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आधा आदमी - 18

आधा आदमी

अध्‍याय-18

‘‘साफ-साफ क्यों नहीं कहती कि मैं गाँड़ मरवाता हूँ.‘‘

‘‘जब करते हो तभी तो लोग कहते हैं। लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि तुम हिजड़ा हो.’’

‘‘अगर मैं हिजड़ा हूँ तो बच्ची कहाँ से आई?‘‘

‘‘यह तो तुम ही जानते हो यह कहाँ से और कैसे आई, मैं तो उस दिन को कोसती हूँ जिस दिन मैंने तुम्हारे साथ फेरे लिए.‘‘

‘‘तब काहें इहाँ मरत हव चली काहे नाय जात हव.‘‘

‘‘चली तो जाऊँगी ही, यहाँ तुम्हारे साथ घुट-घुट के मरना थोड़े ही हैं.’’

‘‘मादरचोद हमार खात हय अउर हमईन का आँख दिखावत हय.’’ कहकर मैंने दो तमाचे उसके चेहरे पर जड़ दिए।

मैं रोज-रोज की इन बातों से तंग आ गया था। मैं चुपचाप बाहर चला आया था।

मैं जब शाम को इसराइल के साथ घर पहुँचा तो मेरे बूआ-फूफा बैठे थे। पता चला वह मेरी बहन के रिश्ते के लिए आये हैं। मैंने जब माँ-पिताजी और बहन से उस रिश्ते की रजामंदी जाननी चाही तो उनका जवाब ‘हाँ’ था।

मैंने अपने फूफा से शादी के लिए टाइम माँगा तो उन्होने 15 दिन का समय दिया और कहा आप लोग चिंता मत कीजिए बाराती सिर्फ दस रहेंगे।

मैंने और इसराइल ने दिन-रात मेहनत करके शादी का सारा इंतजाम किया। शादी के दो दिन पहिले मेरे फूफा ने दस के बजाय चालीस बाराती बताया। अभी चैबीस घँटा भी नहीं बीता था कि उन्होंने सौ बाराती बताया।

अंततः मुझे कहना ही पड़ा, ’’कभी आप चालीस कहते हैं तो कभी सौ, एक बार सोच कर बताइए न कितने बाराती आयेगें। क्यों आप हमारी गरीबी का मज़ाक उड़ा रहे हैं.’’ मैं आँख में आँसू भर कर चला आया था।

मैंने जैसे-तैसे इधर-उधर से लेकर बहन की शादी निपटा दी थी।

8-12-1981

जिस मकान में हम लोग किराये पर रहते थे। वह मकान पचासों साल पुराना था। मकान मालिक का कहना था, या तो 15 हजार देकर मकान ले लो या तो 15 हजार मुझसे लेकर खाली कर दो।

आख़िरकार मकान खाली ही करना पड़ा। क्योंकि न ही मेरे पिताजी की इतनी हैसियत थी और न ही मेरे चाचाओं की।

15 हजार के पाँच हिस्से लगे। सभी अपना-अपना हिस्सा लेकर चले गए। मैं भी अपने परिवार को लेकर किराये के मकान में चला आया। जिसका किराया पचास रूपया महीना था। जो मेरी औकात से परे था। मगर मरता क्या न करता। उन पैसो से घर चलाता कि किराया देता या जमीन खरीदता? मेरे भाई मुझसे यह कहकर लड़ने लगे, कि मुझे उस पैसे में हिस्सा चाहिए। मगर पिताजी चाहते थे कि उस पैसे से एक छोटा-सा घर बन जाये। जिससे हम भाई लोग इधर-उधर न भटके।

क्योंकि पिताजी को अपनी भाइयों से बिछुड़ने का बहुत मलाल था। वह कहा करते थे, जिस मोती की माला को मेरे माता-पिता ने बड़े प्यार से गुथा था। वह देखो, कैसे टूटकर बिखर गया हैं। पर बेटा! तुम इस माले को कभी टूटने मत देना।

पिताजी की यह बात मेरे दिल-दिमाग को छूँ गई थी। मैंने भी प्रण कर लिया था, कि पिताजी का सपना जरूर पूरा करूँगा चाहे इसके लिए मुझे कुछ भी करना पड़ जाए, मैं करूँगा।

लगभग एक हफ्ते के बाद मैंने नई बस्ती में ढ़ाई बिसवा ज़मीन खरीद ली थी। शाम को जब इसराइल आया तो मैंने उससे चर्चा की, कि हमें जल्दी मकान बनवाना होगा।

‘‘सही कहत हव भइया, पर पइसा भी तो होना चाहिए.‘‘

‘‘यही तो मैं भी सोच रही हूँ, काश! कोई प्रोग्राम बीस-पच्चीस दिन का मिल जाता तो अच्छा-खासा पैसा हो जाता.‘‘

‘‘ठीक हैं मेरे कुछ परिचित के प्रोग्राम वाले हैं उनसे बात करता हूँ.’’

तीन दिन बाद इसराइल पार्टी मालिक को ले आया था। उसने मुझे यकीन दिलाया कि अगर मेरे साथ प्रोग्राम करने चलोगी तो अच्छा-खासा पैसा कमवा दूगाँ।

पार्टी मालिक की बात सुनकर मैं मन ही मन गदगद हो गया था। मगर जब उसने यह कहा कि बैण्ड-बाजा पर डांस करना हैं, तो मैं यह सोचकर चिन्तित हो गया, कि मैंने कभी बैण्ड पर डांस किया हैं नहीं तो कैसे करूँगा? मगर मैंने अपने हालात, परिस्थितियों के आगे समझौता कर लिया था। अब बात आयी पैसो को लेकर, काफी तयतोड़ के बाद बीस रूपये नाईट तय हुआ। पार्टी मालिक बयाना-बट्टा के रूप में 11 रूपया देकर, आजमगढ़ का एड्रेस लिखा कर चला गया था।

जब यह प्रोग्राम वाली बात मेरी पत्नी को पता चली तो वह आग बबूला हो गई, ‘‘जब तुम एक महीने के लिए चले जाओंगे तो हम लोग यहाँ क्या मिट्टी खायेंगे?’’

‘‘कभी ऐसा हुआ हैं कि हम बगैर इंतजाम किए चले गये हो.‘‘

‘‘एक बात बताओं, तुम दिन-रात परिवार के लिए मर रहे हो और तुम्हारें भाई लोग साँड की तरह घूम रहे हैं। अपने भाइयों से नहीं कह सकते कि वे कोई काम धंधा करे.‘‘ शान्ता की एक-एक बात जाया थी।

मगर मैंने फिर भी उसे समझाया, ‘‘तुमसे कितनी बार कहा हैं कि मुझसे बकवास न किया करो। अरे जब मेरे माँ-बाप कुछ नहीं कहते हैं तो मैं कैसे कह दूँ। अभी यही कहेंगे कि भाइयों को एक खुराक खाना क्या देते हैं कि जूता मारते हैं.‘‘

‘‘जब तुम्हें अपने माँ-बाप, भाई-बहन को लेकर ही रहना था तो क्यों मुझसे शादी की? क्यों मेरी ज़िंदगी बर्बाद की। रात-रात भर गायब रहते हो और जब आते भी हो तो अपने दोस्त की गाँड़ में घुसे रहते हो.‘‘

‘‘खबरदार! अगर तुमने एक लफ़्ज़ भी मेरे दोस्त के बारे में बोला तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा.‘‘

‘‘एक नहीं हजार बार यही कहूँगी क्या कर लोगे मेरा......?’’

‘‘शराफत से कह रहा हूँ चुप हो जाओं वरना आज तुम्हारी मौत हैं.‘‘

‘‘तुम मारे के इलावा कर भी क्या सकते हो, न जाने कौन-सा पाप किया रहे जो भगवान तुमरे पल्ले बाँध दीस। न तुमसे शारीरिक सुख हैं और न मानसिक.‘‘

बातों-ही बातों में बात इतनी बढ़ गई कि वह अपने घर जाने को तैयार हो गई।

मैं अगले दिन अपनी बीबी को उसके घर छोड़ आया था।

25-12-1982

मैं इसराइल को लेकर आजमगढ़ के लिए निकल पड़ा था। ट्रेन जब फैजाबाद पहुँची तभी मेरी मुलाकात छबीली राना हिजड़ा से हुई। बातों ही बातों में मैंने उसे सब कुछ बता दिया।

‘‘अगर मेरे साथ चलोगी तो तुम्हें इतना पैसा कमवा दूँगी कि तुम रख नहीं पाओंगी.’’

मैं उसकी लालच भरी बातों में आ गया था। जबकि इसराइल ने मुझे सतर्क किया, कि जिस काम के लिये निकले हो वहीं चलो। मगर मैंने इसराइल की एक न सुनी और छबीली राना के साथ चल पड़ा।

हम-दोनों दूसरे ही दिन उसके घर पहुँच गए। वहाँ का नज़ारा देखकर मेरा माथा ठनका। मैंने छबीली राना से पूछा तो उसने बताया, ‘‘कमरे के अंदर जो बैठे हैं वह हमारे गिरिया के बीबी-बच्चे हैं। वे लोग अंदर रहते हैं और हम आराम से इस मड़हा में रहते हैं.’’

मुझे छबीली राना की यह बात कुछ जंची नहीं थी।

फिर उसने मुझे, मर्दाना कपड़ा उतार कर जनाना कपड़े पहनने को कहा। साथ-साथ यह भी बताया कि अगर यहाँ ऐसे घूमोगी तो हमारी बड़ी बदनामी होगी। और जजमानी में कच्ची हो जायेंगी कि देखो, लौन्डे-भाइयों को ले के बधाई घूमने जाती हैं। इसलिए हमेशा जनानी बनकर रहना.’’

मैंने भी उनकी ’हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाया।

फिर हम-दोनों को लेकर वह ढोलबज्जे के यहाँ आई। और उससे यह कहने लगी, कि इन लोगों को बोरा देकर छत पर सुला देना। मैं सुबह आऊँगी। कहकर छबीली राना चली गई थी।

हम-दोनों बोरा लेकर छत पर आ गये थे। आख़िरकार इसराइल ने कह ही दिया, ‘‘देखा मैंने क्या कहा था आख़िर वही बात आई, न सुबह से हम लोगों को खाना पूछा और न ही पानी, दिन भर भूखा मार डाला.....।‘‘

‘‘कोई बात नहीं, सुबह होने दो तब देखते हैं.‘‘

सुबह उठकर हम-दोनों चाय के होटल में गए और वहीं मैंने छबीली राना के बारे में उस दुकानदार से तफ्तीश की, तो उसने बताया, ’’यह हिजड़ा ठीक नहीं हैं। जो भी हिजड़ा इसके यहाँ आती हैं दूसरे दिन ही भाग जाती हैं। एक हिजड़े को तो इतना परेशान किया कि वह पागल हो गई.”

यह सुनते ही इसराइल की आँखें क्रोध से लाल हो गई थी। इससे पहले उसका गुस्सा ज्वालामुखी की तरह फटता। मैंने उसे समझाया। तब कहीं जाकर वह छबीली राना के यहाँ चलने को तैयार हुआ।

जब मैं छबीली राना के घर पहुँचा तो उसने मुझे ढोलबज्जे के साथ जजमानी में भेज दिया और इसराइल को अपने पास रोक लिया।

जजमानी घूमते-घूमते शाम हो गई थी। थकान के मारे मेरा बुरा हाल था। पूरी देह पसीने से भींग गया था।

जब मैं उसके घर पहुँचा तो छबीली राना अपने चेलों के साथ बैठी थी।

इसराइल मुझे इशारे से बाहर ले आया और समझाने लगा, ‘‘देख लिया हिजड़ो के यहाँ का रवैया। अभी कहता हूँ सुधर जाओं वक्त हैं यहाँ से निकल लो, नहीं तो जैसे अपने चेले का पागल कीस हैं वैसे तुम्हें भी पागल कर देगी.‘‘

”ठीक हैं.”

हम-दोनों मौका देखते ही वहाँ से निकल पड़े और बस में आकर बैठ गए। अभी बस चलने में टाइम था। अचानक मेरी नज़र खिड़की के उस पार गई। मैंने देखा, छबीली राना हाथ में डंडा लिये अपने चेलों के साथ बस की तरफ भागी चली आ रही हैं। डर के मारे हम-दोनों का बुरा हाल था। हम ऊपर वाले को याद किये जा रहे थे। जैसे ही छबीली राना बस पर चढ़ी, हम-दोनों की साँसे जैसे रूक गई हो।