sachcha prem books and stories free download online pdf in Hindi

सच्चा प्रेम

अरे, दादा जी,आप यहां छत पर है और मैं आपको ढूंढ-ढूढकर थक गई, पूर्णिमा बोली__
क्यो,अब तुझे मुझसे क्या काम पड़ा गया, तुझे तो अपने इस बूढ़े दादा के लिए समय ही नहीं है ,मोतीलाल जी बोले__
वो क्या है ना, दादा जी पहले मैं छोटी थी तो आपके पीछे-पीछे लगी रहती थी, मेरे पास आपके लिए time ही time होता था लेकिन अब मैं बड़ी हो गई हूं, college में पढ़ने लगी हूं तो पढ़ाई का ज्यादा बोझ बढ़ गया है और अच्छे marks नहीं आयेंगे तो आपलोग ही मुझे डाटोगे।
अच्छा ये सब ठीक है,बोल क्या काम है?
वो क्या है ना, दादा जी, मेरे college में हिन्दी कहानी प्रतियोगिता है,तो आपकी library से कुछ किताबें चाहिए, हिंदी कहानियों की, ताकि मैं कुछ कहानियां पढ़कर idea लगा लूं कि कहानी कैसे लिखी जाती है, इसलिए आपके पास आई थीं।
अच्छा चल library में, तुझे कुछ किताबें देता हूं।
मोती लाल जी कुछ चुनिंदा लेखकों की किताबें ढूंढ-ढूढकर पूर्णिमा को दे रहे थे, तभी किताबें ढूंढते-ढूढते कुछ गिरा।
पूर्णिमा ने उठाया तो देखा कोई पुरानी सी डायरी है, तभी मोतीलाल जी की नजर पड़ी, और बोले मैं कब से इसे ढूंढ रहा था, यही किताबों के बीच में रख के भूल गया था।
ला , मुझे दे ये तेरे किसी काम की नहीं है, मोतीलाल जी बोले।
क्यो दादाजी , मुझे भी देखना है कि इसमें ऐसा क्या है?जो आप मुझसे छुपा रहे हो।
बस, ऐसे ही कुछ है! मोतीलाल जी बोले
लेकिन क्या? पूर्णिमा ने पूछा
बस, मैंने कभी कुछ लिखा था,जो शायद मेरी जिंदगी और आत्मा का हिस्सा थी,जिसे मैं कभी भूल ही नहीं पाया, उसकी यादों की हवा जब चलती है, तो अब भी मुझे उसकी परछाई उड़ती हुई धूल में दिखाई देती है,वो एक खुशबू है जिसे देख नहीं सकते,बस आत्मा से महसूस कर सकते हैं, शायद उसने ही मुझसे सच्चा प्रेम किया था इसलिए तो मुझे ,खुद को छोडने के लिए कहा,वो कहती थी ,कहां छुपाओगे मुझे, मेरी बदनामी हर जगह मुझे ढूंढ लेगी और मेरी वजह से तुम भी बदनाम हो जाओगे ,उसी ने मुझे जिंदगी में आगे बढ़ना सिखाया, उसने बताया कि प्यार से बढ़कर हमारी अपनों के प्रति जिम्मेदारियां होती है।
क्या ऐसा भी होता है दादा जी कि कोई हमसे इतना प्रेम करता है कि हमें छोड़ भी सकता है, हमारी खुशी के लिए, पूर्णिमा बोली।
हां, बेटा, वो ऐसी ही थी, मोतीलाल जी बोले।
तो दादाजी मुझे भी सुनना है उनके बारे में, शायद यही कहानी मेरे काम आ जाए, पूर्णिमा बोली।
मोतीलाल जी ने सुनाना शुरू किया____
बात उस समय की है,जब अंग्रेजों का ज़माना था ,तब मैं नया-नया हवलदार हुआ था,साथ में कभी-कभार थोड़ी बहुत जासूसी भी कर लेता था, फिर एक दिन उसने मेरी जिंदगी में अपने कदम रखे।
बस, मुझे किसी रोज़ किसी जुएं के अड्डे का पता चला, मैंने थानेदार साहब को बताया, उन्होंने कहा कि मोती तुमने ये खबर पता की है तो तुम ही कुछ हवलदारों को अपने साथ ले जाकर उस जगह छापा मारो।
फिर क्या था, मैं उस जगह कुछ हवलदारों को साथ लेकर छापा मारने गया, एक- दो हवलदार सादी वर्दी में भी थे,उस समय हवलदारों की वर्दी में हाफ पैंट होता था और जूते नहीं मिलते थे, कोल्हापुरी चप्पल होती थी, और बिल्ले में नाम नहीं लिखा होता,बस नम्बर लिखा होता था और मेरा नम्बर पांच सौ पचपन(555) था चूंकि हम रात वाले हवलदार थे तो हमारी ड्यूटी सिर्फ रात में लगती थी इसलिए हमें एक लम्बा सा ओवरकोट भी मिलता था।
और उस रात हम जुएं के अड्डे पहुंचे, पहले सादी वर्दी वाले लोगों ने दरवाजा खटखटाया,उन लोगों ने जैसे ही दरवाजा खोला उन लोगों के भीतर घुसते ही हम भी भीतर घुस गये और डन्डे से,घूसो से हम लोगों से जैसे भी बन पा रहा था उन लोगों को अच्छे से धो रहे थे, तभी किसी ने बत्ती बंद कर दी,बत्ती जली तो वहां डर के मारे एक लड़की कोने में खड़ी थी, मैंने उसके ऊपर अपना ओवरकोट डाल दिया,बत्ती फिर बंद हो गई बत्ती जलते ही उन लोगों को पकड़ लिया गया और मैंने उसे खिड़की से बाहर भागने को कहा और वो निकल गई, मैं और हवलदारों के साथ उन लोगों को पकड़ कर बाहर आया तो थानेदार साहब ने मुझे बहुत शाबासी दी, कहा कि बहुत अच्छे मोती,अगर ऐसे ही ईमानदारी से काम करते रहे तो जल्द ही थानेदार बन जाओगे और ये उंगली में क्या हुआ,जाओ जल्दी से पट्टी बांधो और आगे से सावधानी से, ज्यादा चोट वगैरह ना लगे।
मैंने उन्हें सेल्यूट किया और वो चले गए,सबके जाने के बाद मैं अंधेरी सड़क में जब अकेला खड़ा था तो उसने अपनी धोती की किनारी फाड़ कर , मेरी उंगली में पट्टी बांधी और बोली____
हां, तुम क्यो नही बनोगे, पहले हवलदार, फिर थानेदार, फिर सुप्रीटेंडेंट और ऐसे ही गरीबों की बद्द्दुआ लोगे तो राजा भी होगे ,वो बोली।
मुझे गुस्सा आया, मैं बोला__
कौन गरीब, वैश्या गरीब, भोले-भाले लोगों की जेबें काटने वाली गरीब__
वो बोली यही तो मैं कह रही हूं कि हम भोले-भाले लोगों की जेबें काटते हैं और तुम गले।
मैं बोला,ए तू मुझे क्या समझती है।
वो बोली, पुलिस और क्या?
मैंने कहा, बदमाश,ये उपकार का बदला।
उसने कहा, उपकार, पैसे के लालच में सब उपकार करते हैं,चलो ना मेरे घर,क्या सोचते हो, हवलदार साहब,आप मुझे छोड़ेंगे थोड़े,आज नहीं तो कल कुछ ना कुछ वसूल जरूर करेंगे।
मैंने कहा, कहा,भूला जो तुझे बचाया
उसने कहा,भूले !तो भूल सुधारों ,अब ना भूलना।
मैंने कहा, अच्छा! चल चौकी पर, अभी सूधारता हूं भूल।
वो बोली,हां! चलो,डरती हूं क्या? तुम्हारी चौकी से
मैंने कहा हां,जब टाट की वर्दी पहनकर पत्थर फोड़ेगी,तब पता चलेगा।
उसने कहा, अरे छोड़ो साहब,टाट की वर्दी और पत्थरों से ना डराओ, इससे पहले रास्तों में मैंने फटे कपड़ों से दिन काटे हैं।
मैंने पूछा,क्यो?
वो बोली, मज़े के लिए,जरी की साड़ी से जी भर गया था क्यो?
मैं बोला,पर अब तो मज़े है ना!
वो बोली, बहुत! कोई शराब की कुल्ली हमारे मुंह पर डालता है, कोई अपनी खुशी के लिए हमारे बाल खींचता है, और हम ही-ही करके हंसते हैं,क्यो है ना मज़े, मरने के बाद इससे भी ज़्यादा।।
मैं बोला, तो मर
वो बोली, देखती हूं अगर मौत से ना मरी तो तुम हो ना।
मैंने कहा,चल अभी दिखाता हूं अंधेरी कोठरी।
और कुछ पुलिसवाले मुझे सामने से आते दिखे तो मैंने उसे दूसरी गली में जाने का इशारा किया और वो चली गई।
घर में मेरी मां बस थी, पिता जी बचपन में ही तपेदिक हो जाने से नहीं रहे,मां ने मुझे बडी मुश्किल से पाला था दूसरों के घर में झाड़ू-बरतन करके, और मुझे बहुत चाहती थीं।
फिर एक दिन मैं सब्जी खरीदने हाट (बाजार) गया,मैं बैंगन खरीद रहा था,वो मेरे पास आई और बोली, अरे हवलदार साहब , चलो ना घर।
मैंने कहा किसके?
उसने कहा,मेरे
मैंने कहा, मैं चलूं,तुझ जैसी के घर।
उसने कहा,तुम अपने आप को क्या समझते हो
मैंने कहा,समझता नहीं
वो बोली, तो क्या हम इंसान नहीं,खा नहीं लूंगी तुम्हे,घर ही पहुंचा दूंगी, तुम नन्हे-मुन्ने को।
मुझे हंसी आ गई और मैं उसके घर जाने के लिए तैयार हो गया।
उसका कमरा बहुत ही सुंदर था, उसने चाय बनाई, मैं चाय पीने लगा,वो मेरे पास आई और कुछ रूपये देकर बोली,ये लो,
मैंने कहा, किसलिए
उसने कहा,उस दिन के लिए
मैंने सारे रूपए उसके मुंह पर दे मारे,
वो बोली कम है क्या?
मैंने कहा बस, मुझे इतना ही समझीं
उसने कहा, मुझे लगा हवलदार साहब आप भी, और पुलिस वालों की तरह होंगे,माफ करना।
मैंने पूछा,तू उस रात वहां क्या करने गई थी?
वो बोली, जी बहलाने
मैंने कहा, जी बहलाने
वो बोली हां, हमारे कौन सा परिवार और बाल-बच्चे बैठे हैं, जी बहलाने को,
मैंने कहा, तुम लोगों का भी जी करता है, परिवार के साथ रहने को।
वो बोली,चलो छोड़ो हवलदार साहब,आप नहीं समझोगे, उसकी आंखे छलक आईं।
मैंने पूछा तेरा नाम क्या है?
वो बोली,केशरबाई
फिर मैंने कहा, अच्छा मैं चलता हूं,
घर आया तो मां कुछ पढ़ रही थी, मैंने पूछा कि मां क्या पढ रही हो?
मां बोली सूरदास, उसमें जो चिन्तामणि है वो वैश्या होकर भी कितनी भली है,
मैंने कहा, तुम्हें भी ऐसा लगता है मां
मां बोली,क्या वो इंसान नहीं,क्या उसके पास दिल नहीं।
बहुत दिन हो गए थे, केशर मुझसे नहीं मिली तो रात में ड्यूटी के दौरान मैं उसके घर गया,देखा कि वो अपने ग्राहकों के सामने नाच -गा रही थी, उसने मुझे देखा तो नाच-गाना बंद कर के मेरे पास आई और मुझे चाय दी, मैंने उसे ऐसे नाचते-गाते हुए देखा तो मुझे बहुत गुस्सा आया और चाय उसके मुंह पर फेंककर मैं बाहर आ गया, उसने भी साड़ी से अपना मुंह पोंछा और मेरे पीछे पीछे आ गई और बोली___
मैं तुम्हारी ब्याहता नहीं हूं , जो तुम मेरे साथ ऐसा कर रहो हो
मुझे और भी गुस्सा आया और पुलिस वाले डन्डे से उसके पैरों में एक जड़ दिया और वो रोते हुए चली गई, मुझे खुद पर भी बहुत गुस्सा आया कि मैंने ऐसा क्यो किया और मैंने खुद को भी एक डण्डा अपने उसी जगह मार लिया, जहां उसको मारा था।
और मैं आने लगा तो, पीछे से आवाज आई___
ए रूको, कहां जाते हो,
देखा तो वो अपनी पेंटी(सन्दूक) सर पर उठाए हुए आई बोली,लो छोड़ दिया मैंने सबकुछ,अब करो मदद।
उसे देखकर मुझे हंसी आ गई।
अब क्या देखते हो, बाबू साहब,लो करो मदद, यहां बड़ी बड़ी बातों से काम नहीं चलता, कुछ करके दिखाना पड़ता है।
मैंने कहा, अभी तुम्हे किराये पर कहीं और कमरा दिलवा देता हूं, जल्द ही मां से बात करके तुम्हें बताता हूं,उसे मैंने कमरा दिलवा दिया, उसके बाद उसके पास जाने का समय नहीं मिला तो मुझे वो फिर गलत समझ बैठी, मैं एक हफ्ते बाद उसके पास जा पाया, उसके पास पैसे भी नहीं थे, वो भूखी बैठी थी, उसने मुझे खूब सुनाया।
आपने मुझे फंसाया, और मुंह छुपाके कहीं बैठ गए, उसनेे कहा।
मुझे भी गुस्सा आया और मैं बोला, मुझे मालूम है कि तुम जैसी औरतें क्या चाहती है और मैंने उसके मुंह पर रूपए फेंक दिए।
उसने भी रूपए उठाए और फेंक दिए, और बोली मुझे रूपए नहीं चाहिए, मुझे वहां खूब रूपए मिलते थे, मैंने सोचा था कि तुम मुझे इंसान बनाओगे, मेरी नई जिंदगी शुरू होगी, और वो रोने लगी।
फिर मैंने कहा बोलने से पहले कुछ सोचना था ना कि मैं मुंह छुपाते फिरता हूं, मुझे भी दुनिया दारी देखनी पड़ती है और हां मैं कल अपने गांव जा रहा हूं खेतों में,दो दिन लगेंगे फिर ना कहना कि मैं आया नहीं।
वो बोली, मैं भी चलूंगी, गांव
तुम्हारे संग,खुली हवा में
मैं बोला, नहीं बाबा,वो देहात है, किसी को पता चला तो,मां तक बात पहुंच जाएगी।
दूसरे दिन मैं गांव के लिए निकला, क्योंकि पंद्रह किलोमीटर का रास्ता था गांव तक का और पैदल-पैदल ही जाना पड़ता था,उस समय आज की तरह सुविधाएं नहीं थी,मां ने साथ में खाना बांध दिया था,ढ़ेर सारी बाजरे की रोटी, लहसुन की चटनी,हरी मिर्च और प्याज की कुछ गांठें भी रख दी थी।
एक-आध किलोमीटर जाने पर मुझे लगा कि कोई आ रहा है, देखा तो केशर थी।
मैंने कहा,तू आत्मा की तरह मेरे पीछे क्यो भटक रही है?
उसने कहा,तुम्हे क्या, मैं कहीं भी जाऊं, तुम अपने रास्ते जाओ और मैं अपने रास्ते।
रास्ता इतना सुंदर था, हरा-भरा जंगल, पहाड़ और पंक्षियो का चहचहाना, बहुत अच्छा लग रहा था, लेकिन हम लोगों ने रास्ते भर बातें नहीं की।
चलते-चलते दोपहर हो गई,हम आधा रास्ता पार कर चुके थे, रास्ते में एक झरना दिखा, मैंने बहते पानी में हाथ मुंह धोये,तो उसने भी वही किया, और मैंने एक पेड़ के नीचे बैठ कर खाना खोला और खाने लगा,वो भी मेरे बगल में बैठ गई और बोली कोई खाने को भी नहीं पूछता,कितने जालिम लोग हैं।
मुझे हंसी आ गई, और मैंने उसे खाना दिया,वो खाते ही बोली कि तुम कितने नसीब वाले हो, जो तुम्हें रोज मां के हाथ का खाना खाने को मिलता है और हमने ऐसे ही बातें करते-करते खाना खाया, झरने से पानी पिया और चल पड़े गांव की ओर, गांव आते ही मैंने कहा तू मेरे साथ गांव के अंदर मत आ,लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे, ये ले कुछ खाना और दियासलाई,आग जला कर किसी पेड़ के नीचे सो जाना।
रात हुई तो मुझे भी उसकी चिंता हो रही थी कि कहीं कोई जंगली जानवर ना आ जाए, मैं गांव के बाहर उसके पास गया,देखा तो वो आग जला कर बैठी थी और रो रही थी, मैंने उसे डरा दिया, वो पहले से ही डरी थी और भी डर गई।
मैंने कहा,चल उठ झोपड़ी में चल, लेकिन उजाला होने से पहले उठ जाना,वो अंदर कोठरी में सो गई और मैं बाहर बरामदे में, सुबह-सुबह गांव के लोग मुझे अपने साथ खेत में ले गये तो केशर नहर किनारे दातून तोड़ने गई होंगी तो किसी ने उसे देख लिया, मैं वापस आया और कहा चलो यहां से, और हम वापस आ गए।
लेकिन गांव से काका आए और उन्होंने मां से ये बात बता दी, मां बोली,क्यो मोती सच है क्या? मुझे कब मिलवाएगा उससे, मैंने कहा सच मां,तुम उससे मिलोगी,मां ने कहा,क्यो नही मिलूंगी, जरूर मिलूंगी।
मैं उसके कमरे पहुंचा, उससे कहा तैयार रहना शाम को,मां तुमसे मिलना चाहती है, अच्छा हुआ उन्हें सब पता चल गया, मुझे कुछ बताना नहीं पड़ा।
शाम को मैं उसे मां के पास ले गया,वो बहुत खुश थी,
मां ने उसे देखा और पसंद कर लिया, और हम दोनों से भगवान के सामने माथा टेकने को कहा, लेकिन उसे बहुत संकोच हो रहा था, मां ने उससे ही दीप जलाने को कहा और पोथी बांचने (पढ़ने) को कहा, मां बोली ,अब तुझे ही ये सब करना है,सब देख ले, मेरी बेटी,डर मत ,आज से मैं तेरी भी मां हूं, पूजा होने के बाद एक साड़ी भी दी बोली,पहन के दिखा, मैं भी तो देखूं कैसी लगती है तुझ पर, उसने साड़ी पहन ली।
मां बोली, अच्छी स्त्री से घर चलता,लक्ष्मी का वास होता है,वो बोली, मैं और अच्छी!
मां बोली, हां बेटी
और वो घबराकर आंगन में आ गई।
मैं उसके पीछे गया तो बोली,मैं मां को धोखा नहीं दे पाऊंगी, मैं तो भली बन जाऊंगी, लेकिन मेरे पीछे और लोग बुरे बन जायेंगे,दूध के प्याले में एक बूंद जहर की हो तो, कौन मुंह लगाएगा,सच कितने भोली और पवित्र दिल की तुम्हारी मां है,ऐसी देवी को फंसाना।
मैंने कहा अच्छा,चलो मैं सब कुछ कहता हूं, मां से
वो बोली आप क्यो नही समझते!कि चाहे जूती सोने की ही क्यो ना बनी हो, कोई अपने सर पर कभी नहीं रखता,मैं कौन हूं, ये जब तुम्हारी मां को पता चलेगा,तो वो क्या सोचेंगी तुम्हारे बारे में,उनका मानना है कि मेरा बेटा कितना भोला और शरीफ़ है,वो चाहती है कि तुम किसी शीलवन्ती से शादी करो, दोनों सुख से रहे,कुल का नाम रोशन करे,इसी आशा से तुम्हे कलेजे से लगाकर बड़ा किया है, और तुमने जो पसंद की, वो कैसी औरत है,अगर उसे ये मालूम हुआ तो क्या होगा? उस भोली देवी का,वो जान दे देगी।
मैं बोला, तो फिर तेरा कहना क्या है?
वो बोली, मुझे जाने दो
मैंने कहा, नहीं,तू नहीं जाएगी, मेरी मां बहुत भली हैं,वो तेरी सारी बातों को पेट में छुपा कर रखेगी,कभी बुरा नहीं मानेगी, मैं जानता हूं कि मेरी मां कैसी है।
वो बोली, कितना बड़ा दिल है,तुम्हारा,मैं तुम्हारे घर की दासी भी बनने लायक नहीं हूं,तुम कोई शीलवन्ती लड़की देखो,सुख से रहो और मां को भी सुख से रखो।
मैंने कहा, हां बहुत सुख से रहूंगा,क्यो तुम मुझे मिली,क्यो आई मेरे साथ,क्यो मेरी राह देखती थी,क्यो मेरे लिए तरसती थी, किसने कहा था, मुझसे इतनी आश लगाने के लिए,उस समय तुम्हें धरम की बातें नहीं सूझी, तुमने ही कहा था ना कि सबकुछ मां से कहो।
वो बोली,उस समय मैं सिर्फ अपने बारे में सोच रही थी, अपने ही सुख का ध्यान था, मुझे अपनी ही चिंता थी, मुझसे गलती हुई, क्षमा करो,अब मैं जाती हूं।
मां ने हमें आवाज दी, हमने खाना खाया ,मैं रात में चौकी चला गया और वो मां के साथ घर पर थी,मां ने उसे रात में घर पे रूकने को कहा , मां के सोने के बाद वो रात में ना जाने कहां चली गई।
फिर एक रोज मुझे ख़बर मिली कि रात में एक औरत ने किसी आदमी का खून कर दिया, मैं उस जगह गया तो वो औरत केशर थी, मैंने उसे गिरफ्तार किया,हथकड़ी लगाई।
रात में उससे मिलने मैं थाने पहुंचा, और भागने के लिए जेल का दरवाजा खोल दिया लेकिन वो नहीं भागी।
अदालत में उसने अपना जुर्म कबूल कर लिया और उसे सजा हो गई, मैंने अकेले में पूछा भी कि सच बता दो, मैं थानेदार से कहके तुम्हे छुडवा दूंगा, उसने बोला, नहीं।
और जेल में उसे तपैदिक हो गया, आखिरी बार मैं उससे मिला, उसने कहा कि अगर वो उस आदमी का खून नहीं करती तो वो तुम्हें मारने वाला था,वो वहीं था जिसे तुमने जुएं के अड्डे से पकड़ा था और मेरे जाने के बाद शादी कर लेना, जिंदगी में आगे बढ़ना सीखो, अब तुम्हें मां की खुशी का ख्याल रखना है, और वो मुझे छोड़ कर चली गई।
मोतीलाल और पूर्णिमा की आंखों में आंसू थे।

सरोज वर्मा___