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न उम्र की सीमा हो

न उम्र की सीमा हो

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ये वक्त जो ठहर हुआ है मुठ्ठी में फँसी रेत सा फिसलता जा रहा ..लाख जतन रोकने की पर वह है कि बहता जा रहा ...तुम्हारी याद के मुहाने पर आकर ठहर गई हूँ जब भी देखती हूँ पलट कर तो तुम जाते हुये दिखायी देते हो ,जैसे प्लेटफ़ॉर्म से छूटी रेलगाड़ी ,जिसे पकड़ कर रोकना बेहद मुश्किल । रेल की खिड़की से झाँकते हाथ हिलाते लोग चले जाने की घोषणा से करते मालूम होते हैं ....देखो न ! जाते हुये बॉय भी नहीं कहा तुमने ....एक डर था तुम्हारी आँखों में हमेशा से ,कि जाते हुये देख नही पाते तुम ......विदा आह ! कितनी पीड़ा है इस एक शब्द में ..... दिव्या का मन जाते हुये रोहित को देख जाने किन किन ख़्यालों में उलझ गया था जबकि रोहित उसे ट्रेन में बिठा सब ठीक से व्यवस्थित कर और सारी हिदायतें देकर जा चुका था , दिव्या ही थी कि जाने कहाँ खोई हुई थी कि उसने सामने बैठे बुजुर्ग दम्पति पर ध्यान ही नहीं दिया !

रोहित जब आँखों से ओझल हो चुका और ट्रेन ने रफ़्तार पकड़ ली तो उसका ध्यान उन बुज़ुर्गों पर गया । कोई पैंसठ से सत्तर के बीच की वय होगी पुरूष दुबले पतले से ,आँखों पर पॉवर का चश्मा लगाये अख़बार पढने में तल्लीन , बग़ल मे बैठी महिला शायद उनकी पत्नी होगीं तभी उनके काँधे पर सर रखे खिड़की से बाहर सरपट भागती दुनिया को अपलक निहार रही ! एक अजीब सा सुकून है उनके चेहरे पर जो उन्हें बहुत ही सौम्य बना रहा ! कहीं कोई चिन्ता कोई परेशानी की लकीर नहीं उनके चेहरे पर । तभी अख़बार पढ़ते हुये बुजुर्ग ने कहा ....अरे भई मेरा कंधा है आपका तकिया नही जो लगा कर भूल गयीं आप ..” महिला की तन्द्रा टूट गई और वे हँसते हुये सीधी बैठ कर बोली ...”ससुराल जाते समय माँ ने कहा था आपकी ओर इशारा करते हुये कि बेटी अब यही हैं सब कुछ ....जैसे चाहे रहना जैसे चाहे रखना ..”

पति उनकी बात सुन मुस्कुरा कर बोले ...” हाँ तभी आप हमें तकिया बिस्तर झाड़ू पोछा कुछ भी बना लेती हैं “ ..पत्नी ने नाटकीय ग़ुस्से से उनकी ओर देखा और कुछ कहने ही वाली थी कि उनका ध्यान दिव्या की तरफ चला गया , जो एकटक दोनों जन को निहारते हुये मुस्कुरा रही थी । वे चुप हो गई और मन ही मन न जाने क्या सोच मुस्कुराने लगी ! दिव्या से जब नहीं रहा गया तो उसने पूछ ही लिया ...”आंटी कहाँ जा रहे आप लोग “?

पहले दिल्ली जायेंगे और लौटते में आगरा , ताजमहल दिखाने का वादा जो किया था इन्होंने “ दिव्या का कौतुहल बढ गया उसने झट से पूछा “क्या आप लोग दिल्ली और आगरा घूमने जा रहे ? इस बार जवाब पुरूष ने दिया ...” हाँ भई इनकी ता उम्र शिकायत रही कि कहीं घूमाने नहीं ले जाते “ तो सोचा कि शुरूआत देश की राजधानी दिल्ली से की जाये और फिर मोहब्बत की निशानी ताजमहल देख वापसी कर ली जाये “

दिव्या की आंखे खुली की खुली रह गई ये सोचकर कि जिस उम्र में हमारे बुजुर्ग खुद को बूढ़ा समझ खटिया पकड़ लेते हैं उस उम्र में ये घूमने जा रहे । तभी महिला ने अपने पति को कोहनी मार चुप रहने का इशारा किया , दिव्या समझ गई उसने कहा “अरे आंटी कोई बात नहीं अकंल को बोलने दीजिए न ,और प्लीज़ आप भी कुछ अपने बारे में बताइये । मैने बहुत से आपकी ऐज़ के कपल देखें हैं लेकिन वे जीवन के प्रति इतने उदासीन दिखे कि आपको यूँ घूमने जाते देख सरप्राइज़ हूँ “

पहले तो वे थोडा झिझकी फिर बोलीं कि अब क्या बताये बेटा ,तुम्हारे अंकल को जीवन में कभी समय ही नहीं मिला हमारे साथ रहने का , हमेशा काम और घर परिवार की ज़िम्मेदारी में ही उलझे रहे ।सोलह साल की थी जब मेरी इनसे शादी हुई .....हाँ ससुराल जरूर अट्ठारह साल पर भेजा माता पिता ने ..। जब वहाँ पहुँची तो ये पढ़ ही रहे थे ....न ये अपने पैरों पर खड़े थे और न ही मेरी ज़िम्मेदारी संभालने लायक ...। घर मे ससुर जी का हुकुम चलता था भरा पूरा परिवार और बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ थी । बड़ी बहु होने के नाते घर की अधिकांश ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर आ पड़ी , एक मिनट का भी समय नहीं मिलता ।कभी कभी तो अकेले बैठ खूब रोती कि माँ पिता ने कहाँ पटक दिया , इससे अच्छा होता कि वे कहीं जंगल में छोड़ देते । ऐसे कठिन समय में इन्होंने मेरा पूरा सहयोग किया ये चुपके चुपके मेरे कामों मे हाथ बँटा देते , कपड़े फैला देते . उठा भी ले आते ,रसोई के भी कुछ कुछ काम कर देते ...इनके साथ काम करते मुझे बहुत अच्छा लगता और मैं अपने दुख भूल जाती । पर जल्दी ही इस सुख पर किसी की नज़र लग गई ...शादी के एक साल हो चुके थे इनकी पढ़ाई भी पूरी हो चुकी थी ये नौकरी के लिये इधर उधर आवाजाही में लगे थे कि एक दिन इनकी नौकरी का तार आ गया , मन जितना खुश हुआ उतना ही दुखी भी , अगले हफ़्ते ही ज्वाइन करना था । मेरे मन में धुकधुकी लगी थी कि इनके जाने के बाद कैसे रहूँगी कैसे सब ज़िम्मेदारियाँ निभाऊँगी । इसी उधेड़बुन में जाने का समय भी आ गया इनके बहुत समझाने पर भी मेरा मन बैठ गया और ये चले गये ....कहते हुये आंटी की आंखे भीग गई !

उन्होंने खिड़की से बाहर देखा और चुप हो गयीं ..जब कुछ देर हो गई तो दिव्या ने ही उन्हें टोका “अरे आँटी आपको दुखी करना नही चाहती थी बस आप दोनो को इस उम्र में यूँ खिलखिलाते देख मन हो गया आपके बारे में जानने का ....” आँटी ने उसकी ओर देखा और बोली ऐसी बात नही है बेटा ...बस जीवन ने कभी इतना समय ही नहीं दिया कि अपने बारे में सोच सकें ।इनकी नौकरी लगने के बाद से ये हर तीन चार महीने में दो तीन दिन के लिये आते और चले जाते , जी कितना दुखी होता कितना रोती लेकिन इनकी हिम्मत सब कुछ संभाले रहती ! घर का बड़ा बेटा होने के नाते सारी ज़िम्मेदारियाँ इन्हीं को उठानी थी तीन बहनों की शादी दो छोटे भाइयों की पढ़ाई ,उनके जीवन को व्यवस्थित करना ,, उनका शादी ब्याह और उस पर हमारे दो बच्चे , वो भी दोनों लड़कियाँ ! सास ने कितना तो सुनाया ...घर परिवार समाज हर एक का दबाव कि एक लड़का तो होना ही चाहिये । वैसे भी हमारे ज़माने में पाँच छ: बच्चे बडे आम थे । लेकिन इन्होंने किसी की नहीं सुनी और बच्चे करने से साफ मना कर दिया । ये तो चले जाते मगर सुनना मुझे पडता , इन्हीं सब जंजालों मे जीवन यूँ ही निकल गया । न ये मुझे अपने पास बुला सके न मैं ही घर परिवार छोड इनके पास जा सकी । आख़िर रिटायरमैन्ट के बाद ही ये वापस घर आये जब न मन में कोई इच्छा बची थी न कोई उमंग ।

हर बार की तरह इस बार भी इन्होने किसी की परवाह नही कि और कहा कि हम तब साथ नही रह सके तो अब तो रह सकते हैं ,तब नही घूम सके तो अब तो घूम सकते हैं । ....मेरे बहुत मना करने के बाद भी इन्होने गाँव की अपने हिस्से की ज़मीन बेच कर शहर में दो कमरे का फ़्लैट ले लिया ....चूँकि अब सभी लोग सैटेल हो चुके थे लड़कियाँ भी अपने घर जा चुकी थीं तो हम पर कोई ज़िम्मेदारी नही थी । हम शहर वाले फ़्लैट में रहने के लिये आ गये और दो साल से वहीं हैं । बच्चे और परिवार के लोग बीच बीच में आ जाते हैं मिलने कि लिये या हम कभी कभार चले जाते है लेकिन रहते अकेले ही हैं ।बस अब यूँ ही निकल पड़े है घूमने ...। लालक़िला और ताजमहल देखने का बड़ा मन था मेरा ,तो तुम्हारे अंकल ने वहीं का टिकट करा लिया ! यह कहते हुये उनके चेहरे पर बच्चों जैसा एक्साइटमेन्ट था । दिव्या उनकी बातें सुन आश्चर्य चकित थी कि इतने साल अलग रहने के बाद भी दोनों के बीच कितना मधुर संबंध था दोनों कितने समीप थे एक दूसरे के , एक वो है कि शादी के बाद से रोहित के साथ है लेकिन कोई दिन नही जाता जब दोनों की तु तू मैं मै नहीं होती । उसे मन ही मन खुद से निराशा हुई उसने निश्चय किया कि वापस जाकर वह खुद को बदलेगी और कोशिश करेगी बहस न करने की । उसके मन के रफ़्तार के साथ ही ट्रेन की रफ़्तार भी कम हो चुकी थी और गाड़ी प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी हो चुकी थी ।सामने अंकल आंटी उतरने की तैयारी में अपना सामान समेट रहे थे और दिव्या बस न जाने कहाँ थी । ट्रेन के दरवाज़े पर पहुँच उसने सामने प्लेटफ़ॉर्म पर देखा अंकल आंटी एक दूसरे का हाथ थामे क़ुली के पीछे पीछे चले जा रहे थे .......


@सीमा सिंह