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उर्वशी - 4

उर्वशी

ज्योत्स्ना ‘ कपिल ‘

4

वह ही है मूर्ख, जो बिन सोचे समझे जाने क्या क्या कल्पना कर रही है। उन्होंने कब उसके साथ प्रेम की पींगें बढ़ाई ? कब उसे अपने विषय मे धोखे में रखा ? कब कोई वादा किया ? तो फिर उसे हर समय फूल भेजने का क्या अर्थ था ? उसने कब उन्हें जाना था ? क्यों मुलाकात होने पर उसे मुग्ध भाव से देखते रहते थे ? हर बार उनकी दृष्टि ने उसके प्रति अपने लगाव को प्रदर्शित किया था। क्यों उसने उनकी दृष्टि में प्रेम के सन्देश पढ़े ? उसने बिना किसी कारण के तो उनके प्रति आकर्षण महसूस नहीं किया था। यह सच है कि वह उनके चुम्बकीय व्यक्तित्व के आकर्षण से अछूती नहीं रही थी। पर उसने स्वयं को उनके स्वप्न देखने की इजाज़त कभी नहीं दी। वह इस असलियत को कभी नहीं भूली की उन दोनों के मध्य जमीन आसमान का फ़र्क है। वह एक मामूली सा ज़र्रा तो वे आसमान में चमचमाता चाँद।

उसे याद आया वह दिन, जब उन्होंने उसकी ' मृच्छकटिकम ' में सम्मिलित कुछ लोगों को डिनर करवाया था। क्या इसके पीछे उनका एकमात्र उद्देश्य उसके प्रति आकर्षण था, अथवा वास्तव में वह एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष के समक्ष अपने देश के बढ़े हुए सम्मान के प्रति संवेदनशील हुए थे ? लगता तो ऐसा ही है। फिर उसके घर का पता निकाला, यहाँ तक चले आये। उन्हें लड़कियों की क्या कमी। एक इशारे की देर है, प्रस्तावों के ढेर लग जाएंगे। शायद उनकी पत्नी अब …. इसीलिए विवाह करना चाहते होंगे। बच्चे अभी इतने बड़े नहीं हैं। उन्हें माँ के स्नेह व ममता की आवश्यकता तो अवश्य ही होगी। पर क्या वह इतने बड़े बच्चों की माँ का दायित्व निभा पाएगी ? जिन्हें उसने जन्म नहीं दिया ? क्या उनके प्रति ममत्व महसूस कर पाएगी ? वह अनुमान नहीं लगा पाई की वह क्या करेगी। क्या वह अब भी शिखर को स्वीकार करना चाहेगी ? मन को टटोला तो वह कुछ संशय में थी ।

" उर्वशी, आपको यह सम्बन्ध स्वीकार है ?" शिखर का गम्भीर स्वर गूँजा। वह अपने ख्यालों से चौंक पड़ी।

" हूँ ?" उसने प्रश्नवाचक दृष्टि से पिता को देखा।

" बेटा, तुम्हे ये रिश्ता पसन्द है ?" पापा ने बहुत स्नेह से पूछा। उसने एक बार पुनः शिखर को देखा, और हृदय को उनकी ओर खिंचता हुआ महसूस किया। वह इनकार न कर सकी और उसने स्वीकृति में सर झुका दिया।

" तो फिर हम इसी समय इस रिश्ते को स्वीकृति की मुहर लगाते हैं। " शिखर ने पुनः कहा। उत्तर में उसके माता पिता ने सहमति दे दी। शिखर के इशारे पर उनकी बहन शिप्रा ने अपना पर्स खोलकर एक मखमली पोटली निकाली। उसमें से जड़ाऊ कंगन निकाल कर छोटे भाई की ओर बढ़ा दिए।

" शौर्य, यह कंगन आप अपनी होने वाली दुल्हन को पहना दीजिये ।" शिप्रा ने कहा।

क्या ! उसने हतप्रभ होकर शौर्य की ओर दृष्टि डाली। उसका विवाह उस अनजान युवक के साथ तय हुआ है, जिसे उसने एक बार दृष्टि उठाकर देखा तक नहीं ! शौर्य के चेहरे पर उत्साह के कोई भाव नहीं थे । उसने यन्त्रचलित सा होकर उर्वशी के हाथों में कंगन पहना दिए। अब उसका भाग्य एक ऐसे व्यक्ति के साथ जुड़ गया जिसके प्रति उसके मन मे कोई भाव नहीं हैं। जिसे उसने नज़र भर कर देखा तक नहीं। वह उसे जानती नहीं, उसके स्वभाव, उसकी रुचि अरुचि, कुछ नहीं जानती। यह क्या हो गया ? उसे पूरा कमरा गोल गोल घूमता नज़र आया। वह अपना सिर थामकर रह गई। भाई ने झट से उसे थाम लिया, और सब एकदम से चिंतित हो गए। मम्मी के कहने पर उमंग उसे उसके कमरे में ले आया, और लिटा दिया। फिर उसे जल्दी से निम्बू पानी बनाकर दिया गया। शिकंजी पीकर वह थोड़ा चैतन्य हुई।

यह क्या हो गया ? मैंने यह कैसे सोच लिया कि शिखर स्वयम मुझसे विवाह करना चाहते हैं। उमंग ने बताया तो अवश्य होगा कि प्रस्ताव उनके छोटे भाई के लिए है। मैंने कुछ सुना ही नहीं, अपने ही विचारों और खोखली कल्पनाओं में गुम रही। मूर्ख … हद दर्जे की मूर्ख …. कोई सुनेगा, तो यही तो कहेगा मुझे। जागती आँखों से स्वप्न देखने की मेरी आदत आज मुझे एक बड़े द्वंद में डाल गई। उस व्यक्ति के साथ मैं जीवन कैसे बिता सकती हूँ जिसके लिए मन मे कोई कोमल भाव ही नहीं। वह भी ऐसे घर मे, जहाँ पहले से ही वह व्यक्ति रहता है, जिसके प्रति मैं मन मे गहरे भाव रखती हूँ। उसके सगे भाई के साथ ? पर मैंने ही तो अभी इस सम्बंध के लिए स्वीकृति दी है। किसी ने कोई जोर जबरदस्ती तो की नहीं थी मेरे साथ। पापा ने भी कोई दबाव नहीं डाला, और उन्होंने भी नहीं।

मना करूँ तो क्या कहकर ? जब सब कारण पूछेंगे तो क्या जवाब दूँगी ? क्या सोचेंगे मेरे विषय में ? एक दृष्टि में शौर्य में कोई कमी नहीं, आकर्षक है, पर मेरे मन मे अभी किसी भी व्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं। शिखर ने ऐसा क्यों किया ? पर उन्होंने किया भी क्या है ? मुझसे ऐसा क्या कहा जो मैं उन्हें अपराधी ठहराऊं ? सारा अपराध मेरा है। मेरी ही सोच गलत थी इसलिए मैंने ही हर सही चीज़ को गलत नज़रिए से देखा। इसमें किसी और का दोष कहाँ ? अभी भी वक़्त है, मना कर सकती हूं। पर पहले स्वीकृति और फिर अस्वीकृति का कारण क्या दूँगी ? सोच सोच कर उसके सिर में दर्द होने लगा। वह स्वयम को ऐसे चक्रव्यूह में फंसा हुआ महसूस कर रही थी जिससे बाहर निकलने का रास्ता नहीं नज़र आ रहा था।

" आप कैसी हैं उर्वशी ? " कदमों की आहट के साथ एक मुलायम स्वर उभरा। उसने स्वर की दिशा में देखा तो शिखर खड़े थे। वह पल भर को उन्हें देखती रही, फिर उसने नज़रें झुक लीं। उसने उठने का प्रयास किया तो उन्होंने मना कर दिया।

इन्हें मैं कैसे मना कर सकती हूँ ? उसने सोचा। हे ईश्वर, मुझे रास्ता सुझा। उसने प्रार्थना की।

" कोई परेशानी है ?" उन्होंने पुनः पुछा।

" नहीं " उसने इनकार में सिर हिला दिया। आँखें भर आयीं थीं।

" समझा, शायद माता पिता के छूटने के ख्याल से ही आपकी तबियत बिगड़ गई। फिक्र मत करिये, हम आपको थोड़ा समय अवश्य देंगे, शादी में अभी वक़्त है। "

" जी "

" हम एक बात और कहना चाहते हैं। "

" जी "

" अब अभिनय का मोह आपको त्यागना होगा। राणा खानदान की बहू को यह सब करने की इजाज़त नहीं होगी। अब आपको यह ध्यान रखना होगा कि परिवार की प्रतिष्ठा पर कोई आँच न आने पाए। "

अब मुझे जीना भी छोड़ना होगा ? कैसे जियूँगी मैं ? अभिनय मेरे जीवन का पहला प्रेम है। अब मैं कुछ नहीं कर सकती। मेरे पँख कट गए। बस पिंजरे में बंद, पँख फड़फड़ा कर रह जाऊँगी।

" अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखियेगा, हम चलते हैं। शौर्य से आप बात करना चाहेंगी ?"

" नहीं । " उसने आँखें बंद कर लीं। वह चले गए और वह जल बिन मीन सी तड़पती रह गई।

* * * * *

प्रतापगढ़ के राजा राजवीर सिंह राणा, एक प्रतापी राजा थे। उनके हुक्म का सिक्का असरदार ढंग से चलता था। उनकी दो पत्निओं से कई सन्तानें हुई पर जीवित दो पुत्र ही रहे। रणविजय सिंह और जोरावर सिंह। रणविजय स्वभाव से थोड़े भीरू किस्म के थे जबकि जोरावर सिंह शूरवीर एवम विलासी थे। आजादी के बाद जब उनके राज्य का विलय अखण्ड भारतवर्ष में हो गया, तब दोनो भाइयो की अच्छी खासी पेंशन बांध दी गई। अब इन दोनों ने पुरखों की छोड़ी विरासत का भरपूर इस्तेमाल करना शुरू किया। रणविजय की दो बेटियाँ और एक बेटा हुआ। वह भी पिता के नक्शे कदम पर चलकर सिर्फ जायदाद उड़ाता रहा। जीवन भर कोई कार्य न किया।

जोरावर सिंह के दो बेटे हुए। जिनमें से बड़े बेटे युद्धवीर ने पी पिला कर अपने स्वास्थ्य का सत्यानाश कर लिया और लिवर के बेकार हो जाने के कारण ज्यादा दिन जीवित नहीं रहा। छोटे बेटे शमशेर ने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा प्राप्त की, तदुपरांत अपने देश में लौटकर व्यवसाय आरम्भ किया। व्यवसाय की सुविधा के लिए उन्होंने अपनी दिल्ली स्थित हवेली को ही अब अपना स्थायी निवास बना लिया था। एक विशाल भूखंड में बनी, वह शानदार हवेली राणा पैलेस कहलाती थी।

उनका एक पुत्र व दो पुत्रियाँ थीं। बेटियाँ विवाह पश्चात अपने ससुराल चली गईं और बेटे ने पिता के कार्य मे सहयोग देना शुरू किया और अपने व्यवसाय को और आगे बढ़ाया। इनका नाम था तेजवीर सिंह। इन्ही तेजवीर की एक बेटी शिप्रा और दो बेटे कुँवर शिखर प्रताप सिंह राणा व कुँवर शौर्य प्रताप सिंह राणा थे। तेजवीर का देहांत मध्यम आयु में ही एक दुर्घटना में हो गया था। उस समय शिखर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा हेतु गए थे। पिता के स्वर्गवास के बाद वह शीघ्र ही अपनी शिक्षा समाप्त करके भारत लौट आये और पारिवारिक विरासत को सम्हाल लिया। ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण उन्होंने ही परिवार के मुखिया का पद सम्हाल लिया।

उनकी मर्जी के बिना घर मे पत्ता तक नहीं हिलता था। उनका विवाह बचपन मे ही तय कर दिया गया था। तेजवीर सिंह के घनिष्ठ मित्र समर सिंह एक बड़े जमींदार थे। उनकी सबसे बड़ी एक पुत्री थी, ऐश्वर्या । जो उम्र में शिखर से दो वर्ष बड़ी थी पर दोनो मित्रो ने बच्चों के शैशव काल मे ही उनका विवाह तय कर दिया था। कुँवर के बाइस वर्ष के होते ही दोनो का परिणय कर दिया गया। दोनो के स्वभाव में बहुत फ़र्क था। ऐश्वर्या उग्र स्वभाव की अभिमानी महिला थी। रंग कुछ दबा हुआ, परन्तु नाक नक्श तीखे थे। वह एक औसत महिला की तरह आभूषण और वस्त्रों की बहुत शौकीन थी। घर गृहस्थी में उसकी इतनी रुचि नहीं थी। बाहर घूमना फिरना, सामाजिक कार्यकलापों में उसकी ज्यादा रुचि थी।

जबकि शिखर उच्च शिक्षा प्राप्त कलात्मक अभीरुचि के युवा थे। उनके मन मे ऊँच नीच की भावना नहीं थी। उनका दिमाग खुला हुआ था। वह सिर्फ गुणों को महत्व देते थे। परिवार की प्रतिष्ठा और सभी सदस्यों की देखभाल व उनके हित की चिंता में ही उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया था । इस जोड़े को देखकर कोई भी समझ सकता था कि उनमें सिर्फ समझौता है, घनिष्टता नहीं। बहन का विवाह भी उदयपुर के एक ऊँचे व्यवसायी परिवार में हुआ था। शौर्य भी हार्वर्ड से उच्च शिक्षा लेकर आया था और अग्रज के साथ व्यवसाय की दिन दूनी प्रगति में योगदान दे रहा था। वह स्वभाव से भावुक किस्म का मितभाषी और अंतर्मुखी युवा था। उनकी माँ विजयश्री राणा राजनीति में सक्रिय थीं। वह हँसमुख स्वभाव की महिला थीं।

शिखर को गोल्फ़ खेलने और थियेटर का बहुत शौक था। वह जब भी समय पाते तो अपने इन शौकों को पूरा करते थे। एक बार वह श्रीराम सेंटर में उन दिनों चल रहे मोहन राकेश कृत नाटक ' अषाढ़ का एक दिन ' को देखने गए। यही वह समय था जब उर्वशी का रंगमंच में पदार्पण हुए कुछ ही समय हुआ था। वह किसी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए संघर्ष कर रही थी। तभी अचानक उसका भाग्योदय हुआ और इस नाटक में उसे कालिदास की प्रेमिका मल्लिका का महत्वपूर्ण चरित्र अभिनीत करने का अवसर मिला। शिखर ने उसे देखा तो सब भूलकर देखते ही रह गए। ऐसे ही स्त्री रत्न की तो चाह थी उन्हें। उनके हृदय के भीतर कहीं दबी पड़ी एक चिंगारी भड़क उठी। वह उसके साहचर्य के लिए व्याकुल हो उठे। पर तभी उन्हें अपनी अवस्था का भान हुआ और वह तड़प उठे। काश की वह विवाहित न होते !

क्रमशः