क्लाकारेन का लाये हव का कौनों परोग्राम-वोग्राम हय.‘‘

‘‘नाय में, इनसे भोसरी वालेन से ग़ज़ल सुनबै। अउर इक लौंडा बहोत सोहाब हय उही के सात मौज करबै.‘‘

‘‘देखव भइया, गाली-गुपताली से बात न करौं अउर रही बात ग़ज़ल सुनने की तो कहो सारी रात सुनाई.‘‘

‘‘अमे आव बईठव, बुरा न मानव ई सब तो दोसयारी में चला करत हय.‘‘ भूरी ड्राइवर के कहते ही हम लोग उसकी खटिया पर बैठ गए।

सबसे पहले सन्नो ने ग़ज़ल छेड़ी-

शाम तक सुबह की नज़रो से उतर जाते हैं.

इतने समझौतो पे जीते है कि मर जाते हैं।

फिर वही तल्खीये हालात मुकद्दर ठहरी,

नक्शे कैसे भी हों कुछ दिन में उतर जाते हैं।।

ग़ज़ल सुनते कई लोग और भी आ गए थे। सभी नशे में धूत थे। उन्हीं में से एक बोला, ‘‘अमे भूरी भाई, माल तो बहोत बढ़िया लाये हव। नवे माल से ग़ज़ल गवाव तब तो महफिल में रंग जमे.’’

उस आदमी का मुझे ‘माल‘ कहकर सम्बोधित करना जरा भी अच्छा नहीं लगा था। उन लोगों के हाव-भाव देखकर मैं घबरा गया था। मैंने सन्नो से कहा, ‘‘ई सब हम्में लुखन्डे (बदमाश) दिखत हय.’’

‘‘तुम घबराव न बहिनी, ई लौगन का उदधार हमीं करबैं.’’

‘‘गुरू! का तुमैं ई लोगन से डर नाय लगत हय.’’

‘‘हम्म ई लुखन्डे से नाय डराइत हय.‘‘

‘‘बहिनी, तुम बहोत पक्की हव.‘‘

हम-दोनों को आपस में बात करता देख। भूरी ड्राइवर तैश में आ गया, ‘‘ग़ज़ल गात हो या नौंटकी करत हव.‘‘

मैंने ग़ज़ल छेड़ दी-

सीने में ज़लन आँखों में तूफान-सा क्यों हैं

इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों हैं

दिल है तो धड़कन का बहाना कोई ढ़ूढ़े

ग़ज़ल सुनते ही सभी वाहवाही करने लगे, ‘‘अमे भूरी भाई, बहोत बड़या कलाकार हय.‘‘

उस वक्त मेरी हालत द्रोपदी से कम नहीं था। वहाँ तो भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें बचा लिया था। मगर यहाँ मुझे इन राक्षसों से कौन बचायेगा?

तभी भूरी ड्राइवर ने मेरा हाथ पकड़ लिया, ‘‘चलो राजा अब ज़रा मस्ती होई जायें.‘‘

‘‘जल्दी काहे की हय अभई तो पूरी रात बाकी हय.‘‘

‘‘रात को किका इंतजार हय मेरी जान.‘‘ कहकर भूरी ड्राइवर ने मुझे गोद में उठा लिया और कमरे में ले जाकर डबल बेड पर पटक दिया। डर के कारण मैं काँप रहा था।

उसने झट से कमरे का दरवाजा बंद किया। और अपने कपड़े उतारने लगा। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ?

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