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मृगतृष्णा--भाग(१)

घना वन, पुष्पों और लताओं से सुशोभित बड़े-बडे, हरे-भरे और सुंदर वृक्ष, प्राय: वन्य जीव ऐसे ही निर्भीकता से स्वच्छंद विचरण करते हुए दिखाई दे जाएंगे,ये स्थान है अरण्य वन___
यहां अरण्य ऋषि वास करते हैं, ऋषि के नाम पर ही इस स्थान का नाम अरण्य वन है,इस स्थान पर उनका गुरू कुल है, जहां पर अरण्य ऋषि राजकुमार और साधारण बालकों को भी अपने ज्ञान से अवगत कराते हैं, साथ-साथ युद्ध कलाओं में भी निपुण बनाते हैं।
इस गुरु कुल में अनेकों ऋषि वास करते हैं,साथ में ऋषि माताये भी है, बहुत से बालक और बालिकाएं भी यहां रहते हैं, गुरु माताएं भी बालिकाओं को अनेक कलाओं में निपुण बनाती है, स्त्री धर्म क्या है,इसका अर्थ समझाती है, विवाह पश्चात एक स्त्री के समक्ष कैसी-कैसी समस्याये आती है ?और उसका समाधान कैसे करना है?परिवार और पत्नी धर्म क्या होता है? इत्यादि के विषय में बतातीं हैं।।
इसी गुरुकुल में एक नवयौवना भी निवास करती हैं, जिसका नाम शाकंभरी है, उसकी सुंदरता ने अनेकों हृदय विचलित कर रखे हैं,जो एक बार उसकी मोहनी सूरत देख लेता है, हृदय ही हार बैठता,उसकी सुंदरता चलते हुए पथिक को भी मार्ग भुला दे,उसकी सुंदरता को देखकर अप्सराएं भी ईर्ष्या करने लगे, ऐसी सुंदरता कि चन्द्रमा भी लजा जाए, शाकंभरी के केश तो जैसे काली घटा,कजरारी आंखें, गुलाबी होंठ,गोराबदन,पतली कमर, बिना साज-श्रृगांर के ही वो इतनी सुन्दर दिखती, उसकी सरलता में ही उसकी सुंदरता दिखाई देती थी।
संन्ध्या होने को है,गुरु माता को स्वच्छ जल की आवश्यकता हुई__
गुरुमाता ने शाकंभरी को पुकारा____
शाकंभरी.....ओ शाकंभरी....एक क्षण के लिए यहां तो आना पुत्री!!
क्या आज्ञा है? गुरु मां, आपने मुझे पुकारा, शाकंभरी ने गुरु मां के समीप आकर पूछा!!
हां, पुत्री संध्या होने वाली है, मेरे लिए झरने से कलश मे थोड़ा शुद्ध जल तो ले आ।।
जैसी आपकी आज्ञा, गुरु मां, शीघ्र ही लाई, शाकंभरी ने उत्तर दिया।।
पुत्री, विलम्ब मत करना,संध्या होने वाली है,पता चला तू कहीं मृग और मयूर से खेलने लग जाए।।
जी, मां शीघ्र आऊंगी,आपको प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी।।
और शाकंभरी कलश लेकर जल भरने चली गई।।
झरने पर गई उसने जल भरा और वापस लौट ही रही थी कि किसी के कराहने का स्वर सुनाई दिया ,वो वहीं ठहर कर स्वर की दिशा को जानने का प्रयास करने लगी,दिशा का आभास होते ही वो उस ओर बढ़ने लगी,देखा तो एक नवयुवक अचेतावस्था में भूमि पर गिरा हुआ है और उसके पृष्ठ भाग पर एक बाण लगा हुआ है।।
शाकंभरी, भागकर उस युवक की ओर आई,कलश नीचे रखा और उस युवक की नब्ज देखी जो कि अभी चल रही थी उसने बड़े साहस के साथ उसके शरीर से बाण को निकाला और कुछ पत्तियों को अपने हाथों से मसलकर उसके घाव पर रख दिया, जिससे रक्त का बहाव रूक गया, कुछ समय पश्चात् उसने उस युवक को पलटाया उसे पुकारा लेकिन वो नहीं उठा, शाकंभरी ने कलश से जल लेकर उसके मुख पर छिड़काव किया,उस युवक ने आंखें खोली।।
शाकंभरी ने कहा, तुम बस कुछ ही क्षण मेरी प्रतीक्षा करना, मैं ये सूचना गुरुकुल में देकर आती हूं,हो सकता है मैं तुम्हारे प्राण बचाने में सफल हो जाऊं,बस कुछ ही क्षण.... मैं बस शीघ्र ही आई।।
शाकंभरी भागकर आश्रम पहुंची और उसने सूचना दी कि कोई मूर्छित अवस्था में वन में पड़ा है अभी भी उसके प्राण बच सकते हैं।
सूचना मिलने पर कुछ व्यक्ति उस स्थान पर पहुंचे और उस युवक को आश्रम में ले आए।।
अब आश्रम में उस युवक का उपचार प्रारम्भ हुआ, रात्रि ब्यतीत हो गई परन्तु उस युवक ने आंखें नहीं खोली, प्रात: होते-होते उस युवक ने अपनी आंखें खोली।।
शाकंभरी और अन्य व्यक्ति भी वहां उपस्थित थे,युवक ने पूछा___मैं कहां हूं?
तभी वरिष्ठ गुरु मां आकर बोली, पुत्र ,कल संध्या समय तुम शाकंभरी को अचेत अवस्था में वन में मिले थे,तब उस ने आकर हमें तुम्हारे विषय में सूचना दी और तुम्हें वन से उठाकर आश्रम लाया गया, कहां से आए और कौन हो तुम, कृपया अपना परिचय दो।।
मेरा नाम विभूति नाथ है, मुझे अरण्य वन की दिशा में प्रस्थान करना था, तभी अचानक कोई बहेलिया आखेट के लिए आया होगा उसे मेरे चलने की आहट सुनाई दी,तो उसने सोचा कोई वन्य जीव है, बाण मारा होगा, मेरी चीख सुनकर उसे लगा कि ये तो कोई मनुष्य है तो डर के कारण मुझे उसी मूर्छित अवस्था में छोड़कर भाग गया, मैने बहुत दूर तक तो चलने का प्रयास किया परन्तु रक्त का बहाव अधिक होने के कारण मूर्छित हो गया।
गुरु मां बोली, पुत्र अभी तुम विश्राम करो, अभी तुम्हें उपचार की अत्यधिक आवश्यकता है और चिंता ना करें ये अरण्य वन ही है और आप अरण्य ऋषि की शरण में है।
विभूति ने पूछा, माता वो कौन है जिन्होंने मेरे प्राणों की रक्षा की कृपया बताएं, मुझे उन्हें धन्यवाद प्रकट करना है।।
तभी गुरू मां ने शाकंभरी को विभूति के समीप बुलाया और विभूति से बोली,ये है वो जिसके कारण तुम्हारे प्राण बचे हैं,
विभूति ने शाकंभरी को देखा तो देखता ही रह गया,ऐसी सरलतम सुंदरता उसने अपने जीवन में प्रथम बार देखी थी, ऐसा रूप-लावण्य देखकर एक क्षण को तो विभूति अपनी पलकें झपकाना ही भूल गया।।
विभूति ने कहा, धन्यवाद देवी!! आपने मेरे प्राणों की रक्षा की।।
शाकंभरी बोली,ये तो मेरा कर्तव्य था।।
गुरु मां बोली, शाकंभरी!! उपचार तो मैं ही करूंगी परंतु मेरी सहायिका तुम ही रहोगी।।
शाकंभरी बोली,जैसा आप कहें मां।।
दिन-रात्रि की सेवा और उपचार के बाद विभूति ठीक होने लगा, परंतु जब भी वो शाकंभरी के समक्ष होता तो उसका मन व्याकुल हो उठता, उसके हृदय में शाकंभरी ने अपना स्थान बना लिया था,वो जब भी निद्रामग्न होता तो स्वप्न में उसे शाकंभरी ही दिखती, शाकंभरी की कोमल काया और पवित्र हृदय ने विभूति का मन जीत लिया था,अब वो अपने जीवन का हर क्षण शाकंभरी के साथ ब्यतीत करना चाहता था, उसे कहना चाहता था कि मैं तुमसे प्रेम करने लगा हूं।
विभूति के की आंखों की भाषा कुछ कुछ तो शाकंभरी भी समझने लगी थी,वो भी विभूति की प्रेम भरी दृष्टि से अछूती नहीं थी उसे भी विभूति को इस अवस्था में देखकर अत्यंत आनंद आ रहा था।
कुछ दिनों पश्चात् विभूति पूर्णतः स्वस्थ हो गया,अब उसका उपचार भी समाप्त हो गया, गुरु मां ने भी कह दिया कि पुत्र अब तुम पूर्णतः स्वस्थ हो तुम्हें अब किसी भी उपचार की आवश्यकता नहीं है।
विभूति ने कहा, मां !!मैं यहां कुछ ज्ञान अर्जित करने आया था, आपकी आज्ञा हो तो मुझे कृपया अब गुरुदेव के दर्शन कराए,मैं उनके चरणों में अपना शीश नवाकर कुछ ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं जिससे भविष्य में मेरा जीवन सफल हो सके।।
गुरु मां बोली,जैसा तुम उचित समझो पुत्र!!
गुरु मां ने विभूति को गुरु देव के दर्शन कराए,अब विभूति प्रतिदिन गुरूदेव से शिक्षा ग्रहण करने लगा,वेद, पुराणों के विषय में उसने बहुत सा ज्ञान प्राप्त कर लिया परंतु संतुष्टि नहीं मिली।।
उसका विचलित हृदय तो किसी और ही दिशा में जा रहा था,जीवन में ऐसा अनुभव उसे कभी ना हुआ था कि सब कुछ था उसके पास लेकिन कुछ भी नहीं।।

क्रमशः___
सरोज वर्मा___