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दाता

कहानी " दाता "

"बच्चें सो गए क्या ?" पिता ने चिंतित स्वर में पूछा।
" हाँ अभी अभी सोए हैं।"
"समझ रहा हूँ.., भूख से नींद तो आई नहीं होगी तूने मार डपटकर सुला दिया होगा।"
"अब हम लोग भी गाँव ही चलते तो सही रहता। " पत्नी ने शहर के माहौल को देखते हुए अधीर होकर कहा।
"पगला गई है क्या ! लॉकडॉउन में आने जाने के सभी साधन बंद है। वैसे भी गाँव में एक खपरैल मकान के अलावा है क्या हमारा। अभी जब सब कुछ बंद है, हमको वहाँ भी काम कौन देगा।"

"फिर भी शहर की मिट्टी से तो अच्छा है कम से कम गाँव की मिट्टी पर तो मरेंगे।"
"ऐसा काहे सोचती है। ...एक बार और कोशिश करके देखता हूँ मालिक के पास शायद थोड़ी मदद मिल जाए ।"

दरवाज़े पर लगातार घंटी की आवाज़ से घर के मालिक ने खिन्नाते हुए किवाड़ खोला तो देखा, उसके फैक्ट्री में काम करने वाला उसका एक मजदूर खड़ा था।

"क्या चाहिए तुझे? वो भी इतनी रात को।"

"मालिक दो दिन से बच्चों ने कुछ खाया नहीं हैं। थोड़े और पैसे की मदद मिल जाती तो आपकी बड़ी मेहरबानी होती।" उसने प्रार्थना भरे स्वर में कहा।

"कुछ दिन पहले ही तो तुझे अच्छा रोकड़ा दिया था।"

"उतने में तो दो महीने का राशन भी पूरा नहीं हुआ मालिक।"

"हम क्या करें, हमारी भी तो फैक्ट्री बंद है। कोई कमाई नहीं हो रही है और तुम्हारे साथ काम करने वाले दूसरे मजदूरों को भी तो पैसे से मदद की थी। अब और मदद नहीं कर सकते जाओ यहाँ से।"

"आपके हाथ जोड़ते हैं मालिक बच्चें भूखो बिलबिला रहे है। फैक्ट्री में काम शुरू होते ही आप हमारे पगार में से धीरे धीरे काट लीजिएगा।"

"जितनी मदद करनी थी कर दी।" कहते हुए मालिक ने उसके मुँह पर दरवाज़ा बंद कर दिया।

"ऐसा नहीं कीजिए मालिक इस लॉकडॉउन में आप ही का आसरा है । आप हमारे अन्नदाता हैं।" उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

तभी अचानक मूसलाधार बारिश शुरू हो गई।
'हे प्रभु एक तो भूख का कहर ऊपर से ये बारिश अब मैं कहाँ जाऊँ ?' वो मन ही मन बड़बड़ाया।

उसकी आँखों के सामने रह रह कर भूख से रोते बिलखते बच्चों का चेहरा तैरने लगता। कोई रास्ता ना देख बौखला सा गया और बाहर बारिश में भिंगता हुआ जोर जोर से चिल्लाने लगा, " तुम क्या जानो भूख क्या होती है सेठ.., एक बार हम गरीबों की झोपड़ी में झांककर तो देखो.. तब समझ आएगा कि गरीबी की मार झेलते झेलते हमारें बदनसीबी के चादर में कितने पैबंद लगे होते हैं ।"
" हमसे नहीं तो कम से कम ऊपर वाले से ही थोड़ा खौफ खा लो सेठ ।"
"बड़ा ऊपर वाले की दुहाई दे रहा है। उसी के पास क्यों नहीं जाता वहीं तेरी मदद करेगा।" सेठ ने घर के भीतर से ही जोर से चिल्लाते हुए कहा।

"हाँ- हाँ , जिसका कोई नहीं होता उसका मालिक ऊपरवाला ही होता है । अपना खून बेच दूँगा, किडनी बेच दूँगा पर मरने नहीं दूँगा अपने बच्चों को ।"

बारिश में भीगता हुआ असहाय, लड़खड़ाते हुए उसने कब मंदिर की ओर रुख किया उसे पता ही नहीं चला। रोते बिलखते मंदिर के आहाते में पड़ा रहा।

मंदिर की घंटी से उसकी नींद टूटी तो अपने कंधे पर किसी के हाथ का स्पर्श पाया।
"क्या हुआ भाई दुखित क्यों हो ? लगता है पूरी रात बारिश में यहीं पड़े रहे ।"
उसके दुख का कारण जान उसे ढाढ़स दिलाते हुए कहा ,. "अच्छा! तुम चिंता मत करो, लगता है ऊपर वाले ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली। आज ही लॉकडाउन खत्म हुआ है और देखो मंदिर भी खुल गया है। तुम यहाँ सफाई कर्मचारी का काम पकड़ लो। जो थोड़े बहुत पैसे मिलेंगे गुजर-बसर कर लेना। इतना ही नहीं , यहाँ आए दिन भंडारा भी होता हैं। खाने पीने की कभी कमी नहीं रहेगी ।"

सामने मंदिर की मूर्ति पर उसके आँखे अपलक टिकी रह गई और आँसुओ की धार बह निकली। कुछ बोल ना पाया।

कुछ समय पश्चात उसे पता चला कि उसके साथ सेठ द्वारा की गई बदसलूकी के कारण सेठ की फैक्ट्री में काम करने वाले सभी पूर्व कर्मचारियों ने वहाँ काम करने से मना कर दिया था । लॉकडाउन हटने के बाद भी फैक्ट्री बंद थी ।
वो मन ही मन बुदबुदाया, ऊपरवाला सबकी सुनता है ...और एक अर्थपूर्ण मुस्कान उसके चेहरे पर उभर आई।

पूनम सिंह
स्वरचित